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‘एक थी टिहरी’ पुस्तक से साभार, युगवाणी प्रेस, देहरादून 2010
‘दादा! मेरा दाँत टूट गया।’
‘अच्छी बात है। गोबर में लपेट कर छान की छत पर फेंक दे।’ तब दादा और मैं छान में निवास करते थे। वहाँ मुख्य रूप से पशुपालन का ही काम होता था, इससे गोबर खेती के निकट ही मिल जाता था। छान के एक कोने पर अलाव जलाकर हम रहते थे और दूसरे कोने पर बैल-भैंस। कभी आग बुझ गई तो दोबारा से आग प्राप्त करने की बड़ी समस्या होती थी। तब दादा बटुए से अगेला (लोहे का बना गुटका), रुई और गारा (पत्थर) निकालते और चिनगारी तैयार करते थे। किसी चिनगारी से रुई जल उठती थी तो उससे सेलु के कुश्यार को जलाते थे, कुस्यार जलने से भीमल केड़ों को जलाकर चूल्हें में आग जलाते थे। जब कभी रुई, कुश्यार, केड़े भीगे हुए होते तो आग जलाना मुश्किल हो जाता था। तब दादा मुझे करछुल लेकर आग माँगने जिंगली दादा की छान में भेजते थे। उनकी छान हमारी छान से 15-20 खेत नीचे थी। उन्होंने पठाल का भुमण्डा अपने लिये और खर-पतवार की छोपड़ी पशुओं के लिये बना रखी थी। भुमण्डा बरसात के पानी से सुरक्षित रहता था इसलिये सीलन और पानी का खतरा कम था। दादा का आग तैयार करने का अलग ही तरीका था। खेतों की मेड़ों पर कपास नाम के कुछ पत्ते उगते हैं, जो एक तरफ हरे और दूसरी तरफ सफेद होते हैं उन पत्तों से सफेद झिल्ली निकालकर गरम-गरम राख में मिलाई जाती थी। एक विशेष प्रकार के कंकड़, कपास और लोहे का अगेला दादा एक थैली में रखते थे। तम्बाकू पीना हो या आग तैयार करनी हो मैं दादा के लिये कंकड़ और कपास जुटाने में पारंगत हो गया था।
रात को भट्टी पर दूध गरम करने के बाद दादा दूध के बर्तन (दुधेण्डा) से खोर्नी (खुरचन) निकालते थे। उस स्वादिष्ट खुरचन को हम दोनों मिलकर खाते थे, लोग दादा के सम्बन्ध में रोचक किस्से सुनाते हैं। एक बार जब दादा खोर्नी (खुरचन) खा रहे थे तो भूत ने उनसे खोर्नी माँगी, दे नुनु खोर्नी! एक दिन दादा ने बड़ा चिमटा भट्टी पर रखा और गर्म किया फिर भूत को कहा ले खा! ले खा! कहते हुए उन्होंने गरम चिपटा उस पर दे मारा। एक बार बाघ फूस की छत से अन्दर प्रवेश कर वहाँ बंधी गाय को मारना चाहता था। बाघ ने छत पर छेद कर पहले पूँछ अन्दर डाली। दादा ने लम्बा चिमटा भट्टी पर गर्म कर एक हाथ से बाघ की पूँछ खींची और दूसरे हाथ से चिमटा पकड़ कर बाघ के पेट में घुसा दिया। बाघ दहाड़ मारता हुआ जान बचा कर भाग खड़ा हुआ। दादा भैंस के नर शिशु को अधिक दूध पिलाकर मार देते थे और मादा शिशु की खूब देख-रेख करते थे। उनका कहना था कि एक गाँव में दो रागी (गवैये) और दो बागी (भैंसे) नहीं रहते। एक भैंसा तो सौणू रखता ही है। नर भैंसे की पहाड़ की अर्थव्यवस्था में कोई जगह नहीं होती, इसलिये दादा की भाँति अन्य लोग भी नर भैंसे को जिन्दा नहीं रखते थे जबकि घी, दूध, दही देने वाली मादा भैंस की लोग उसकी शिशु काल से ही खूब देख-रेख करते थे।
शिशु विहीन भैंस को दुहते समय दादा उसके सामने मुझे खड़ा कर देते थे और मुझे भैंस को सहलाने के लिये कहते थे। एक बार मैं अपने ननिहाल में रुक गया तो भैंस ने दूध नहीं दिया, दादा ने कहा, भैंस ने तेरे कारण दूध नहीं दिया क्योंकि भैंस तुझ पर ‘माया’ करती है। बरसात में सुबह-सुबह उठकर हम खेतों में उगे हुए मशरूम उखाड़ कर लाते थे और पेट भर कर खाते थे तथा लोगों में भी बाँटते थे। दादा पत्थर की दीवार के साथ छिन्ना-मन्दार, लेण्डवा जैसे पेड़ों के तने भी रखते थे, तने वहाँ अपनी जड़ तैयार कर पत्थरों को जकड़ देते थे, जिससे दीवार ढहने का खतरा नहीं रहता था।
