पक्षिविज्ञान

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 15:07
पक्षिविज्ञान प्राणिविज्ञान की एक शाखा है। इसके अंतर्गत पक्षियों की बाह्य और अंतररचना का वर्णन, उनक वर्गीकरण, विस्तार एवं विकास, उनकी दिनचर्या और मानव के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आर्थिक उपयोगिता इत्यादि से संबंधित विषय आते हैं। पक्षियों की दिनचर्या के अंतर्गत उनके आहार-विहार, प्रवाजन, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरण, अनुरंजन (courtship), नीड़ निर्माण, मैथुन, प्रजनन, संतान का लालन पालन इत्यादि का वर्णन आता है। आधुनिक फोटोग्राफी द्वारा पक्षियों की दिनचर्याओं के अध्ययन में बड़ी सहायता मिली है। पक्षियों की बोली के फोनोग्राफ रेकार्ड भी अब तैयार कर लिए गए हैं।

पक्षिविज्ञान का प्रारंभ बहुत ही प्राचीन है। अरस्तू (Aristotle) के लेखों मे पक्षी संबंधी अनेक सही वैज्ञानिक अवलोकनों का उल्लेख पाया जाता है। किंतु विज्ञान की एक शाखा के रूप में पक्षिविज्ञान की मान्यता अपेक्षया आधुनिक है। घरेलू चिड़ियों की आकर्षक सुंदरता, आर्थिक उपयोगिता और चिड़ियों के शिकार द्वारा मनुष्य का मनोरजंन इत्यादि अनके कारणों से, अन्य प्राणियों की अपेक्षा, पक्षी वर्ग भली भाँति विख्यात है और व्यावसायिक तथा शौकिया दोनों ही प्रकार के वैज्ञानिकों के लिए आकर्षण का विषय रहा है। पक्षियों के विषय में अनेक वैज्ञानिक खोजें की गई और नवीन ज्ञान प्राप्त हुए हैं, जिनका समावेश पक्षी संबंधी अनेक नवीन पुस्तिकाओं में किया गया है। यद्यपि ये पुस्तिकाएँ पूर्णत: वैज्ञानिक नहीं हैं, फिर भी इनसे अनेक वैज्ञानिक वृत्तांत उपलब्ध होते हैं। यही कारण है कि पृथ्वी के उन खंडों में भी, जो अधिक बीहड़ जंगल हैं और जिनकी भली भाँति छानबीन नहीं हुई हैं, बहुत कम नई जाति के पक्षियों का पता लग पाया है, क्योंकि उन स्थानों के भी अधिकांश पक्षियों के विषय में बहुत पहले ही अधिक खोज और जानकारी हो चुकी है। किंतु यही के रूप में प्राप्त होनेवाले पक्षियों के विषय में नहीं क्योंकि पक्षियों के जीवाश्म के विषय में सम समय आश्चर्यजनक खोजें हुई हैं और अभी बहुत अधिक खोज की जाती है।

चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत ने पक्षिविज्ञान तथा जीवविज्ञान की अन्य शाखाओं में बहुत ही क्रांति पैदा की है। जिन दिनों प्राणिविज्ञान के अन्य वर्गों के विशेषज्ञ नई जाति के वर्णन में व्यस्त रहे, पक्षिविज्ञानवेत्ता पक्षियों की जाति के सूक्ष्म अंतरों का पता लगाने में और इस बात की खोज में लगे थे कि प्रकृति में नई जाति के जीवों का अभ्युदय कैसे होता है। पक्षियों के अध्ययन से आजकल इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि प्राणियों की नई जाति की उत्पत्ति उनके भौगोलिक अलगाव द्वारा होती है और यही कारण है कि सब प्राणियों के वैज्ञानिक नामकरण के तृतीय खंड में भौगोलिक स्थान का समावेश हो गया है।

जीवों के वैज्ञानिक नामकरण से, जिससे किसी भी देश और भाषा के वैज्ञानिक प्राणियों तथा पक्षियों की जाति को पहचान सकें, जीवविज्ञान में बहुत बड़ी प्रगति हुई है। जीवों के वैज्ञानिक नामकरण की पद्धति स्वीडेन निवासी कैरोलस लीनियस (Carlous Linnaeus) के ग्रंथ 'सिस्टेमा नैचुरी' (Systema Naturae) के दशम संस्करण (1758 ई.) से अपनाई गई हैं। इस पद्धति के अनुसार किसी प्राणी के नाम के दो या तीन खंड होते हैं। नाम का प्रथम खंड उसके वंश (genus) को बताता है, दूसरा खंड उसकी जाति (species) को और तीसरा खंड उसकी उपजाति (subspecies) को, जो भौगोलिक क्षेत्र अथवा उसकी अन्य विशेषता पर आधारित होती है। उदाहरणार्थ साधारण भारतीय घरेलू कौए का वैज्ञानिक नाम सामान्य भस्मच्छवि काक (Corvus splendens) और दक्षिण भारतीय कौए का नाम दक्षिण कृष्ण काक (Corvus levaillanti culminatus) और भारतीय जंगली कौए का नाम सामान्य कृष्ण काक (Corvus machrrorhynchus macrrophynchus) है। पक्षिविज्ञानवेत्ताओं ने नामकरण की इस पद्धति को 1910 ई. से अपना लिया था, किंतु अन्य प्राणिवर्गों के अध्ययनकर्ताओं ने इसे अब अपनाना प्रारंभ कर दिया है। भारतीय पक्षियों के विषय में अनेक व्यक्तियों ने अच्छे काम किए हैं और पुस्तकें लिखी हैं।

पक्षी की परिभाषा 'परधारी द्विपद' की गई है। यह परिभाषा बिल्कुल उपयुक्त और यथार्थ है (देखें फलक)। पक्षी उष्ण रक्तवाले पृष्ठवंशी प्राणी है जिनके शरीर का ताप प्राय: 37 से 45 सें. तक रहता है। शरीर के ताप को सम बनाए रखने में शरीर के ऊपर के आच्छादी पर सहायक होते हैं। पर पक्षियों की विशेषता है। प्राणिवर्ग के अन्य किसी वर्ग में पर नहीं पाए जाते। नियमत: पक्षी का सारा शरीर, केवल चोंच, आँखों, टाँगों के कुछ भागों और पैरों को छोड़कर परों से आच्छादित होता है (देखें फलक)। पक्षियों की पहचान अधिकतर उनके परों से होती है। पक्षियों की जितनी जातियाँ हैं प्राय: उतने ही परों के रंग रूप भी है। पक्षियों के पर उनके उड़ने में सहायक होने, तथा जाड़े और गर्मी से बचाव करने के साथ साथ उन्हें सुंदरता भी प्रदान करते हैं। शैशवकाल में पक्षियों के पर प्राय: सौंदर्यरहित होते हैं, जाती है, सौंदर्य निखरता जाता है। जाते हैं तब वे झड़ जाते हैं और उनके स्थान पर निकल आते हैं। किंतु सभी पर एक साथ नहीं गिरते, से गिरते रहते हैं। हाँ, कुछ जाति को बतखों (ducks) में के पर (wing quills) एक साथ ही झड़ जाते हैं और तब कुछ दिनों के लिए इनकी उड़नक्षमता कमजोर हो जाती है और वे इस कारण निवृत्ति काल (retirement period) में रहते हैं। सभी प्रकार के पक्षियों में एक ही ऋतु में पर नहीं गिरते, भिन्न भिन्न जातियों में यह क्रिया भिन्न भिन्न समयों में होती है। पर झड़ने की तीव्रता तथा आवृत्ति (frequency) भी भिन्न होती है। किंतु नियमत: साल में एक बार अवश्य ही पर झड़ जाते हैं। किसी किसी में साल में दो बार एक वसंत में और दूसरा शरद में परों का निर्मोचन (moulting) होता है। अनेक जाति के पक्षियों में निर्मोचन के बाद रंग भी निखर आता है। पर का झड़ना बाह्य वातावरण पर निर्भर करता है अथवा अंत:शारीरिक क्रिया पर, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। संभवत: वार्षिक जननक्रिया के कारण ऐसा होता है। कृकल या तीतर (grouse) में नाखून भी झड़ जाते हैं। उसी भाँति तरंगकाक (puffins) की चोंच के विभूषित (decorative) भाग भी झड़ जाते हैं और शरद् ऋतु में उनकी चोंच छोटी हो जाती है। यह क्रिया उनकी सारी उम्र चलती रहती है। परों का रंग वातावरण के ऊपर भी निर्भर करता है, क्योंकि इससे पक्षी अपने वातावरण में रंग में इस भाँति मिल जाते हैं कि दुश्मन की दृष्टि आकर्षित न हो। तीतर, बटेर आदि जमीन पर रहते हैं, अतएव उनके पर मटमैले होते हैं। इसी भाँति रेत में रहनेवाली 'कुररी' के पर का रंग रेत जैसा होता है। अतएव पक्षी का पर वातावरण के रंग में मिलकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है।

कुछ पक्षियों के नर तथा मादा के पर के रंगों में भिन्नता होती है। किंतु कुछ के नर तथा मादा के परों में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं होती। ऐसे पक्षियों में नर तथा मादा की पहचान, केवल इनकी बाह्य आकृति से, कठिन होती है।

दुम और डैने पक्षियों के बड़े आवश्यक अंग हैं। दुम उड़ते पक्षी के लिए एक प्रकार की पतवार है, साथ ही रोधक (brake) भी। गति धीमी करते अथवा रोकने समय पक्षी दुम की सहायता लेता है। दुम के परों का कभी कभी दूसरा कार्य भी होता है। कठफोड़वा सीधे खड़े पड़ों की छाल में घुसे छिपे कीटों की तलाश करते समय दुम की सहायता से टिका रहता है। पेंग्विन (penguin) चिड़िया अपनी छोटी दुम का उपयोग एक तीसरे पैर के रूप में करती है।

पक्षी डैनों के द्वारा उड़ता है पर यह समझना कि वह डैनों को ऊपर नीचे मार मारकर आगे बढ़ता है, भ्रम है। वह उन्हें आगे पीछे गोलाकार घुमा घुमाकर हवा में तैरता है।

चोंच 


पक्षियों की रहन सहन, निवासस्थान तथा भोजन की प्रकृति और उनके पैर तथा चोंच की आकृति एवं रचना से गहरा संबंध है। पक्षियों के पैर तथा चोंच उनके निवास, जीवन और भोजन के अनुकूल ढले होते हैं। पक्षियों की चोंच की बनावट उनके आहार तथा खाने की रीति को प्रदर्शित करती है। चोंच को देखकर हम समझ सकते हैं कि क्षपी की चोंच बाज की भाँति नोंच नोंचकर खानेवाली है अथवा गौरैया की भाँति दाना चुग चुगकर।

विविध प्रकार के जीवन व्यतीत करने और परिस्थितियों के अनुकूल ढलने के लिए पक्षियों के विभिन्न अवयवों में परिवर्तन तो हुआ ही, उनके भोजन की प्रकृति के अनुसार उनकी चोंच में भी परिवर्तन हुआ। जो पक्षी मिश्रित प्रकार के भोजन करते हैं अथवा सर्वाहारी हैं, उनकी चोंच में विशेष अंतर नहीं आया, जैसे कोआ, किंतु जो किसी विशेष प्रकार का भोजन करते हैं, उनकी चोंच में अवश्य ही विशेषता आ गई है।

