पादप और पादपविज्ञान

Submitted by Hindi on Mon, 08/22/2011 - 09:08
पादप और पादपविज्ञान (Plant and Plant Science) जीव जंतुओं या किसी भी जीवित वस्तु के अध्ययन को जीवविज्ञान या बायोलोजी (Biology) कहते हैं। इस विज्ञान की दो मुख्य शाखाएँ हैं : (1) प्राणिविज्ञान (Zoology), जिसमें जंतुओं का अध्ययन होता है और (2) वनस्पतिविज्ञान (Botany) या पादपविज्ञान (Plant Science), जिसमें पादपों का अध्ययन होता है।

सामान्य अर्थ में जीवधारियों को दो प्रमुख वर्गों प्राणियों और पादपों  में विभक्त किया गया है। दोनों में अनेक समानताएँ हैं। दोनों की शरीररचनाएँ कोशिकाओं और ऊतकों से बनी हैं। दोनों के जीवनकार्य में बड़ी समानता है। उनके जनन में भी सादृश्य है। उनकी श्वसनक्रिया भी प्राय: एक सी है। पादप में जीवन के अन्य लक्षण, जैसे नए जीवद्रव के बनाने, नई कोशिकाओं को निरंतर बनाने और पुरानी को नष्ट होने देने की क्षमता, होते हैं। पादपों में अन्य जीवलक्षण, जैसे वर्धन, जनन इत्यादि की क्षमता, भी पाए जाते हैं।

पादप प्राणी जीवधारियों से कई तरह से भिन्न होते हैं। जैसे पादपों में पर्णहरित (chlorophyll) नामक हरा पदार्थ रहता है, जो प्राणी जीवधारियों में नहीं होता। पादपों की कोशिकाओं की दीवारें सेलुलोज (cellulose) की बनी होती हैं, जैसा प्राणी जीवधारियों में नहीं होता। अधिकांश पादपों में गमनशीलता नहीं होती, जो प्राणी जीवधारियों का एक विशिष्ट लक्षण है।

पादपविज्ञान के समुचित अध्ययन के लिये इसे अनेक शाखाओं में विभक्त किया गया है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं :

1. आकारिकी (Morphology)  इसके अंतर्गत पादप में आकार, बनावट इत्यादि का अध्ययन होता है। आकारिकी आंतर हो सकती है या बाह्य।

2. कोशिकानुवंशिकी (Cytogenetics)  इसके अंतर्गत कोशिका के अंदर की सभी चीजों का, कोशिका तथा केंद्रक (nucleus) के विभाजन की विधियों का तथा पौधे किस प्रकार अपने जैसे गुणोंवाली नई पीढ़ियों को जन्म देते हैं इत्यादि का, अध्ययन होता है।

3. परिस्थितिकी (Ecology)  इसके अंतर्गत पादपों और उनके वातावरण के आपसी संबंध का अध्ययन होता है। इसमें पौधों के सामाजिक जीवन, भौगोलिक विस्तार तथा अन्य मिलती जुलती चीजों का भी अध्ययन किया जाता है।

4. शरीर-क्रिया-विज्ञान (Physiology)  इसके अंतर्गत जीवनक्रियाओं (life processes) का बृहत्‌ रूप से अध्ययन होता है।

5. भ्रूणविज्ञान (Embryology)  इसके अंतर्गत लैंगिक जनन की विधि में जब से युग्मक बनते हैं और गर्भाधान के पश्चात्‌ भ्रूण का पूरा विस्तार होता है तब तक की दशाओं का अध्ययन किया जाता है।

6. विकास (Evolution)  इसके अंतर्गत पृथ्वी पर नाना प्रकार के प्राणी या पादप किस तरह और कब पहले पहल पैदा हुए होंगे और किन अन्य जीवों से उनकी उत्पत्ति का संबंध है, इसका अध्ययन होता है।

7. आर्थिक पादपविज्ञान  इसके अंतर्गत पौधों की उपयोगिता के संबंध में अध्ययन होता है।

8. पादपाश्मविज्ञान (Palaeobotany)  इसके अंतर्गत हम उन पौधों का अध्ययन करते हैं जो इस पृथ्वी पर हजारों, लाखों या करोड़ों वर्ष पूर्व उगते थे पर अब नहीं उगते। उनके अवशेष ही अब चट्टानों या पृथ्वी स्तरों में दबे यत्र तत्र पाए जाते हैं।

9. वर्गीकरण या क्रमबद्ध पादपविज्ञान (Taxonomy or Systematic botany)  इसके अंतर्गत पौधों के वर्गीकरण का अध्ययन करते हैं। पादप संघ, वर्ग, गण, कुल इत्यादि में विभाजित किए जाते हैं।

18वीं या 19वीं शताब्दी से ही अंग्रेज या अन्य यूरोपियन वनस्पतिज्ञ भारत में आने लगे और यहाँ के पौधों का वर्णन किया और उनके नमूने अपने देश ले गए। डाक्टर जे. डी. हूकर ने लगभग 1860 ई. में भारत के बहुत से पौधों का वर्णन अपने आठ भागों में लिखी 'फ्लोरा ऑव ब्रिटिश इंडिया' नामक पुस्तक में किया है।

पादप वर्गीकरण  डार्विन (Darwin) के विचारों के प्रकाश में आने के पश्चात्‌ यह वर्गीकरण पौधों की उत्पत्ति तथा आपसी संबंधों पर आधारित होने लगा। ऐसे वर्गीकरण को प्राकृतिक पद्धति (Natural System) कहते हैं और जो वर्गीकरण इस दृष्टिकोण को नहीं ध्यान में रखते उसे कृत्रिम पद्धति (Artificial System) कहते हैं।

साधारणतया वनस्पतिजगत्‌ को क्रिप्टोगैम (Cryptogam) और फेनेरोगैम (Phanerogam) में बाँटा जाता है। क्रिप्टोगैम के तीन अंतर्विभाग हैं : (क) थैलोफाइटा, (Thallophyta), (ख) ब्रायोफाइटा (Bryophyta) और (ग) टेरिडोफाइटा (Pteridophyta)। (क) थैलोफाइटा के तीन मुख्य अंतर्वर्ग हैं : (1) शैवाल या ऐलजी (Algae), (2) कवक या फंजाइ (Fungi) और (3) लाइकेन (Lichen)। (ख) ब्रायोफाइटा के भी तीन मुख्य अंतर्वर्ग हैं : (1) हिपैटिसी (Hepaticae), (2) ऐंथोसिरोटी (Anthocerotae) और (3) मससाइ (Musci)। (ग) टेरिडोफाइटा के भी तीन बड़े अंतर्विभाग हैं : (1) लाइकोपोडिएलीज़ (Lycopodiales), (2) इक्विसिटेलीज़ (Equisetales) और (3) फिलिकेलीज़ (Filicales)। फेनरोगैम में दो बड़े वर्ग हैं : (1), जिम्नोस्पर्म (Gymnosperm) और (2) ऐंजियोस्पर्म (Angiosperm)।

(क) थैलोफाइटा  इसके अंतर्वर्ग का विवरण निम्नलिखित है :

1. शैवाल या ऐलजी के अंतर्गत लगभग 30,000 जातियाँ (species) हैं और इन्हें आठ मुख्य उपवर्गों में बाँटते हैं। उपवर्ग के स्थान में अब वैज्ञानिक इन्हें और ऊँचा स्थान देते हैं। शैवाल के उपवर्ग हैं : सायनोफाइटा (Cyanophyta), क्लोरोफाइटा (Chlorophyta), यूग्लीनोफाइटा (Euglenophyta), कैरोफाइटा (Charophyta), फियोफाइटा (Phaeophyta), रोडोफाइटा (Rhodophyta), क्राइसोफाइटा (Chrysophyta) और पाइरोफाइटा (Pyrrophyta)।

उत्पत्ति के विचार से शैवाल बहुत ही निम्न कोटि के पादप हैं, जिनमें जड़, तना तथा पत्ती का निर्माण नहीं होता। इनमें क्लोरोफिल के रहने के कारण ये अपना आहार स्वयं बनाते हैं। शैवाल पृथ्वी के हर भूभाग मे पाए जाते हैं। नदी, तालाब, झील तथा समुद्र के मुख्य पादप भी शैवाल के अंतर्गत ही आते हैं। इनके रंग भी कई प्रकार के हरे, नीले हरे, लाल, कत्थई, नारंगी इत्यादि होते हैं। इनक रूपरेखा सरल पर कई प्रकार की होती है, कुछ एककोशिका सदृश, सूक्ष्म अथवा बहुकोशिका का निवह (colony) या तंतुमय (filamentous) फोते से लेकर बहुत बड़े समुद्री पाम (sea palm) के आकार के होते हैं। शैवाल में जनन की गति बहुत तेज होती है और वर्षा ऋतु में थोड़े ही समय में सब तालाब इनकी अधिक संख्या से हरे रंग के हो जाते हैं। कुछ शैवाल जलीय जंतुओं के ऊपर या घोंघों के कवचों पर उग आते हैं।

