निदान

Submitted by Hindi on Fri, 08/19/2011 - 09:32
निदान आदिकाल से मनुष्य शारीरिक और मानसिक व्याधियों से ग्रस्त होता रहा है। कष्ट से छुटकारा पाने के उपाय को चिकित्सा कहते हैं। जिन लोगों ने इस विद्या का विशेष अनुभव और अध्ययन किया है, उनकी एक अलग श्रेणी बन गई है। आरंभ में रोग का कारण दैवी प्रकोप, प्रेतबाधा या कुदृष्टि समझा जाता था और इलाज था जाद, टोना, जंतर मंतर आदि। बाद में आयुर्वेद का उद्भव हुआ और त्रिदोष सिद्धांत के आधार पर निदान होने लगा। यही सिद्धात पश्चिम में जाकर चतुर्दोष सिद्धांत बन गया। जब आधुनिक विज्ञान का उदय होने लगा तब अनेक नए सिद्धांत सामने आने लगे : यक्षदूषित वातावरण, अशुद्धियाँ, विष, विषाणु आदि, परंतु ये सब अर्धसत्य थे। विज्ञान के सर्वांगीण विकास के फलस्वरूप आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की सभी शाखाओं का विकास हुआ और तर्क तथा तथ्यसंमत निदान का युग आरंभ हुआ।

यह सही है कि अनेक रोग स्वयमेव अच्छे हो जाते हैं और प्रकृति की निवारक शक्ति को किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं होती, परंतु अनेक रोग ऐसे भी होते हैं जिनमें प्रकृति असमर्थ हो जाती है और तब चिकित्सा द्वारा सहायता की आवश्यकता होती है। सही और सटीक चिकित्सा के लिए आवश्यक है कि निदान सही हो। सही निदान का अर्थ यह है कि कष्टदायक लक्षणों का आधारभूत कारण और उसके द्वारा उत्पन्न विकृति का सही रूप समझा जाए।

भारत में अनेक चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं, अतएव निदान के बारे में काफी भ्रम व्याप्त है। एक बात समझ लेने पर यह भ्रम दूर हो जाएगा। ये सभी पद्धतियाँ भिन्न सिद्धांतों पर आधारित हैं, इसलिए उनकी तुलना नहीं करनी चाहिए।

यहाँ केवल आधुनिक विज्ञानसंमत निदान की संक्षेप में चर्चा की जा रही है। इस शोध के चार चरण होते हैं : (1) समस्या, (2) तथ्यसंग्रह : क. प्रश्नोत्तर, ख. शरीरपरीक्षा, तथा ग. विशेष परीक्षा, (3) विचार विमर्श तथा (4) निर्णय। अब इनकी अलग अलग चर्चा करेंगे :

1. समस्या रोगी चिकित्सक के पास क्यों आया है, यह जानने के लिए अपना प्रश्न होता है  क्या तकलीफ है? रोगी यदि होश में है तो कष्टदायक लक्षणों की चर्चा करता है, यदि बेहोश है तो साथ आए लोग बताते हैं। ये लक्षण कब से हैं और कैसे आरंभ हुए, यह पूछा जाता है। इस प्रकार चिकित्सक समस्या का रूप समझता है कि इस रोगी को क्या हुआ है, यथा तीन दिन से सर में भीषण दर्द है और इसके पूर्व कोई तकलीफ नहीं थी। कभी कभी शिकायतों की संख्या अनेक होती है और इनसे संगठित समस्या का निरूपण करना पड़ता है।

2. तथ्यसंग्रह- (क) प्रश्नोत्तर : रोगी से पूछताछ का महत्व बहुत पुराने जमाने से ज्ञात रहा है। आयुर्वेद में इसका विस्तृत उल्लेख है। ईसा से सौ वर्ष पूर्व ट्रोजैन के राज्यकाल में एफेसस के रूफस ने 'रोगी से पूछताछ' नामक एक ग्रंथ लिखा था। आधुनिक चिकित्सा के जन्मदाता हिपॉक्रेटीज़ ने रोगियों की जो कथाएँ लिखी हैं, उन्हें पढ़कर आज भी निदान किया जा सकता है। आयुर्वेद में तो रोगी ही नहीं, उसका हाल लानेवाले दूत की भी परीक्षा का उल्लेख है। प्रश्नोत्तरी के तीन भाग होते हैं : (1) पारिवारिक, (2) व्यक्तिगत और (3) वर्तमान कष्ट की कथा :