शाकाहारी पक्षियों में अनेक प्रकार की चोंच पाई जाती है। चटक (finche) की चोंच छोटी शंक्वाकार होती है। इस प्रकार की चोंच कठोर बीज को तोड़ने में सक्षम होती है। विषमचंचु (क्रासबिल crossbill) नामक पक्षी की लंबी चोंच की नोक कैंची की भाँति एक दूसरे पर चढ़ी होती है। उसी भाँति कुछ तोतों में भी कठोर फलों को तोड़ने के लिए चोंच कटावदार (notched) तथा मुड़ी होती हैं, किंतु मकरंद (nector) भक्षी पक्षियों की चोंच लंबी और पतली होती है, जैसी शकरखोरा (sunbird) में। दुकान (toucans) की चोंच बृहदाकार और बहुत मजबूत प्रतीत होती है, किंतु वस्तुत: स्पंजी होती है और कोमल फलों को ही काटने के उपयुक्त होती है। धनेश (hornbill) की चोंच हथौड़े जैसी चोट करने के लिए भारी भरकम होती है। लोहचटक या सदासुहागिन (trogous) की चोंच साधारण आकार के मुलायम फलों को खाने के लिए छोटी और चौड़ी खुलनेवाली (big gape) होती है।

कीटाहारी पक्षियों की चोंच नियमत: छोटी होती है। इसी भाँति उड़ते उड़ते शिकार करनेवाली चिड़ियों की चोंच भी छोटी होती है। अबाबील (swallow), बतासी (swift) और चिप्पक या चप्पा (nightjar) की चोंच छोटी, किंतु अधिक चौड़ी खुलनेवाली (wide gaping mouths) होती है। पतरींगा (bee-eater) की चोंच साधारण लंबी और कुछ कुछ ऊपर की ओर मुड़ी (decurved) होती है। इस प्रकार की चोंच बड़े कीटों को पकड़ने के उपयुक्त होती है। कठफोड़वा (woodpecker) की चोंच, जो अपना शिकार (कीट) पेड़ों की छालों अथवा सूखी लकड़ियों में ढूँढ़ता है, छेनी के आकार की होती है। बतख और खातहंसक (shoveller) की चोंच चौड़ी और उसके किनारे कटीले होते हैं, इस प्रकार की चोंच भोजन को मुँह में लेकर छनने जैसा व्यवहार करने योग्य होती है। धोंघीला (openbill heron), जो शंखमीन (shell fish) पर जीवनयापन करता है, की चोंच के बंद रहने पर भी दोनों जबड़ों के बीच स्थान छूटा रहता है। राजहंस या बलाक (flamingo) की चोंच आधी लंबाई के बद मध्य में एक समकोण पर मुड़ी होती है। चाहा (snipe) की चोंच लंबी और सीधी होती है। इसमें इस प्रकार का लचीलापन होता है कि यदि इसकी नोंक खुली हो तो भी ऊपर का अन्य हिस्स बंद रह सकता है। जंघीला या आइविस (ibis) तथा कीवी (kiwi) की चोंच के अंतिम सिरे पर नासाद्वार खुलता है। अन्य पक्षियों की भाँति नासाद्वार चोंच के अधार के पास नहीं खुलता। नक्तकुररी (curlew) की चोंच लंब होती है। यह पक्षी नदी के किनारे घोंघे तथा झींगे खाकर या कीटों के लावों इत्यादि पर जीवनयापन करता है।

शिकारी चिड़ियों  उल्लू, बाज, गिद्ध, तथा किया (kea) इत्यादि की चोंच मांस को फाड़ने के लिए नोक पर मुड़ी होती है। मत्स्यभोजी पक्षियों में चोंच दो प्रकार की होती है : सीधी, मजबूत और भाले की भाँति, जैसा की साधारण बक (heron), किलकिला (king fisher), कुररी (tern), शूलकाक (gannet), जलसिंह (pelican), बकुला (egret), क्रौंच (crane) तथा राजबक (stork) इत्यादि में होती है। दूसरी किस्म की चोंच लंबी, पतली और नोक पर मुड़ी होती है, जैसा कि जलकाक (cormorant) की। कुछ ऑक और पेंग्विन की चोंच बहुत मजबूत, साधारण लंबी और थोड़ी मुड़ी होती है तथा चौड़ी खुलनेवाली (very wide gape) और अधोहन्‌ के पार्श्व में थैली लगी होती है (उपर्युक्त चोंचों के चित्र के लिए देखें फलक)।

पैर पक्षियों के पैर की लंबाई और आकार इनके आवास की प्रकृति एवं चलने के ढंग के सूचक हैं।

शिकारी चिड़ियाँ और उल्लू अपने पैर का उपयोग शिकार को पकड़ने, मारने और मारकर पकड़ रखने के लिए करते हैं। अतएव इनके पैर कड़ी पकड़ (gripping) के अनुकूल होते हैं, तल भाग गड्ढादार होता है और अंगुलियों में तेज नाखून होते हैं तथा पश्च पदागुंलि (hind toe) बिल्कुल स्वतंत्र रूप से चलायमान होती है। सुग्गा भी कुछ हद तक, अपने पैरों का उपयोग भोजन को पकड़ने के लिए करता है। कुक्कुट, तीतर और जंगलीमुर्गी (pheasant) अपने पैरों का उपयोग भोजन की तलाश में कुरेदने में करती हैं। वृक्षावासी पक्षियों के पैर छोटी डालियों पर बसेरा (perching) करने के लिए बने होते हैं।

जमीन पर दाना चुगनेवाली चिड़ियों के पैर में पकड़ की शक्ति नहीं होती।

दलदली स्थानों और वनस्पतियों पर चलनेवाले तथा तैरनेवाले पक्षियों की पदांगुलियाँ लंबी और फैली हुई होती हैं। जलमुर्गी (moorhen) और बक इसके उदाहरण हैं। अमरीक जलरंक तीतर (American ruffed grouse) की पदांगुलियों के किनारों पर फैले हुए प्रशल्क (scutes) होते हैं। ये हिम जूते (snow-shoes) केवल जाड़े की ऋतु में ही विद्यमान होते हैं। जल में चलनेवाले (wading) पक्षियों की टाँगें लंबी होती हैं, जैसा कि बक राजहंस और प्रवाल पाद अथवा टींघर (stilt) में पाई जाती हैं। जलवासी चिड़ियों की पदांगुलियों के बीच झिल्ली (web) लगी होती है, जिससे वह सुगमता से जल में तैर सके, जैसे बत्तख, गंगचिल्ली (gull), ऑक (auk), पेंग्विन और गोताखोर अथवा मज्जूक (driver)। झिल्लीदार पैर कीचड़ में चलने के लिए भी उपयोगी होते हैं। जलकाक के पैरों में झिल्ली तीन अंगुलियों के बीच न होक चारों अंगुलियों के बीच में लगी होती है।

पक्षियों की पदांगुलियाँ नखयुक्त होती हैं। पेड़ की डालियों पर बसेरा करनेवाले पक्षियों में पश्च पदांगुलि में विशेष रूप से नख बड़ा और पतला होता है। दूसरे पक्षियों का शिकार करनेवाली (predatory) तथा जमीन को कुरेदनेवाली चिड़ियों की पदांगुलियाँ मजबूत, मुड़ी और तीक्ष्ण होती है। स्थलीय एवं जलीय जाति के पक्षियों में पदांगुलियाँ नियमत: क्षीण होती हैं। कुछ पक्षियों के नख विचित्र रूप से कंघी (pectinated) के आकार के होते हैं, जैसे चिप्पक की मध्य पदांगुलि में। संभवत: कंघीनुमा पदांगुलि चिड़ियों को अपना पंखविन्यास करने में सहायक होती है। (ऐसे पैरों के लिए देखें फलक)। जिन पक्षियों की टाँगें लंबी होती हैं उनकी गर्दन भी लंबी होती है।

ज्ञानेद्रियाँ  पक्षियों में दृष्टि और श्रवण की इंद्रियाँ भली प्रकार विकसित होती हैं। स्वादेंद्रियाँ कमजोर होती हैं और ्घ्रााणेंद्रियाँ तो वस्तुत: लुप्त ही होती हैं। चिड़ियों की आँखों की समयोजन क्षमता (power of accommodation) बहुत अधिक होती है। यह दूर तथा निकट की वस्तुएँ बहुत थोड़े समय के अंतर से स्पष्ट देख सकती हैं। अर्थात्‌ अल्प समय में आँखें दूरदर्शक से सूक्ष्मदर्शी के रूप में काम करने लगती हैं। इस प्रकार पक्षियों की आँखें अन्य सभी प्राणियों को इस विषय में मात कर देती हैं :

अस्थि  पक्षियों के कंकाल में अस्थि की रचना उल्लेखनीय है। अन्य प्राणियों की भाँति पक्षियों की अस्थि भारी नहीं होती, क्योंकि अधिकांश अस्थियाँ मज्जाहीन तथा खोखली होती हैं। उनमें हवा के कोष भी प्राय: विद्यमान होते हैं। हड्डियाँ खोखली होने से अत्यंत हल्की, किंतु पुष्ट होती हैं। इस कारण पक्षियों के उड़ने में वक्षस्थलीय अस्थियों की बनावट और वक्षस्थल की अधिक पुष्ट पेशियाँ सहायक होती हैं।

आहार  पक्षियों के आहार भी भिन्न भिन्न हैं। आहार की प्रकृति के अनुसार पक्षी शाकाहारी या मांसाहारी अथवा सर्वाहारी होते हैं।

शाकाहारी या फलाहारी पक्षियों में कुछ मुलायम फलाहारी, कुछ कठोर फलाहारी, कुछ बीजाहारी और कुछ मकरंदाहारी होते हैं। हारिल, तोते आदि फलाहारी हैं, गौरैया, बया आदि दाना चुग चुगकर पेट भरती है, कपोत और फाख्ता कंकड़ पत्थरों के बीच खाद्यान्न चुन चुनकर पेट भरती हैं, कोयल आदि फलों और कीटों पर जीवननिर्वाह करती हैं, भुजंगा, कठफोड़वा इत्यादि कीट पतंगों को खाते हैं, कौआ सर्वाहारी होता है। और मांस, मछली, रोटी, चावल आदि मानवीय भोज्य पदार्थों पर जीवनयापन करता है। शकरखोरा फूलों का रस चूसता है। गिद्ध, गरुड़, चील, उल्लू, आदि मांसाहारी होते हैं। गिद्ध और गरुड़ मृत प्राणियों के शवों का भक्षण करते हैं और चील, बाज, उल्लू आदि छोटी छोटी अन्य चिड़ियों या गिलहरी, चूहे आदि को पकड़कर खाते हैं। बगुले, किलकिला आदि मछली, मेढक और केकड़ों का ही शिकार करते हैं।

उड़ान 


पक्षियों की उड़ान एवं हवाई जहाज की उड़ान में बहुत ही साम्य हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि हवाई जहाज के आविष्कार की प्रेरणा पक्षियों में डैने नोदक (propellers) तथा पंख (planes) दोनों के ही कार्य करते हैं। पक्षी हवा में उठने और ऊँचाई बढ़ाने का कार्य डैनों को फड़ फड़ाकर करते हैं।

