पानी-हवा के मोह में जुटा व्यावहारिक सन्त बाबा सीचेवाल

Submitted by Hindi on Fri, 01/08/2016 - 13:48
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सनद रहे, आज को बदलो, कल बदलेगा, मई 2014

सन्त बलबीर सिंह सीचेवाल की शख्सियत अब किसी पहचान की मोहताज नहीं रही। देसी-विदेशी मीडिया ने सन्त बलबीर सिंह सीचेवाल की सोच व कारगुजारी को पूरा सम्मान दिया है। देश के पूर्व राष्ट्रपति ने पर्यावरण सम्बन्धित एक संदेश में बाबा सीचेवाल का खासतौर पर जिक्र करके उनके काम को मान्यता दी है। गुरुनानक देव जी के काल की काली बेई नदी को पुनर्जीवित करने की राह पर चल रहे बाबा सीचेवाल की कार्यप्रणाली व किए गए काम पर नजरसानी कर रहे हैं..

संत सीचेवाल के मेहनत से साफ हुई नदी14 जुलाई, 2000 में सावन की संक्राति से एक दिन पहले, जालंधर के सेंट्रल को-आॅपरेटिव बैंक के हॉल में, गैर-सरकारी पर पर्यावरण प्रेमियों द्वारा बनाई गई ‘धरत सुहावी’ नामक संस्था के निमंत्रण पर पवित्र काली बेई के प्रदूषण की समस्या पर विचार करने के लिये बुद्धिजीवियों की एक सभा आयोजित की गई। (काली बेई का इतिहास यह है कि सिखों के प्रथम गुरु श्री गुरुनानक देव जी ने इस बेई में तीन दिन तक जल समाधि ली व जब वे बाहर आए तो उनके श्रीमुख से एकोंकार सतनाम शब्द का उच्चारण हुआ। यह शब्द सिखी में मूलमंत्र माना जाता है।) इसमें संस्था के प्रधान डा. बलबीर सिंह भौरा तथा सचिव डा. निर्मल सिंह सहित जितने भी वक्ताओं ने भाषण दिए लगभग सभी ने अपने भाषण में स्थिति की गम्भीरता पर चिंता प्रकट की। इस सभा में सन्त बलबीर सिंह सीचेवाल भी विशेष तौर पर आमंत्रित थे। इस अवसर पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि यदि हालत इतने ज्यादा गम्भीर हैं तो हमें शब्द-जाल बुनने के स्थान पर ठोस तौर पर कुछ करना चाहिए। इसी अवसर पर आप ने बेर्इं की कार सेवा आरम्भ करने की घोषणा की तथा वहाँ उपस्थित बुद्धिजीवियों को साथ देने का निमंत्रण दिया।

उपस्थित लोगों को विश्वास न आया क्योंकि उन्हें ऐसा प्रतीत होता था कि यह कार्य करना इतना बड़ा है कि अकेला आदमी इसे नहीं कर सकता अलबत्ता यह बुद्धिजीवियों के विवादों पर चर्चा के लिये एक बढ़िया विषय जरूर हो सकता है। परन्तु बाबा सीचेवाला मात्र शब्दों तक ही सीमित न थे। इससे पहले वे अपने इलाके गाँव सीचेवाल व आस-पास के इलाकों में सरकार की सड़कों के प्रति बेसुधी का जवाब देते जनता को प्रेरणा देकर समस्त लिंक सड़कें बनवा चुके थे। गाँव में मात्र नाली के खर्चे पर चार फुट वर्ग का नई तकनीक वाला सीवरेड सिस्टम तैयार करवा चुके थे जिसने न तो कभी रूकना था न ही जमीन को भीतर से खराब करना था। लब्बोलुआब कि जन-कल्याण के कार्यों की रूचि ही नहीं बल्कि आदत भी थी।