शैवाल में जनन कई रीतियों से होता है। अलैंगिक रीतियों में मुख्यत: या तो कोशिकाओं के टूटने से दो या तीन या अधिक नए पौधे बनते हैं, या कोशिका के जीवद्रव्य इकट्ठा होकर विभाजित होते हैं और चलबीजाणु (zoospores) बनाते हैं। यह कोशिका के बाहर निकलकर जल में तैरते हैं और समय पाकर नए पौधों को जन्म देते हैं। लैंगिक जनन भी अनेक प्रकार से होता है, जिसमें नर और मादा युग्मक (gametes) बनते हैं। इसके आपस में मिल जाने से युग्मनज (zygote) बनता है, जो समय पाकर कोशिकाविभाजन द्वारा नए पौधे उत्पन्न करता है। युग्मक अगर एक ही आकार और नाप के होते हैं, तो इसे समयुग्मन (Isogamy) कहते हैं। अगर आकार एक जैसा पर नाप अलग हो तो असमयुग्मन (Anisogamy) कहते हैं। अगर युग्मक बनने के अंग अलग अलग प्रकार के हों और युग्मक भी भिन्न हों, तो इन्हें विषम युग्मकता (Oogamy) कहते हैं। शैवाल के कुछ प्रमुख उपवर्ग इस प्रकार हैं :

सायनोफाइटा (Cyonophyta)  ये नीले हरे अत्यंत निम्न कोटि के शैवाल होते हैं। इनकी लगभग 1,500 जातियाँ हैं, जो बहुत दूर दूर तक फैली हुई हैं। इनमें जनन हेतु एक प्रकार के बीजाणु (spore) बनते हैं। आजकल सायनोफाइटा या मिक्सोफाइटा में दो मुख्य गण (order) हैं : (1) कोकोगोनिऐलीज़ (Coccogoniales) और हॉर्मोगोनिएलीज़ (Hormogoniales)। प्रमुख पौधों के नाम इस प्रकार हैं, क्रूकॉकस (Chroococcus), ग्लीओकैप्सा (Gleoocapsa), ऑसीलैटोरिया (Oscillatoria), लिंगबिया (Lyngbya), साइटोनिमा (Scytonema), नॉस्टोक (Nostoc), ऐनाबीना (Anabaena) इत्यादि।

क्लोरोफाइटा (Chlorophyta) या हरे शैवाल  इसकी लगभग 7,000 जातियाँ हर प्रकार के माध्यम में उगती हैं। ये तंतुवत संघजीवी (colonial), हेट्रॉट्रिकस (heterotrichous) या फिर एककोशिक रचनावाले (uniceleular) हो सकते हैं। जनन की सभी मुख्य रीतियाँ लैंगिक जनन, समयुग्मन इत्यादि तथा युग्माणु (zygospore), चलबीजाणु (Zoospore) पाए जाते हैं।

यूग्लीनोफाइटा (Euglenophyta)  इसमें छोटे तैरनेवाले यूग्लीना (Euglena) इत्यादि को रखा जाता है, जो अपने शरीर के अग्र भाग में स्थित दो पतले कशाभिकाओं (flagella) की सहायता से जल में इधर उधर तैरते रहते हैं। इन्हें कुछ वैज्ञानिक जंतु मानते हैं पर ये वास्तव में पादप हैं, क्योंकि इनके शरीर में पर्णहरित होता है।

कैरोफाइटा (Charophyta)  इसके अंतर्गत केरा (Chara) और नाइटेला (Nitella) जैसे पौधे हैं, जो काफी बड़े और शाखाओं से भरपूर होते हैं। इनमें जनन विषमयुग्मक (Oogomous) होता है और लैंगिक अंग प्यालिका (cupule) और न्यूकुला (nucula) होते हैं।

फिओफाइटा (Phaeophyta) या कत्थई शैवाल  इसका रंग कत्थई होता है और लगभग सभी नमूने समुद्र में पाए जाते हैं। मुख्य उदाहरण हैं : कटलेरिया (Cutleria), फ्यूकस (Fucus), लैमिनेरिया (Laminaria) इत्यादि।

रोडोफाइटा (Rhodophyta) या लाल शैवाल  यह शैवाल लाल रंग का होता है। इसके अंतर्गत लगभग 400 वंश (genus) और 2,500 जातियाँ हैं, जो अधिकांश समुद्र में उगती हैं। इन्हें सात गणों में बाँटा जाता है। लाल शैवाल द्वारा एक वस्तु एगार एगार (agar agar) बनती है, जिसका उपयोग मिठाई और पुडिंग बनाने तथा अनुसंधान कार्यों में अधिकतम होता है। इससे कई प्रकार की औषधियाँ भी बनती हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि शैवाल द्वारा ही लाखों वर्ष पहले भूगर्भ में पेट्रोल का निर्माण हुआ होगा।

शैवाल तो पर्णहरितयुक्त क्रिप्टोगैम हैं। जो क्रिप्टोगैम पर्णहरित रहित हैं, उन वर्गों के नाम : जीवाणु अथवा बैक्टीरिया (Bacteria), वाइरस और कवक (Fungi) हैं।

बैक्टीरिया  इसको शाइज़ोमाइकोफाइटा या शाइज़ोमाइकोटा समूह में रखा जाता है। ये अत्यंत सूक्ष्म, लगभग छह या सात माइक्रॉन तक लंबे होते हैं। ये मनुष्यों के लिये हितकर और अहितकर दोनों प्रकार के होते हैं।

वाइरस  वाइरस (Virus) बैक्टीरियों से बहुत छोटे होते हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म सूक्ष्मदर्शियों से भी ये देखे नहीं जा सकते। इनकी छाया का अध्ययन इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शियों द्वारा किया जाता है, जो इनके आकार को 5,000 गुना बढ़ा देते हैं। ये भी पौधों, जंतुओं तथा मनुष्यों में नाना प्रकार की बीमारियाँ पैदा करते हैं।

मिक्सोमाइसीटीज़ (Myxomycetes)  यह भी एक छोटा सा पर्णहरित रहित समूह है। इनके शरीर के चारों ओर दीवार प्राय: नहीं के बराबर ही होती है। ये लिबलिबे होते हैं। इनके कुछ उदाहरण डिक्टिओस्टीलियम (Dictyostelium), प्लैज़मोडियम (Plasmodium) इत्यादि हैं।

2. कवक  यह पर्णरहित रहित पादप का सर्वप्रमुख गण है, जिसके तीन मुख्य उपगण हैं : (अ) फाइकोमाइसीटीज़ (Phycomycetes), (घ) ऐस्कोमाइसीटीज़ (Ascomycetes) और (स) बैसीडिओमाइसीटीज़ (Basidiomycetes)। इन उपगणों को आजकल और ऊँचा स्थान दिया जाने लगा है। फाइकोमाइसीटीज़वाले फफूंद के बीच की दीवार नहीं होती और ये सीनोसिटिक कहलाते हैं। ऐस्कोमाइसीटीज़ भी छोटे फफूंद हैं। यीस्ट (yeast) से दवाइयाँ बनती हैं और शराब बनाने में इसका योग अत्यावश्यक है।

3. लाइकेन (Lichen)  यह एक बड़ा, लगभग 16,00 जातियों का गण है। ये पेड़ की छाल अथवा चट्टान पर अधिक उगते हैं तथा शैवाल और कवक दोनों से मिलकर बनते हैं। इनके तीन रूप हैं : (अ) पर्पटीमय (crustose), जो चप्पड़ में उगते हैं (ब) पर्णिल (foliose), जो पत्ती जैसे होते हैं और (स) क्षुपिल (fructicose), जिसमें फल जैसे आकार लगे होते हैं। कुछ पौधों के नाम इस प्रकार हैं, क्लैडोनिया (Cladonia), पारमीलिया (Parmelia), असनिया (Usnea) इत्यादि। मनुष्य इनके कुछ पौधे, जैसे जटामासी, बालछड़ इत्यादि को गरम मसाले के रूप में खाता है।

(ख) ब्रायोफाइटा  तीन वर्गों में बाँटा जाता है : (अ) हिपैटिसी (ब) ऐंथोसिरोटी और (स) मससाई। ऐसा सोचा जाता है कि ब्रायोफाइटा की उत्पत्ति हरे शैवाल से हुई होगी।

(अ) हिपैटिसी  इसमें लगभग 8,500 जातियाँ हैं, जो अधिकांश छाएदार नम स्थान पर उगती हैं। कुछ एक जातियाँ तो जल में ही रहती हैं, जैसे टिकासिया फ्लूइटंस और रियला विश्वनाथी। हिपैटिसी में ये तीन गण मान्य हैं :

1. स्फीसेकॉर्पेलीज (2) मारकेनटिएलीज़ (Marchantiales) और (3) जंगरमैनिएलीज़, (Jungermaniales)। स्पीरोकॉर्पेलीज़ में तीन वंश हैं  स्फीरोकर्पस (Sphaerocarpus), जीओथैलस (Geothallus) और रिएला (Riella)। पहले दो में लैंगिक अंग एक प्रकार के छत्र से घिरे रहते हैं और रिएला में वह अंग घिरा नहीं रहता। रिएला की एक ही जाति रिएला विश्वनाथी भारत में काशी के पास चकिया नगर में पाई गई है। इसके अतिरिक्त रिएला इंडिका अविभाजित भारत के लाहौर नगर (जो अब पाकिस्तान में है) के पास पाया गया था।