कुछ पक्षी एक दिशा में 160 से 162 किमी. प्रति घंटे तक की उड़ान करते पाए गए हैं। कुछ क्षुद्र पक्षी 32 से 60 किमी., काक लगभग 50 स 73 किमी., बतख 70 से 92 किमी. तथा बतासी चिड़िया 80.5 से 82 किमी. प्रति घंटे उड़ती पाई गई हैं। पक्षियों की उड़ान निम्नलिखित प्रकार की होती है :

(क) सरकन और ऊपर चढ़ती हुई उड़ान (Gliding or soaring flight)  इस प्रकार की उड़ान में डैने ऊपर नीचे बिल्कुल नहीं होते बल्कि ऐसे हवाई जहाज की भाँति रहते हैं जिसका इंजन बंद कर दिया गया हो। डैने केवल उतने ही गतिशील होते हैं जितने से शरीर का संतुलन और मार्गनिर्धारण (steering) हो सकें। मार्गनिर्धारण का कार्य डैनों का भिन्न प्रकार से व्यवहार करके और शरीर को एक तरफ झुकाकर होता है। पूँछ दिशापरिवर्तक (rudder) का कार्य करती है। आकाश से नीचे उतरते समय पक्षी पूँछ के परों को फैलाकर नीचे और आगे की ओर मोड़ लेता है। इस प्रकार पूँछ रोधक का कार्य करती है।

(ख) ऊपर चढ़ती हुई उड़ान (Soaring flight)  यह सरक कर (gliding) उड़ने का ही दूसरा रूप है। इसमें पक्षी लहरदार ढंग से उड़ता हुआ ऊपर की ओर उठता है, जैसे गिद्ध और क्रौंच। यह क्रिया गरम देशों के पक्षियों में, जहाँ हवा में ऊपर उठने की प्रवृत्ति अधिक होती है, पाई जाती है।

(ग) मँडराना या चक्कर मारना (Hovering)  इसमें पक्षी आगे बढ़ते हुए किसी विशेष ऊँचाई पर एक निश्चित स्थान पर उड़ता रहता है। रंगनथ्येन (kestrel) इसका अच्छा उदाहरण है। कुररी भी मछलियों पर झपाटा मारने के पूर्व मँडराती रहती है।

(घ) टेढ़ी मेढ़ी उड़ान (Zigzag flight)।
(ङ) लुढ़कदार उड़ान (Rolling flight)।
(च) कलैयामार (Somersault) उड़ान  इस प्रकार की गिरहबाज कबूतर (tumbler pigeon) तथा नीलकंठ (roller) इत्यादि में पाई जाती है।

अन्य प्रकार की गति  1. उड़ने के अतिरिक्त पक्षियों में फुदकने (hopping) की प्रवृत्ति भी पाई जाती है। चटक और कस्तूरा (thrushes) दोनों पैरों को मिलाकर कूद कूदकर चलते हैं।

1. टहलना (Walking), कौए और खंजन इत्यादि की चाल इस प्रकार की चाल के उदाहरण हैं इनमें खंजन बहुत तेजी से दौड़ता है और यदि सुरक्षा की शीघ्र आवश्यकता हुई तो उड़ जाता है।

बोली 


पक्षियों की बोली के संबंध में लोगों की धारणा अधिक कल्पनात्मक है। पक्षियों की भाषा भी होती है यह कहना कठिन है, पर केवल ध्वनियों के संकेत से स्थूल भावनाएँ प्रकट करना ही यदि भाषा हो तो पक्षियों की भाषा ऐसी है, ऐसा कहा जा सकता है।

पक्षियों की बोली कई प्रकार की होती है। मुख्यत: निम्नलिखित तीन प्रकार की बोलियाँ पहचानी जा सकती हैं :

1. साधारण पुकार की बोली (Ordinary call note)  इस प्रकार की आवाज द्वारा एक जाति की चिड़िया अपनी ही जाति की अन्य चिड़ियों को पहचानती है।
2. भयसूचक बोली (Alarm note)  इस प्रकार की आवाज पक्षी के डरने या खतरे का संकेत करती है।
3. प्रेमप्रदर्शन बोली (Love note)  इसके द्वारा पक्षी अपना प्रेम अपनी सहचरी के प्रति प्रकट करता है अथवा प्रेमालाप करता है।

इनके अतिरिक्त कुछ चिड़ियाँ यों ही निरर्थक हल्ला (चहचहाती) करती रहती अथवा अन्य प्रकार की बोली बोलती हैं। ये बोलियाँ क्षणिक होती हैं, जैसे क्षणिक भावावेश का बताना, पुकारना, एक दूसरे का अभिवादन करना, सतर्क करना, आश्चर्य प्रकट करना, खतरे का संकेत करना, मोरचा लेना तथा प्रोत्साहन देना।

अधिकांश पक्षी कंठ से आवाज करते हैं, किंतु कुछ कंठ के अतिरिक्त अन्य भाँति से भी आवाज उत्पन्न करते हैं, जैसे श्वेत बक या राजबक (white stork) गूँगा होता है, किंतु अपने जबड़ों का कटकटाकर (clattering) ध्वनि उत्पन्न करता है। कठफोड़वा अपनी चोंच को किसी लकड़ी पर तेजी से ठोकर मारकर आवाज करता है। कबूतर जब एकाएक उड़ता है तब वह अपने डैनों को जोर से फड़फड़ाकर उड़ता है और आवाज करता है। चाहा ऋतुकाल में हवा में जोर की मिमियाने की आवाज (bleating noise) करता है। यह आवाज उसके पुच्छ के कड़े परों के कंपन (vibration) द्वारा होती है। कुछ पक्षी किसी दूसरे पक्षी के गाने की हूबहू नकल भी करते हैं। पहाड़ी मैना इसका अच्छा उदाहरण है। यह मैना तरह तरह की ध्वनियाँ, गाने आदि आसानी से सीख लिया करती है। तोते की नकलबाजी तो जगत्‌ प्रसिद्ध है। चंडूल, दहियल, पीलक और नीलकंठ में भी इस कला में पर्याप्त नैपुण्य प्राप्त करने की क्षमता है। जब तब ऐसा भी देखा गया है कि यदि किसी शिशु पक्षी को आप अन्य जाति के पक्षी के साथ जन्मकाल से ही रख छोड़ें तो वह उसी की आवाज में बोलने लगता है। कुछ पक्षी ऐसे हैं, जो किसी भी अवस्था में अपनी वंशपरंपरा को नहीं त्यागते, यथा कोयल, जो परभृता होकर भी कुहू कुहू छोड़कर एक बार भी काँव काँव बोलती हुई नहीं पाई गई है।

देश, जलवायु और वातावरण का प्रभाव भी पक्षियों के स्वर पर पड़ता है और उनमें काफी परिवर्तन आ जाता है। बिहार तथा पंजाब की कोयलें यद्यपि कुहू कुहू ही बोलती हैं, फिर भी दोनों के स्वरों में अंतर होता है।

आवाज के साथ साथ पक्षियों की रूपरेखा, आकार प्रकार इत्यादि में भी स्थानभेद से काफी अंतर आ जाता है। बिहार के कौओं से यदि दिल्ली के कौओं का मिलान किया जाय तो उनमें पर्याप्त अंतर दिखाई पड़ेगा। यही हाल अन्य पक्षियों का भी है। फारस तथा हिंदुस्तान की बुलबुलों में पर्याप्त अंतर है।

प्रवाजन (Migraton) 


'जानि शरद् ऋतु खंजन आए, समय पाइ जिमि सुकृत सुहाए'।
 रामचरितमानस।

इस देश में रहनेवाले, जो थोड़ा बहुत भी प्रकृतिनिरीक्षण करते हैं, जानते हैं कि प्रत्येक वर्ष सितंबर और नवंबर महीने के मध्य में ऐसी अनेक चिड़ियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं, जो कुछ महीने पूर्व बिल्कुल नहीं थीं। किंतु पाँच प्रतिशत से भी कम व्यक्ति होंगे जो इस बात पर विचार करते होंगे कि यह क्यों और कैसे होता है। साधारण व्यक्ति यही समझता है कि चिड़ियाँ आती हैं और जाती हैं, यह प्रकृति का नियम है।

पक्षियों का प्रवाजन पक्षिविज्ञान का बहुत महत्वपूर्ण अंग है। उनका यह प्रवाजन, ऋतुपरिवर्तन के समान नियमित और क्रमिक होता है और युग युग से यह मनुष्यों में उत्सुकता और जिज्ञासा उत्पन्न करता रहा है, यहाँ तक कि रेड इंडियनों ने अपने कलेंडर के महीनों के नाम प्रवाजन करनेवाली चिड़ियों के आगमन पर ही रखा है।

बहुत पूर्व ऐसा विश्वास किया जाता था कि जिस प्रकार कुछ स्तनपायी और उरग शरद ऋतु में ठंढ से बचने के लिए शीत निष्क्रियता (hibernation) में चले जाते हैं, उसी भाँति अबाबील, कलविंकक (nightingale) और कोयल भी शीतशयन करती है। ऐसी धारण अरस्तू के समय से ही चलो आ रही थी।

चिड़ियों के प्रवाजन के विषय के मान्य पंडित लैड्सबरो टॉमसन (Landsborough Tomson) ने प्रवाजन की व्याख्या इस प्रकार की है : निवासस्थान का समय समय पर बार बार और एकांतर दिशा में बदलना, जिससे हर समय जीवनोपयोगी प्राकृतिक अवस्थाएँ उपलब्ध हो सकें, प्रवाजन है।

प्रवाजनविस्तार तथा लाभ  उष्णरक्तता, पंख और उड़ान की अद्भुत शक्ति के कारण चिड़ियों में स्थानपरिवर्तन करने की क्षमता का विकास बहुत अधिक हुआ है। यद्यपि अन्य प्राणियों की अपेक्षा पक्षी अत्यधिक शीत या अत्यधिक उष्णता दोनों के प्रति सहनशील होते हैं, तथापि शरद् ऋतु में जब भोजन का अभाव हो जाता है तब उन्हें बाध्य होकर प्रवाजन करना पड़ता है, अन्यथा वे मर जाएँ। प्रवाजन के द्वारा चिड़ियों को दो प्रतिकूल ऋतुओं में भी दो अनुकूल क्षेत्र प्राप्त हो जाते हैं। एक क्षेत्र में वे निवास करती हैं और प्रजनन करती है और दूसरे क्षेत्र में भोजन तथा विश्राम के हेतु जाती हैं। यह प्रकृति का विधान है कि चिडियाँ प्रवाजन क्षेत्र के ठंढे भाग में ही अंडे देती हैं। अतएव उत्तरी गोलार्ध में उनका मैथुनक्षेत्र आर्कटिक उत्तरी ध्रुव अथवा समशीतोष्ण क्षेत्र होता है, किंतु दक्षिणी गोलार्ध में इसके ठीक विपरीत, शीतकालीन आवास भूमध्य रेखा के समीप होता है। प्राय: प्रवाजन उत्तर से दक्षिण की ओर होता है, यद्यपि कुछ प्रवाजन पूर्व से पश्चिम की ओर भी होता है। प्रवाजन कुछ किलोमीटर से लेकर हजारों किलोमीटर तक का होता है, जैसे कुछ चिड़ियाँ हिमालय की अधिक ऊँचाई से उतरकर उत्तरी भारत के समतल भागों में चली आती हैं और कुछ हजारों किलोमीटर सुदुर दक्षिण में चली जाती हैं। सबसे अधिक दूर का प्रवाजन उत्तर ध्रुवीय कुररी (Arctic tern) करती है। यह प्रवाजन प्रत्येक वर्ष दो बार होता है। यह आर्कटिक के शीतकाल में दक्षिण की ओर देशागमन करती है, संसार को पार कर दक्षिण ध्रुव अनटार्कटिक में ग्रीष्म ऋतु बिताकर पुन: वापस होती है। इस प्रकार जाने और आने की एक ओर की यात्रा में लगभग 17,742 किमी. की दूरी तय करती है :

