नील नदी

Submitted by Hindi on Fri, 08/19/2011 - 09:59
नील नदी को मिस्र वासी 'ऐल बैहर' (समुद्री नदी) कहते हैं। अनेक अर्थों में यह नदी विशिष्ट है। कोगरा (430 मील) को मिलाकर यह विश्व की सबसे लंबी नदी (4,160 मील) है। यह सबसे अधिक प्रकार के भूमि प्रदेशों से होकर गुजरती है। इतने जलप्रपात किसी एक नदी पर नहीं हैं। यह संसार की प्राचीनतम सभ्यता की जन्मदायिनी है और नदीमापन का प्राचीनतम उदाहरण प्रस्तुत करती है।

इसकी द्रोणी (basin) 12,93,000 वर्ग मील में फैली है। इसकी ढाल उद्गम से मुहाने तक औसतन 5  प्रति मील नीची हो जाती है और गत 45 शताब्दियों में केवल 24 फुट नीचे की भूमि काट सकी है। 4,000 फुट से अधिक ऊँचे विषुवत्‌ रेखीय पठार से कागेरा नदी का जल लेकर वह विक्टोरिया झील में आती है, वहाँ से रिपन (ओकेन) प्रपात को लांघकर क्योगा झील में प्रवेश करती है। यहाँ से विक्टोरिया नील नाम धारण कर निकलती और मरचिसन प्रपात को पारकर अलवर्ट झील में पहुँचता है जिसके उत्तरी सिरे से अलवर्ट नील बनकर निकलती है और आगे निमूले गार्ज से गुजरती हुई दलदली द्रोणी में उतरकर बैहर ऐल जैबैल अथवा श्वेत नील बन जाती है। यहाँ की भूमि चारों ओर से नीची होने के कारण बरसात और उसके बाद जलप्लावित हो जाती है और सालों दलदली बनी रहती है। इस पूरे क्षेत्र में सरकंडा, हाथीघास तथा अन्य तैरती जलीय वनस्पति (सुद्द) भरी रहती है, जिससे नदी का पूरा 475 मील लंबा मार्ग 'न्याम-न्याम' लंगरों से साफ रखना पड़ता है, इसके कारण इस मार्ग में प्रति वर्ष आठ लाख घन फुट जल बेकार हो जाता है।

यहाँ से निकलकर यह नौ झील में आती है, जहाँ दक्षिण-पश्चिम से विषुवतरेखीय ढालों का जल लेकर बैहर ऐल गाजैल से मिलती है। यह सम्मिलित नदी पूर्व की ओर मुड़ती है, तब ईथिओपियाई पठार से आती सोबेत नदी से मेल होता है। यहाँ से यह सीधा उत्तरी मार्ग पकड़ती है और खारतूम के आगे ईथिओपियाई पठार की टाना नदी से आती ब्लू नील का जल प्राप्त करती है, जो इसकी बाढ़ का मुख्य कारण है। इसके आगे यह अपने छठवें प्रपात से उतरती है, दक्षिण-पूर्व से आखिरी शाखा आतबारा को साथ लेती हुई अंगरेजी अक्षर एस (S) के आकार का मोड़ लेकर चार अन्य प्रपातों को लांघती हुई मिस्र में प्रवेश करे ऐस्वॉन के निकट प्रथम प्रपात से उतर जाती है। काहिरा के आगे बढ़ने पर यह विरल भूमि (4,000 वर्ग मील) का निर्माण करती है। इससे होकर प्रवाहित होनेवाले मुहानों की संख्या दो से छह के बीच बदलती रही है, जिनमें मुख्य दो हैं : पश्चिम में रोज़ेटा और इसके 85 मील पूर्व में डैमिएट्टा।

विक्टोरिया झील की सतह पर जितनी वर्षा होती है, वाष्पीकरण के कारण उसका चतुर्थांश ही नील को प्राप्त होता है। फिर भी विक्टोरिया से भोंजाला तक की 300 मील की दूरी में नदी का 80 प्रति शत जल विक्टोरिया और अलबर्ट का ही रहता है। फिर जितना जल भोंजाला के पास रहता है, बीच के सुद्द के कारण सोबैत संगम तक उसका आधा ही पहुँचता है। सोबैत द्वारा ईथिओपिया की मानसूनी वर्षा की बाढ़ श्वेत नील तक नवंबर दिसंबर में पहुँचती है और इसकी ऊपरी धारा को रोक देती है। यह भी 'सुद्द' के निर्माण का एक कारण है।