(1) पारिवारिक- इसके अंतर्गत वंशानुक्रम का प्रभाव, परिवार के लोगों की शरीरसंपत्ति कैसी है। कोई परिवार दुबले पतले लोगों का तो कोई मोंटों का, कहीं लंबे तगड़े तो कहीं नाटे, कौन से रोग होते हैं (तपेदिक, मधुमेह, कैंसर, मानसिक रोग आदि), परिवार का रूप-कौन कौन सदस्य हैं माता पिता हैं या नहीं? नहीं हैं तो कब और किस रोग के कारण निधन हुआ? रोगी विवाहत है तो पत्नी, बच्चों का स्वास्थ्य, भाई बहन का स्वास्थ्य, परिवार में रोगी का स्थान परिवार की आर्थिक स्थिति और आदतें आदि। घर और वातावरण कैसा है?

व्यक्तिगत- रोगी का पेशा और आदतें (कुछ रोग व्यवसाय संबंधी होते हैं, जैसे छापाखाने में काम करनेवालों में लेड पॉइज़निंग; कुछ काम श्रमसाध्य होते हैं तो कहीं दिन भर बैठे रहना पड़ता है; आदतों में नशा (जैसे शराब, भाँग, अफीम आदि का सेवन) बहुधा रोग का कारण होता है; जनम से अब तक का हाल (बचपन में कौन सी बीमारियाँ हुईं, पैदायशी दोष तो नहीं है? शारीरिक विकास का क्रम क्या रहा?); पहले हुई बीमारियाँ और उनके इलाज की चर्चा; औरतों में माहवारी, गर्भावस्था, गर्भपात आदि की जानकारी; रोगी का दैनिक कार्यकलाप और रुचि (क्या खाते हैं? कब सोते हैं? खेलकूद में भाग लेते हैं या नहीं?)।

वर्तमान कष्ट- अंत में वर्तमान शिकायतों के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की जाती है। कौन कौन से लक्षण हैं? एक स्थान पर हैं या व्यापक? दर्द है तो कहाँ है, कैसा है : मीठा है या तीव्र, एक स्थान पर है या प्रसारित होता है, लगातार हो रहा है या दौरे होते हैं? कष्ट का आरंभ कैसे और कब हुआ? जिस अंगविशेष से पीड़ा है, उसके बारे में विस्तार से जानकारी, जैसे पेट में दर्द है तो कब से है, कभी कभी होता है तो क्या भोजन से संबंधित है, क्या रात में जगा देता है, भोजन के कितनी देर बाद होता है, कोई विशेष चीज खाने पर होता है, किस चीज से आराम मिलता है, दर्द फैलता तो नहीं, कितनी देर रहता है, कै तो नहीं होती? आदि।

इसी के साथ सामान्य जानकारी भी प्राप्त कर लेते हैं, जैसे भूख, प्यास, निद्रा, पाखाना, ताप खाँसी आदि। सच पूछिए तो इस पूछताछ से ही आधा निदान हो जाता है। यह विशिष्ट कला है।

(ख) शरीरपरीक्षा  परीक्षा का आरंभ सामान्य निरीक्षण से होता है : रोगी होश में है और उसके ज्ञान का स्तर, शयनमुद्रा, चलने का ढंग, स्वास्थ्य का सामान्य स्तर और पोषण की स्थिति, चेहरे का भाव और वर्ण (पीलापन, कँवला, नीलता, या शोथ), हाथ का आकार गिल्टियों की सूजन, श्वास की गति और प्रकार, ताप, नाड़ीपरीक्षा।

इसके बाद विभिन्न अवयवों की क्रमसे परीक्षा करते हैं। परीक्षा के चार अंग होते हैं : (1) निरीक्षण (2) स्पर्श परीक्षा (3) थाप परीक्षा तथा (4) परिश्रवण परीक्षा।

