अब सवाल उठता है कि क्या पानी जीवन के अधिकार के अंतर्गत आता है या नहीं। अनेक विद्वान न्यायाधीशों का मत है कि पानी जीवन के अधिकार के अंतर्गत आता है। मेरा यहां पर यह मानना है कि पानी जीवन के अधिकार के अंतर्गत नहीं आता। कारण, पानी तो स्वयं में जीवन है। कोई भी वस्तु जीवन के अधिकार में आ सकती है, परन्तु जो स्वयं जीवन है, जिसके बिना जीवन अस्तित्व में ही नहीं आ सकता, उसको हम जीवन के अधिकार में कैसे सम्मिलित कर सकते हैं।
सवाल यह उठता है कि पानी किसके अधिकार क्षेत्र में आता है, तो बहुत ही सरल है यह कहना कि यह प्रकृति के ही अधिकार क्षेत्र में आता है। क्योंकि यह वस्तु नहीं है, यह उन पांच जीवन तत्वों में से एक है, जिससे जीवन की रचना होती है। अतः किसी भी सरकार को यह निर्णय करने का अधिकार नहीं है कि इसका व्यापार हो। हम सभी जानते हैं कि मानव सहित सभी प्राणी पंचतत्वों अर्थात ‘पृथ्वी’, ‘जल’, ‘अग्नि’, ‘वायु’ और ‘आकाश’ से बने हैं। मानव का तन और मन इन तत्वों से स्वतः स्फू्र्त और इनके असंतुलन से निष्क्रिय सा हो जाता है। प्रकृति ने इन पंचतत्वों को प्राणी मात्र के लिये बिना किसी भेदभाव के सुलभ कराया है। प्रकृति के विधान के अनुसार इन पर प्राणी मात्र का ही अधिकार है। परन्तु आज के भौतिक युग में जहां विज्ञान ने इतनी प्रगति की है कि उसकी पहुंच चन्द्रमा व मंगल ग्रह तक हो गयी है, वहीं औद्योगिकीकरण एवं उदारीकरण के कारण मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना ही रह गया। पैसों की इस भूख ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है और इतनी भ्रष्ट कर दी है कि आज वह जीवन अर्थात पानी का भी व्यापार करने में संकोच नहीं कर रहा। एक ओर जहां मनुष्य पानी का व्यापार करने पर आमादा है, वहीं दूसरी ओर हमारी अपनी सरकार भी इसको प्रोत्साहित करने में लगी है। लगता है कि सरकार को अपने मूलभूत दायित्व का भी बोध नहीं रह गया है। यहां पर यह जानना अति महत्वपूर्ण है कि क्या कोई भी सरकार जो कि एक वेलफेयर स्टेट होने का दावा करती है, वो इस बात का निर्णय कर सकती है कि पानी का व्यापार किया जाए। सवाल उठता है कि पानी किसके अधिकार क्षेत्र में आता है, तो बहुत ही सरल है यह कहना कि यह प्रकृति के ही अधिकार क्षेत्र में आता है। क्योंकि यह वस्तु नहीं है, यह उन पांच जीवन तत्वों में से एक है, जिससे जीवन की रचना होती है। अतः किसी भी सरकार को यह निर्णय करने का अधिकार नहीं है कि इसका व्यापार हो। यहां पर एक गंभीर सवाल पैदा होता है कि सरकार क्या करे? सरकार पानी पैदा कर नहीं सकती, पानी का व्यापार हो यह भी तय नहीं कर सकती तो फिर क्या करे?हमारे यहां फेमिली ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त की व्यवस्था रही है। परिवार का कर्ता अर्थात मुखिया एक ट्रस्ट बनाता है, जिसका उद्देश्य परिवार के सदस्यों के हितों की देखभाल करना है और उन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कुछ ट्रस्टी नियुक्त करता है, जो इन तय उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कार्य करते हैं। ट्रस्टियों को उद्देश्यों में फेरबदल करने का अधिकार नहीं होता। वे केवल उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु उचित योजनायें बना सकते हैं तथा उनके क्रियान्वयन के लिये अलग-अलग तरीकों का प्रयोग कर सकते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रकृति का भी अपना संविधान है। उस