‘तेरी तबियत ठीक है रे! चेहरा कुछ पीला लग रहा है।’ नानी मुझसे पूछ रही थी। दरअसल मैं पेट भर खीस (पहला दूध) खाकर 5 किमी दौड़ लगाता हुआ स्कूल गया था। दो-दो भैंसों के एक साथ व्यांने के कारण माँ को मेरे लिये खाना बनाने का समय नहीं मिलता था तब नानी ने मुझे खीस गरम कर पेट भर कर खिला दी थी। सारी खीस दौड़ लगाने में पच गई थी। तब मेरे बीमार होने की प्रबल सम्भावना थी। एक बार पानी के धारे से चौड़े मुँह वाले पतीले पर पानी लाते समय मैं गिर पड़ा था, पानी के छलकने के साथ-साथ मेरी गरदन भी इधर-उधर झुक जाती थी। पतीला मेरी क्षमता से अधिक भारी भी था। मेरे गिरने से पतीला फूटा, पानी गिरा और मेरे घुटनों और माथे से खून बहने लगा, चोट का खोट (निशान) आज भी मेरे माथे पर चमकता है। नानी ने एक हाथ से मेरी बाजू पकड़कर डण्डे से मेरी पिटाई की और कहा, तू गिरा क्यों? कहाँ देख रहा था? देखकर नहीं चल सकता था? सावधानीपूर्वक नहीं चलने वालों का यही हाल होता है। मैंने रोते-रोते कहा, “मैं अब कभी नहीं गिरूँगा नानी” उस दिन के बाद मैं कभी नहीं गिरा। नानी ने मेरी चोटों पर पत्ते मसल कर चिपका दिये जिससे खून का बहना रुक गया। मैं दही-मक्खन नहीं खाता था, नानी ने अपने डण्डे के बल पर मुझे दही-मक्खन खिलाया, नानी मंडुवे की भरी हुई गरम-गरम रोटी पर मक्खन रख कर खाने को देती और एक बूँद भी गिराने पर डण्डे का भय दिखाती थी। पिघलकर गिरने से पूर्व ही हम मक्खन को चाट जाते थे, भैंस से दूध निकालकर नानी मिट्टी के फर्श पर जानबूझकर गिरा देती और कहती ‘पी जाओ’। हम तब दूध के साथ मिट्टी भी चाट जाते थे।
स्कूल से लौटकर भैंसों का गोबर साफ करना और दूर धारे से दो बंटे पानी लाना मेरा रोज का काम था। पहले मैं मेरे लिये रखा हुआ भोजन खाता तत्पश्चात काम पर जुट जाता, जिस दिन भोजन न होता उस दिन मैं गुस्से में थाली पर मक्खन निकालता और उसे भात की तरह खा जाता था। पशुपालन और कृषि कार्य दोनों में मेरे दादा पारंगत थे। पशुओं की बीमारी समझना और उनका इलाज करना उनको भली-भाँति आता था। बीमार पशु को देखने के लिये आस-पास के गाँवों के लोग उन्हें बुलाकर ले जाते थे, खेतों के उजड़े पुश्तों की मरम्मत के लिये गहथ की दाल की मदद से पत्थर तोड़ना उनके प्रमुख कार्यों में आता है। अपनी खेती-किसानी के काम आने वाली बढ़ई गिरी वे स्वयं जानते थे। हल, जुवा, दमाला, मेया लाट, ढिंक्यालना, नसुड़ा कुदाल, दरान्ती का सल्ल (कार्य) वे स्वयं किया करते थे। सेलू (भीमल) के रेशे से खूँटे के दांवे, दौले वे स्वयं बना लेते थे। दादा को दाँत न होने के कारण मक्का (भुट्टा) भूनकर नहीं खा पाते थे तब दादी मक्का को हाथ से सिलबट्टे में पीसकर दादा के लिये उनकी रोटी बनाती थी, फिर भी दादा कहते थे- जूते के तले जैसी रोटियाँ बनाई हैं। दादी दादा के लिये अच्छा स्वादिष्ट भोजन बनाती। गेहूँ की रोटी और भात दादा के लिये अलग से बनता, परिवार के शेष सदस्यों के लिये झंगोरा और मडुवा की रोटी, छंछेड़ा, बाड़ी, गेंवाता बनता था। दादा के साथ भोजन में हिस्सा मुझे भी मिल जाता था जिस कारण दादी के अनुसार मैं ‘भलखाण्या’ हो गया था और कभी छंछेंडा, गेंवाता नहीं खाता था। दादा की काँसी की थाली पर दूसरा कोई नहीं खाता था। वह थाली शुद्ध काँसे की बनी थी। घड्याला लगाने के लिये घंड्याल्या ताऊ उमादत्त कुकरेती उसी थाली की खोज करते थे। पाथे पर रखकर बजाने से थाली की आवाज खूब खन-खन खनकती थी। घर में दूध पीने का रिवाज था। चाय केवल मेहमानों के आने पर या पेट दर्द होने पर ही बनाई जाती थी। दादा-दादी भोटिया चाय को पसन्द करते थे। दादी मिर्चों के बदले मारछा लोगों से जम्बू, चोरा, चायपत्ती, फरण और अनेक प्रकार की जड़ी-बूटी खरीद कर रखती थी। बुखार आदि में कच्चा-पक्का जीरा खिलाकर मरीज को दिया जाता था। दादी सग्वाड़े से धनिया, लहसुन, मोरा (तुलसी जैसी प्रजाति का खुशबूदार पौधा) के पत्ते लाकर चटनी बनाती और नमक-मिर्च के साथ खुशबूदार मसाले मिलाकर रखती। सब्जी उपलब्ध न होने पर भी मँडुवे की रोटी हम लोग चटनी या नमक-मिर्च के साथ बड़े चाव से खाते थे।
