किसानों की एक और बड़ी समस्या यह है कि सरकार करीब दो दर्जन फसलों का एमएसपी घोषित तो कर देती है लेकिन उसको खरीदने की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करती। हकीकत यह है कि पंजाब, हरियाणा, पूर्वी व उत्तरी राजस्थान, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि को छोड़कर कहीं भी एमएसपी पर फसल खरीदने की कोई व्यवस्था नहीं है
किसान लंबे अरसे से फसलों के वाजिब दाम की मांग कर रहे हैं। उनकी इस मांग से सरकार भी पूरी तरह सहमत है। इस मुद्दे पर किसी अन्य पक्ष को भी कोई आपत्ति नहीं है। इस बात को सभी लोग मानते हैं किसानों को उनकी फसल का उचित एवं लाभकारी मूल्य मिलना चाहिए। इसी तर्क के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मूल्य प्रणाली शुरू की गई थी। प्रारंभ में गेहूँ और धान सहित सिर्फ दो फसलों के लिये यह व्यवस्था की गई थी। वर्ष 1986 में यह 22 जिंसों के लिये लागू की गई। कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) अब शायद 24 या 25 फसलों के एमएसपी तय करता है। इस व्यवस्था में जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होता था उसका आकलन खेती की लागत के आधार पर होता है। कृषि विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों और संसदीय समितियों द्वारा दर्जनों रिपोर्टों में कहा जा चुका है कि एमएसपी प्रणाली में तमाम तरह की खामियाँ हैं इन्हें दूर करने की जरूरत है।
कृषि मूल्य एवं लागत आयोग कृषि मंत्रालय की इकाई है। यह आयोग जिस आधार के जरिए लागत का हिसाब लगाता है उसमें कई बड़ी खामियाँ हैं। इसके तहत सिंचित और गैर सिंचित क्षेत्रों में खेती की लागत के औसत के आधार पर एमएसपी तय किया जाता है। हकीकत यह है कि जिन क्षेत्रों में सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, वहाँ पानी के अभाव में किसान खाद व बीज का पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाते। उनकी अच्छे बीज और महँगा खाद खरीदने की क्षमता नहीं होती। जाहिर है उनकी लागत काफी कम आती है। इसीलिए उनकी उत्पादकता बहुत कम होती है। मोटे तौर पर यह बात मैं पहले भी बता चुका हूँ। भारत में 60 फीसद खेती पूरी तरह से बारिश पर आधारित है। केवल 40 फीसद खेती के लिये सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं। बारिश आधारित खेती में 1.2 टन प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन है जबकि सिंचित क्षेत्र में यह औसत चार टन प्रति हेक्टेयर है।
जो किसान चार टन प्रति हेक्टेयर का उत्पादन लेता है उसमें खाद, बीज, कीटनाशक एवं निराई व गुड़ाई के एवज में ज्यादा लागत आती है। सीएसीपी असिंचित और सिंचित क्षेत्र की लागत का औसत लगाता है। जाहिर है यह प्रणाली सटीक नहीं है। जिन क्षेत्रों में उत्पादकता कम है उनके पास बेचने के लिये सरप्लस फसल होती ही नहीं है। ऐसे में इन किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई महत्त्व ही नहीं है। पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहाँ सिंचाई के पर्याप्त साधन हैं वहाँ सरप्लस फसल होती है। इन फसलों की लागत काफी ज्यादा होती है। जब ये किसान अपनी फसल बेचते हैं तो उन्हें मुनाफा मिलना तो दूर पूरी लागत भी नहीं मिल पाती है।
एमएसपी की खामी
एमएसपी की इस खामी को दूर करने के लिये अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान किसान आयोग का गठन किया गया था जिसका पहला अध्यक्ष मुझे बनाया गया था। इस दिशा में मैंने कई सुझाव दिए लेकिन कुछ दिन बाद ही केंद्र में मनमोहन सरकार का गठन हो गया। जाहिर है मेरे सुझाव सिरे नहीं चढ़ पाए। इसके बाद डॉ. एमएस स्वामीनाथन को किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। स्वामीनाथन ने बड़ा ही महत्त्वपूर्ण सुझाव दिया कि किसान की जो लागत बनती है उसमें मोटे तौर 50 फीसद लाभ जोड़कर एमएसपी तय किया जाए। पहले लागत में सिर्फ 10 फीसद ही मुनाफा जोड़ा जाता था। वर्ष 2014 में भाजपा जब लोकसभा का चुनाव लड़ रही थी तो उसने अपने घोषणा पत्र में बड़े ही जोर-शोर से कहा था कि वह सत्ता में आई तो स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करेंगे। कोई भी पार्टी इस रिपोर्ट को खारिज नहीं करती है। मोदी सरकार से किसानों की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि इन्होंने स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू क्यों नहीं किया।