2. मारकेनटिएलींज़ (Marchantiales)  यह सबसे प्रमुख गण है और इसमें 32 वंश और 400 जातियाँ पाई जाती हैं, जिन्हें छह कुलों में रखा जाता है। इनमें जनन लैंगिक और अलैंगिक दोनों होते हैं। रिकसियेसी कुल में तीन वंश हैं। दूसरा कुल है कारसीनिएसी। टारजीओनिएसी का टारजीओनिया पौधा सारे संसार में पाया जाता है। इस गण का सबसे मुख्य कुल है मारकेनटिएसी, जिसमें 23 वश हैं। इनमें मारकेनटिया मुख्य है।

3. जंगरमैनिएलीज़  इन्हें पत्तीदार लीवरवर्ट भी कहते हैं। ये जलवाले स्थानों पर अधिक उगते हैं। इनमें 190 वंश तथा लगभग 8,000 जातियाँ हैं। इनके प्रमुख वंश हैं रिकार्डिया (Riccardia), फॉसॉम्ब्रोनिया (Fossombronia), फ्रूलानिया (Frullania) तथा पोरेला (Porella)। कैलोब्रियेलिज़ गण में सिर्फ दो वंश कैलोब्रियम (Calobryum) और हैप्लोमिट्रियम (Haplomitrium) रखे जाते हैं।

(ब) ऐंथोसिरोटी (Anthocerotae)  इस उपवर्ग में एक गण ऐंथोसिरोटेलीज़ है, जिसमें पाँच या छह वंश पाए जाते हैं। प्रमुख वंश ऐंथोसिरॉस (Anthoceros) और नोटोथिलस (Notothylas) हैं। इनमें युग्मकजनक (gametocyte), जो पौधे का मुख्य अंग होता है, पृथ्वी पर चपटा उगता है और इसमें बीजाणु-उद्भिद (sporophyte) सीधा ऊपर निकलता है। इनमें पुंधानी और स्त्रीधानी थैलस (thallus) के अंदर ही बनते हैं। पुंधानी नीचे पतली और ऊपर गदा या गुब्बारे की तरह फूली होती हैं।

(स) मससाई (Musci)  इस वर्ग में मॉस पादप आते हैं, जिन्हें तीन उपवर्गों में रखा जाता है। ये हैं: (1) स्फैग्नोब्रिया, (2) ऐंड्रोब्रिया तथा (3) यूब्रिया। पहले उपवर्ग के स्फ़ैग्नम (sphagnum) ठंडे देशों की झीलों में उगते हैं तथा एक प्रकार का 'दलदल' बनाते हैं। ये मरने पर भी सड़ते नहीं और सैकड़ों हजारों वर्षों तक झील में पड़े रहते हैं, जिससे झील दलदली बन जाती है। दूसरे उपवर्ग का ऐंड्रिया (Andrea) एक छोटा वंश है, जो गहरे कत्थई रंग का होता है। यह काफी सर्द पहाड़ों की चोटी पर उगते हैं। यूब्रेयेलीज़ या वास्तविक मॉस (True moss), में लगभग 650 वंश हैं जिनकी लगभग 14,000 जातियाँ संसार भर में मिलती हैं। इनके मध्यभाग में तने की तरह एक बीच का भाग होता है, जिसमें पत्तियों की तरह के आकार निकले रहते हैं। चूँकि यह युग्मोद्भिद (गैमेटोफ़ाइटिक, gametophytic) आकार है, इसलिये इसे पत्ती या तना कहना उचित नहीं हैं। हाँ, उससे मिलते जुलते भाग कहे जा सकते हैं। पौधों के ऊपरी हिस्से पर या तो पुंधानी और सहसूत्र (paraphysis) या स्त्रीधानी और सहसूत्र, लगे होते हैं।

(ग) टेरिडोफाइटा  इनकी उत्पत्ति करीब 35 करोड़ वर्ष पूर्व हुई होगी, ऐसा अधिकतर वैज्ञानिकों का कहना हैं। प्रथम टेरिडोफाइट पादप साइलोटेलिज़ (Psilotales) समूह के हैं। इनकी उत्पत्ति के तीन चार करोड़ वर्ष बाद तीन प्रकार के टेरिडोफाइटा इस पृथ्वी पर और उत्पन्न हुए  लाइकोपीडिएलीज़, हार्सटेलीज़ और फर्न। तीनों अलग अलग ढंग से पैदा हुए होंगे। टेरिडोफाइटा मुख्यत: चार भागों में विभाजित किए जाते हैं : साइलोफाइटा (Psilophyta), लेपिडोफाइटा (Lepidophyta), कैलेमोफाइटा (Calamophyta) और टेरोफाइटा (Pterophyta)।

साइलोफाइटा  ये बहुत ही पुराने हैं तथा अन्य सभी संवहनी पादपों से जड़रहित होने के कारण भिन्न हैं। इनका संवहनी ऊतक सबसे सरल, ठोस रंभ (Protostele) होता है। इस भाग में दो गण हैं : (1) साइलोफाइटेलीज, जिसके मुख्य पौधे राइनिया (Rhynia) साइलोफाइटान (Psilophyton), ज़ॉस्टेरोफिलम (Zosterophyllum), ऐस्टेरोक्सिलॉन (Asteroxylon) इत्यादि हैं। ये सबके सब जीवाश्म हैं, अर्थात्‌ इनमें से कोई भी आजकल नहीं पाए जाते है। करोड़ों वर्ष पूर्व ये इस पृथ्वी पर थे। अब केवल इनके अवशेष ही मिलते हैं।

लेपिडोफाइटा  इसके अंतर्गत आनेवाले पौधों को साधारणतया लाइकोपॉड कहते हैं। इनके शरीर में तने, पत्तियाँ और जड़ सभी बनती हैं। पत्तियाँ छोटी होती हैं, जिन्हें माइक्रोफिलस (microphyllous) कहते हैं। इस भाग में चार गण हैं : (1) लाइकोपोडिएलीज़ की बीजाणुधानी समबीजाणु (homosporous) होती है, अर्थात्‌ सभी बीजाणु एक ही प्रकार के होते हैं। इनमें कुछ पौधे तो जीवाश्म हैं और कुछ आजकल भी उगते हैं। इसका प्रमुख वंश प्रोटोलेपिडोडेंड्रॉन (Protolepidodendron) है और जीवित पौधा लाइकोपोडिय (Lycopodium)। (2) सेलैजिनेलेलीज़ (Selaginellales) गण का वंश सैलाजिनेला है। इसमें गुरु बीजाणुधानी (megasporangia) और लघुबीजाणुधानी (microsporangia) बनती हैं। इसकी एक जाति चकिया (वाराणसी) के पहाड़ों पर काफी उगती है और इन्हें बाजार में संजीवनी बूटी के नाम से बेचते हैं। (3) लेपिडोडेंड्रेलीज़ गण जीवाश्म हैं। ये बड़े वृक्ष की तरह थे। लेपिडोडेंड्रॉन (Lepidodendron), बॉ्थ्रायोडेंड्रॉन (Bothriodendron) तथा सिजिलेरिया (Sigillaria) इसके मुख्य पौधे थे। (4) आइसोइटेलीज़ गण के वंश भी जीवाश्म हैं। केवल एक वंश आइसोइटीज़ (Isoetes) ही आजकल उगता है और इसे जीवित जीवाश्म भी कहते हैं। यह पौधा ताल तलैया तथा धान के खेत में उगता है। प्लिउरोमिया (Pleuromia) भी जीवाश्म पौधा था।

कैलेमोफाइटा  ये बहुत पुराने पौधे हैं जिनका एक वंश एक्वीसीटम (Equisetum) अभी भी उगता है। इस वर्ग में पत्तियाँ अत्यंत छोटी होती थीं। इन्हें हार्सटेल (Horsetails), या घोड़े की दुम की आकारवाला, कहा जाता है। इसमें जनन के लिये बीजाणुधानियाँ (sporangia) 'फोर' पर लगी होती थीं तथा उनका एक समूह साथ होता था। ऐसा ही एक्वीसीटम में होता है, जिसे शंकु (Strobites) कहते हैं। यह अन्य टेरिडोफाइटों में नहीं होता। इसमें दो गण हैं : (1) हाइनिऐलीज़ (Hyeniales), जिसके मुख्य पौधे हाइनिया (Heyenia) तथा कैलेमोफाइटन (Calamophyton) हैं। (2) स्फीनोफिलेलीज़ दूसरा वृहत्‌ गण है। इसके मुख्य उदाहरण हैं स्फीनोफिलम (Sphenophyllum), कैलेमाइटीज़ (Calamites) तथा एक्वीसीटम।