मैं जब तक तम्बाकू पीता हूँ तब तक भैंस दुहने के लिये यह (ग्वील्याठा) दूध दुहने का बर्तन थणेन्डा (थन मुलायम करने के लिये घी या तेल का बर्तन) उधर रख दे। भैंस के आगे ‘भाड़ा’ (दूध दुहते समय दिया जाने वाला घास) डाल दे, दादा जब भैंस दुहने आये तो मुझे डाँटते हुए कहा, तू अब तक यह भी नहीं जानता कि भैंस को दाहिनी और से दुहते हैं कि बायीं ओर से। भैंस को हमेशा बायीं ओर से दुहा जाता है। दूसरे दिन दादा ने कहा कि भैंस को (बाँस की नलि) से दवा पिला दे और उसके दाँत भी गिन लेना, लेकिन मैं इस काम में असफल ही रहा। दादा ने झट से भैंस का लम्बा मुँह अपने बगल में दबाया। एक हाथ से उसका मुँह खोलकर दूसरे हाथ से नली दे दी। तब दादा ने भविष्यवाणी कर दी कि यह लड़का अपने जीवन में दूध के लिये तरसेगा। हाँ, दादा की भविष्यवाणी सच साबित हुई है। तर्पण के समय दादा-दादी के चेहरे याद करने को पुरोहित जी ने कहा तो दादी का धुँधला सा चेहरा मेरे सामने प्रकट हुआ। दादी क्या थी? नीर भरी दुख की बदली थी। दादा उन्हें हमेशा डाँट दिया करते थे। दादी को बोलने तक नहीं देते थे। दादी को गाली देना, डाँटना और पीटना उनका रोज का कार्य था।
दादी ने मुझसे कहा था- ‘तू टिहरी जा रहा है। पुल से सावधानीपूर्वक गुजरना।’ जब भागीरथी पर नया पुल बना था तो दादी अपनी सहेलियों के साथ पुल देखने गई थी। उसके पूर्व राजशाही का पुल था, जो अब जीर्ण-शीर्ण हो गया था। भागीरथी-भिलंगना के संगम पर नहाकर एक बोतल गंगाजल भर लाने का सख्त आदेश दादा ने दिया था और दादी ने आदेश का समर्थन किया था। सिंगोरी मिठाई लाने की फरमाइश भी की गई थी। दादी को बाड़ी और सरसों की खली की दाल बनाने का बड़ा शौक था। गहत की दाल के इन्डरे नींबू के पत्ते पर लपेटकर जब वे खाने को देती थी तो वे इन्डरे दवा का भी काम करते थे। निराला स्वाद तो वे देते ही थे। मँडुवे और गहत की भरी रोटी गाँव भर में दादी सबसे अच्छी और स्वादिष्ट बनाती थी पर दादा ने कभी दादी के द्वारा बनाए गए भोजन की तारीफ नहीं की। वे भोजन करने के बाद कहते- ‘क्या रोटी बनाई है, जैसे जूते के तले हैं।’ दाल के लिये कहते- ‘घोड़े की मूत जैसी दाल बनाई है।’ कभी नमक-मिर्च कम तो कभी अधिक बताकर गाली देते। दादी आग सुलगाती ही थी कि तम्बाकू पीने के लिये जलते अंगारों की माँग कर दादा उसे संकट में डाल देते थे। दादा मुझसे करछुल पर आग लाने को कहते तो दादी गुस्सा मुझ पर उतारती- ‘अभी लकड़ी ढंग से सुलग भी नहीं पाई और तू आग लेने चला आया, जा बोल दे खाना बनाना ज्यादा जरूरी है, तम्बाकू पीना नहीं।’ जब कभी मैं चिलम लेकर चूल्हें पर जाने लगता तो दादी मुझे डाँटकर देहली पर ही रोक देती। ‘चिलम लेकर क्यों आ रहा है? वहीं पर रुक जा।’ दादी चिमटे का इस्तेमाल नहीं करती थी। फिर दादी जलते-जलते अंगर हाथ से निकालकर मेरे सामने फेंकती और मैं चिलम पर लगे चिमटे से अंगार उठाता। इस क्रिया में दादी के हाथ कभी नहीं जलते थे। एक बार चिमटे से एक गरम अंगार मेरे हाथ पर गिर गया। मैंने पिता और दादा के भय से चिलम नहीं छोड़ी। छोड़ता तो मिट्टी की चिलम फूट जाती। मैंने सोचा था कि दादी के हाथ नहीं जलते तो मेरा हाथ भी नहीं जलेगा, पर मेरे हाथ पर अंगार ने श्रीलंका के मानचित्र जैसा घाव बना दिया था।