निरीक्षण- गृद्धदृष्टि चिकित्सक दूर की कौड़ी लाता है, द्वार पर पड़े छिलके देखकर रोगी ने क्या खाया है बता देता है। कहते हैं, नेपोलियन प्रथम का चिकित्स कौर्विसार्टनैल चित्र देखकर निदान कर देता था। सर आर्थर कॉनन डाँयल के लोकप्रिय चरित शरलक होल्म्स, की निरीक्षण शक्ति कमाल की थी। सच तो यह है कि ध्यान से देखें तो अनेक रोग केवल देखकर पहचाने जा सकते हैं।

स्पर्शपरीक्षा- निरीक्षण से ज्ञात तथ्यों को स्पर्श द्वारा पुष्ट करते हैं। इसमें दर्द, स्पर्शवेदना, शोथ, अस्थिभंग आदि का ज्ञान होता है।

थाप परीक्षा- परीक्षा का यह तरीका 1761 ई. में लियोपोल्ड ओवेनब्रगर में ढूँढ निकाला था। जब वह छोटा था तभी घड़े को ठोककर बता देता था कि इसमें कितना पानी है। इसमें उदर या वक्ष का जलीय शोथ, ठोसपन, तथा फेफड़े के रोगों के बारे में तथ्य प्राप्त होते हैं।

परिश्रवण परीक्षा- हृदय और श्वास की ध्वनियों को सुनने के लिए डाक्टरों का स्टेथॉस्कोप सुप्रसिद्ध यंत्र है। इसका आविष्कार रीने थियोफील हाइसिंथेलेनेक ने कया। सन्‌ 1819 में लेनेक ने इसकी चर्चा अपने एक शोधलेख में की। पहले यह एक चोंगानुमा यंत्र था, पर अब विद्युत्‌ उपकरणों ने इतने उन्नत यंत्र बनाए हैं कि आप दूर बैठे धड़कन की ध्वनि सुन सकते हैं, या टेलिफोन अथवा रेडियो पर प्रसारित कर सकते हैं।

इन विधियों से अवयवों की परीक्षा आरंभ होती है। क्रम से पाचन प्रणाली (मुख, जीभ, गला, आमाशय, यकृत, आँत, तिल्ली और मलाशय), हृदय तथा रक्तसंचार प्रणाली, श्वासप्रणाली, मूत्रप्रणाली के गुर्दे और मूत्राशय, त्वचा, तंत्रिकातंत्र (बुद्धि, ज्ञान, मांसपेशियों की कुशलता, ज्ञानेंद्रियों की कुशलता, प्रतिक्षेप क्रिया), हड्डियों और जोड़ों की परीक्षा की जाती है।

(ग) विशेष परीक्षा- चिकित्सा विज्ञान में प्रयुक्त अनेक यंत्र अब सर्वपरिचित हो चुके हैं। सन्‌ 1625 में सैनक्टोरियम ने प्रथम बार थर्मामीटर का उपयोग किया था। भारमापक तराजू, नाड़ीधारिका (1707 ई. में सर जॉन फ्लेयर ने), तापक्रम आलेखन (1852 में लुडविग ट्राबे ने), रक्तचाप मापक (1896 ई. में सीपियोन रिवा रोकी ने), इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (हृदय के विद्युतपरिवर्तन का आलेखन 1887 ई. में ऐंडी. वैलर ने आरंभ किया, 1903 ई में एमथोवेन ने उन्नत किया), इलेक्ट्रो एनसेफैलोग्राफ (1929 ई. में हैंसबर्गर द्वारा आविष्कृत यंत्र मस्तिष्क के विद्युत्‌ परिवर्तनों का आलेखन करता है), एक्सरे (1895 ई. में लिहेल्म कॉनरैड रंटजेन ने), फ्लूअरॉस्कोपी (एक्स किरण छाया का विशेष पट पर दर्शन), बेरियम मील (जिससे एक्स किरण द्वारा आमाशय और आंत देख सकते हैं), कंट्रास्ट मीडियम (एक्सकिरण में पित्ताशय और गुर्दों का दर्शन), वेंट्रिक्युलोग्राफी (मस्तिष्क के वेंट्रिकल में हवा भरकर उनका एक्सकिरण से दर्शन, ऐंजियोग्राफी (रक्तनलिकाओं का दर्शन) आदि विधियों का उपयोग होता है। शरीर के अंदर देखने के लिए भी अनेक यंत्र उपलब्ध हैं, यथा (1) आफथैल्मॉस्कोप (नेत्रपटल दर्शक), (2) क्रांकॉस्कोप (श्वासनलिका दर्शक), (3) लैरिंगॉस्कोप (कंठ और स्वरयत्र दार्शक), (4) ऑरोस्कोप (कर्णदर्शक), (5) गैस्ट्रॉस्कोप (आमाशय दर्शक), (6) सिस्टॉस्कोप (मूत्राशयदर्शक) (7) प्राक्टॉस्कोप (मलाशयदर्शक) आदि।