संविधान के कुछ उद्देश्य हैं, जो यह तय करते हैं कि प्रकृति द्वारा देय यह जीवन सुचारु रूप से कार्य करता रहे। इस संसार के उद्गम की प्रारम्भिक अवस्था में न केवल व्यक्ति अपितु प्रत्येक प्राणी मात्र अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिये स्वयं ही सारी व्यवस्थायें कर लेता था, परन्तु मनुष्य के विकास के साथ-साथ अनेक रूप में भिन्न-भिन्न संस्थाओं ने इनकी व्यवस्था की जिम्मेदारी अपने पर ले ली, जैसे प्रारम्भ में कबीलों ने, राजाओं ने व बाद में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों ने। यहां पर कहने का तात्पर्य यह है कि आज के समय में सरकार का दायित्व एक ट्रस्टी का दायित्व है जो प्रकृति के द्वारा देय जीवन का, प्रकृति द्वारा देय तत्वों का उचित संरक्षण करते हुये प्राणी मात्र के कल्याण के लिये विभिन्न योजनाओं को लागू करे।
प्रकृति ने इन जीवन तत्वों को उपलब्ध कराते हुये किसी प्रकार का भेद नहीं किया, किसी प्रकार की कीमत भी तय नहीं की। अतः सरकार का यह प्रमुख दायित्व है कि इन तत्वों की सुरक्षा के साथ-साथ बिना किसी भेदभाव के, मसलन जाति या धर्म के, अमीर-गरीब के इनको उपलब्ध कराये। यह जीवन तत्व है कोई वस्तु नहीं, अतः इनका व्यापार न करे और सहजता से सुलभ कराये, जिस प्रकार प्रकृति ने कराये हैं और इनका व्यापार न करे और न ही करने दे।
हमारे संविधान में ‘जीवन के अधिकार’ की बात कही गई है। जीवन के अधिकार का तात्पर्य है, जीवन को जीने के लिये आवश्यक चीजें जैसे रोटी, कपड़ा और मकान। यह तीनों चीजें सर्व समाज को उपलब्ध हों, यह दायित्व किसी भी सरकार का बनता है।
यहां एक बात और महत्व की है कि प्रकृति के ये तत्व जितनी मात्रा में हमें उपलब्ध हैं, उनकी यह मात्रा न कभी कम होती है, न ही अधिक। ये जितनी मात्रा में हैं उतनी ही मात्रा में सदैव हमारे पास रहने वाले हैं। इससे भी अधिक महत्व की बात है कि प्राणी मात्र भी इनका उपभोग करने के बाद इन्हें वापस कर देता है। जैसे मानो हम 5 लिटर पानी प्रतिदिन पीने के लिये उपयोग में लाते हैं तो यह 5 लिटर पानी किसी न किसी प्रकार से हमारे शरीर से बाहर निकल कर फिर से प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। इसको हम दूसरे प्रकार से भी समझ सकते हैं- जैसे हम मकान बनाते हैं और मकान बनाने में भिन्न-भिन्न प्रकार से पानी का उपयोग करते हैं जैसे रोड़ी, बदरपुर, सीमेंट, चूना आदि को मिलाने में, मकान की छत डालने में, नींव खोदने में आदि-आदि। पर क्या वह पानी उस मकान में ही रह जाता है! विचार करके देखिये, वो पानी जैसे-जैसे मकान का कार्य पूरा होता है, धीरे-धीरे वाष्प बन कर उड़ जाता है। अर्थात प्रकृति के पास वापस चला जाता है।दूसरी महत्व की बात यह है कि प्रकृति के इन पांच तत्वों को हम ठीक उसी प्रकार ग्रहण करते हैं, जिस प्रारूप में प्रकृति ने हमें इन्हें सौंपा है। हममें से कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि मैं इनके किसी प्रारूप को बदल कर उपभोग करता हूं। इनके उपभोग से पूर्व इनको प्राप्त करने के लिये हम किसी प्रकार का श्रम या शक्ति खर्च करते हैं, ऐसा भी नहीं है, जैसे किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिये। किसी भी वस्तु का उपभोग करने से पहले हमें वस्तु को जिस रूप में ग्रहण करना है, उसके लिये कुछ कार्य निश्चित रूप में करने होते हैं। उदाहरण के लिये हम भोजन को ही लें- भोजन हम जिस रूप में ग्रहण