एक दिन दादी के आदेश पर मैं घर से बाहर निकलते ही चिल्लाते हुए भागने लगा। ‘दादा! दादी ने कहा है, जल्दी घर आओ।’ दादा अन्य परिजनों के साथ खेत में दान की गुड़ाई कर रहे थे। मेरा चिल्लाना सुनकर सब लोगों के कान खड़े हो गये थे। दादा ने मुझे डाँटते हुए कहा- ‘ऐसे क्यों चिल्ला रहा है? जैसे आसमान फट गया है।’मैंने कहा- ‘दादा हमारी छान (गौशाला) उजड़ गई है और वहाँ बैल दब गए हैं।’ सुनते ही दादा सहित अन्य लोग हमारी गौशाला की ओर दौड़ पड़े। वहाँ खर-पतवार की छट टूट गयी थी सबने आनन-फानन में बल्लियाँ, दार और अन्य मलवा हटाया। उसके नीचे एक बैल केन्द्रीय दार को अपने कन्धे पर लेकर खड़ा था उसकी बगल में दूसरा बैल लेटा था। बहादुर बैल ने दार को रोककर अपनी और अपने साथी बैल की जान बचाई थी। यह हमारी माल्या बैलों की जोड़ी थी। अच्छी नस्ल के इन बैलों से काम नहीं लिया जाता था। हल चलाने के लिये घर्या बैल रहते थे। छोटी कद-काठी के घर्या बैल सीढ़ीनुमा छोटे-छोटे खेतों में हल लगा सकते थे, जबकि माल्या बैलों को बड़े खेतों में जोता जाता था। बड़े खेत हमारे पास पाँच, छः से अधिक नहीं थे। खेती-किसानी के मामले में दादा पारंगत थे। वे कहते थे- ‘जेठ न बरसे मूल तो सावन उड़े धूल।’ जेठ में मूल वर्षा और आषाढ़ में ‘छाला’ बरसने पर दादा कहते- ‘अब फसल अच्छी होगी।’ कृषि कार्य में मेरी अरुचि को देखते हुए दादा ने कहा-‘पैली भरी भाट भिखारी
तब आयी नौकर्यो की बारी
तीजो भरी बण्ज बैपारी
किसान कू पूत कभिनि हारी।’
दादा के शब्दकोष में एक की गिनती ही नहीं थी। जब भी मिर्ची और अनाज के पाथे भरते थे तो एक की गिनती को ‘बरकत’ कहते थे। बरकत के बाद सीधे दो की गिनती गिनते थे। खलिहान में अनाज के ढेर जमा करते हुए वे पहले पैर से हथियार दबाते तब उसके ऊपर अनाज का ढेर लगाते थे। ढेर बड़ा होने पर उसे चादर से ढक देते थे। छलनी से छानते-छानते जब अनाज का ढेर दादा की कमर तक आ जाता तब दादा को पकड़ कर ऊपर खींचा जाता था।
दादा ने मुझे आगाह किया था कि अपनी जड़ मिट्टी में रख नहीं तो पत्थर में रहकर सूख जाएगी। मैं मन ही मन हँसता कि आदमी की भी कोई जड़ होती है, किन्तु अब पचास वर्ष की उम्र में माता-पिता की मृत्यु के बाद जब मैं अपनी जड़ तलाशने गाँव गया तो मेरे पिता के भाई ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। कहा-तू चुपचाप वापस चला जा, तेरा यहाँ कुछ नहीं है तब मैं अपनी जड़ न मिट्टी में खोज सका और न पत्थर पर ही रख सका। पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से मेरी जड़ कट चुकी थी।
अनाज के कोठार, भण्डार और बीजों की तोमड़ियाँ दादी की व्यवस्था थी। दीवारों पर भिन्न-भिन्न बीजों की तोमड़ियाँ रहती थी। नमक भी एक तोमड़ी में रखा रहता था। दूध, दही के लिये एक अलग कमरा रहता था, उस पर मात्र दादा का ही अधिकार था। जैसे ही दादा दही कक्ष का दरवाजा खोलते मैं तुरन्त अन्दर घुस जाता था। घी, मक्खन की अपेक्षा में शहद की माँग करता, दादा कभी शहद खाने को दे देते और कभी कह देते- ‘मधुमक्खियों का गू नहीं खाते’। मरखादरों से शहद निकालते समय दादा मधुमक्खियों के अण्डों और बच्चों समेत छत्ते के टुकड़े खाने को देते और कहते- ‘खा जाओ ताकत आयेगी।’ शहद की कमी मेरे ननिहाल में भी नहीं थी। मेरा ममेरा भाई वीरू ढाईपुरा (कमरे के ऊपर) जाकर शहद के घड़े को तिरछा कर स्वंय छमोट (अंजुरी भरकर) से शहद पीता और मेरे लिये भी नीचे टपकाता था। बँटवारे में दादा ने अपने दो पुत्रों को दोयम किस्म के खेत दिए और अपने पास अब्बल खेत रखे। अब्बल खेतों में काम कर मेरे पिता उनकी उपज दादा को देते थे। खेत की जमीन कम पड़ने पर मेरे माता-पिता ने दोयम जमीन को खोद-खोद कर गोबर की खाद से उसे भी अब्बल बनाया और उसमें धान, गेहूँ की फसलें उगाई फिर भी 1966-67 के अकाल का सामना हमारे खेत नहीं कर सके, जिन लोगों ने चिणा और कौणी की जल्दी पकने वाली फसल बोई थी, उन्होंने आषाढ़ और सौण, भादौं में चिणा कौणी से अकाल का सामना किया। हमारे झंगोरे के खेतों में बोये गये इक्के-दुक्के कौणी के पौधों से अनाज निकालकर भादौं के महीने में अकाल का सामना हमने भी किया। हमारे घर में दूध, दही की कमी नहीं थी। कभी दूध के साथ कभी दही-मट्ठा के साथ कौणी पकाकर खाई जाती थी। सरकार ने सहकारी सस्ते गल्ले की दुकानों में ज्वार-बाजरा भेजा था, लोग ज्वार, बाजरा की रोटियाँ खाने को मजबूर थे।