टीरोफाइटा  इसके सभी अंग काफी विकसित होते हैं, संवहनी सिलिंडर (vascular cylinder) बहुत प्रकार के होते हैं। इनमें पर्ण अंतराल (leaf gap) भी होता है। पत्तियाँ बड़ी बड़ी होती हैं तथा कुछ में इन्हीं पर बीजाणुधानियाँ लगी होती हैं। इन्हें तीन उपवर्गों में बाँटते हैं, जिनमें पहला उपवर्ग प्राइमोफिलिसीज़ (Primofilices) हैं। इस उपवर्ग में तीन गण (1) प्रोटोप्टेरिडेलीज़ (Protopteridales), (2) सीनॉप्टेरिडेलीज़ (Coenopteridales) और (3) आर्किअॅपटेरिडेलीज़ (Archaeopteridales) हैं, जिनमें पारस्परिक संबंध का ठीक ठीक पता नहीं है। जाइगॉप्टेरिस (Zygopteris), ईटाप्टेरिस (Etapteris) तथा आरकिआप्टेरिस (Archaeopteris) मुख्य उदाहरण हैं।

दूसरा उपवर्ग है यूस्पोरैंजिएटी (Eusporangiatae), जिसमें बीजाणुधानियों के एक विशेष स्थान पर बीजाणुपर्ण (sporophyll) लगे होते हैं, या एक विशेष प्रकार के आकार में होते हैं, जिसे स्पाइक (spike) कहते हैं, उदाहरण ऑफिओग्लॉसम (Ophioglossum), बॉट्रिकियम (Botrychium), मैरैटिया (Marattia) इत्यादि हैं।

तीसरा उपवर्ग लेप्टोस्पोरैंजिएटी है, जो अन्य सभी फर्न से भिन्न हैं, क्योंकि इन बीजाणुधानियों के चारों ओर एक 'जैकेट फर्नों स्तर' होता है और बीजाणु की संख्या निश्चित रहती है। इसका फिलिकेलीज़ गण बहुत ही बृहत्‌ है। इस उपवर्ग को (1) आस्मंडेसी, (2) राईज़िएसी, (3) ग्लाइकीनिएसी, (4) मेटोनिएसी, (5) डिप्टैरिडेसी, (6) हाइमिनोफिलेसी, (7) सायथियेसी (8) डिक्सोनिएसी, (9) पालीपोडिएसी तथा (10) पारकेरिएसी कुलों में विभाजित करते हैं। इन सब कुलों में अनेक प्रकार के फ़र्न है। ग्लाइकीनिया में शाखाओं का विभाजन द्विभाजी (dichotomous) होता है। हाइमिनोफिलम को फिल्मी फर्न कहते हैं, क्योंकि यह बहुत ही पतले और सुंदर होते हैं। सायेथिया तो ऐसा फर्न है, जो ताड़ के पेड़ की तरह बड़ा और सीधा उगता है। इस प्रकार के फर्न बहुत ही कम हैं। डिक्सोनिया भी इसी प्रकार बहुत बड़ा होता है। पालीपोडिएसी कुल में लगभग 5,000 जातियाँ हैं और साधारण फर्न इसी कुल के हैं। टेरिस (Pteris), टेरीडियम (Pteridium), नफ्रेोलिपिस (Nephrolepis) इत्यादि इसके कुछ उदाहरण हैं। दूसरा गण है मारसीलिएलीज़, जिसका चरपतिया (Marsilea) बहुत ही विस्तृत और हर जगह मिलनेवाला पौधा है। तीसरा गण सैलवीनिएलीज है, जिसके पौधे पानी में तैरते रहते हैं, जैसे सैलवीनिया (Salvinia) और ऐज़ोला (Azolla) हैं। ऐज़ोला के कारण ही तालाबों में ऊपर सतह पर लाल काई जैसा तैरता रहता है। इन पौधों के शरीर में हवा भरी रहती है, जिससे ये आसानी से जल के ऊपर ही रहते हैं। इनके अंदर एक प्रकार का नीलाहरा शैवाल ऐनाबीना (Anabaena) रहता है।

अनावृतबीजी पौधे  संवहनी पौधों में फूलवाले पौधों को, जिनके बीज नंगे होते हैं, अनावृतबीजी (Gymnosperm) कहते हैं। इसके पौधे मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं। एक तो साइकस की तरह मोटे तनेवाले होते हैं, जिनके सिरे पर एक झुंड में लंबी पत्तियाँ निकलती हैं और मध्य में विशेष प्रकार की पत्तियाँ होती हैं। इनमें से जिनमें परागकण बनते हैं उन्हें लघुबीजाणुपर्ण (Microsporophyll) तथा जिनपर नंगे बीजाणु लगे होते हैं उन्हें गुरुबीजाणुपर्ण (Megasporophyll) कहते हैं। इस समूह को सिकाडोफिटा (Cycadophyta) कहते हैं और इनमें तीन मुख्य गण हैं : (1) टेरिडोस्पर्म (Pteridosperms) या सिकाडोफिलिकेलीज़ (Cycadofilicales), (2) बेनिटिटेलीज़ या सिकाडिआयडेलीज़ (Bennettitales or Cycadeoidales) और (3) साइकडेलीज़ (Cycadales)। पहले दो गण जीवाश्म हैं। इनके सभी पौधे विलुप्त हो चुके हैं। इनके बहुत से अवशेष पत्थरों के रूप में राजमहल पहाड़ियों (बिहार) में मिलते हैं। मुख्य उदाहरण है लिजिनाप्टेरिस (Lyginopteris), मेडुलोज़ा (Medullosa) तथा विलियम्सोनिया (Williamsonia)। तीसरे गण सिकाडेलीज़ के बहुत से पौधे विलुप्त हैं और नौ वंश अब भी जीवित हैं। प्रमुख पौधों के नाम हैं, साइकैस (Cycas), ज़ेमिया (Zamia), एनसेफैलोर्टस (Encephalortos), स्टैनजीरिया (Stangeria) इत्यादि।

अनावृतबीजी पौधों का दूसरा मुख्य प्रकार है कोनिफरोफाइटा (Coniferophyta), जिसमें पौधे बहुत ही बड़े और ऊँचे होते हैं। संसार का सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा पौधा सिक्वॉय (Sequoia) भी इसी में आता है। इसमें चार मुख्य गण हैं : (1) कॉरडेआइटेलीज़ (Cordaitales), (2) जिंगोएलीज़ (Ginkgoales), (3) कोनिफरेलीज़ (Coniferales) और (4) निटेलीज़ (Gnetales)।

अब सभी कॉरडेआइटेलीज़ जीवाश्म हैं और इनके बड़े बड़े तनों के पत्थर अब भी मिलते हैं। ज़िगोएलीज़ के सभी सदस्य विलुप्त हो चुके हैं। सिर्फ एक ही जाति अभी जीवित है, जिसका नाम जिंगोबाइलोबा (Ginkgobiloba), या मेडेन हेयर ट्री, है। यह चीन में पाया जाता है तथा भारत में इसके इने गिने पौधे वनस्पति वाटिकाओं में लगाए जाते हैं। यह अत्यंत सुंदर पत्तीवाला पेड़ है, जो लगभग 30 से 40 फुट ऊँचाई तक जाता है।

कोनिफरेलीज़ गण में तो कई कुल हैं और सैकड़ों जातियाँ होती हैं। इनके पेड़, जैसे सिक्वॉय, चीड़, देवदार, भाऊ के पेड़ बहुत बड़े और ऊँचे होते हैं। चीड़ तथा देवदार के जंगल सारे हिमालय पर भरे पड़े हैं। चीड़ से चिलगोजा जैसा पौष्टिक फल निकलता है, देवदार तथा चीड़ की लकड़ी से लुगदी और कागज बनते हैं। इनमें बीज एक प्रकार के झुंड में होते हैं, जिन्हें स्ट्रबिलस या 'कोन' कहते हैं। पत्तियाँ अधिकांश नुकीली तथा कड़ी होती हैं। ये पेड़ ठंडे देश तथा पहाड़ पर बहुतायत से उगते हैं। इनमें बहुधा तारपीन के तेल जैसा पदार्थ रहता है। उत्पत्ति और जटिलता के विचार से तो ये आवृतबीजी (Angiosperm) पौधों से छोटे हैं, पर आकार तथा बनावट में ये सबसे बढ़ चढ़कर होते है।

चौथे गण निटेलीज़ में सिर्फ तीन ही वंश आजकल पाए जाते हैं (1) नीटम (Gnetum), (2) एफीड्रा (Ephedra) और (3) वेलविचिया (Welwitschia)। पहले दो तो भारत में मिलते हैं और तीसरा वेलविचिया मिराबिलिस (Welwitschia mirabilis)। सिर्फ पश्चिमी अफ्रीका के समुद्रतट पर मिलता है। एफीड्रा सूखे स्थान का पौधा है, जिसमें पत्तियाँ अत्यंत सूक्ष्म होती हैं। इनसे एफीड्रीन नामक दवा बनती है। आजकल वैज्ञानिक इन तीनों वंशों को अलग अलग गणों में रखते हैं। इन सभी के अतिरिक्त कुछ जीवाश्मों के नए गण समूह भी बनाए गए हैं, जैसे राजमहल पहाड़ का पेंटोक्सिली (Pentoxylae) और रूस का वॉजनोस्कियेलीज़ (Vojnowskyales) इत्यादि।