चिड़ियों में प्रवाजन का आरंभ होने के संबंध में अनेक सिद्धांत प्रातिपादित हैं। प्रवाजन से चिड़ियों को निम्नलिखित लाभ होते हैं : शरद् ऋतु में उच्च देशांतरवाले प्रदेशों से हट जाने के कारण (क) ठंढ तथा तूफानी मौसम से रक्षा होती है, (ख) शरद् ऋतु के दिन छोटे होने के कारण प्रकाश कम समय तक प्राप्त होता है। इसलिए भोजन की तलाश के लिए जो कम समय मिलता है तथा उसका निराकरण हो जाता है, (ग) जल के जमने और जमीन के हिमाच्छादित होने के कारण भोजन की जो कमी हो जाती है उसका निराकरण हो जाता है। ग्रीष्म ऋतु में पुन: उच्च देशांतर प्रदेशों में लौट आने से पक्षियों को तथा उपयुक्त (क) कम धनी विहंग आबादी वाला क्षेत्र प्रजनन के लिए उपलब्ध हो जाता है, (ख) उन दिनों, जब उन्हें अपने और बच्चों के लिए अधिक आहार जुटाने की आवश्यकता होती है, आहार की तलाश के लिए लंबा और प्रकाशमान दिन प्राप्त हो जाता है और (ग) वसंत ऋतु में फूलों में लगनेवाले वानस्पतिक कीटों की प्रचुरता होती है।

चिड़ियों का प्रवाजन पक्षी की अंत: और बाह्य दोनों ही उत्तेजनाओं पर निर्भर करता है। प्रयोगों से प्रकट होता है कि बाह्य उत्तेजनाओं में से दिन की अवधि में परिवर्तन प्रमुख है ; अंत : उत्तेजना प्रजननांगों से उत्पन्न हारमोन द्वारा प्राप्त होती है।

प्रवाजन का लक्ष्यस्थान कैसे निर्धारित होता है, और चिड़ियाँ इस गंतव्य स्थान का रास्ता कैसे मालूम करती हैं, इनका अनेक प्रयोगों और प्रेक्षणों से पर भी अभी तक संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका है।

शरत्कालीन आवासक्षेत्र में शरद् ऋतु बिताने के पश्चात्‌ वसंत ऋतु में प्रजनन क्षेत्र अथवा ग्रीष्म - आवास - क्षेत्र में वयस्क नरों का प्रथम पुनरागमन होता है। इसके बाद वयस्क मादाएँ और अंत में अवयस्क चिड़ियाँ पहुँचती हैं। किंतु शरद् में यह क्रम उलट जाता है। प्रथम अवयस्क पक्षी और मादाएँ दक्षिणी यात्रा के लिए प्रस्थान करती हैं और बाद में वयस्क नर। दक्षिण की यात्रा बड़े इतमीनान से औैर स्थान स्थान पर रुक रुककर होती है। छोटे बच्चे अथवा किशोर, जिनकी उम्र कुछ ही महीनों की होती है, काफिले (vanguard) का पथप्रदर्शन करते हैं और वयस्क बाद में उनका अनुसरण करते हैं। यह कैसे होता है? इसकी अनेक व्याख्याएँ की गई हैं। उनमें से अधिक स्वीकृत मत यह है कि अनेक पीढ़ियों के प्रति वर्ष प्रवाजन के कारण पक्षियों में अन्य जन्मजात गुणों, जैसे ठीक समय पर, बिना किसी पूर्व अनुभव के, जातिपरंपरा के अनुसार एक विशेष प्रकार का नीड़ निर्माण करना है, उसी भाँति बिना किसी पूर्व अनुभव के प्रवाजन भी एक जन्मजात गुण हो गया है।

पक्षी सुदूर प्रदेशों के रास्ते का किस प्रकार पता लगाते हैं? इसके विषय में भी अनेक अनुमान हैं जिनमें से कुछ पृथ्वी के चुंबकत्व के प्रति सूक्ष्म संवेदनशीलता, स्थलचिह्नों की दृष्टि द्वारा पहचान इत्यादि हैं। किंतु पूर्वानुभवविहिन कल की चिड़ियों में दूर गंतव्य स्थान और उसके पथ को निर्धारण अब भी रहस्यमय बना हुआ है।

अचूक तथा नियमित पुनरागमन 


जिस प्रकार मनुष्य सुदूर की यात्रा कर फिर अपने घर को लौट आता है, ठीक उसी भाँति पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा कर और शरद् ऋतु किसी सुदूर स्थान में व्यतीत कर न केवल अपने ग्रीष्म-निवास-क्षेत्र में ही पहुँच जाते हैं, बल्कि अपने त्यक्त घोंसले में भी पहुँच जाते हैं। चिड़ियों को छल्ला पहनाने की विधि (banding) से यह स्थापित हो गया है कि यूरोप में अबाबील प्राय: न केवल उसी बस्ती में पहुँच जाती है, बल्कि उसी घर में जिसको छोड़कर वह सुदूर की यात्रा पर गई थी, पहुँच जाती है। अबाबीलें इस यात्रा में 9,677 किलोमीटर की दूरी तय करती हैं। यहीं बात अन्य वास्तविक प्रवाजन करनेवाली चिड़ियों में भी पाई जाती है।

अनेक वर्षों के निरीक्षण के फलस्वरूप प्रकाशित कुछ ज्ञात तथ्यों से पता चलता है कि चिड़ियाँ न केवल अपने निवासक्षेत्र और पुराने नीड़ में ही पहुँच जाती है, बल्कि ठीक उसी दिन लौटकर आ जाती हैं जिस दिन वे पिछले वर्ष में लौटकर आई थीं। अतएव जब इतनी लंबी यात्रा करती हों तो एक निश्चित समय पर लौटकर पक्षियों का अपने घोंसले में उपस्थित हो जाना और भी आश्चर्यजनक है।

शरद्यात्रियों की विभिन्न अवस्थाएँ 


भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शरद् में आगमन करनेवाले प्रत्येक शरद्यात्री पक्षी की स्थिति भिन्न होती है। उदाहरण के लिए किसी भी स्थान को ले लें, जैसे मध्य भारत का भोपाल क्षेत्र। पक्षियों की अधिकांश जातियाँ, जो उत्तर या उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेशों से शरद् ऋतु में, सुदूर दक्षिण की या लंका की, उस देश से होकर यात्रा करती हैं, वे भोपाल होकर जाती हैं। इन यात्रियों में से कुछ तो पीछे रह जाते हैं और वे शरद् ऋतु भर भोपाल में देखें जा सकते हैं। इनका हम वास्तविक शरद्यात्री के अंतर्गत वर्गीकरण कर सकते हैं, किंतु कुछ केवल शरद् ऋतु के आगमन पर थोड़े समय के लिए ही रहते हैं, और उसके बाद दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि वे वहाँ से और आगे यात्रा के लिए प्रस्थान कर चुके होते हैं। वे पुन: ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में, जब वे उत्तर की तरफ लौटते होते हैं, दिखाई पड़ते हैं। ये शरद् और वसंत में प्रवाजन करनेवाले यात्री होते हैं। कुछ तो शरद् ऋतु में, जब दक्षिण की यात्रा पर होते हैं, तब तो दिखाई पड़ते हैं, किंतु जब वे वसंत में पुन: अपने निवास की ओर लौटते होते हैं, तब दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि वे किसी दूसरे मार्ग से होकर लौट जाते हैं। अतएव वे पक्षी भोपाल में शरद् ऋतु में दिखाई पड़ते हैं और वसंत में किसी दूसरे भाग में दिखाई पड़ते हैं।

स्थानीय प्रवाजन 


कुछ चिड़ियाँ देश के अंदर ही एक भाग से दूसरे भाग में स्थानपरिवर्तन करती हैं, जैसे शाह बुलबुल या दुधणजु (paradise flycatcher), सुनहरा पोलक (golden oriole) और नौरंग (pitta)। यह स्थानीय प्रवाजन देश के उत्तरी भाग या पहाड़ों की तलहटी में अधिक होता है, जहाँ भूमध्यरेखा की अपेक्षा ऋतुपरिवर्तन अत्यधिक प्रभावकारी होता है। वास्तविक प्रवाजन करनेवाली चिड़ियों की भाँति इनमें भी प्रवाजन क्रमिक और नियमित होता है। देश के किसी भाग में कोई जाति ग्रीष्म ऋतु में, कोई जाति बरसात में और कोई जाति शरद् में आगमन करती है। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार का भी स्थानपरिवर्तन बराबर होता रहता है, जो आहार पर प्रभाव डालनेवाली स्थानीय परिस्थितियों, जैसे गर्मी, सूखा या बाढ़ इत्यादि, अथवा किसी विशेष प्रकार के फूल लगने और फल पकने की ऋतु, के कारण होता है। उस समय चिड़ियाँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चली जाती हैं।

असाधारण स्थानीय प्रवाजन 


कभी कभी असाधारण परिस्थितियों से बाध्य होकर अपने उपयुक्त निवासस्थान की छोड़कर भोजन की तलाश में चिड़ियाँ किसी अन्य क्षेत्रों में भी भ्रमण करती हुई पाई जाती हैं। अतएव किसी क्षेत्र में किसी भी समय में पक्षियों की जनसंख्या स्थायी नहीं रहती, क्योंकि सभी क्षेत्रों में पक्षियों का आगमन और निर्यमन सर्वदा होता रहता है।

ऊँचाई संबंधी प्रवाजन (Altitudinal Migration) 


हिमालय के ऊँचे पहाड़ों में रहनेवाली चिड़ियाँ जाड़े में नीचे उतर आती है और इस प्रकार तूफानी मौसम और हिमरेखा से नीचे चली आती है। वसंत के आगमन पर जब बरफ गलने लगती है और हिमरेखा ऊपर की ओर बढ़ जाती है, तब वे अंडे देने के लिए पहाड़ों के ऊपरी भाग में पुन: चढ़ जाती हैं। यह क्रम केवल ऊँचाई में रहनेवाले पक्षियों में ही नहीं वरन्‌ नीचे रहनेवाली चिड़ियों में भी चलता रहता है।