गाँव में कुछ परिवार ऐसे थे जो खरीफ और रवि की फसलों के पकने से माह दो माह पूर्व अकाल का सामना करते थे, तब वे जंगल से कन्द (तल्ड, गेंठी, बेबर आदि) खोद कर खाते थे और कण्डाली, खोल्या, लेंग्ड्या, बाँसा (जंगली सब्जियाँ) की सब्जी पेट भर कर खाते थे। दादा अक्सर कहा करते थे- ‘यह देखो खा-खाकर दिनों दिन दुबला होता जा रहा है। उनके बच्चों को देखो क्या हष्ट-पुष्ट और तन्दुरुस्त हैं, राजघर के राजकुमारों जैसे।’
दादा झाड़ियों और कन्दों की औषधियों के गुणों से परिचित नहीं थे। उनका मानना था कि अकालग्रस्त परिवार अनाज की बर्बादी करते हैं। तभी तो अनाज उन्हें शाप देता है। दादा हमें गिरा हुआ एक-एक दाना चुगने को कहते और खाना खाने के बाद हाथ धोने के लिये कलच्वाणी का डोकरण्डा रखने को कहते थे जिससे पके हुए अनाज का एक भी कण बेकार नहीं जाता था। अवशिष्ट अन्न को पशु खाते थे।
मेरे पिता को अच्छी नस्ल के पशु बैल, भैंस, भेड़ पालने का शौक था। उन्हें कहीं भी अच्छी नस्ल के पशु मिलते वे खरीद कर ले आते थे। पशु सकुशल घर पहुँच जाए, इसके लिये वे कुल देवता को रोट चढ़ाने का वायदा करते हुए जनेऊ पर गाँठ बाँध देते थे। फसल अच्छी हो मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊँ, भैंसे अधिक दूध दें, देवता से इस प्रकार के वरदान माँगने की एवज में ‘रोट काटने’, ‘सिन्नी बाँटने’, ‘श्रीफल चढ़ाने’ की कौल (वायदा वे कुल देवता एवं इष्ट देवता से किया करते थे। वे यादगार के लिये जनेऊ में गाँठ मार देते थे। उनके जनेऊ में असंख्या गाँठें पड़ी होती थी। वे भूल जाते थे कि कौन सी गाँठ किस कौल (वायदा) को पूरा करने के लिये मारी गई थी। फिर भी वे रोट, सिन्नी, श्रीफल एक ही दिन संयुक्त रूप से इष्ट देवता को चढ़ाते और सारी गाँठें खोल देते थे। इसके बाद भी गाँठें मारने का सिलसिला नए सिरे से जारी रहता। एक बार अनुपस्थित रहने के कारण दसवीं कक्षा में मेरा नाम कट गया था। मेरी माँ छः किमी दूर सलेत से घास का गट्ठर लाई थी और बोझ हल्का करने के लिये मैं आधे रास्ते तक पहुँच गया था। दूसरे लोगों के परिजन आधे रास्ते तक उनका बोझ हल्का करने रोज जाते थे। आज मुझे देखकर माँ ने मेरे आने का कारण पूछा तो मैंने लापरवाही से कह दिया कि मेरा नाम कट गया है। इतना सुनते ही वह फूट-फूट कर रोने लगी। नाम कटना उसे गला कटने जैसा खतरनाक लगा। मैंने पुनः नाम नहीं लिखवाया और हाईस्कूल की परीक्षा में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में परीक्षा दी हमारे स्कूल को हाईस्कूल की मान्यता न मिलने के कारण सभी परीक्षार्थी व्यक्तिगत थे। हाईस्कूल में पचास छात्रों में केवल दो ही छात्र उत्तीर्ण हुए। मेरे उत्तीर्ण होने पर मेरे परिवार के साथ-साथ ढोलवादक प्रेमदास जी को भी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा- ‘तुमने हमारा नाम ऊँचा कर दिया।’ प्रेमदास देवी-देवताओं को अनवरित कराने हमारे घर आते थे। वह दर्जी का भी काम किया करते थे। उन्होंने मेरे लिये पैंट, शर्ट बनाकर मुझे भेंट की और कहा कि यह तुम्हारी ग्यारहवीं की कक्षा में पहनने के लिये है। तुम्हारे सफल होने से हमारा भी नाम ऊँचा हुआ है। जब पुरोहित पितरों का स्मरण करने के लिये कहते हैं, तब मुझे प्रेमदास का भी स्मरण हो आता है। प्रेमदास ने मुझसे कहा था- ‘मैं कल तुम्हारे घर आ रहा हूँ।’ मैंने उसके स्वागत की यथासम्भव तैयारी की थी पर वह नहीं आया, बाद में पता चला कि वह बीमार था और मुझसे इलाज करवाने का आग्रह करना चाहता था। मुझे आज भी अफसोस है कि मुझे उसकी जानलेवा बीमारी का पता नहीं चल सका था। उसकी मृत्यु की सूचना से मुझे गहरा सद्मा लगा।