नील की बाढ़ का मुख्य कारण है ब्लू नील, जिसका जल बाढ़ के दिनों में दसगुना बढ़ जाता है। जून, जुलाई में इसके जल की सतह 20 फुट ऊँची हो जाती है और श्वेतनील की ऊपरी धारा को प्राय: रोक देती हैं। सितंबर में बाढ़ का चरमोत्कर्ष होता है और नवंबर दिसंबर में अंत। आतबारा मौसमी नदी है, जो शुष्क काल में गड्ढों की शृंखला सी रह जाती है।

आतबारा के बाद इसमें कोईशाखा नहीं मिलती और इसके जल की मात्रा सिंचाई तथा वाष्पीकरण के कारण क्रमश: कम होती जाती है और अंत में ऐसा समय आ सकता है कि इसका जल भूमध्यसागर पहुँच भी न पाए। इस क्षेत्र में बाढ़ जुलाई में आरंभ होकर, सितंबर में चरमोत्कर्ष पर पहुँचती और जनवरी में समाप्त होती है।

मार्ग में अनेक आकार प्रकार के प्रपातों के कारण नील नौगम्यता की दृष्टि से विश्व की अन्य बड़ी नदियों की तुलना में बहुत पिछड़ी हुई है।

नील नदी से सिंचाई का काम सन्‌ 20,000 ई. पू. के पहले से ही लिया जा रहा है। सिंचाई की प्राचीनतम विधि भारतीय लाठा-कुंडी के सदृश 'शदूफ' है। दूसरी 'द्रोणी' विधि है जिसमें बाढ़ के समय नदी के पानी को इसके ऊँचे बाँध से बाहर लाकर चकलों में ले जाते हैं, डेढ़ दो महीने तक जमा करने के बाद जब बाढ़ घटती है तब इसे नदी में निकाल देते हैं। इस प्रकार यह नदी (डेल्टा को लगाकर) प्रति वर्ष पाँच करोड़ टन मिट्टी मुख्यत: ब्लू नील द्वारा ईथिओपियाई ज्वालामुखी पठार से लाती है, जो हार्नब्लैंड, अभ्रक, फेल्सपार, चूना और लोहा जैसे खनिजों के मिश्रण के कारण अत्यंत उर्वरा होती है। गत 7,000 वर्षों में नील ने पूरे यूरोप की ऊपरी मिट्टी (9  गहरी) का 300 गुना ला बिछाया है।

स्थायी सिंचाई की योजना 19वीं शती में मोहम्मद अली पाशा ने आरंभ की। इन्होंने नहर में जल लेने के लिए डेल्टा की जड़ में बाँध बनवाया, फिर असिउत बाँध बनवाकर इब्राहिमिया नहर से मध्य मिस्र और फचूम मरूद्यान को सींचा गया, फिर क्रमश: एसना (डेल्टा की शाखा डैमियेटा पर), जेफ्ता और नग हमादी बाँध बने। फरवरी, मार्च तथा बाढ़ के आरंभ में जुलाई, अगस्त, में नील के पानी को समुद्र तक न जाने देकर सिंचाई के लिए रोक लिया जाता है। सबसे बड़ा ऐस्वॉन बाँध है, जो 1902 ई. में तैयार हुआ और 1912 ई. तथा 1933 ई. में बढ़ाया गया, जो अपने पीछे 200 मील तक नील की दरी को एक विशाल जलाशय बना देता है। इससे पीछे एक नया बाँध और पनबिजली केंद्र बनाने की योजना है, जिसके लिए वैदेशिक आर्थिक सहायता के प्रश्न को लेकर विश्वराजनीतिक क्षेत्र में हलचल पैदा हो गई थी। 1954 ई. में जिंजा (युगैंडा) में ओवेन प्रपात बाँध बना, जिससे बिजली पैदा होगी और विक्टोरिया झील के जल की सतह चार फुट ऊँची होकर नील में जलस्राव को नियमित करेगी।(राजेंद्रप्रसाद सिंह)

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संदर्भ
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