आवृतबीजी पौधों में बीज बंद रहते हैं और इस प्रकार यह अनावृतबीजी से भिन्न हैं। इनमें जड़, तना, पत्ती तथा फूल भी होते हैं। आवृतबीजी पौधों में दो वर्ग हैं : (1) द्विबोजपत्री (dicotyledon) और (2) एक बीजपत्री (monocotyledon)। पहले के अंतर्गत आनेवाले पौधों में बीज के अंदर दो दाल रहती हैं और दूसरे में बीज के अंदर एक ही दाल होती है। द्विबीजपत्री के उदाहरण, चना, मटर, आम, सरसों इत्यादि हैं और एकबीजपत्री में गेहूँ, जौ, बाँस, ताड़, खजूर, प्याज हैं। बीजपत्र की संख्या के अतिरिक्त और भी कई तरह से ये दोनों भिन्न हैं जैसे जड़ और तने के अंदर तथा बाहर की बनावट, पत्ती और पुष्प की रचना, सभी भिन्न हैं। द्विबीजपत्री की लगभग 2,00,000 जातियों को 250 से अधिक कुलों में रखा जाता है (देखें संवृतबीजी)।

आवृतबीजीय पादप में अलग अलग प्रकार के कार्य के लिये विभिन्न अंग हैं, जैसे जल तथा लवण सोखने के लिये पृथ्वी के नीचे जड़ें होती हैं। ये पौधों को ठीक से स्थिर रखने के लिये मिट्टी को जकड़े रहती हैं। हवा में सीधा खड़ा रहने के लिये तना मजबूत और शाखासहित रहता है। यह आहार बनाने के लिये पत्तियों को जन्म देता है और जनन हेतु पुष्प बनाता है। पुष्प में पराग तथा बीजाणु बनते हैं। आवृतबीजीय पादप के अंगों तथा कार्य इत्यादि का वर्णन पादपविज्ञान की शाखाओं के अंतर्गत नीचे दिया गया है।

आकारिकी  इसमें पौधे की रूपरेखा, बनावट इत्यादि के बारे में अध्ययन होता है। अंत:आकारिकी को शरीर (Anatomy) या ऊतकी (Histology) कहते हैं। जड़ पृथ्वी की ओर नीचे की तरफ बढ़ती है। यह मूल रूप से दो प्रकार की होती है : एक तो द्विबीजपत्री पौधों में प्राथमिक जड़ बढ़कर मूसला जड़ बनाती है तथा दूसरी प्रकार की वह होती हैं, जिसमें प्राथमिक जड़ मर जाती है। और तने के निचले भाग से जड़ें निकल आती हैं। एकबीजपत्रों में इसी प्रकार की जड़ें होती हैं। इन्हें रेशेदार जड़ कहते हैं। जड़ के नीचे की नोक एक प्रकार के ऊतक से ढकी रहती है, जिसे जड़ की टोपी कहते हैं। इसके ऊपर के भाग को बढ़नेवाला भाग कहते हैं। इस हिस्से में कोशिकाविभाजन बहुत तेजी से चलता रहता है। इसके ऊपर के भाग को जल इत्यादि ग्रहण करने का भाग कहते हैं और इसमें मूल रोम (root hair) निकले होते हैं। ये रोम असंख्य होते हैं, जो बराबर नष्ट होते और नए बनते रहते हैं। इनमें कोशिकाएँ होती है तथा यह मिट्टी के छोटे छोटे कणों के किनारे से जल और लवण अपने अंदर सोख लेती हैं।

तना या स्तंभ बीज के कोलियाप्टाइल भाग से जन्म पाता है और पृथ्वी के ऊपर सीधा बढ़ता है। तनों में पर्वसंधि (node) या गाँठ तथा पोरी (internode) होते हैं। पर्वसंधि पर से नई शाखाएँ पुष्पगुच्छ या पत्तियाँ निकलती हैं। इन संधियों पर तने के ऊपरी भाग पर कलिकाएँ भी होती हैं। पौधे के स्वरूप के हिसाब से तने हरे, मुलायम या कड़े तथा मोटे होते हैं। इनके कई प्रकार के परिवर्तित रूप भी होते हैं। कुछ पृथ्वी के नीचे बढ़ते हैं, जो भोजन इकट्ठा कर रखते हैं। प्रतिकूल समय में ये प्रसुप्त (dormant) रहते हैं तथा जनन का कार्य करते हैं, जैसे कंद (आलू) में, प्रकंद (अदरक, बंडा तथा सूरन) में, शल्ककंद (प्याज और लहसुन) में इत्यादि। इनके अतिरिक्त पृथ्वी की सतह पर चलनेवाली ऊपरी भूस्तारी (runner) और अंत:भूस्तारी (sucker) होती हैं, जैसे दब, या घास और पोदीना में। कुछ भाग कभी कभी काँटा बन जाते हैं। नागफन और कोकोलोबा में स्तंभ चपटा और हरा हो जाता है, जो अपने शरीर में काफी मात्रा में जल रखता है।

पत्तियाँ तने या शाखा से निकलती हैं। ये हरे रंग की तथा चपटे किस्म की, कई आकार की होती है। इनके ऊपर तथा नीचे की सतह पर हजारों छिद्र होते हैं, जिन्हें रध्रं (stomata) कहते हैं। इनसे होकर पत्ती से जल बाहर वायुमंडल में निकलता रहता है तथा बाहर से कार्बनडाइऑक्साइड अंदर घुसता है। इससे तथा जल से मिलकर पर्णहरित की उपस्थिति में प्रकाश की सहायता से पौधे का भोजननिर्माण होता है। कुछ पत्तियाँ अवृंत (sessile) होती हैं, जिनमें डंठल नहीं होता, जैसे मदार में तथा कुछ डंठल सहित सवृंत होती हैं। पत्ती के डंठल के पास कुछ पौधों में नुकीले, चौड़े या अन्य प्रकार के अंग होते हैं, जिन्हें अनुपर्ण (stipula) कहते हैं, जैसे गुड़हल, कदम, मटर इत्यादि में। अलग अलग रूपवाले अनुपर्ण को विभिन्न नाम दिए गए हैं। पत्तियों के भीतर कई प्रकार से नाड़ियाँ फैली होती हैं। इस को शिराविन्यास (venation) कहते हैं। द्विबीजपत्री में विन्यास जाल बनाता है और एकबीजी पत्री के पत्तियों में विन्यास सीधा समांतर निकलता है। पत्ती का वर्गीकरण उसके ऊपर के भाग की बनावट, या कटाव, पर भी होता है। अगर फलक (lamina) का कटाव इतना गहरा हो कि मध्य शिरा सींक की तरह हो जाय और प्रत्येक कटा भाग पत्ती की तरह स्वयं लगने लगे, तो इस छोटे भाग को पर्णक कहते हैं और पूरी पत्ती को संयुक्तपर्ण (compound leaf) कहते हैं। संयुक्तपूर्ण पिच्छाकार (pinnate), या हस्ताकार (palmate) रूप के होते हैं, जैसे क्रमश: नीम या ताड़ में। पत्तियों का रूपांतर भी बहुत से पौधों में पाया जाता है, जैसे नागफनी में काँटा जैसा, घटपर्णी (pitcher) में ढक्कनदार गिलास जैसा, और ब्लैडरवर्ट में छोटे गुब्बारे जैसा। कांटे से पौधे अपनी रक्षा चरनेवाले जानवरों से करते हैं तथा घटपर्णी और ब्लैडरवर्ट के रूपांतरित भाग में कीड़े मकोड़ों को बंदकर उन्हें ये पौधे हजम कर जाते हैं। एक ही पौधे में दो या अधिक प्रकार की पत्तियाँ अगर पाई जाएँ, तो इस क्रिया को हेटेरोफिली (Heterophylly) कहते हैं।फूल पौधों में जनन के लिये होते हैं। पौधों में फूल अकेले या समूह में किसी स्थान पर जिस क्रम से निकलते हैं उसे पुष्पक्रम (inflorescence) कहते हैं। जिस मोटे, चपटे स्थान से पुष्पदल निकलते हैं, उसे पुष्पासन (thalamus) कहते हैं। बाहरी हरे रंग की पंखुड़ी के दल को ब्राह्मदलपुंज (calyx) कहते हैं। इसकी प्रत्येक पंखुड़ी को बाह्यदल (sepal) कहते हैं। इस के ऊपर रंग बिरंगी पंखुड़ियों से दलपुंज (corolla) बनता है। दलपुंज के अनेक रूप होते हैं, जैसे गुलाब, कैमोमिला, तुलसी, मटर इत्यादि में। पंखुड़ियाँ पुष्पासन पर जिस प्रकार लगी रहती हैं, उसे पुष्पदल विन्यास या एस्टिवेशन (estivation) कहते हैं। पुमंग (androecium) पुष्प का नर भाग है, जिसें पुंकेसर बनते हैं। पुंमग में तंतु होते हैं, जिनके ऊपर परागकोष होते हैं। इन कोणों में चारों कोने पर परागकण भरे रहते हैं। परागकण की रूपरेखा अनेक प्रकर की होती है। स्त्री केसर या अंडप (carpel) पुष्प के मध्यभाग में होता है। इसके तीन मुख्य भाग हैं : नीचे चौड़ा अंडाशय, उसके ऊपर पतली वर्तिका (style) और सबसे ऊपर टोपी जैसा वर्तिकाग्र (stigma)। वर्तिकाग्र पर पुंकेसर आकर चिपक जाता है, वर्तिका से नर युग्मक की परागनलिका बढ़ती हुई अंडाशय में पहुँच जाती है, जहाँ नर और स्त्री युग्मक मिल जाते हैं और धीरे धीरे भ्रूण (embryo) बनता है। अंडाशय बढ़कर फल बनाता है तथा बीजाणु बीज बनाते हैं।