चिड़ियों के प्रवाजन का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त प्रकार के अवलोकनों के लिए भी ब्रिटेन तथा अमरीका में बहुसंख्यक चिड़ियों के पैर में ऐल्यूमिनियम की हल्की और अंकित अंगूठियां पहना दी जाती है। यह विधि अमरीका में पक्षिवलयन (birdringing) अथवा पक्षिपटबंधन (bird banding) कहलाती है। इसमें क्रमसंख्या के अतिरिक्त स्थान का पता भी अंकित रहता है। चिड़ियों को अँगूठी पहनाकर उनका पूर्ण विवरण एक पुस्तिका में लिख कर उन्हें छोड़ दिया जाता है। अब इन चिड़ियों के सुदूर स्थानों पहुँचने पर इन्हें मारकर अथवा फँसाकर इनकी अंगूठी उतार ली जाती है और ये जिस स्थान से उड़ी थीं, उस पते पर भेज दी जाती है। जब काफी संख्या में इस प्रकार की तालिका इकट्ठी हो जाती है तब इन तालिकाओं का विश्लेषण करके उसके आधार पर किसी विशेष जाति की चिड़िया के प्रवाजन के मार्ग अथवा अन्य किसी समस्या का हल निर्धारित किया जाता है। अतएव पश्चिमी जर्मनी और पूर्वी प्रशा में श्वेत बक के बलयन के फलस्वरूप यह निश्चित और नि:संदिग्ध रूप से स्थापित हो चुका है कि पूर्वी एशिया की चिड़ियाँ दक्षिण-पूर्वी मार्ग से बालकन होती हुई अफ्रीका का भ्रमण करती है, जबकि पश्चिम जर्मनी के श्वेत बक दक्षिण पश्चिमी मार्ग से स्पेन होकर अफ्रीका जाते हैं। बीकानेर में इसी प्रकार की अँगूठीधारी चिड़ियों के प्राप्त होने से हमें पता चला है कि कुछ श्वेत बक जो हमारे देश में, शरद् ऋतु में, आते हैं, वे जर्मनी के होते हैं। भारत में इस प्रकार का पक्षिवलयन का कार्य बहुत थोड़ा हुआ है। किंतु जितना कुछ हुआ है उससे प्राप्त सूचनाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हुई हैं।

प्रवाजन के समय उड़ान की ऊँचाई और गति  प्रवाजन करनेवाली चिड़ियों की गति विभिन्न चिड़ियों में विभिन्न होती है और यह गति कई बातों, जैसे वायु की दिशा, मौसम इत्यादि पर निर्भर करती है। बतखों और हंसों में उड़ान की गति (cruising speed) 64 से 80 किमी. प्रति घंटे पाई गई है और अनुकूल मौसम में यह गति 90 से 97 किमी. या इससे अधिक पाई गई है। दिन रात निरंतर उड़कर यात्रा करनेवाली चिड़ियों में यह गति 9.5 से 17.7 किमी. प्रति घंटा होती है। निम्नलिखित सारणी से यह अनुमान किया जा सकता है कि एक बार की उड़ान (hop) में कौन चिड़िया कितनी दूरी तय करती है :

पक्षी का नाम

दूरी किलोमीटर में

समय घंटे में

कारंडवकुक्कुट (coot)

258.080

6

राजबक (stork)

251.625

6

भंडु

 

 

तीतर (woodcock)

403.250-483.9

11

टिट्टिभ (plover)

887.150

11



पूर्वी सुनहरा टिट्टिभ (eastern golden plover या Caradrius dominicus fulvus) बिना कहीं रुके लगातार उड़कर 3226.00 किमी. के खुले समुद्र को पार कर जाता है। यह टिट्टिभ शरद् ऋतु में, भारत में भ्रमण करने आते हैं। यह पश्चिमी अलास्का और उत्तर-पूर्व साइबिरिया में अंडे देता है और हवाई द्वीपों का नियमित रूप से भ्रमण करता है। चाहा (Copella hardwickii) जिसकी मादा केवल जापान में अंडे देती है, जाड़ा पूर्वी आस्ट्रेलिया और टैजमानिया में व्यतीत करता है, इस प्रकार अवश्य ही 4839.00 किमी. की दूरी बिना कही रुके निरंतर उड़कर पार कर जाता है। कुछ और भी ऐसी चिड़ियाँ है, जो बिना दाना पानी के बहुत बड़ी दूरी पार जाती हैं। अधिक दूर की यात्रा करनेवाली भारतीय चिड़ियों में संभवत: में भंडु तीतर (wood cock, Scolopax rusticola) है जिसका अंडे देने का सबसे निकटवर्ती स्थान हिमालय में हैं। कुछ झंडु तीतर जाड़ा नीलगिरि अथवा दक्षिण की अन्य पहाड़ियों में बिताते हैं, और उसके बीच (हिमालय और नीलगिरि के बीच) अन्य कहीं नहीं मिलते। इससे इतना स्पष्ट है कि ये एक उड़ान में कम से कम 2419.5 किमी. की दूरी अवश्य ही पार करते हैं।

पहले ऐसा विश्वास किया जाता था कि प्रवाजन करनेवाली चिड़ियाँ बहुत ऊँचाई पर उड़ती हैं, क्योंकि इससे उनको, स्थान का निर्धारण करने, हवा के द्वारा उत्पन्न अवरोध कम होने, इत्यादि का लाभ होता है। किंतु अब यह पाया गया है कि यदि किसी ऊँची पर्वतमाला को पार करना नहीं हुआ तो वस्तुत: ये प्रवाजन करनेवाली चिड़ियाँ 396.24 मीटर की ऊँचाई पर उड़ती हैं और बिरली ही चिड़िया 914.4 मीटर की ऊँचाई तक की जाती है। जब समुद्र पार करना होता है अथवा यहाँ किसी प्रकार के वृक्ष या पहाड़ का अवरोध नहीं होता, तब कुछ चिड़याँ स्वभावत: इससे भी कम ऊँचाई पर उड़ती हैं। हाँ, यदि आवश्यकता हुई तो चिड़ियाँ बहुत की अधिक ऊँचाई से भी उड़ सकती हैं। 3.048 मीटर से लेकर 8229.6000 मीटर तक की ऊँचाई पर उड़ने का उल्लेख पाया जाता है।

अनुरंजन  जिस स्थान पर पक्षी दंपति अपना घोंसला बनाते हैं, उसके ईद गिर्द का क्षेत्र वे अपना बना लेते हैं और अपनी ही जाति के किसी अन्य पक्षी का उस क्षेत्र में प्रवेश अमैत्रीपूर्ण समझते और उसका तीव्र विरोध करते हैं। अधिकांश पक्षी अपने लिए क्षेत्र का बँटवारा अलग अलग कर लेते हैं, किंतु यह सर्वव्यापी नियम नहीं है कि सभी प्रकार के पक्षी क्षेत्रों का बँटवारा करते ही हों। क्षेत्र का बँटवारा आक्रामक जाति, जैसे भुजंगा (black drongo) में भली भाँति स्पष्ट होता है। क्षेत्र पर नर पक्षी आधिपत्य स्थापित करता हैं, प्रवाजन करनेवाले पक्षियों में नर, शरद् आवास से लौट कर, पहले अपने निवास के क्षेत्र में पहुँचकर किसी भाग पर अधिकार जमा लेता है। क्षेत्र पर आधिपत्य जमाने के लिए उसे अपनी ही जाति के अन्य नरों से युद्ध भी करना पड़ सकता है। युद्ध में विजयी हो जाने पर और क्षेत्र पर अधिकार हो जाने के पश्चात्‌ वह मादाओं के आगमन की प्रतीक्षा करने लगता है और गला फाड़कर जोर जोर से गा गाकर अपनी उपस्थिति की घोषणा और नीड़-निर्माण की स्थिति (site) का विज्ञापन करने लगता है। नर का यह गान न केवल मादाओं को ही अपनी ओर आकृष्ट करता है, बल्कि अन्य नरों के लिए चेतावनी का भी काम करता है कि उस क्षत्र पर किसी नर का अधिकार हो चुका है और दूसरा उस क्षेत्र में प्रवेश करने का दु:साहस न करे। जब कोई मादा क्षेत्र में पहुँच जाती है तो उसके लिए नरों के बीच प्रतिद्वंद्विता और मादा के प्रति उनका प्रेमदर्शन प्रारंभ हो जाता है। इस प्रेमदर्शन का विविध रूप होता है। कुछ पक्षी अपने सुंदर परों को फुलाकर और पूँछ को फैलाकर मादा के आगे नाचते हैं, जैसे मोर जंगली मुर्गी। प्रणयप्रदर्शन का यह दृश्य बड़ा ही मनोरम होता है। नीलकंठ आकाश में उड़कर और फिर नाक के बल हवा में गोते लगाकर अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है।

कभी कभी प्रणयगीत के साथ नर तरह तरह के हाव भाव भी दिखाता है। पंख फैलाकर, दुम उठाकर, छाती फुलाकर, मोर, कबूतर, आदि नाच, नाचकर मादा को रिझाते हैं। मोर नाचता है और नाचने में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने तन की भी सुध नहीं रह जाती, मादाएँ आकर उसके चारों ओर खड़ी हो जाती हैं। कबूतर का ढंग कुछ और है। मादा दाना चुगती रहती है, नर एकाएक उसके पास गला फुलाकर नाचने लगता है, कुछ आगे बढ़ता है, फिर पीछे लौटता है, और इस प्रकार उसे रिझाने की चेष्टा करता है। सुदूर आकाश में उड़नेवाले पक्षी, चील आदि आकाश में ही नृत्य करते हैं। उनका यह नृत्य वृत्ताकार रूप में होता है।

पक्षियों के शिशु शैशवावस्था में सुंदर नहीं होते, पर उम्र बढ़ने के साथ साथ उनका सौंदर्य भी निखरने लगता है। पक्षी जाति में आकर्षण का केंद्र अधिकांशत: मादा नहीं नर होते हैं। मनुष्यों के विपरीत पक्षियों में ढलती अस्था में ही सौंदर्योत्कर्ष चरम सीमा पर होता है।

गान  यह पक्षीसमाज का जन्मसिद्ध अधिकार है। पर न तो सभी पक्षी गाते हैं और न उनके संगीत में समान रूप से माधुर्य ही होता है। कुछ तो काक जैसे हैं, जिनकी बोली कर्णकटु होती है, किंतु कुछ कोयल और श्यामा जैसे हैं जिनके स्वर में माधुर्य टपकता है।

जब पक्षियों का जोड़ा बाँधने का समय आता है तब नर मादा को विविध प्रकार से रिझाने की चेष्टा करता है। गानेवाले पक्षी, जैसे कोकिल, पपीहा आदि, जब कामविह्वल हो जाते हैं तब उनकी उत्तेजना अत्यधिक बढ़ जाती है और वे जोर जोर से गाना शुरू कर देते हैं। इन दिनों इनके गले में एक विशेष ओज और स्वर में मधुरिमा आ जाती है तथा वे दिन रात प्रणयगीत गाने में तल्लील रहने लगते हैं।