पुरोहित जी ने मेरे पिता का क्रिया-कर्म करते समय कुश का पूल, वैतरणी नदी और नदी के उस पार कुश के बने मेरे दादा, परदादा और पुरोहित बनाए और मुझसे कहा कि इन सबकी सूरत याद कर लो। यद्यपि वहाँ पर मेरे परिवार से गहरे जुड़े ढोलवादक प्रेमदास के नाम का कुश नहीं था, पर मुझे उसकी भी सूरत याद आई। उसके बाद मेरे पिता के प्रतीक कुश को वैतरणी पार करवा दी गई। तब घोषणा कर दी गई कि अब मेरे पिता प्रेत योनि से पितर योनि में चले गए हैं। अब प्रेतमोक्ष प्रदोभव न कह कर पितृमोक्ष प्रदोभव कहा जाएगा। मुझे जब दादा और पुरोहित की सूरत याद करने को कहा गया तो चेचक के दाग वाले चेहरे मेरे सामने प्रकट हुए। पहला चेहरा मेरे दादा का और दूसरा चेहरा दादा के पुरोहित रामप्रसाद कोठियाल ताऊजी का था। दोनों को उस जमाने की आम बीमारी चेचक हुई थी और दोनों मौत के मुँह से छूटे थे। दादी कहती थी कि हमारे परिवार का फाटक से बाहर जाना वर्जित था। गाँव वाले बाहर से अनाज की थैली अन्दर फेंक देते थे। फाटक पर तो काँटों की बाड़ (दीवार) कर दी गई थी ताकि अन्दर से बीमारी बाहर न जा सके। एक बार तो पूरे परिवार को जिन्दा जलाने की योजना बन गई थी पर इस पाप और शाप को कोई स्वयं अन्जाम नहीं देना चाहता था। उन दिनों हैजा भी आम बीमारी थी। हैजा से गाँव के गाँव खाली हो जाते थे। हमारे गाँव में एक ही परिवार के दस लोग-बारी से मर गये थे। मेरे दादा और पुरोहित रामप्रसाद में गहरी दोस्ती थी। ताऊ वैद्य का काम भी करते थे। एक छोटी सी संदूकची उनके कन्धे पर लटकी रहती थी उस पर जड़ी-बूटी की दवाइयों के साथ-साथ चूर्ण भी रखे रहते थे। हम बच्चे पेट दर्द का बहाना कर उनसे चूर्ण देने की माँग करते। इनसे पहले साबली के बनवारी लाल बहुगुणा हमारे पुरोहित थे। वे बकरी के सिर के साथ-साथ रान की भी माँग करते थे। दादा का कहना था कि पुरोहित को केवल बकरे का सिर मिलता है। रान नहीं दिया जाता। जब कभी पूर्व पुरोहित हमारे गाँव आते तब दादा के साथ बैठकर तम्बाकू अवश्य पीते थे। दादा के रहते कभी घर से बाहर रहने का विचार भी मन में नहीं आया। उनके देहान्त के बाद मन में विचार आया कि राशन-पानी खरीदकर तीन चार किमी लादकर लाने की अपेक्षा सड़क के किनारे मकान बनाया जाय। हम लोग खाड़ी में मकान बनाकर रहने लगे। दस नाली जमीन पर फलदार पेड़ों और सरकार से सनद में प्राप्त बीस नाली जमीन पर चारा प्रजाति के पेड़ों का रोपण किया। पपीता और गलगल नींबू की उत्तम पैदावार को देखकर विश्व खाद्य संगठन के सेवा निवृत्त अधिकारी डॉ. एम.एल. दीवान छोटे पेड़ पर असाधारण रूप से बड़े पपीते के फलों का फोटो निकालकर ले गए। असाधारण रूप से बड़े गलगल की उपज पर उद्यान विभाग ने मुझे पुरस्कृत किया। हमारे आम के पेड़ की छाल रात को कोई जानवर चारों तरफ से निकाल-निकाल कर खाता था। मेरे दस वर्षीय पुत्र ने शिकारी कुत्तों के साथ घूमने वाले घुमन्तू जाति के लोगों से सम्पर्क किया तो उनके शिकारी कुत्तों ने लैंटाना की झाड़ी में छिपे तीन शाही धर दबोचे। मेरी माताजी ने आम के पेड़ के तने पर चारों तरफ से मिट्टी, गोबर की पट्टी बाँध दी। कुछ समय बाद छाल विहीन भाग पर छाल आ गई और पेड़ स्वस्थ हो गया। हमारी सीमा पर लगाया गया शीशम का पौधा तेज तूफान आने से टूट गया। मैंने देखा काष्ठ वाला भाग टूटा था पर छाल नहीं टूटी