नदी पर नहर

Submitted by Hindi on Fri, 02/25/2011 - 16:53
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गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा
श्रावण पूर्णिमा के मानी हैं जनेऊ का दिन; और यदि ब्राह्मण्य को भूल जायं तो राखी का दिन। उस दिन हम रूड़की पहुंचे। मजाकिये वेणीप्रसाद ने देखते-ही-देखते मुझसे दोस्ती कर ली और कहा, ‘अजी काका जी, आज तो आपके हाथ से ही जनेऊ लेंगे। यहां के ब्राह्मण वेदमंत्र बराबर बोलते ही नहीं। आप महाराष्ट्री हैं। आप ही हमें जनेऊ दीजियेगा।’ वेणीप्रसाद के मामा परम भक्त थे। उनसे जनेऊ के बारे में चर्चा चली। उत्तर भारत के ब्राह्मण चाहते हैं कि वे ही नहीं बल्कि तीनों द्विज वर्ण नियमित रूप से जनेऊ पहनें और संध्यादि नित्यकर्म करें। मगर यहां के लोगों की बड़ी अनास्था है। इससे ठीक विपरीत, दक्षिण में जब ब्रह्मणेतर जनेऊ मांगते है, तब महाराष्ट्र के ब्राह्मण ‘कलौ आद्यन्तयों: स्थितिः के वचन के अनुसार ऐसी बेहूदी जिद लेकर बैठते हैं, मानों बीच के दो वर्ण हैं ही नहीं। (सौभाग्य से आज वह स्थिति नहीं रही।) जिन्हें जनेऊ पहनने का अधिकार है, वे उसे पहनने के बारे में उदासीन रहते हैं, और जो हाथापाई करके भी जनेऊ पहनने का अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिए अपना द्विजत्व सिद्ध करने में कठिनाई पैदा की जाती है! यह चर्चा सुनकर वेणीप्रसाद को लगा कि आज हमें जनेऊ मिलने वाला नहीं है।’ उसने दलील पेश कीः उसने दलील पेश कीः ‘कलियुग में क्या नहीं हो सकता? नदी पर यदि नदी सवार हो सकती है, तो महाराष्ट्र के ब्राह्मण भी हमें जनेऊ दे सकते हैं।’ दलील मंजूर हुई। किन्तु विषय बदला और कलियुग के भगीरथों के बहादुरी के उदाहरण-स्वरूप गंगा की नहर के बारे में बाते चलीं।

दोपहर के समय हम लोग मानव का यह प्रताप देखने निकले। गंगा की नहर शहर के समीप से जाती है। लड़के उसमें मछलियों की तरह एक खेल खेल रहे थे। नहर के किनारे-किनारे हम उस प्रख्यात पुल तक गये। वह दृश्य सचमुच भव्य था। पुल के नीचे से गरीब ब्राह्मणी के समान सोलाना नदी बह रही थी और ऊपर से गंगा की नहर अपना चौड़ा पाट जरा भी संकुचित किये बिना पुल पर से दौड़ती जा रही थी। पुल के ऊपर पानी का बोझ इतना ज्यादा था कि मालूम होता था, अभी दोनों ओर की दीवारें टूट जायेंगी और दोनों ओर से हाथी की झूल के समान बड़े प्रपात गिरना शुरू होंगे। पुल की दिवार पर खड़े रहकर के बहाव की ओर देखते रहने से दिमाग पर उसका असर होता था। दुःखी मनुष्य को जिस प्रकार उद्वेग के नये-नये उभार आते हैं, उसी प्रकार नहर के जल मे भी उभार आते थे। किन्तु ससुराल आयी हुई बहू जिस प्रकार अपनी सब भावनाएं नए घर में दबा देती है, उसी प्रकार गंगा नदी की यह परतंत्र पुत्री अपने सब उभारों को दबा देती थी। उसका विस्तार देखकर प्रथम दर्शन में तो मालूम होता था मानो यह कोई धनमत्त सेठानी है। किन्तु नजदीक जाकर देखने पर श्रीमंती के नीचे परतंत्रता का दुःख ही उसके वदन पर दीख पड़ता था।

ऊपर से नीचे देखने पर निम्नगा सोलाना का क्षीण किन्तु स्वतंत्र बहाव दोनों ओर से आकर्षक मालूम होता था। चुभता केवल इतना ही था कि नहर की दोनों ओर की दीवारों में परिवाह के तौर पर कई सूराख रखे गये थे, जिनमें से नहर का थोड़ा पानी इस तरह सोलाना में गिर रहा था मानों उस पर अहसान कर रहा हो।

हम पुल से नीचे उतरे और सोलाना के किनारे जा बैठे। ऊंचे से दिये जाने वाले उपकार को अस्वीकार करने जितनी मानिनी सोलाना नहीं थी। मगर कोई कृपा अवतरित होगी, ऐसी लोभी दृष्टि रखने जितनी हीन भी वह न थी। हीनता उसमें जरा भी नहीं थी और मानिनी कि वृत्ति उसको शोभती भी नहीं। उसकी निर्व्याज स्वाभाविकता प्रयत्न से विकसित उदात्त चारित्र्य से भी अधिक शोभा देती थी।

भगीरथ-विद्या में (इरिगेशन-इंजीनियरिंग में) पानी के प्रवाह को ले जाने वाले छः प्रकार बताये गये हैं। उनमें एक प्रवाह के ऊपर से दूसरे प्रवाह को ले जाने की योजना को अद्भुत और अत्यन्त कठिन प्रकार माना गया है। इस प्रकार के रेल के या मोटर के मार्ग हमने कई देखें हैं। मगर, जहां तक मैं जानता हूं, हिन्दुस्तान में इस प्रकार के जल-प्रवाह का यह एक ही नमूना है। संस्कृति के प्रवाह की दृष्टि से यदि सोचें, तो सारा भारतवर्ष ऐसे ही प्रकार से भरा हुआ है। यहां हर एक जाति की अपनी अलग संस्कृति है, और कई बार आमने सामने मिलने पर भी वे एक-दूसरी से काफी हद तक अस्पृष्ट रह सकी हैं!

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