परागकण की परागकोष से वर्तिकाग्र तक पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। अगर पराग उसी फूल के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे स्वपरागण (Self-pollination) कहते हैं और अगर अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे परपरागण (Cross-pollination) कहेंगे। परपरागण अगर कीड़े मकोड़े, तितलियों या मधुमक्खियों द्वारा हो, तो इसे कीटपरागण (Entomophily) कहते हैं। अगर परपरागण वायु की गति के कारण से हो, तो उसे वायुपरागण (Anemophily) कहते हैं, अगर जल द्वारा हो तो इसे जलपरागण (Hydrophily) और अगर जंतु से हो, तो इसे प्राणिपरागण (Zoophily) कहते हैं। गर्भाधान या निषेचन के उपरांत फल और बीज बनते हैं, इसकी रीतियाँ एकबीजपत्री तथा द्विदलपत्री में अलग अलग होती हैं। बीज जिस स्थान पर जुड़ा होता है उसे हाइलम (Hilum) कहते हैं। बीज एक चोल से ढँका रहता है। बीज के भीतर दाल के बीच में भ्रूण रहता है जो भ्रूणपोष (Endosperm) से ढँका रहता है।

फल तीन प्रकार के होते हैं : एकल (simple), पुंज (aggregate) और संग्रथित (multiple or composite)। एकल फल एक ही फूल के अंडाशय से विकसित होकर जनता है और यह कई प्रकार का होता है, जैसे (1) शिंब (legume), उदाहरण मटर, (2) फॉलिकल, जैसे चंपा, (3) सिलिकुआ, जैसे सरसों, (4) संपुटी, जैसे मदार या कपास, (5) कैरियाप्सिस, जैसे धान या गेहूँ, (6) एकीन जैसे, क्लीमेटिस, (7) ड्रुप, जैसे आय, (8) बेरी, जैसे टमाटर इत्यादि। पुंज फल एक ही फूल से बनता है, लेकिन कई स्त्रीकेसर (pistil) से मिलकर, जैसा कि शरीफा में। संग्रथित फल कई फूलों से बनता है, जैसे सोरोसिस (कटहल) या साइकोनस (अंजीर) में।

बीज तथा फल पकने पर झड़ जाते हैं और दूर दूर तक फैल जाते हैं। बहुत से फल हलके होने के कारण हवा द्वारा दूर तक उड़ जाते हैं। कुछ फलों के ऊपर नुकीले हिस्से जानवरों के बाल या चमड़े पर चिपककर इधर उधर बिखर जाते हैं। जल द्वारा भी यह कार्य बहुत से समुद्रतट के पौधों में होता है।

शरीर (Anatomy)  प्रत्येक जीवधारी का शरीर छोटी छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। आवृतबीजियों के शरीर में अलग अलग अंगों की आंतरिक बनावट विभिन्न होती है। कोशिकाएँ विभिन्न आकार की होती हैं। इन्हें ऊतक कहते हैं। कुछ ऊतक विभाजन करते हैं और इस प्रकार नए ऊतक उत्पन्न होते हैं जिन्हें विमज्यातिकी (meristematic) कहते हैं। यह मुख्यत: एधा (cambium), जड़ और तने के सिरों पर या, अन्य बढ़ती हुई जगहों पर, पाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य ऊतक स्थायी हो जाते हैं और अपना एक निश्चित कार्य करते हैं, जैसे (1) मृदूतक (Parenchyma), जिसमें कोशिका की दीवारें पतली तथा समव्यास होती है; (2) हरित ऊतक (Chlorenchyma) भी इसी प्रकार का होता है, पर इसके अंदर पर्णहरित भी होता है; (3) कोलेनकाइमा में कोशिका के कोने का हिस्सा मोटा हो जाता है; (4) स्क्लेरेनकाइमा में दीवारें हर तरफ से मोटी होती हैं यह वह रेशे जैसे आकार धारण कर लेती हैं। इनके अतिरिक्त संवहनी ऊतक भी होते हैं, जिनका स्थान, संख्या, बनावट इत्यादि द्विदलपत्रीय और एकदलपत्रीय मूल तथा तने के अंदर काफी भिन्न होती है। संवहनी ऊतकों का कार्य यह है कि जल तथा भोजन नीचे से ऊपर की ओर ज़ाइलम द्वारा चढ़ता है और बना हुआ भोजन पत्तियों से नीचे के अंगों को फ्लोयम द्वारा आता है। इनके अतिरिक्त पौधों में कुछ विशेष ऊतक भी मिलते हैं, जैसे ग्रंथिमय ऊतक इत्यादि। पौधे का भाग चाहे जड़ हो, तना या पत्री हो, इनमें बाहर की परत बाह्यत्वचा (या जड़ में मूलीय त्वचा, epiblema) होती है। पत्ती में इस पर रध्रं का छिद्र और द्वारकोशिका (guard cell) होती है तथा इसके ऊपर उपत्वचा (cuticle) की भी परत होती है। बाह्यत्वचा के नीचे अधस्त्वचा (hypodermis) होती है, जिसकी कोशिका बहुधा मोटी होती है। इनके नीचे वल्कुल (cortex) के ऊतक होते हैं, जो अवसर पतले तथा मृदूतक से होते हैं। इनके अंदर ढोल के आकार की कोशिकावाली परिधि होती हैं, जिसे अंतस्त्वचा (Endodermis) कहते हैं। इनके भीतर संवहनी सिलिंडर होता है, जिसका कार्य जल, लवण, भोजन तथा अन्य विलयनों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरण के लिये रास्ता प्रदान करना है।

कौशिकानुवंशिकी (Cytogenetics) कोशिका के अंदर की रचना तथा विभाजन के अध्ययन को कहते हैं। लैंगिक जनन द्वारा नर और मादा युग्मक पैदा करनेवाले पौधों के गुण नए, छोटे पौधों में उत्पन्न होने के विज्ञान को आनुवंशिकी (genetics) कहते हैं। चूँकि यह गुण कोशिकाओं में उपस्थित वर्णकोत्पादक (chromogen) पर जीन (gene) द्वारा प्रदत्त होता है, इसलिये आजकल इन दोनों विभागों को एक में मिलाकर कोशिकानुवंशिकी कहते हैं। प्रत्येक जीवधारी की रचना कोशिकाओं से होती है। प्रत्येक जीवित कोशिका के अंदर एक विलयन जैसा द्रव, जिसे जीवद्रव्य (protoplasm) कहते हैं, रहता है। जीवद्रव्य तथा सभी चीज़े, जो कोशिका के अंदर हैं, उन्हें सामूहिक रूप से जीवद्रव्यक (Protoplast) कहते हैं। कोशिका एक दीवार से घिरी होती है। कोशिका के अंदर एक अत्यंत आवश्यक भाग केंद्रक (nucleus) होता है, जिसके अंदर एक केंद्रिक (nuclelus) होता है। कोशिका के भीतर एक रिक्तिका (vacuole) होती है, जिसके चारों ओर की झिल्ली को टोनोप्लास्ट (Tonoplast) कहते हैं। कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) के अंदर छोटे छोटे कण, जिन्हें कोशिकांग (Organelle) कहते हैं, रहते हैं। इनके मुख्य प्रकार माइटोकॉन्ड्रिया (mitochondria, जिनमें बहुत से एंजाइम होते हैं), क्लोरोप्लास्ट इत्यादि हैं। केंद्रक साधारणतया गोल होता है, जो केंद्रकीय झिल्ली से घिरा होता है। इसमें धागे जैसे वर्णकोत्पादक होते हैं जिनके ऊपर बहुत ही छोटे मोती जैसे आकार होते हैं, जिन्हें जीन कहते हैं। ये रासायनिक दृष्टि से न्यूक्लियोप्रोटीन (nucleoprotein) होते हैं, जो डी. एन. ए. (DNA) या डीआक्सिराइबो न्यूक्लिइक ऐसिड कहे जाते हैं। इनके अणु की बनावट दोहरी घुमावदार सीढ़ी की तरह होती हैं, जिसमें शर्करा, नाइट्रोजन, क्षारक तथा फॉस्फोरस होते हैं। आर. एन. ए. (RNA) की भी कुछ मात्रा वर्णकोत्पादक में होती है, अन्यथा यह न्यूक्लियोप्रोटीन तथा कोशिकाद्रव्य (माइटोकॉन्ड्रिया में भी) होता है। प्रत्येक कोशिका में वर्णकोत्पादक की संख्या स्थिर और निश्चित होती है। कोशिका का विभाजन दो मुख्य प्रकार का होता है : (1) सूत्री विभाजन (mitosis), जिसमें विभाजन के पश्चात्‌ भी वर्णकोत्पादकों की संख्या वही रहती हैं, और (2) अर्धसूत्री विभाजन (meiosis), जिसमें वर्णकोत्पादकों की संख्या आधी हो जाती है।किसी भी पौधे या अन्य जीवधारी का हर एक गुण जीन के कारण ही होता है। ये अपनी रूपरेखा पीढ़ी दर पीढ़ी बनाए रखते हैं। हर जीन का जोड़ा भी अर्धगुणसूत्र (sister chromatid) पर होता है, जिसे एक दूसरे का एलिल कहते हैं। जीन अर्धसूत्रण के समय अलग अलग हो जाते हैं और ये स्वतंत्र रूप से होते हैं। अगर एलिल जीन दो गुण दिखाएँ, जैसे लंबे या बौने पौधे, रंगीन और सफेद फूल इत्यादि, तो जोड़े जीन में एक प्रभावी (dominant) होता है और दूसरा अप्रभावी (recessive)। दोनों के मिलने से नई पीढ़ी में प्रभावी लक्षण दिखाई पड़ता है, पर स्वयंपरागण द्वारा इनसे पैदा हुए पौधे फिर से 3 : 1 में प्रभावी लक्षण और अप्रभावी लक्षण दिखलाते हैं (देखें मेंडेलवाद)।