यह काम तो संगत कर रही है


संत सीचेवाल के मेहनत से साफ हुई नदीइस घटना के करीब साढ़े चार साल बाद, दसूहा बस अड्डे से करीब पाँच किलोमीटर की दूरी पर, मियाणी को जाते रास्ते पर बने बेर्इं के पुल के ऊपर खड़े एक गेरुआधारी सिख नौजवान का आभा मंडल देख कर एक ग्रामीण महिला रूक जाती है। उसके चेहरे पर उत्सुकता के भाव हैं क्योंकि उस गेरुआधारी सिख को पुल के दोनों ओर बेर्इं से सिल्ट निकाल रहे लोगों का निरीक्षण करते व उन्हें हिदायत देते देख वह कुछ-कुछ समझ जाती हैं। थोड़ा नजदीक आकर वह पूछती है, ‘क्या आप ही वो बाबा जी हैं जो बेईं की सेवा करवा रहे हैं?’ गेरुआधारी हँस कर जवाब देता है, ‘यह काम तो संगत कर रही है।’ महिला अब कोई सवाल नहीं करती, अपने पर्स से दो सौ-सौ रुपए के नोट निकाल कर उनके हाथ में देकर प्रणाम करती है, ‘बाबा जी, तुसी तां सानूं जीउन जोगा कर दित्ता, वाहेगुरु तुहानू होर ताकत बख्शे।’ (बाबा जी आपने हमें जीने के लायक बना दिया वाहेगुरु आपको और ताकत दे।) इतना कह कर वो बाबा को प्रणाम करके चली जाती है। बाबा जी वो पैसे अपने कंधे पर लटके झोले में डाल कर वहाँ से चल पड़ते हैं। यह गेरुआधारी कोई और नहीं बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल है। सन्तो-भक्तों व गुरुओं-पीरों की धरती पंजाब में हर किलोमीटर पर डेरे बना कर बैठे सन्तों में से एक पर सबसे अलग पहचान रखने वाला कर्मयोगी सन्त। केवल धार्मिक उपदेश देकर ही पल्ला झाड़ लेने वालों से अलग हटकर पंजाब के पानी के लिये चिन्तित, कामिल फकीर व पहली पातशाही गुरु नानक देव जी के चरण स्पर्श प्राप्त काली बेर्इं को बाबा नानक के समय जैसी बेर्इं बनाने की जिद पकड़े हुए। अपने कर्म के सदके महकमा सिंचाई के अफसरों को शर्मसार करने जैसे हालात पैदा करता हुआ।

इसी नदी से मिला एक ओंकार का ज्ञान


संत सीचेवाल के मेहनत से साफ हुई नदीदसूहा के पास से शुरू होकर 160 किलोमीटर का रास्ता तय करती इस ऐतिहासिक नदी से श्री गुरु नानक देव जी को एक ओंकार का ज्ञान मिला था। इस लिहाज से ये नदी तो पंजाब के लिये बहुत बड़े गहने जैसी है। ऊपर से पंजाब हरिके पत्तन नामक स्थान से जो पानी राजस्थान को जाता है उस जल भण्डार में बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका यह पानी भी मिलता है, जो राजस्थान में पीने से लेकर गुरुघर के लंगर बनाने तक के कार्यों में प्रयोग होता है। पर अफसोस कि काली बेर्इं का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया था। बेर्इं में गाद और सिल्ट इस हद तक जमा हो गया कि उसके जलस्तर का स्थान गंदगी ने ले लिया। जहाँ पानी था वहाँ हायासिंथ नामक बूटी ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया जिसके चलते पानी का बहाव लगभग जकड़ा जा चुका था। मुकेरियां हाइडल नहर से निकल कर बेर्इं में आने वाले पानी को सरकारी तौर पर रोकना पड़ा क्योंकि सिल्ट व गाद से बंद हो चुकी बेर्इं में वो पानी जाते ही आगे जाने के रास्ते के अभाव में साथ लगते खेतों में घुस जाता व खड़ी फसलों पर तबाही बरपा देता। उस इलाके में पानी की अधिकतर मात्रा से उक्त इलाका सेम की मार से घिर गया जबकि आगे वाले इलाके में पानी न पहुँचने से वहाँ का जलस्तर बहुत नीचे चला गया।