नीड़निर्माण  नीड़निर्माण का मुख्य उद्देश्य अंडे और बच्चों को सुरक्षा प्रदान करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दो बातें मुख्य हैं, प्रथम अंडों अथवा बच्चों का शत्रुओं की दृष्टि से ओझल रहना और दूसरे शत्रु की पहुँच के बाहर होना। इन दोनों बातों की पूर्ति बिल या किसी प्रकार के झोंझ में अंडे देने से सुगमता से हो जाती है। जो पक्षी ऊँचे पेड़ों, इमारतों या ढालू चट्टनों अथवा दलदली स्थानों में अंडे देते हैं, उनमें शत्रु की पहुँच के बाहर होनेवाली बात तो पूरी हो जाती है, किंतु जो चिड़ियाँ जमीन पर अंडे देती हैं, उनके अंडे और बच्चे छिपने के ही ऊपर निर्भर होते हैं। यह दो प्रकार से होता है : (क) अंडे और बच्चे किसी वनस्पति की झोंझ में दिए जाय अथवा (ख) उनका रंग ऐसा हो जो ईद गिर्द की अन्य वस्तुओं के रंग से मिलता जुलता हो।

नीड़ के प्रकार  यदि हम मान लें कि चिड़ियों के पूर्वज वृक्षवासी थे, इसलिए उनका अंडा देने का स्थान पेड़ के किसी कोटर में अथवा डालियों पर था, तो अनेक चिड़ियों को आज भी यही पसंद है। किंतु फिर भी नीड़निर्माण में बहुत ही विकास हुआ है और विभिन्न पक्षियों के नीड़ में बहुत ही विविधता पाई जाती है। भारत मे पक्षियों के मुख्यत: निम्न प्रकार के घोंसले मिलते हैं :

1. साधारण घास पात के टुकड़ों (sniple scrapes) का घोंसला  तीतर, बनमुर्गी और अन्य शिकार की चिड़ियाँ मिट्टी में, गड्ढे बनाकर घास, फूस और पत्ते इत्यादि बिछा देती हैं और कुररी तथा टिटिभा (lapwing) तो केवल यों ही मिट्टी या बालू हटाकर गड्ढे में बिना कुछ बिछाए ही अंडे देती हैं। इनके अंडों को अभिलेपन रंग (obliterative colouration) द्वारा सुरक्षा प्राप्त होती हैं।

2. टहनियों के घोंसले  कौए, चील, पेडुकी, गिद्ध, जलकाग बगुले इत्यादि पेड़ों पर, मकान के ऊपर या चट्टानों में लकड़ी की, टहनियों का एक चबूतरानुमा घोंसला, जिसका मध्य भाग प्यालेनुमा होता है, बनाते हैं और इस प्याले में घास, फुस, चिथड़े, चिड़ियों के पर इत्यादि का मुलायाम बिस्तर बिछा देते हैं।

3. वृक्ष के कोटरों में घोंसले  कुछ चिड़ियों के घोंसले हरे या सूखे वृक्षों में छिद्र बनाकर बने होते हैं और उनमें या तो थोड़ा मुलायम अस्तर होता है या बिना किसी अस्तर (lining) के ही होते हैं। रामगंगरा, पीलक, जंगली चिरी (yellow throated sparrow) कठफोड़वा, वसंता (barbet), धनेश, उल्लू, कुछ मैना और अधिकांश स्थानीय बतख इस प्रकार के घोंसले बनाते हैं। कठफोड़वा, सुग्गे और वसंता पहले पेड़ों पर खोडर बनाते हैं और बाद में उसी में घोंसला बनाते हैं। आगे चलकर इन खोडरों का उपयोग अन्य चिड़ियाँ भी कर लेती है। स्थानीय बतखों में जल के किनारे पेड़ों के प्राकृतिक कोटरों में अंडे देने की आदत होती है। ये दक्षिणी - पश्चिमी मानसून के समय अंडे देती हैं। पेड़ों पर अंडे देने से इनके अंडों की सुरक्षा रहती है, क्योंकि बरसात में झील या तालाब में पानी बढ़ने पर भी ऊँचे पर पानी पहुँचने का खतरा नहीं रहता और बच्चे माँ बाप द्वारा केवल घोंसले से ढकेल दिए जाने मात्र से ही जल में पहुँच जाते हैं। जो चिड़ियाँ स्वयं कोंटर बनाती हैं उन्हें प्राकृतिक खोडर पर निर्भर नहीं रहना पड़ता और वे जहाँ भी उचित समझती हैं, वहाँ इच्छानुकूल छिद्र बना लेती हैं।

धनेश चिड़िया जब छिद्र में अंडा देती है, तब नर मादा को उसमें बिठाकर छिद्र का द्वार बंद कर देता है, केवल मादा की चोंच निकलने भर छिद्र खुला रहता है, जिसके द्वारा नर मादा को भोजन पहुँचाता रहता है।

4. मिट्टी के कगारों में बिल खोदकर निर्मित नीड़  जलवासी चिड़ियों में से कुछ नदी के किनारे के कगारों की मिट्टी में सुरंग बनाकर अथवा मकानों या चट्टानों की दरारों इत्यादि में धोंसला बनाती है। उदाहरणार्थ पतरींगा, किलकिला, हुदहुद (hoopoe) कगारों की मिट्टी में जलधारा के क्षितिज के समांतर सुरंग बनाकर घोंसला बनाती है। बिल खोदने में चिड़िया अपनी चोंच का सहारा लेती है। चिड़िया चोंच से मिट्टी खोदती है और निकले मिट्टी को पैरों से पीछे की ओर फेंकती जाती है। सुरंग की लंबाई कुछ सेंटीमीटर से लेकर कई मीटर तक होती है और बिल का अंतिम सिरा कुछ टेढ़ा और बिजली के बल्ब की भाँति फैला होता है। इसी लट्टूनुमा भाग में अंडे दिए जाते हैं।

5. कीचड़ के घोंसले या ऐसे घोंसले जिनमें कीचड़ का बाहूल्य होता है  कस्तुरिका (whistling thrust), कस्तूरा (black bird), अबाबलील, चटान अबाबील (martin) इसी प्रकार के घोंसले बनाती हैं।

6. घास के प्यालानुमा घोंसले तथा शाखाओं के फूटने के स्थान (forks) पर साधारणतया मकड़ी के जाले से प्लास्टर किया हुआ घोंसला  शाउबोगी (iora), चकदील (fanitail) और अन्य पतिरंग (flycatener), पीलक, मज्जिका, बुलाल चश्म (minivet), कूजिनी (reed warbler), कोकिल, लेढोरा या पचनक (shrikes) इत्यादि उपर्युक्त प्रकार के घोंसले बनाती हैं। चिड़ियाँ भवननिर्माण की सामग्री को आपस में कसकर बाँध रखने के लिए मकड़ी के जाले का प्रयोग करती हैं। नीड़निर्माण के इस साधन को ये चिड़ियाँ अपनी चोंच में लपेटकर इकट्ठा करती हैं और घोंसलें को ठीक स्थान पर दृढ़ बने रहने और इधर उधर डिगने और अव्यवस्थित होने से बचाने के लिए इसको घोंसले के चारों तरफ लपेट देती हैं।

7. टहनियों, घास अथवा मूलरोमों (root-lets) के गुंबदनुमा या गेंदाकार घोंसले  इनके पार्श्व में प्रवेशद्वार होता है मुनिया, रक्तोदर गुपिल (rufous belied babbler) इसी प्रकार के घोंसले का निर्माण करती हैं और उसमें चिड़ियों के पर इत्यादि का मुलायम बिस्तर बिछा देती हैं।

8. लटकता हुआ घोंसला  बया, शकरखोरा, पुष्पान्वेषी (flower pecker) इसी प्रकार के घोंसले बनाती हैं।

9. आयताकार बटुआनुमा (Loofah-like) घोंसलता  ये घोंसले घास की लंबी डंठलों अथवा छोटी मोटी झाड़ियों से लटके होते हैं। फटकी (wrenwarbler) इसी प्रकार का घोंसला बनाती है।

10. पत्तियों के सिले हुए घोंसले  दर्जिन चिड़िया (tailor bird), चिकुरकूजिनी (Franklin's wren warbler) तथा काली फटकी या भस्म चिकुरकूजिनी (ashy wrenwarbler) पत्तियों को सीकर एक कीपनुमा (funnel shaped) घोंसला बना लेती हैं (उपर्युक्त घोंसलों के लिए देखें फलक)।

उपर्युक्त प्रकार के घोंसलों के अतिरिक्त अन्य विविध प्रकार के घोंसले भी चिड़ियाँ बनाती हैं। भक्ष्य-नीड़ दुर्बलिका बतासी (edible nest swiftlet) सामूहिक रूप से एक बस्ती बनाकर अंडे देती है। इसका घोंसला अर्द्ध प्यालानुमा होता है जिसका आधा भाग चट्टान के अंधेरे कंदरे (grottos) अथवा समुद्री द्वीपों की गुफाओं की दीवार से चिपका होता है। इस प्रकार के घोंसले चिड़ियों को लार और परों के सम्मिश्रण से बने होते हैं।

आस्ट्रेलिया और मलय प्रायद्वीप एवं द्वीपसमूहों की दीर्घचरण (megapode) नामक चिड़िया जमीन को कुरेद कुरेदकर मिट्टी का एक ढेर लगा देती है, जो कुछ वर्षों में बहुत बड़ा टीला बन जाता है। कभी कभी इस टीले की ऊँचाई 4.5 मीटर और परिधि 27.28 मीटर तक पहुँच जाती है। दीर्घचरण चिड़िया इस टीले के केंद्र में एक गहरा बिल बनाकर, इसी में अंडे देती है और बिल को थोड़ी मिट्टी से ढँक देती है। इस चिड़िया की कुछ जातियाँ टीले नहीं बनातीं और केवल सतह पर ही गड्ढें बनाकर अंडे देती हैं।

कुछ चिड़ियाँ खुली सतह पर अंडे देती हैं और कुछ पौधों अथवा झाड़ियों के नीचे, जमीन पर। जमीन पर नीड़ बनानेवाली चिड़ियों की सूची में शिकार की चिड़ियाँ, जैसे बतख, गंगचिल्ली (gulls), कुररी और इसी प्रकार की अन्य चिड़ियाँ हैं। टिट्टिभ अपने अंडे बिल्कुल खुली जमीन पर देती हैं।

कुछ चिड़ियाँ सूखी जमीन पर अंडे देती हैं, तो कुछ ऐसी भी हैं जो दलदली स्थानों में, अथवा छिछले जलवाले पोखरे या जलधाराओं में उगे पौधों के ऊपर, अंडे देती हैं। पनडुब्बी (gerbes) चिड़िया जल में एसा नीड़ निर्माण करती है जो वास्तव में तैरता रहता है।

राजहंस चिड़िया का नीड़ कीचड़ का बना होता है। इस प्रकार का नीड़ निर्माण करनेवाली चिड़ियों में मुख्यत: जल चिड़ियाँ होती हैं।

किटीवेक धोमरा (kittiwake gull), शूलकाक (gannet), रेजरबिल (razorbill) और गिलमाट (guillmot) समुद्र के किनारे भृगुओं (cliffs) में नीड़निर्माण करती है और अंडे देती हैं। मादा जलकाग अपने अंडे समुद्र के किनारे के भृगुओं के आधार या छोटे द्वीपों की चट्टानों पर अंडे देती हैं। यहाँ भी कुछ तो गुफाओं में और कुछ जाति की चिड़ियाँ यों ही, खुली चट्टानों पर अंडे देती हैं।