करते हैं, वह कितनी अवस्थाओं में से होकर गुजरता है, कितने लोगों का श्रम उसमें सम्मिलित है यह देखें- सर्वप्रथम किसान अपने खेत में हल चलाता है, ताकि भूमि खेती योग्य हो जाए। उसके बाद उसमें बीज डालता है और पानी देता है। पौधा उगता है, फिर बड़ा होता है। वह फल देने योग्य हो, तब तक उसकी सुरक्षा करता है और फसल पक जाने पर अनाज के रूप में उसकी कटाई करता है। उसके बाद वो बाजार में उसे पारिश्रमिक के साथ बेचता है। यहां पर किसान का कार्य समाप्त हो जाता है। बाजार से हम अनाज खरीदते हैं, घर पर लाते हैं, उसकी सफाई करते हैं और उस अनाज को आटे के रूप में परिवर्तित कराने हेतु चक्की से पीसते हैं या पीसवाते हैं। यहां तक दूसरी प्रक्रिया पूरी होती है। अब उसे खाने योग्य बनाने के लिये गृहिणी उसे रोटी के रूप में परिवर्तित करती है और तब हम उस रोटी रूपी भोजन को ग्रहण करके हम अपना जीवन जीते हैं। कहने का तात्पर्य है कि बीज भोजन बनने तक कितनी अवस्थाओं से होकर गुजरता है, यह हमें ध्यान में आता है। पर क्या पीने का पानी किसी अवस्था से होकर गुजरता है? नहीं। तो यहां पर वस्तु और जीवन तत्व का अन्तर स्पष्ट होता है।
हमारे संविधान में ‘जीवन के अधिकार’ की बात कही गई है। जीवन के अधिकार का तात्पर्य है, जीवन को जीने के लिये आवश्यक चीजें जैसे रोटी, कपड़ा और मकान। यह तीनों चीजें सर्व समाज को उपलब्ध हों, यह दायित्व किसी भी सरकार का बनता है। सरकार को इन्हें उपलब्ध कराने के लिये वो सब कार्य करने होते हैं, जो इनके लिये आवश्यक हों। सरकार के अस्तित्व में आने और बने रहने का मूल कारण यही है कि वह लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करे।
सोने की चिडि़या कहलाने वाला भारत सैकड़ों साल तक आजादी की लड़ाई लड़ता रहा। आजादी के बाद सुनहरे सपने देखे गए। परन्तु आशाएं पूरी नहीं हुईं। गरीब और गरीब होता गया। आज देश जाति और धर्म के आधार पर बंटता जा रहा है। अतः जीवन के अधिकार की बात केवल संविधान तक ही सीमित रह गयी है। जीवन के अधिकार का अर्थ होता है कि जिन लोगों के पास रोटी, कपड़ा और मकान नहीं हैं, उनको सरकार यह सब उपलब्ध कराये। जो लोग बेरोजगार हैं, उन्हें सरकार बेरोजगारी भत्ता दे, ताकि वे इन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। जैसे आज अमेरिका कर रहा है। वहां यदि कोई व्यक्ति बेरोजगार है तो सरकार उसे बेरोजगारी भत्ता प्रदान करती है, ताकि वो अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। लेकिन अपने यहां ऐसा नहीं है। अब सवाल उठता है कि क्या पानी जीवन के अधिकार के अंतर्गत आता है या नहीं। अनेक विद्वान न्यायाधीशों का मत है कि पानी जीवन के अधिकार के अंतर्गत आता है। मेरा यहां पर यह मानना है कि पानी जीवन के अधिकार के अंतर्गत नहीं आता। कारण, पानी तो स्वयं में जीवन है। कोई भी वस्तु जीवन के अधिकार में आ सकती है, परन्तु जो स्वयं जीवन है, जिसके बिना जीवन अस्तित्व में ही नहीं आ सकता, उसको हम जीवन के अधिकार में कैसे सम्मिलित कर सकते हैं।
अतः किसी भी संविधान में पानी के बारे में कुछ लिखा है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि पानी संविधान से परे है। इस पर केवल प्रकृति का ही अधिकार है। उसी के संविधान के तहत पानी हमें मिलता है। प्रकृति के बाद केवल प्राणी मात्र का इस पर अधिकार है, किसी सरकार या कंपनी का नहीं।
(लेखक जलाधिकार संस्था के महासचिव हैं) ईमेलः godukakc@gmail.com