सरकार के पास इस समस्या से निपटने के जो उपाय थे उनके विकल्पों तक पर विचार नहीं किया गया, समस्या हल करने की कोशिश तो क्या होनी थी। शायद इस बेर्इं की सेवा बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल की किस्मत में लिखी थी। जालंधर में बुद्धिजीवियों की बैठक से निकल कर सन्त सीचेवाल ने सीधा बेईं का रुख किया। आपने जो कहा था सोच-विचार कर कह कहा था। अगले ही दिन, 15 जुलाई 2000 को सावन की संक्रान्ति वाले दिन सुलतानपुर के ऐतिहासिक गुरुद्वारे बेर साहिब में प्रारम्भिक अरदास करने के पश्चात कार सेवा का कार्य असल में आरम्भ कर दिया। उस दिन पहले गाँव डल्ले के रास्ते सुलतानपुर लोधी आने वाली सड़क तैयार की गई ताकि गुरु संगतों को कार सेवा के लिये सुलतानपुर पहुँचने में कठिनाई न हो। तत्पश्चात सुलतानपुर क्षेत्र के मुख्य लोगों की एक सभा बुलाई गई जिसमें सन्त जी ने लोगों को अपने निर्णय से परिचित करवाया। तत्पश्चात गुरुद्वारा सन्त घाट के नजदीक तम्बू लगा कर सेवा आरम्भ कर दी गई।

बेर्इं नदी की सफाई करने तथा इसे सुंदर बनाने के कार्य को सन्त बलबीर सिंह द्वारा किए जा रहे सब कार्यों से उच्च माना जाता है। निश्चय ही यह गुरु संगत के सहयोग से की गई सर्वोच्च प्राप्ति है, क्योंकि-

1. यह एक ऐसा कार्य था जो आम आदमी की कल्पना से बाहर था। यहाँ तक कि सरकारें भी ऐसे कार्यों को हाथ डालने में गुरेज करती हैं।
2. यह एक बहुपक्षीय कार्य था जिसमें शामिल सारे कार्य, अलग तौर पर भी, बहुत बड़े तथा विशेष महत्त्व को दर्शाते थे। जैसा कि बेर्इं के रास्ते की सफाई, किनारे बनाना, वृक्ष तथा फल-पौधे लगाना, किनारों पर पत्थर लगाना, बेर्इं के रास्ते की निशानदेही, आदि। अब तक किए गए विकास कार्यों का तुर्जबा बेर्इं की सेवा में काम आया।
यह एक अत्यन्त जोखिमपूर्ण कार्य था जिसकी चुनौती को सन्त जी ने साहस से कबूल किया। इस कार्य में निम्नलिखित चुनौतियाँ शामिल थीं-

हायासिंध बूटी, जिसने बेईं को पूरी तरह ढांका हुआ था तथा पानी के वेग को पूरी तरह जकड़ रखा था, को बेर्इं में से निकालना। स्वयं पहल करते हुए बाबा जी बेर्इं में कूद पड़े तथा बूटी निकालने का कार्य आरम्भ कर दिया। जब एक स्थान से बूटी निकालने का कार्य पूर्ण हुआ तो पीछे के बहाव से और बूटी आती गई। इस प्रकार यह कार्य लगातार प्रयत्न तथा मेहनत की माँग करता था। बेर्इं के रास्ते में पानी के बहाव से आई मिट्टी को बाहर निकालना, इसके लिये सख्त मेहनत तथा अत्यन्त आधुनिक मशीनरी की जरूरत थी। बेर्इं के क्षेत्र की निशानदेही में कई बार अधिकारियों का रवैया सहयोग वाला तथा हमदर्दी वाला नहीं होता था। और भी बुरी बात यह थी कि कई बार इसका रिकार्ड भी नहीं मिलता था। जिन किसानों की भूमि बेर्इं के साथ लगती थी, अपनी अज्ञानता तथा तंगदिली के कारण साधारणतया किसान सन्त जी के इस काम का विरोध इसलिए करते रहे क्योंकि वे डरते थे कि बेर्इं के क्षेत्र की सही निशानदेही होने से उनके अवैध कब्जे वाली भूमि हाथ से निकल जाएगी। वे यह नहीं जानते थे कि यदि बेर्इं में स्वच्छ तथा साफ पानी का बहाव पुन: बहाल हो जाए तो इसके कितने लाभ हो सकते हैं।