गौरैया, अबाबील, चटान अबाबील (martin), तीलयक (starling), चोरकौवा (jackdaw), बतासी और करैल (barn owl) मनुष्य द्वारा निर्मित इमारतों में अंडे देती हैं।

कुछ पक्षी अपना अपना क्षेत्र स्थापित कर, जोड़े बाँधकर, अलग अलग घोंसले बनाते हैं, जैसे भुजंगा, किंतु कुछ पक्षी समूह में घोंसले बनाते हैं, जैसे बया (weaverbird), अबाबील (cliff swallows), साधारण और भक्ष्य-नीड़-दुर्बलिका और बगुले इत्यादि।

घोंसले का ढाँचा  प्रत्येक जाति की चिड़ियों के घोंसले का अपना विशेष ढाँचा होता है। घोंसला बनाने का यह कार्य पक्षियों में जनमजात गुण या सहज ज्ञान (instinctive) होता है, क्योंकि प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि जो चिड़ियाँ किसी प्रयोगशाला में पैदा की गईं, वे भी निर्धारित समय पर अपनी जाति के परंपरानुसार ढाँचे का ही घोंसला बनाती हैं।

एक ही जाति की चिड़ियाँ कभी कभी विभिन्न प्रकार के स्थानों पर भी अंडे देती है। इस प्रकार उपर्युक्त स्थान का चुनाव स्थानीय परिस्थितियों पर एवं उस स्थान में नीड़निर्माड़ की उपलब्ध सामग्री पर निर्भर करता है।

कभी कभी कोई चिड़िया अपनी जाति की परंपरा के विपरीत बिल्कुल भिन्न स्थान पर नीड़निर्माण करती है, यथा नीलसिर (mallard) जाति की चिड़ियाँ लाक्षणिक रूप से जमीन पर ही अंडे देती हैं, किंतु कभी कभी ये पेड़ों पर भी अंडे दे देती हैं। फिर भी इतना अवश्य है कि प्रत्येक जाति की चिड़ियों के नीड़निर्माण का एक विशेष ढंग और विशेष स्थान होता है।

नीड़निर्माण का दायित्व  अधिकांश पक्षियों में नीड़निर्माण का संपूर्ण दायित्व नर पर ही होता है, किंतु कुछ ऐसे पक्षी भी है जिनमें नर थोड़ा भाग लेता है अथवा बिल्कुल ही भाग नहीं लेता। कुछ जाति के पक्षी एक ही घोंसले को दुबारा काम में नहीं लाते, किंतु कुछ अपने पुराने नीड़ की ही मरम्मत कर बार बार प्रयोग में लाते हैं। कुछ पक्षी दूसरे पक्षियों द्वारा त्यक्त नीड़ का उपयोग करते हैं।

पक्षियों में कुछ तो ऐसे होते हैं जिन्हें सफाई का बड़ा ध्यान रहता है, किंतु कुछ ऐसे हैं जिन्हें हुदहुद की तरह गंदगी ही अधिक प्रिय है। नीड़निर्माण के विषय में उनकी प्रकृति एक जैसी नहीं होती। कुछ बड़े बेढौल घोंसले बनाते हैं, जैसे कौवे, किंतु कुछ इनके बनाने में बड़ी कारीगरी प्रदर्शित करते हैं, जैसे जलमुर्गी।

अंडा  प्रत्येक जाति की चिड़ियों के अंडों में, थोड़ी बहुत भिन्नता भले ही हो, पर इनकी अपनी एक विशेषता होती है। प्रत्येक जाति के पक्षियों के अंडों का आकार, माप और रंग अनूठा होता है।

पक्षियों के जीवन और उनके अंगों के आकार, माप, सतह की रचना (texture) और रंग में एक संबंध है। उसी प्रकार एक थोक या समूह (clutch) के अंतर्गत अंडों की संख्या और किसी ऋतु में थोकों की संख्या में एक संबंध होता है।

अंडे की माप मुख्यत: अंडा देनेवाली चिड़िया के डीलडौल पर निर्भर करती है, किंतु यह आवश्यक नहीं है कि अनुपात हमेशा एक हो। इसके दो कारण हैं : (1) प्रत्येक जाति के पक्षियों में बच्चे विकास की विभिन्न अवस्थाओं में अंडे से बाहर निकलते हैं, और यह उस जाति के पक्षी की अपने जीवन की परिस्थितियों पर निर्भर होता है। जिन पक्षियों में उद्भवन अवधि (incubation period) लंबी होती है उनके अंडों में स्वभावत: बड़े होने की प्रवृत्ति होती है, किंतु कोयल जैसी चिड़िया के अंडे बिल्कुल ही छोटे होते हैं और यह उसके विचित्र जातीय स्वभाव के कारण है।

मुर्गी के अंडे का जो आकार होता है, वही आकार प्राय: अन्य चिड़ियों के अंडों का होता है। अंडा एक दिशा में लंबा होता है और उसका एक छोर गोलाकार और दूसरा छोर थोड़ा नुकीला होता है। अंडे एक छोर पर गोल और दूसरे छोर पर नुकीले होने से सरलता से लुढ़क नहीं पाते। साथ साथ अंडों के नुकीले भाग घोंसले के मध्य में केंद्रित हो जाने और उनका गोलाकार भाग बाहर की ओर होने से, यदि घोंसले में तीन चार अंडे हों तो वे सभी आसानी से अँट जाते हैं। कुछ चिड़ियों के अंडे लगभग गोलाकार होते हैं। उल्लू के अंडे गोलाकार और बतासी के अंडे पतले और दोनों छोरों पर गोल होते हैं।

कुछ चिड़ियों के अंडों की सतहें चिकनी होती हैं, कुछ की चमकीली (glossy), कुछ की बहुत अधिक पालिशदार (highly burnished) और कुछ की खुरदरी तथा खड़ियानुमा होती है।

अंडों का रंग भी भिन्न भिन्न चिड़ियों में भिन्न भिन्न होता है। कुछ चिड़ियों के अंडे बिल्कुल सफेद होते हैं, किंतु कुछ के अंडे रंगीन, हरे, नीले, भूरे और ललछौंह होते हैं। कुछ के अंडों का रंग बिल्कुल एक समान (uniform) होता है और कुछ का चितकबरा अथवा चित्तीदार। चित्तियाँ धब्बे के रूप में, अथवा चकत्तों (blotches) के रूप में होती है और थोड़ी अथवा अत्यधिक संख्या में होती हैं। धब्बे अंडों की सतह पर समान रूप से बिखरे हो सकते हैं, अथवा किसी भाग में अधिक और किसी भाग में कम। कुछ जाति के पक्षियों में एक ही जाति के अंतर्गत विभिन्न सदस्यों के अंडों के रंग और चिह्नों (markings) में व्यक्तिगत भिन्नता होती है।

अंडे का रंग मुख्य रूप से रक्षात्मक होता है। अतएव हरी डालियों पर दिए जानेवाले अंडों का रंग हरा और जमीन पर दिए जानेवाले अंडों का रंग प्राय: भूरा होता है। कोटर अथवा बिल के अंडे प्राय: सफेद होते हैं, जिससे पक्षी अंधेरे में भी उनका पता लगा सके।

गिलमाट और रेजरबिल केवल एक ही अंडा देती हैं, परावत या जंगली कबूतर और गरुड़ (golden eagel) दो, ढोमरा या गंगचिल्ली की विभिन्न जातियाँ तीन और टिट्टिभ की अनेकों जातियाँ चार अंडे देती हैं। अनेक जातियाँ पाँच छह अंडे तक देती है। कुछ गानेवाली छोटी किस्म की चिड़ियों में सात आठ से लेकर दस बारह तक अंडे मिलते हैं। शिकार की कुछ चिड़ियों और बतखों में इससे भी और अधिक संख्या पाई जाती है।

अधिकांश चिड़ियाँ, यदि उनके अंडे चुरा लिए जाऐं, अथवा नष्ट हो जाऐं, अथवा अंडों को त्यागने के लिए वे बाध्य कर दी जायें, तो फिर से अंडे देती हैं, क्योंकि हर पक्षी के अंडों की एक निश्चित संख्या होती है। जब तक यह संख्या पूरी नहीं हो जाती, वह अंडे देना समाप्त नहीं करती। चिड़ियाँ साधारणतया एक ऋतु में एक ही बार अड़े देती हैं। कुछ गानेवाली चिड़ियाँ ऋतुकाल में दो या तीन बार भी बच्चे उत्पन्न करती हैं।

जिन चिड़ियों के अंडे और बच्चे अधिक नष्ट होते हैं, अथवा जो अल्पायु होती हैं, उनमें जनन तीव्र गति से और अंडों की संख्या अधिक होती है। चिड़ियों की आयु का भी प्रभाव उनके अंडों की संख्या पर पड़ता है। प्रथम बार माँ बननेवाली चिड़ियाँ कम और दूसरी या तीसरी बार अंडे देनेवाली चिड़ियाँ अधिक अंडे देती हैं।

अंडसेवन और इनका उद्भवन (incubation)  अंडों की संख्या जब पूरी हो जाती है, तब उनका सेना प्रारंभ होता हैं। पक्षी बड़ी लगन और तत्परता से अंडे सेते हैं, अपने पंखों से उन्हें गरम रखते तथा उनकी रक्षा करते हैं :

अधिकांश जातियों में नर और मादा दोनों ही अंडसेवन का कार्य करते हैं, भले ही अंडे सेने का कार्य एक थोड़ा करता है तो दूसरा अधिक। कभी कभी दिन में मादा अंडे सेती है और रात्रि में नर। कुछ जातियों में केवल मादा ही अंडे सेती हैं, किंतु ऐसी अवस्था में नर उसके लिए भोजन जुटाता है। किसी किसी जाति में नर और मादा बारी बारी सें आते जाते रहते हैं।

अंडा-सेवन-काल में मादा का ध्यान अंडे सेने में कुछ ऐसा लग जाता है और उसमें ऐसी एकाग्रता उत्पन्न हो जाती है कि यदि कोई उसके अंडे को हटाकर अन्य कोई वस्तु, जैसे पत्थर के टुकड़े, रोड़े इत्यादि, भी रख दे तो वह बिना देखे सुने उनपर बैठकर उन्हें सेती रहेगी। बहुधा ऐसा देखा गया है कि अंडों के खराब या निर्जीव हो जाने पर भी मादा एक लंबी अवधि तक उन्हें सेती रहती है।

कबूतरों में नर बड़े चाव से अंडा सेता है है। यही नहीं, बल्कि मादा को हटाकर स्वयं अंडों पर बैठता है। नर स्वयं नहीं दे सकता, किंतु संतानप्रेम की अभिलाषा से वह किसी तरह मादा को रिझाकर जोड़ा बाँध लेता है, मादा से अंडे दिलवा लेता है और फिर उसके बाद उनके सेने तथा शिशुपालन की सारी क्रिया स्वयं बड़े चाव से संपन्न करता है। लैपलैंड और औक (auk) जाति के पक्षियों में नर की संख्या अधिक है, मादा की कम। अत: सभी नर जोड़ा बाँधने में सफल नहीं हो पाते, पर उनकी अंडा सेने तथा संतान पालन का अभिलाषा दिल से नहीं जाती।

