नेपाल में प्रस्तावित बराहक्षेत्र बांध

Submitted by Hindi on Thu, 09/13/2012 - 11:01
Author
डॉ. दिनेश कुमार मिश्र
Source
डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
जब तक हमारा नेपाल से कोई समझौता नहीं हो जाता तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। नेपाल में क्षेत्र अनुसंधान और विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बनाने के प्रस्ताव का क्रियान्वयन करने के लिए एक संयुक्त परियोजना कार्यालय को मंजूरी दी जा चुकी है। भारत के 42 तथा नेपाल के 100 अधिकारी मिल कर अनुसंधान और अध्ययन का काम करेंगे। इस परियोजना में अनुमानतः 269 मीटर ऊँचा बांध बनाया जायेगा जिसकी विद्युत उत्पादन क्षमता 3300 मेगावाट होगी। जैसा कि हम ने अध्याय 2 में देखा है, केन्द्र और बिहार राज्य की सरकारें कोसी नदी पर बराहक्षेत्र में प्रस्तावित बांध को ही कोसी क्षेत्र की बाढ़ समस्या का एकमात्र समाधान मानती हैं। इस तरह के प्रस्तावित सारे बांधों के निर्माण के लिए उपयुक्त स्थल भारत में न हो कर नेपाल में अवस्थित हैं जिसकी वजह से जब तक नेपाल सरकार की रजामन्दी न हो तब तक भारत अकेले कोई भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है। इन बांधों के निर्माण में पड़ने वाले व्यवधानों के बारे में हम ने पहले भी कुछ-कुछ चर्चा की है। निर्मली में 6 अप्रैल 1947 वाले अपने भाषण में सी. एच. भाभा ने नेपाल में कोसी पर प्रस्तावित बराहक्षेत्र बांध की पुरजोर वकालत की थी। उस समय किन्तु न तो बड़े बांधों से होने वाले नुकसान के बारे में कोई खास जानकारी उपलब्ध थी और न ही पिछली शताब्दी के 80 और 90 के दशक में होने वाले पर्यावरण आन्दोलनों की कोई भनक ही थी। बांध से प्रभावित होने वाले लोगों के विस्थापन और पुनर्वास समस्या पर उठते हुये विरोध के स्वर भी उस समय तक सुनने में नहीं आये थे। बांधों के निर्माण के लिए आवश्यक धन-राशि भी, ऐसा लगता था, तब आसानी से उपलब्ध हो जाती क्योंकि भारत की आजादी की सुबह करीब थी और देश को एक नवोदित राष्ट्र के रूप में मान्यता मिलने वाली थी। उस समय सबसे अच्छी बात यह थी कि भारत और नेपाल दोनों ही देशों ने बांध के निर्माण में अपनी दिलचस्पी दिखाई थी। क्योंकि यह मसला अंतर्राष्ट्रीय था अतः इसमें केन्द्र सरकार की भूमिका अहम हो जाती थी। राज्य सरकार भले ही इस बांध परियोजना की लाभार्थी थी मगर निर्णय की प्रक्रिया में उसकी भूमिका महज तबलची की थी। असली गाना-बजाना तो केन्द्र सरकार को ही करना था।

भारत में पानी राज्य का विषय है और यह राज्य का ही कर्तव्य बनता है कि वह किसी भी विपत्ति के समय प्रजा के लिए राहत मुहैया करके उसके योग-क्षेम का वहन करे। इसका मतलब यह होता है कि जब तक बराहक्षेत्र या उस जैसे अन्य बांध नहीं बन जाते और राज्य की बाढ़ समस्या का समाधान नहीं हो जाता, तब तक प्रान्तीय सरकार को अपने स्तर पर संरचनात्मक या अन्य माध्यमों से प्रजा की बाढ़ के थपेड़ों से रक्षा करनी पडे़गी। केन्द्र सरकार इस प्रयास में राज्य सरकार की कुछ मदद करती है ताकि वह ऐसी संरचनाओं का निर्माण कर सके और राहत कार्य के खर्चे उठा सके। इस तरह से राज्य और केन्द्र सरकार की भूमिकायें बड़ी साफ हैं।