उत्पत्ति या विकास (Evolution) उस विज्ञान को कहते हैं जिससे ज्ञात होता है किसी प्रकार का एक जाति बदलते बदलते एक दूसरी जाति को जन्म देती है। पुरातन काल में मनुष्य सोचता था कि ईश्वर ने सभी प्रकार के जीवों का सृजन एक साथ ही कर दिया है। ऐसे विचार धीरे धीरे बदलते गए। आजकल के वैज्ञानिकों का मत है कि प्रकृति में नाना विधियों से जीन प्रणाली एकाएक बदल सकती है। इसे उत्परिवर्तन (mutation) कहते हैं। ऐसे अनेक उत्परिवर्तन होते रहते हैं, पर जो जननक्रिया में खरे उतरें और वातावरण में जम सकें, वे रह जाते हैं। इस प्रकार नए पौधे की उत्पत्ति होती है। वर्णकोत्पादकों की संख्या दुगुनी, तिगुनी या कई गुनी हो कर नए प्रकार के गुण पैदा करती हैं। इन्हें बहुगुणित कहते हैं। बहुगुणितता (polypoidy) द्वारा भी नए जीवों की उत्पत्ति का विकास होता है।

परिस्थितिकी (Ecology)  जीवों या पौधों के वातावरण, एक दूसरे से संबंध या आश्रय के अध्ययन को परिस्थितिकी कहते हैं। पौधे समाज में रहते हैं। ये वातावरण को बदलते हैं और वातावरण इनके समाज की रूपरेखा को बदलता है। यह क्रम बार बार चलता रहता है। इसे अनुक्रमण (succession) कहते हैं। एक स्थिति ऐसी आती है जब वातावरण और पौधों के समाज एक प्रकार से गतिक साम्य (dynamic equilibrium) में आ जाते हैं। बदलते हुए अनुक्रमण के पादप समाज को क्रमक (sere) कहते हैं और गतिक साम्य को चरम अवस्था (climax) कहते हैं। किसी भी जलवायु में एक निश्चित प्रकार का गतिक साम्य होता है। अगर इसके अतिरिक्त कोई और प्रकार का स्थिर समाज बनता हो, तो उसे चरम अवस्था न कह उससे एक स्तर कम ही मानते हैं। ऐसी परिस्थिति को वैज्ञानिक मोनोक्लाइमेक्स (monoclimax) विचार मानते हैं और जलवायु को श्रेष्ठतम कारण मानते हैं। इसके विपरीत है पॉलीक्लाइमेक्स (polyclimax) विचारधारा, जिसमें जलवायु ही नहीं वरन्‌ कोई भी कारक प्रधान हो सकता है।

पौधों के वातावरण के विचार से तीन मुख्य चीजें जलवायु, जीवजंतु तथा मिट्टी हैं। आजकल इकोसिस्टम विचारधारा और नए नए मत अधिक मान्य हो रहे हैं। घास के मैदान, नदी, तालाब या समुद्र, जंगल इत्यादि इकोसिस्टम के कुछ उदाहरण हैं। जल के विचार से परिस्थितिकी में पौधों को (1) जलोदभिद् (Hydrophyte), जो जल में उगते हैं, (2) समोद्भिद (Mesophyte), जो पृथ्वी पर हों एवं जहाँ सम मात्रा में जल मिले, तथा (3) जीरोफाइट, जो सूखे रेगिस्तान में उगते हैं, कहते हैं। इन पौधों की आकारिकी का अनुकूलन (adaptation) विशेष वातावरण में रहने के लिये होता है, जैसे जलोद्भिद पौधों में हवा रहने के ऊतक होते हैं, जिससे श्वसन भी हो सके और ये जल में तैरते रहें।

जंगल के बारे में अध्ययन, या सिल्विकल्चर, भी परिस्थितिकी का ही एक भाग समझा जा सकता है। परिस्थितिकी के उस भाग को जो मनुष्य के लाभ के लिये हो, अनुप्रयुक्त परिस्थितिकी कहते हैं। जो पौधे बालू में उगते हैं, उन्हें समोद्भिद कहते हैं। इसी प्रकार पत्थर पर उगनेवाले पौधे शैलोद्भिद (Lithophyte) तथा अम्लीय मिट्टी पर उगनेवाले आग्जीलोफाइट कहलाते हैं। जो पौधे नमकवाले दलदल में उगते हैं, उन्हें लवणमृदोद्भिद (Halophyte) कहते हैं, जैसे सुंदरवन के गरान (mangrove), जो तीव्र सूर्यप्रकाश में उगते हैं उन्हें आतपोद्भिद (heliophyte) और जो छाँह में उगते हैं, उन्हें सामोफाइटा कहते हैं।

शरीरक्रिया विज्ञान (Physiology)  इसके अंतर्गत पौधों के शरीर में हर एक कार्य किस प्रकार होता है इसका अध्ययन किया जाता है। जीवद्रव्य कोलायडी प्रकृति का होता है और यह जल में बिखरा रहता है। भौतिक नियमों के अनुसार जल या लवण मिट्टी से जड़ के रोम के कला की कोशिकाओं की दीवारों द्वारा प्रवेश करता है और सांद्रण के बहाव की ओर से बढ़ता हुआ संवहनी नलिका में प्रवेश करता है। यहाँ से यह जल इत्यादि किस प्रकार ऊपर की ओर चढ़ेंगे इसपर वैज्ञानिकों में सहमति नहीं थी, पर अब यह माना जाता है कि ये केशिकीय रीति से केशिका नली द्वारा जड़ से ऊँचे तने के भाग में पहुँच जाते हैं। पौधों के शरीर का जल वायुमंडल के संपर्क में पत्ती के छिद्र द्वारा आता है। यहाँ भी जल के कण वायु में निकल जाते हैं, यदि वायु में जल का सांद्रण कम है। जैसे भीगे कपड़े का जल वाष्पीभूत हो वायु में निकलता है, ठीक उसी प्रकार यह भी एक भौतिक कार्य है। अब प्रश्न यह उठता है कि पौधों को हर कार्य के लिये ऊर्जा कहाँ से मिलती है तथा ऊर्जा कैसे एक प्रकार से दूसरे प्रकार में बदल जाती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पर्णहरित पर प्रकाश पड़ने से प्रकाश की ऊर्जा को पर्णहरित पकड़ कर कार्बनडाइआक्साइड और जल द्वारा ग्लूकोज़ और आक्सीजन बनाता है। ये ही ऊर्जा के स्रोत हैं (देखें प्रकाश संश्लेषण)। प्रकृति में पौधों द्वारा नाइट्रोजन का चक्र भी चलता है। पौधों की वृद्धि में प्रकाश का योग बड़े महत्व का है। प्रकाश से ही पौधों का आकार और भार बढ़ते हैं तथा नए ऊतकों और आकार या डालियों का निर्माण होता है। जिन पादपों को प्रकाश नहीं मिलता, वे पीले पड़ने लगते हैं। ऐसे पादपों को पांडुरित (etiolated) कहते हैं। प्रकाश के समय, दीप्तिकाल (photo period), पर ही पौधे की पत्ती बनना, झड़ना, तथा पुष्प बनना निर्भर करता है। इसे दीप्तिकालिता (Photoperiodism) कहते हैं। 24 घंटे के चक्र में कितना प्रकाश आवश्यक है ताकि पौधों में फूल लग सके, इसे क्रांतिक दीप्तिकाल कहते हैं। कुछ पौधे दीर्घ दीप्तिकाली होते हैं और कुछ अल्प दीप्तिकाली और कुछ उदासीन होते हैं। इस जानकारी से जिस पौधे में फूल न चाहें उसमें फूल का बनना रोक सकते हैं और जहाँ फूल चाहते हैं वहाँ फूल असमय में ही लगवा सकते हैं। वायुताप का भी पौधों पर, विशेषकर उनके फूलने और फलने पर, प्रभाव पड़ता है। इसके अध्ययन को फीनोलॉजी (Phenology) कहते हैं। यह सब हार्मोन नामक पदार्थों के बनने के कारण होता है। पौधों में हार्मोनों के अतिरिक्त विटामिन भी बनते हैं, जो जंतु और मनुष्यों के लिये समान रूप से आवश्यक और हितकारी होते हैं। पौधों में गमनशीलता भी होती है। ये प्रकाश की दिशा में गमन करते हैं। ऐसी गति को प्रकाशानुवर्ती और क्रिया को प्रकाश का अनुवर्तन (Phototropism) कहते हैं। पृथ्वी के खिंचाव के कारण भी पौधों में गति होती हैं, इसे जियोट्रॉपिज़्म (Geotropism) कहते हैं।