सरकारी घोषणा हास्यास्पद थी


संत सीचेवाल के मेहनत से साफ हुई नदीबेर्इं में साफ पानी की बहाली रास्ते के पूरी तरह रूक जाने के कारण इसका शुरू वाला पानी रास्ते में ही रूका रहता है तथा सुलतानपुर की पवित्र धरती तक नहीं पहुँचता था। मुकेरियां हाईडल नहर से बेर्इं में साफ पानी छोड़ने की सरकारी घोषणा हास्यस्पद एवं मात्र राजनीतिक प्रचार ही थी। पानी के बहाव वाले रास्ते रुके होने के चलते छोड़ा गया पानी इसमें किस तरह बह सकता था? नतीजा यह हुआ कि जब इसमें दो बार पानी छोड़ा गया तो यह किनारों से बाहर निकल कर निचले क्षेत्रों में भर गया तथा वहाँ किसानों की फसलों के लिये खतरा बन गया। इस प्रकार पानी पुन: बंद कर दिया गया। गंदे पानी को बंद करवाना, ताजे, साफ पानी के न होने के कारण बेर्इं गाँवों, शहरों तथा कारखानों के गंदे पानी के निकास का एक साधन बन गई। इन क्षेत्रों के सीवरेज सिस्टम इस प्रकार बिछाए गए कि इनका पानी बेर्इं में जा सके। इस तरह बेर्इं का पानी अत्यन्त गंदा तथ दुर्गंधपूर्ण था। इसके अतिरिकत कई गाँवों-शहरों की गंदगी तथा कूड़े-कर्कट के ढेर फेंकने का स्थान बन गई थी बाबे नानक की काली बेर्इं। जब बेर्इं पर कार सेवा आरम्भ हुई, तब वहाँ जानवरों के शव भी मिले। इस तरह बेर्इं न केवल उपेक्षित रही बल्कि इसे बुरी तरह नकार भी दिया गया था।

यह थी बेईं की दुदर्शा जबे यहाँ कार सेवा आरम्भ की गई। बेर्इं पर कार्य एक लगातार तथा लम्बा कार्य था। अब सब भली-भाँति यह अनुभव करते हैं कि बहुत बड़ी तब्दीली हो चुकी है।

(क) बूटी को लगभग पूरी तरह समाप्त किया जा चुका है।
(ख) बह कर आई मिट्टी को बाहर निकाल कर बेर्इं के किनारे ऊँचे कर दिए गए हैं।
(ग) दोनों किनारों पर पत्थर लगाकर उन्हें पक्का कर दिया गया है तथा स्थान-स्थान पर सुंदर घाटों का निर्माण कर दिया गया है।
(घ) दोनों किनारों को समतल करके र्इंटों से बढ़िया सड़कें तैयार कर दी गई हैं।
(ड़) सड़कों के दोनों किनारों पर न केवल नए वृक्ष एवं पौधे लगा दिए गए हैं, बल्कि पुराने वृक्षों को भी उखाड़ने के स्थान पर बचाने तथा सम्भालने की विशेष कोशिश की गई हैं।
(च) पौधों की सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति का पक्का प्रबंध कर दिया गया है।
(छ) यात्रियों की सुविधा के लिये बेईं के दोनों ओर लाइटें लगा दी गई हैं।

परन्तु जो समस्या अभी भी ज्यों की त्यों थी, वह थी बेर्इं में लगातार पड़ रहे गंदे पानी की समस्या। सन्त बलबीर सिंह जी आम तौर पर सदैव क्षेत्र निवासियों को इस सम्बन्धी प्रार्थनाएँ करते रहते हैं। आप जी ने अनेकों बार बुद्धिजीवियों, लेखकों, अधिकारियों आदि से बैठकों का आयोजन किया है ताकि लोगों में इस सम्बन्धी चेतना का संचार हो सके। इस तरह एक सन्त ने संगतों को आध्यात्मिक खुराक के साथ-साथ इस एतिहासिक एवं धार्मिक महत्ता बढ़ाई है बल्कि इसको स्वच्छ एवं आकर्षण बनाकर मानवता की अनुकरणीय सेवा भी की है।