प्रयोगशाला परीक्षण- शरीर के द्रव्यों का परीक्षण भी काम की अनेक जानकारियाँ देता है। रक्त, मल, मूत्र, कफ आदि का परीक्षण किया जाता है। रक्तपरीक्षा : इससे शरीर में उपसर्ग की उपस्थित, ल्यूकीमिया, परजीवी (यथा मलेरिया, फाइलेरिया आदि), रक्त जमने के दोष, रक्तनिर्माण की दशा, रक्तवर्ण, रक्त में वर्तमान रासायनिक पदार्थों (चीनी, यूरिया, क्लोराइड आदि) की मात्र, रक्त में प्रोटीन, पित्त की मात्रा, लिवर की सक्रियता, उपदंश, टाइफायड आदि उपसर्गों के प्रतिद्रवों की उपस्थिति ज्ञात होती है। मूत्र में भौतिक, रासायिनक तथा सूक्ष्मदर्शक परीक्षा द्वारा मधुमेह, उपसर्ग, पथरी आदि की जानकारी, मलपरीक्षा द्वारा उपसर्गों तथा परजीवी कृमियों की उपस्थिति एवं पाचनयंत्र की कुशलता का ज्ञान होता है। कफ में तपेदिक के जीवाणु देखे जाते हैं।

शरीर के कार्यों की सक्रियता की परीक्षाएँ भी की जाती हैं, यथा बी. एम. आर. (विश्राम की अवस्था में शक्तिक्षय की माप), व्यायाम परीक्षा, गुर्दों के लिए 'डाई टेस्ट', यूरिया क्लियरेंस टेस्ट, शर्करा के उपयोग की हालत के लिए 'ग्लूकोज टॉलरेंस' टेस्ट आदि।

त्वचा की प्रतिक्रिया रोगों का संकेत करती है। मांटू, फानपिरकेट (तपेदिक), शिक्स (रोहिणी रोग), एलजेन (अतिचेतना) आदि इस प्रकार की अनेक परीक्षाएँ हैं। त्वचा परीक्षण से फफूँद और कुष्ठ रोग का पता चलता है।

जीवाणु संवर्धन परीक्षा से उपसर्ग का रूप और साथ ही सक्रिय औषधि का भी पता चल जाता है। तंतुपरीक्षा में तंतु का सूक्ष्म टुकड़ा काटकर सूक्ष्मदर्शक यंत्र से परीक्षा करते हैं।

रेडियोसक्रिय परीक्षा आधुनिकतम विधि हैं, जिसने चिकित्सक के लिए शरीर के सूक्ष्म कार्यकलाप समझने के साधन प्रस्तुत किए हैं। शरीर में रेडियोसक्रिय पदार्थ प्रविष्ट कराकर, उसकी गतिविधि का निरीक्षण करते हैं। इस विधि से थाइरॉयड ग्रंथि की सक्रियता, शरीर में रक्त की मात्रा आदि का पता लगाते हैं।

विचार विमर्श तथ्यों और समस्या को सामने रखकर, चिकित्सक शास्त्रीय ज्ञान और अनुभव के प्रकाश में उनका विश्लेषण करता है, संभावित विकल्पों पर गौर करता है तथा एक जैसे रोगों में भेद करता है। बहुधा वह अन्य चिकित्सक से, अथवा विशेषज्ञ से, परामर्श भी करता है।

निर्णय  तर्क, विचार, अनुभव और विभेदक निदान के ज्ञान द्वारा चिकित्सक अंतिम निर्णय पर पहुँचता है। यही है रोग का नदान और सफल चिकित्सक की प्रथम सीढ़ी। (भानश्कुांर मेहता)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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