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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
केन्द्रीय परिवहन मंत्रालय इस स्थल के पास वैसे भी कोसी पर एक पुल बनाने की सोच रहा था और बराज का प्रस्ताव होने पर यह काम एक साथ सम्पन्न किया जा सकता था जिससे खर्च में भी कुछ कमी होती। इस बराज के ऊपर से रेल लाइन ले जाने का भी प्रस्ताव था। इस तरह से यदि सिंचाई, सड़क परिवहन तथा रेलवे, इन तीनों को इस बराज से सुविधायें मिलतीं तो यह तीनों विभाग इस बराज के लागत खर्च में हिस्सा बटाते और संसाधन जुटाने में सहूलियत होती।
राजनीति से हट कर जो दूसरी बन्दिश थी वह यह कि सरकार के पास नहर निर्माण के लिए पैसे भी नहीं थे। हरिनाथ मिश्र ने राज्य सरकार पर आरोप लगाया कि वह इस योजना में शायद इसलिए रुचि नहीं ले रही है कि उसके पास इस काम के लिए पैसा ही नहीं है। “...क्या यह सच नहीं है कि पैसे का प्रभाव भी इसका एक कारण है। यह सच है कि सरकार अगर मुस्तैद रहती तो भी 50 लाख रुपयों के आवंटन से वह कुछ नहीं कर पाती क्योंकि इस काम को करने के लिए 22 करोड़ रुपये चाहिये। यह काम आप 50 लाख में कैसे कर लेंगे?”इन सब बहस-मुबाहसों के बीच दरभंगा, मधुबनी आदि स्थानों में पश्चिमी कोसी नहर की मांग को लेकर जलूस, प्रदर्शन और धरना आदि का कार्यक्रम चलता रहा। 1 मई 1969 को इसी मांग को लेकर दरभंगा बन्द का आयोजन किया गया था। बात यहाँ तक बढ़ी की कांग्रेस पार्टी के लोकसभा सांसद यमुना प्रसाद मंडल ने पश्चिमी कोसी नहर के लिए आन्दोलन शुरू करने के लिए जुलाई 1968 में अपनी ही पार्टी से इजाजत मांगी थी।
डगमारा बराज मंजूर
इस सारी उठा पटक के बीच 28 मई 1970 को लहटन चौधरी ने बिहार विधान सभा में डगमारा बराज का काम हाथ में लेने की घोषणा की। इस समय तक भारत सरकार का नेपाल से किसी भी तरह के सहयोग का मोह भंग हो चुका था। पश्चिमी कोसी नहर का हवाला देते हुये उन्होंने कहा कि, ‘‘नेपाल सरकार ने जो भी सुविधा चाही है उसे दिया गया है। उसने जो जो मांग रखी है उसे स्वीकार किया गया है। इसके लिए उससे 1963 से लेकर आज तक वार्ता चल रही है लेकिन अन्त नहीं हो पाया है। हम नहीं जानते हैं कि नेपाल के साथ क्या कठिनाई है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि आज हमें रास्ता नहीं मिल रहा है कि इस काम को चालू करें। इसलिए हमारी सरकार ने निश्चय किया है कि केवल उसी के भरोसे हम बैठे नहीं रहें।”
यह प्रस्तावित डगमारा बराज भीमनगर बराज की सक्षम अवधि समाप्त होने पर उसके अभाव की पूर्ति करती तथा इसके बन जाने से उत्तर प्रदेश का असम से सीधा सम्पर्क हो जाता और उत्तर बिहार के परिवहन को भी इसका अति विशेष योगदान पहुँचता। इस प्रकल्प की लागत बाइस करोड़ रुपये आँकी गई थी। डगमारा से निकलने वाली पश्चिमी कोसी नहर योजना में किसी तरह से नेपाल पर आश्रित नहीं रहना पड़ता। डगमारा से निकाली जाने वाली यह नहर 112 कि.मी लम्बी होती तथा भीमनगर से नीचे होने के कारण लगभग 40,000 हेक्टेयर का कमाण्ड क्षेत्र इस नहर से कम सिंचित होता जिसके लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ती। इसके लिए नल-कूपों का प्रावधान सोचा गया और ऐसा अनुमान था कि लगभग 6.5 करोड़ रुपयों की लागत से एक अच्छी नल-कूप व्यवस्था का प्रबन्ध कर लिया जायगा। डगमारा बराज से निकाली गई नहर से 40,000 हेक्टेयर क्षेत्र तो कम सिंचित होता पर इसके अन्य कई लाभ थे।
बराज के कारण प्रवाह के वेग में कमी होने की वजह से डलवा और कुनौली के बीच में तटबन्धों के कटाव को कम किया जा सकता था और तटबन्धों के रख-रखाव पर होने वाले वार्षिक खर्च को भी कम किया जा सकता था। साथ ही इस निर्माण से संचार व्यवस्था का निश्चित रूप से सुधार होना था। केन्द्रीय परिवहन मंत्रालय इस स्थल के पास वैसे भी कोसी पर एक पुल बनाने की सोच रहा था और बराज का प्रस्ताव होने पर यह काम एक साथ सम्पन्न किया जा सकता था जिससे खर्च में भी कुछ कमी होती। इस बराज के ऊपर से रेल लाइन ले जाने का भी प्रस्ताव था। इस तरह से यदि सिंचाई, सड़क परिवहन तथा रेलवे, इन तीनों को इस बराज से सुविधायें मिलतीं तो यह तीनों विभाग इस बराज के लागत खर्च में हिस्सा बटाते और संसाधन जुटाने में सहूलियत होती।