थी। पेड़ को सहारा देकर खड़ा किया गया और उसपर कसकर मरहम पट्टी कर दी गई। वह कुछ समय बाद स्वस्थ होकर मस्ती से झूमने लगा। बगीचे में उगाए गये कटहल के एक पेड़ ने तो हमें अत्यन्त परेशानी में डाल दिया था। वह अचानक चोटी की तरफ से सूखने लगा, सिंचाई करने के बाद भी उसका सूखना जारी रहा। उद्यान विभाग के विशेषज्ञों और पन्त कृषि विश्वविद्यालय रानीचौरी के वैज्ञानिकों से निरीक्षण करवाया गया। किन्तु रोग का निदान कोई भी नहीं कर सका। आखिर में मेरी माँ ने पता लगाया तो पता चला पेड़ की जड़ों को एक चूहा काट रहा था। इस्तेमाल की गई चायपत्ती का चूरा और नमक जड़ों की मिट्टी में मिलाया गया और जड़ों की मिट्टी से मरहम-पट्टी कर दी गई। उसके बाद पौधे का सुखना बन्द हो गया। अब तक वह पेड़ खूब फल दे रहा है। पेड़ पर आज भी लीडर ब्रान्च के बदले निकली चार-चार शाखाओं में लीडर ब्रान्च बनने की होड़ लगी है।
पशुपालन में कुछ नया करने की कोशिश भी हम लोग करते रहे हैं। भैंस के बीमार पड़ने पर पन्त कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक और चिकित्सक बुलाए गए। हरियाणा से मुर्रा नस्ल का भैंसा खरीद कर लाया गया था। उस नर भैंसे की सन्तान को डॉक्टरों के अनुसार मिल्क फीवर की बीमारी हो गई थी, किन्तु कोई भी डॉक्टर भैंस को ठीक न कर सका। आखिरकार पतीले में माँ ने एक किलो घी गलाकर रात को आँगन में रख दिया। उस पर रात भर ओंस गिरती रही और ठण्डी हवा लगती रही। वह घी भैंस को सुबह-सुबह पिला दिया गया। उस दिन से हमारी भैंस स्वस्थ होने लगी। मुर्रा भैंसे का किस्सा निराला है। पहाड़ में आकर आठ-दस सर्विस करने के बाद उसने सर्विस करना बन्द कर दिया। पन्त विश्वविद्यालय के पशु वैज्ञानिकों ने भैंसे के निवास स्थान का तापक्रम नापा जो सामान्य था। अन्य जाँच करने के बाद वे कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकाल सके, तब घनश्याम सैलानी जी ने टिप्पणी की- ‘यह भैंसा देव-भूमि उत्तराखण्ड में आकर ब्रह्मचारी बन गया है।’ हमने अन्दाजा लगाया कि भैंस मालिक भैंस को पर्याप्त चारा और दाना-पानी की व्यवस्था नहीं कर पा रहा था। उसके अनुसार भैंसा अत्यधिक घास-चारा खाता था।
भैंस पालन छोड़कर मेरा ध्यान गो पालन की ओर गया। मैं एक क्रॉस जर्सी नस्ल की गाय खरीद लाया। कुछ समय बाद गर्भाधान की समस्या आ गई। गाय का कृत्रिम गर्भाधान कराने के लिये अपने पिता को मैंने मना लिया था। वे पशुओं के कृत्रिम गर्भाधान के विरुद्ध थे। गाय को तीन बार कृत्रिम गर्भाधान कराया गया पर सफलता हाथ नहीं लगी, तब मेरे पिता ने गाय को दूर के गाँव में गर्भाधान के लिये भेजा। मैं भीमल (चारा प्रजाति) के पेड़ के निकट आम का पेड़ लगाता तो पिताजी आम के पेड़ को नष्ट कर देते थे। मेरी प्राथमिकता फलोत्पादन में थी। उनकी प्राथमिकता दुग्ध-उत्पादन थी। मैं खेतों के मध्य में आम-अमरूद, मौसमी का रोपण करता तो वे खेत में धान, गेहूँ बोते समय फलदार पौधों को नष्ट कर देते थे। अन्न उत्पादन उनकी प्राथमिकता थी। माता-पिता के जाने के बाद मेरा कृषि और पशुपालन का व्यवसाय समाप्त हुआ। मुझे गाय दुहना, चारे के लिये पेड़ पर चढ़ना और पशुओं की आदतों एवं बीमारियों की कुछ भी जानकारी नहीं है। दादा की भविष्यवाणी सच साबित हुई कि यह लड़का बूँद-बूँद दूध को तरसेगा, तड़पेगा और इसकी जड़ पत्थर के ऊपर होगी।