पिछले दिनों इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई तो सरकार की ओर से शपथ पत्र दाखिल किया गया कि सरकार किसी भी सूरत में इस सिफारिश को लागू नहीं कर सकती। बाद में भाजपा की ओर से यह भी कहा गया कि यह तो महज चुनावी जुमला था। किसानों की एक और बड़ी समस्या यह है कि सरकार करीब दो दर्जन फसलों का एमएसपी घोषित तो कर देती है लेकिन उसको खरीदने की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करती। हकीकत यह है कि पंजाब, हरियाणा, पूर्वी व उत्तरी राजस्थान, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि को छोड़कर कहीं भी एमएसपी पर फसल खरीदने की कोई व्यवस्था नहीं है। जहाँ पर व्यवस्था है वहाँ सिर्फ गेहूँ और धान की फसल ही एमएसपी पर खरीदी जाती है।
किसानों की सबसे पहली मांग स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने की है। जब भाजपा इस वादे के जरिए सत्ता में आई थी तो इसे लागू क्यों नहीं किया गया। दूसरी मांग यह है कि जब सरकार एमएसपी तय करती है तो उस भाव पर देशभर में किसानों की पूरी फसल की खरीद की व्यवस्था की जाए। स्थिति यह है कि यदि मूंग का एमएसपी 5000 रुपए है और वह पूरे सीजन 3800 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर बिकती रही। हैरानी की बात यह है कि इसकी दाल के भाव 100 रुपए प्रति किलोग्राम से नीचे नहीं आए जबकि दलहन से दाल तैयार करने में 10 फीसद से ज्यादा खर्चा नहीं आना चाहिए। कहने का आशय यह है कि किसान साल भर मेहनत करके फसलें तैयार करता है और उसे लागत भी नहीं मिल पाती जबकि बिचौलिए मोटा माल काट रहे हैं। यह तो महज बानगी है। ज्यादातर फसलों के बारे में यही स्थिति है।
किसानों की एक और मांग यह है कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग जब सरकार की इकाई है तो उसकी एमएसपी संबंधी घोषणा पर अमल क्यों नहीं होता। पिछड़ा आयोग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति की तरह कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए। यदि किसी जिंस का भाव एमएसपी से नीचे जाता है तो सरकार को सारी फसल एमएसपी पर खरीदनी चाहिए। तीसरी मुख्य बात यह है कि जब भी देश में किसी जिंस की कमी होती है तो उसका तत्काल आयात कर लिया जाता है। जब किसान को किसी जिंस के वैश्विक बाजार में अच्छे दाम मिलते हैं तो उसके निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। ताजा मामला प्याज का है।
इसके निर्यात को हतोत्साहित करने के लिये सरकार ने कई तरह की बंदिशें लगा दी हैं। ऐसा हमेशा देखा जाता है जब उपभोक्ताओं के हितों की बात आती है तो सरकार उनकी रक्षा के लिये तुरंत खड़ी हो जाती है और किसानों के हितों की उसे कोई चिंता नहीं है। ऐसे में सरकार को किसानों का कैसे हितैषी कहा जा सकता है ? दूध, सब्जी व फलों की खरीद के बारे में भी कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है। इन उत्पादों की खरीद सुनिश्चित करनी चाहिए।
क्या हैं उपाय?
यूरोपीय देशों की बात करें तो स्विट्जरलैंड सरकार किसानों को 3000 यूरो (करीब 2.10 लाख रुपए) प्रति हेक्टेयर सीधे-सीधे खेती करने के लिये सब्सिडी देती है। इस व्यवस्था को डायरेक्ट पेमेंट सिस्टम कहा जाता है। अमेरिका समेत सभी विकसित देशों में इसी तरह की व्यवस्था है। जब मैं किसान आयोग में था तब मैंने भी किसानों की बंधी हुई आय देने का सुझाव दिया था। इसके साथ ही उद्योग की तरह खेती की लागत निकालने का फार्मूला सुझाया था लेकिन तमाम कारणों से इस पर कोई अमल नहीं हो पाया। मोदी सरकार किसानों की आय वर्ष 2022 तक दोगुना करने का जो वादा कर रही है उसमें कोई दम नहीं है। इसके लिये सरकार ने कोई रोडमैप ही तैयार नहीं किया है। इसके जरिए सरकार भोले-भाले किसानों को सिर्फ धोखा दे रही है। किसानों की आय बढ़ाने के लिये यूरोपीय देशों की तरह सरकार को एकमुश्त आमदनी सुनिश्चित करनी चाहिए।
यह लाभ छोटे और मझोले किसानों को दिया जाना चाहिए। शुरुआत में यह रकम कम से कम 10 से 15 हजार रुपए प्रति एकड़ निर्धारित की जानी चाहिए। यदि किसान को दो से तीन हजार रुपए प्रति बीघा की दर से सालाना आय निर्धारित कर दी जाए तो इस वर्ग के जीवन स्तर में सुधार आ सकता है। यदि सरकार इस दिशा में कदम बढ़ाती है तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को समाप्त कर सकती है। हालाँकि इसके लिये न्यूनतम और अधिकतम मू्ल्य घोषित किए जा सकते हैं। किसान अपने उत्पाद को खुले बाजार में बेच सकता है। यदि कोई व्यक्ति अधिकतम मूल्य से ज्यादा भाव पर कोई जिंस बेचता है तो उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिए। सरकार के पास आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत यह अधिकार प्राप्त है। यदि सरकार इस व्यवस्था को लागू कर दे तो किसानों का निश्चित तौर पर भला होगा जिसका फायदा अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।
लेखक पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री रह चुके हैं।