केन्द्र सरकार द्वारा जब से 1945 में कोसी पर प्रस्तावित तटबन्धों को बराहक्षेत्र बांध के हक में नकारा गया तभी से बराहक्षेत्र बांध का भूत योजनाकारों, इंजीनियरों और राजनीतिज्ञों का पीछा कर रहा है। निर्मली सम्मेलन (1947) में जो प्रस्ताव किया गया था उसी कड़ी में राम बिलास पासवान के बिहार की बाढ़ संबंधी एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के जवाब में तत्कालीन केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री अर्जुन चरण सेठी ने 23 अगस्त 2003 को लोकसभा को बताया कि, “...जहाँ तक बिहार का संबंध है, हम लगातार नेपाल सरकार से संपर्क बनाये हुये हैं क्योंकि यह सारी नदियाँ नेपाल से निकलती हैं। जब तक हमारा नेपाल से कोई समझौता नहीं हो जाता तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। नेपाल में क्षेत्र अनुसंधान और विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बनाने के प्रस्ताव का क्रियान्वयन करने के लिए एक संयुक्त परियोजना कार्यालय को मंजूरी दी जा चुकी है। भारत के 42 तथा नेपाल के 100 अधिकारी मिल कर अनुसंधान और अध्ययन का काम करेंगे। इस परियोजना में अनुमानतः 269 मीटर ऊँचा बांध बनाया जायेगा जिसकी विद्युत उत्पादन क्षमता 3300 मेगावाट होगी। इसके अलावा नेपाल तथा भारत दोनों को सिंचाई का भी लाभ मिलेगा। कोसी बहूद्देशीय योजना के अलावा इस प्रस्ताव में सुन-कोसी डाइवर्शन परियोजना भी शामिल है।’’ कुछ इसी तरह की बात तत्कालीन केन्द्रीय जल-संसाधन मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने 5 जून 2004 को किशनगंज में कही। इसी तरह के बयान 2005 में पिफर प्रियरंजन दासमुंशी और जय प्रकाश नारायण यादव (केन्द्रीय जल संसाधन राज्य मंत्री) जनता के बीच दे चुके हैं। यानी जहाँ तक बराहक्षेत्र बांध का सवाल है, लगभग 60 वर्ष के अन्तराल के बाद भी नेता लोग एक ही बयान पर कायम हैं कि वह नेपाल से वार्ता कर रहे हैं।

इसके पहले बिहार के जल-संसाधन मंत्री जगदानन्द ने भी 22 जुलाई 2002 को बिहार विधान सभा में कहा था कि, “...महोदय, अंतिम बात - ‘नो डिस्चार्ज कन्ट्रोल, नो फ्रलड कंट्रोल’। डिस्चार्ज कंट्रोल जब तक नहीं होगा, यह दुनिया के वैज्ञानिकों ने माना है कि बाढ़ से बचाव हो ही नहीं सकता। ... अन-कन्ट्रोल्ड डिस्चार्ज कमजोर तटबन्धों से नहीं रुक सकता है, बाढ़ हम लोगों के लिए बिल्कुल प्राकृतिक आपदा बनी रहेगी। फ्लड कन्ट्रोल यदि हम राज्य में चाहते हैं तो डिस्चार्ज कंट्रोल जो ऊपरी राज्य में है, जो सहयोगी और बगल के देश हैं, उनसे हम लोगों ने बात करने के लिए सर्वसम्मति से पैफसला लिया है, हम लोग मिल जुल कर इसमें आगे बढ़ें।’’

भाभा के निर्मली भाषण (1947) के बाद से केन्द्र और राज्य के मंत्री इस तरह का भाषण लगातार दिया करते हैं मगर 59 साल बीतने के बाद भी उनके भाषण का मूल पाठ वही रहता है कि नेपाल से बातचीत चल रही है। यह बड़ी अजीब बात है कि अगर बराहक्षेत्र बांध ही कोसी नदी घाटी की सारी समस्याओं का समाधान है और इससे दोनों देशों को फायदा है तो भारत क्यों नहीं नेपाल को इन फायदों से अब तक अवगत करा पाया और क्यों नेपाल इतने लम्बे समय से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है?