श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण करते समय पुरोहित जी पितरों के चेहरे याद करने को कहते हैं। मैं उनके चेहरे ही नहीं कार्यों को भी याद करता हूँ। हमारी रसोई वाटिका में भाँति-भाँति की सब्जियाँ और मसाले तैयार रहते थे। खाना खाते समय वाटिका से ताजे-ताजे प्याज, मूली, गाजर आदि सलाद के लिये लाये जाते थे। लहसुन, धनिया, पुदीना, अदरक, हल्दी, जीरा, मोरा की खुशबूदार जायकेदार चटनी बनती थी तो हम लोग चटखारे ले-लेकर खाते थे। देहरादून में बीमार पड़े बी.डी.ओ. चाचाजी को मेरी माँ के किचन गार्डन से तैयार सब्जी और चटनी की याद आई। यह उनकी आखिरी इच्छा सिद्ध हुई। अब हम चाह कर भी वैसा किचन-गार्डन नहीं उगा पा रहे हैं। मेरी माँ ने कहा, पूजाघर में गंगाजल और गौमूत्र रखा है। मेरे शरीर पर उसे छिड़क देना। मंगल सिंह की तरह बछिया के बदले अपनी माँ के हाथ में 11 रुपए मत बाँधना। मेरे दोनों हाथों से बछिया का पूँछ जरूर पकड़वाना। मैंने उनकी बात सुनकर भी नहीं सुनी और मन-ही-मन सोचा कि तुझे किसने कहा कि तू मरने वाली है लेकिन एक माह से पहले ही वह सचमुच मर गई। तब मुझे बछिया का प्रबन्ध करने में नाकों चने चबाने पड़े।
अपनी माँ का चेहरा मुझे जब भी याद आता है वह मुझे लैंटाना की झाड़ी उखाड़ते और कचनार, बकाइन आदि के बीज बोते दिखाई देती है या फिर पीठ पर चारा-घास लादे बगीचे के पेड़ों से गुत्थम-गुथा कर आगे बढ़ती दिखाई देती है। डेढ़ दो हजार फलदार और चारा ईंधन प्रजाति के पौधों का रोपण और पोषण कर वह चली गई पर मुझे वह अभी भी बगीचे में काम करती दिखाई पड़ती है। उसने मुझसे दुर्लभ प्रजाति के पौधे, बीज मँगवाए। आज हमारे बगीचे में गिलोय, नीम, चन्दन, कनकचम्पा, जैतून, आँक, मालू, पीपल, आँवला, सतावरी, रीठा, लेंगड़ा, मीठा पाँगर, लीची, च्यूरा, कपास, सीताफल, अनार, पुलम, बेल, साँदण, गेठी, सेमल जैसा कन्द (तल्ड), बाँस आदि के एक-एक, दो-दो पौधे मौजूद हैं। आम, अमरूद, नींबू आदि के फलदार पेड़ और चारा ईंधन प्रजाति के पेड़ों की संख्या तो सैकड़ों में होगी। मैं अपने बाग को अपनी माँ का स्मारक मानता हूँ।
पी.जी.आई. चण्डीगढ़ में हृदय-रोग का इलाज करवाने के दौरान बहन का फोन आया कि भाई जी! आपने इष्ट देवता, कुल देवता, का स्मरण करना छोड़ दिया है। उन्हें स्मरण करो तो कष्ट कुछ कम हो सकते हैं। मुझे समझाया गया कि मेरे पिता के भाई ने ‘कुलदेवता’ का बँटवारा कर दिया है। अपने हिस्से के देवता का स्मरण कर वे बराबर उसे भेंट-पूजा चढ़ाते रहते हैं जबकि हमारे हिस्से का देवता उपेक्षित पड़ा हुआ है और हमें ‘दौष’ (कष्ट) लगा रहा है। मैंने अस्पताल के बिस्तर पर पड़े-पड़े कुलदेवी कुंजापुरी का स्मरण किया और मन-ही-मन ‘कौल’ (वायदा) किया कि स्वस्थ होकर घर चला गया तो देवी के नाम की हरियाली डालूँगा और श्रीफल, पंचमेवा, पंच मिठाई और पान सुपारी चढ़ाऊँगा। जनेऊ होता तो उस पर एक गाँठ मार देता। दादा-दादी, माता-पिता को विदाई देकर उस युग का अन्तिम पुरुष और नए युग का मूल पुरुष मैं ही शेष बचा हूँ। मैंने नई सृष्टि का निर्माण कर अपने साथ नए लोगों को जोड़ लिया है। फास्ट फूड के इस युग में दादी का ‘बाड़ी’ और सत्तु महत्त्वहीन हो गये हैं। दादा का अगेला और हुक्का कहीं खो गए हैं। मेरे पिता का जनेऊ और उस पर बँधी गाँठें गुजरे जमाने की बात हो गयी हैं। फ्रिज में कैद सॉस की बोतलों ने माँ के किचन गार्डन को पराजित कर दिया है। टी.बी., सी.डी. और डी.जे. ने प्रेमदास के ढोल-दमाऊ की आवाज बन्द कर दी है।
दादा द्वारा निर्मित छोटी ‘मूसल’ और दुधेण्डा (दूध गर्म करने वाला लोहे का बर्तन)। दादी का ‘सेर-पाथा’, माँ का शील-बट्टा और जान्दरा (आटा-चक्की) और पिता का भैंस के गले की घण्टी और ‘पठालछौं भुमण्डा’ (पत्थर की स्लेट की छत वाला मकान) उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने और नई पीढ़ी के ज्ञान-वर्द्धन के लिये आज भी मेरे पास सुरक्षित रखे गए हैं।
एक थी टिहरी (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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