पादपविज्ञान की एक शाखा पादपाश्म विज्ञान (Palaeobotany) है। इसके अंतर्गत उन पौधों का अध्ययन किया जाता है, जो करोड़ों वर्ष पूर्व पृथ्वी पर रहते थे, पर अब कहीं नहीं पाए जाते और अब फॉसिल बन चुके हैं। उनके अवशेष पहाड़ की चट्टानों, कोयले की खानों इत्यादि में मिलते हैं। चूँकि पौधे के सभी भाग एक से जुड़े नही मिलते, इसलिये हर अंग का अलग अलग नाम दिया जाता है। इन्हें फॉर्मजिनस कहते हैं। पुराने समय के काल को भूवैज्ञानिक समय कहते हैं। यह कैंब्रियन-पूर्व-महाकल्प से शुरु होता है, जो लगभग पाँच अरब वर्ष पूर्व था। उस महाकल्प में जीवाणु शैवाल और कवक का जन्म हुआ होगा। दूसरा पैलियोज़ोइक कहलाता है, जिसमें करीब 60 करोड़ से 23 करोड़ वर्ष पूर्व का युग सम्मिलित है। शुरू में कुछ समुद्री पौधे, फिर पर्णहरित, पर्णगौद्भिद और अंत में अनावृतबीजी पौधों का जन्म हुआ है। तदुपरांत मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic era) शुरू होता है, जो छह करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त हुआ। इस कल्प में बड़े बड़े ऊंचे, नुकीली पत्तीवाले, अनेक अनावृतबीजी पेड़ों का साम्राज्य था। जंतुओं में भी अत्यंत भीमकाय डाइनासोर और बड़े बड़े साँप इत्यादि पैदा हुए। सीनाज़ोइक कल्प में द्विवीजी, एवं एकबीजी पौधे तथा स्तनधारियों का जन्म हुआ।

इनके अतिरिक्त जो पादप मनुष्य के काम आते हैं, उन्हें आर्थिक वनस्पति कहते हैं। यों तो हजारों पौधे मनुष्य के नाना प्रकार के काम में आते हैं, पर कुछ प्रमुख पौधे इस प्रकार हैं :

अन्न  गेहूँ, धान, चना, जौ, मटर, अरहर, मक्का, ज्वार इत्यादि।

फल  आम, सेब, अमरूद, संतरा, नींबू, कटहल इत्यादि।

पेय  चाय, काफी इत्यादि।

साग सब्जी  आलू, परवल, पालक, गोभी, टमाटर, मूली, नेनुआ, ककड़ी, लौकी इत्यादि।

रेशे बनानेवाले पादप  कपास, सेमल, सन, जूट इत्यादि।

लुगदीवाले पादप  सब प्रकार के पेड़, बाँस, सवई घास, ईख इत्यादि।

दवावाले पादप  एफीड्रा, एकोनाइटम, धवरबरुआ, सर्पगंधा और अनेक दूसरे पौधे।

इमारती लकड़ीवाले पादप  टीक, साखू, शीशम, आबनूस, अखरोट इत्यादि।

(राधेश्याम अंबष्ट)

पादप प्रजनन (Plant Breeding) का अब पर्याप्त विकास हुआ है। मेंडेल (1865 ई.) की खोजों से पहले भी यह मिस्र देश में अच्छे प्रकार से ज्ञात था। बहुत समय पहले जब इस विष्य का वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं हुआ था तब भी अच्छे प्रकार के फूलों और फलों के उत्पादन के लिये बाग बगीचों में यह कार्य संपन्न किया जाता था। इस विषय पर सबसे पुराना साहित्य चीन की एनसाइक्लोपीडिया में मिलता है। अच्छे फूलों और फलों के लिये ऐसे पेड़ों का चुनाव किया जाता था जो अच्छे फूल और फल दे सकते थे। कुछ लोगों का कथन है कि यह कार्य प्राचीन काल में चीन और इटली में गुलाब तथा अच्छी जाति के अन्य पौधों के लिये किया जाता था। डार्विन के मतानुसार हॉलैंड के पुष्पप्रेमियों के द्वारा भी ऐसी ही क्रिया की जाती थी।

पादप प्रजनन का वैज्ञानिक विकास यूरोप में 18वीं शताब्दी के अंत में प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम यह कार्य बेलजियम के वानमॉन, इंग्लैंड के नाइट और अमरीका के कूपर द्वारा शुरू किया गया था। 1843 ई. में गेहूँ तथा कुछ अन्य पौधों के सुधार का काम शुरु हुआ। विभिन्न देशों से अच्छे प्रकार के बीज या पौधे मँगाकर उगाए जाते थे। फिर उनमें कुछ का चुनाव कर उनको बड़ी मात्रा में उपजाया जाता था। इस विधि से कुछ नए प्रकार के पौधे भी प्राप्त हुए। तब तक गर्भाधान की क्रिया का अन्वेषण नहीं हुआ था। 1830 ई. में परागनलिका (pollen tube) का बीजांड (ovule) तक पहुँचना देखा गया। 1886 ई. में गर्भाधान क्रिया का अन्वेषण स्ट्रॉसवर्गर द्वारा किया गया और 19वीं शताब्दी के अंत तक गार्टनर ने जर्मनी के 700 पौधों का गर्भाधान कराकर, लगभग 250 नए पौधों को उगाया।

कृत्रिम रीति से परागण कराकर नए पौधे प्राप्त करने की क्रिया का पादप प्रजनन कहते हैं। इस प्रक्रिया के कुछ नियम बने हुए हैं, जिनसे यह कार्य संपन्न हो सकता है। दो जातियों या गणों में, जो एक दूसरे से कई गुणों में भिन्न होते हैं, कृत्रिम परागण या गर्भाधान कराकर देख जाता है। प्रथम पीढ़ी (generation) में ये पौधे उन दोनों पौधों के गुण दिखाते हैं जिनसे वे प्राप्त किए जाते हैं, और दूसरी पीढ़ी में दबे हुए गुण भी प्रत्यक्ष हो जाते हैं। दो अनुरूप गुणों से प्राप्त पौधों को हाइब्रिड कहते हैं। ऐसा देखा गया है कि ये हाइब्रिड पितृ पौधों से उत्तम होते हैं। इस कार्यविधि को हेट्रोसिस (Hetrosis) कहते हैं। इस शब्द का निर्माण शल ने सन्‌ 1914 में किया था। इस विधि द्वारा हम दो पितृगुणों को एक में ले आते हैं। अत: किन्हीं भी अच्छे गुणोवाले पौधों का चुनाव करके अच्छे गुण एक ही पौधे में प्राप्त किए जा सकते हैं।

संसार में जितनी महान्‌ क्रांतियाँ हुई, उनमें प्राय: लोग एक जगह से दूसरी जगह गए हैं और भोजन एवं वस्त्र की कमी ने उनको तरह-तरह के अन्वेषण करने को विवश किया है। इस अवस्था में पादप प्रजनन की विधियों ने मनुष्य की आर्थिक दशा सुधारने में सर्वदा योगदान किया है। अमरीका और यूरोप में इन विधियों को काफी महत्व दिया गया है।

पादप प्रजनन के कार्य के लिये चार बातें बहुत ही आवश्यक हैं : (1) अच्छी जातियों का चुनाव, (2) प्राप्त होनेवाले पौधों का महत्व, (3) परागण और गर्भाधान तथा (4) इनके फलस्वरूप प्राप्त पौधों का उचित चुनाव। इनमें से प्रथम कार्य के लिये विभिन्न देशों से अच्छी जाति के पौधे प्राप्त किए जाते हैं और उनमें उन गुणों की खोज की जाती है जो बहुत ही उपादेय होते हैं। इसके बाद उनको अच्छे प्रकार से उगाने की विधियों का अन्वेषण होता है। जब उनमें फूल आ जाते हैं तब उनको दूसरे प्रकार के तथा अन्य गुणोंवाले पौधे से परागण और गर्भाधन कराते हैं। इस क्रिया के पश्चात्‌ उगनेवाले फलों और बीजों की परीक्षा की जाती है। इनमें से पुन: चुनाव करके, फिर कृत्रिम परागण और गर्भाधान कराते है।

इस क्रिया का प्रयोग देश की आर्थिक उन्नति में बहुत ही सहायक है। इस क्रिया के द्वारा कपास, तंबाकू, गेहूँ, चावल, दलहन और दवाइयों में काम आनेवाले ऐसे पौधों का पर्याप्त विकास किया गया है जो हर वातावरण में अपने को ठीक रख सकें।

(राधेश्याम अंबष्ट)

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संदर्भ
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