इससे ठीक विपरीत कुछ पक्षी ऐसे भी हैं, जो अंडों को स्वयं न सेकर दूसरों से सेवाते हैं। कोयल, पपीहा आदि इनमें मुख्य हैं, जो चोरी से अपने अंडे कौवे, चर्खी अथवा सतभइए (seven sisters) आदि के घोंसलों में रख आते हैं और उन्हें मूर्ख बनाकर उनसे धात्री का काम लेते हैं।

कुछ ऐसे पक्षी हैं, जो अंडों को न तो स्वयं सेते हैं और न औरों से सेवाते हैं, बल्कि उन्हें धूप के ताप से पकाकर उनकी रक्षा करते हैं। शुतुरमुर्ग नामक पक्षी अपनी छाती की रगड़ से गड्ढा तैयार करता है और उसके चारों ओर चोंच से बालू रखकर दीवार सी खड़ी कर लेता है। फिर इसी में मादाएँ, प्राय: 20 से 30 तक, अंडे देते हैं। शतुरमुर्ग की एक ही मादा नहीं होती, एक नर की कई पत्नियाँ होती हैं और ये सभी बारी से इसमें अंडे पारती जाती हैं। अंडे देने का काम पूरा हो जाने पर, इनपर एक हल्की सी बालू की परत बिछा दी जाती है। दिन भर सूर्य की किरणों से ये अंडे गरम रहते हैं। रात्रिकाल में ये पक्षी इनपर बैठपर इन्हें उष्णता प्रदान करते हैं।

कई पक्षी ऐसे हैं, जो किसी उष्ण जल के झरने के समीप गढ़े बनाकर उनमें अंडे देते हैं, फिर उन्हें ढककर अन्यत्र चले जाते हैं। झरने के उष्ण जल से ये अंडे गरम रहते हैं। समय पूरा होने के दिन ये लौटकर आते हैं और ऊपर की मिट्टी को हटा देते हैं, फिर बच्चे अंडे फोड़कर बाहर चले आते हैं।

जहाँ अत्यधिक गर्मी पड़ती हैं, वहाँ के पक्षी अंडों को ठंढा रखने की व्यवस्था करते हैं, गरम रखने की नहीं। इसके लिए वे जल में अपनी चोंच भिगो भिगोकर उनसे अंडों को भिगोते रहते हैं, ताकि अत्यधिक ताप के कारण उन्हें क्षति न पहुँचे।

सेवनकाल भी, चिड़ियों में विभिन्न होता है। बड़ी चिड़ियों में अथवा उन चिड़ियों में जिनके बच्चे भली भाँति विकसित होकर उत्पन्न होते हैं, सेवनकाल लंबा होता है। किसी किसी में सेवनकाल एक महीने का और किसी किसी में दो सप्ताह से भी कम का होता है। किसी किसी पक्षी को महीने अंडे सेते बीतते हैं। मुर्गी को अंडा सेने में तीन सप्ताह लगते हैं, तीतर को चार, हंस को पाँच तथा कैंडर नामक पक्षी को पूरे दो महीने।

भ्रूण और शिशु  पक्षियों के अंडे बाहर दिए जाते हैं और भ्रूण का विकास बाहर हो अंडे के अंदर होता है। भ्रूण के पूर्ण विकसित हो जाने पर विहंग शिशु अंडे रूपी कैदखाने से बाहर आने के लिए अपनी चोंच से बार बार प्रहार करता है और अंडे के बीचों बीच, अथवा अन्य किसी चौड़े स्थल पर जातिभेद के अनुसार, एक दरार हो जाती है और शिशु बाहर निकल आता है। उस समय वह एक तरल पदार्थ से भीगा हुआ सा रहता है, जो हवा लगने से शीघ्र ही सूख जाता है। मुर्गी, तीतर, शुतुरमुर्ग आदि के बच्चे तो निकलते ही दौड़ना शुरु कर देते हैं, पर तोते, फाख्ते और कौए आदि के शिशु कई दिनों तक आँख नहीं खोल पाते,। वे एक निरीह सी अवस्था में पड़े रहते है तथा हफ्तों तक धोंसले में ही अपने शैशव के दिन बिताते हैं।

अंडे से बाहर आने पर शिशु चिड़िया के प्रथम कुछ सप्ताह कुछ विशेष कठिनाइयों एवं खतरों के होते हैं। इन दिनों वह न केवल छोटी और कमजोर होती हैं, बल्कि प्राय: स्वयं भोजन चुगने में असमर्थ तथा उड़ने से भी लाचार होती है। भिन्न जाति के पक्षियों के शिशु भिन्न अवस्था में उत्पन्न होते हैं और इस आधार पर उनका वर्गीकरण निम्नलिखित दो प्रमुख श्रेणियों में किया जा सकता है :

(क) वे शिशु जो उत्पन्न होने के साथ ही घोंसला छोड़ देते और इधर उधर दौड़ने लगते हैं, नीड़त्यागी (nidifugous या nestquitting) कहलाते हैं और

(ख) उन शिशुओं को, जो उत्पन्न होने के पश्चात्‌ नीड़ में ही पड़े रहते हैं, नीड़वासी (nidicolous) कहते हैं। कभी कभी नीड़त्यागी के लिए चूजा (click) शब्द का प्रयोग और नीड़वासी के लिए नीड़स्थ (nestlings) का प्रयोग किया जाता है।

नीड़त्यागी शिशु की आँखें जन्म से ही खुली होती हैं और इनका शरीर मुलायम परों से ढका होता है। ये आरंभ से ही सतर्क तथा चंचल होते हैं और दौड़ या तैर सकते हैं। हाँ, यदि इन्हें छेड़ा न जाय तो जन्म के पश्चात्‌ कुछ घंटों तक ये शांत पड़े रहना पसंद करेंगे। ये प्रारंभ से ही अपना दाना स्वयं चुगना शुरु कर देते हैं। बतख और मुर्गी के शिशु इसके अच्छे उदाहरण है। जंगली चिड़ियों में टिट्टिभ, जलकुक्कुटी (rail), बतख और शिकार की अन्य चिड़ियों के शिशु भी ऐसा ही करते हैं। शिकार की चिडियों में एक और विशेषता यह होती है कि ये शीघ्र ही उड़ने भी लगती हैं।

नीड़वासी शिशु जन्म के पश्चात्‌ बड़े होने तक घोंसले में ही पड़े रहते हैं और इन्हें आहार के लिए अपने माँ बाप पर ही पूर्णत: निर्भर रहना पड़ता हैं। ये जन्म के समय अंधे (अँखफोर नहीं) और असहाय होते हैं तथा अधिकांश अवस्थाओं में कम या अधिक नंगे; अर्थात्‌ परहीन एवं अनाकर्षक होते हैं। बताखी, किलकिला (Kingfisher); और हरित काष्ठकूट (green woodpecker) के शिशु बिलकुल नंगे (परहीन) उत्पन्न होते हैं। जलकाग तथा बक ऐसे पक्षियों का समूह है जिनके बच्चे जन्मकाल में बिलकुल नंगे होते हैं, अर्थात्‌ उनके शरीर पर बहुत कम पर रहते हैं।

पक्षी जिस तत्परता के साथ अंडे सेते हैं, उसी तत्परता से अपनी संतान का पालन पोषण एवं रक्षण भी करते हैं। संतानरक्षा में बहुधा देखा गया है कि पक्षी अपने प्राण की भी चिंता नहीं करते। संतानरक्षा में तरह तरह की बहानेबाजियाँ करके ये पक्षी आगंतुक को अचंभे में भी डाले देते हैं। बहुधा ये उसे देखकर इस प्रकार लँगड़ाने लगते हैं, मानो किसी शिकारी द्वारा घायल कर दिए गए हों। दुश्मन शिकारी, बधिक, श्वान, शृगालादि इन्हें पकड़ने की आशा लेकर जब इनका पीछा करते हैं, तो ये दूर तक चकमा देते हुए निकल जाते हैं और तब एकाएक तेजी से उड़कर कहीं चल देते हैं। इस तरह दुश्मन को घोंसले से दूर ले जाकर उसे पथभ्रष्ट कर देते हैं, जिससे वह किसी और दिशा में चल दे तथा नीड़ के शिशुओं पर आई विपदा इस तरह टल जाए। चिड़ियाँ दूसरों की आँख में धूल झोंकना भी खूब जानती हैं। जब वे कभी घिर जाती हैं तो मृतत्‌ होकर जमीन पर लेट रहती हैं, जिसे देखनेवाला उन्हें मृत समझकर आगे की ओर बढ़ जाता है। फिर ये शीघ्र जमीन छोड़कर आगे भाग खड़ी होती है। कभी कभी पकड़ी जाने पर भी ये मृतक होने का स्वाँग भरती हैं, ताकि हम इन्हें मृत समझकर छोड़ दे।

पालन पोषण एवं प्रशिक्षण  शिशु के प्रशिक्षण में प्राय: नर और मादा (बाप माँ) दोनों का ही हाथ रहता है। पक्षियों में जिनके नर अंडे सेने के दिनों में भाग नहीं लेते, उनके भी नर बच्चे की देखरेख करने, खिलाने पिलाने और प्रशिक्षण देने में भाग लेने लगते हैं।

कुछ पक्षियों, जैसे बतख, में शिशुपालन का पूर्ण दायित्व माँ पर ही निर्भर रहता है। उसी भाँति एमू (Lemu) जाति के पक्षी में यह कार्य नर को ही संपादित करना पड़ता है।

पक्षियों के नवजात शिशु अपनी सहज प्रवृति (instinct) की सहायता से अपनी जीवनयात्रा के प्रारंभिक दिन व्यतीत करते हैं। इनकी शिक्षादीक्षा अपने माँ बाप के द्वारा होती है। माता पिता अपनी चोंच की सहायता देकर या स्वयं उनके सामने पंख फड़फड़ाकर उड़कर, उड़ना दिखा दिखाकर इन्हें उड़ने की शिक्षा देते हैं। कभी कभी उड़ने में इन्हे दैहिक सहायता देकर बलप्रदान भी करते हैं। कभी प्रलोभन भी देते हैं। जो बच्चे शीघ्र उड़ना नहीं चाहते, उन्हें ये बलपूर्वक घोंसले से बाहर निकाल देते हैं। बाज तथा गरुड़, विशेषत: बच्चों के बड़े होने पर, चोंच मार मारकर उन्हें घोंसले से निकाल देते हैं और उन्हें जीवनयात्रा में एक प्रकार से अपने पैरों पर खड़ा होने को विवश करते है।

क्रीड़ा  मनुष्य की भाँति पक्षी खेल कूद, क्रीड़ा कौतुक के बड़े शौकीन हैं। चिड़ियाँ आपस में तरह तरह के खेल भी खेलती हैं। कभी कभी नट की तरह आकाश में उड़ते हुए तरह तरह के खेल दिखाती हैं। सीधे ऊपर जाकर इस तरह गिरती हैं मानो निष्प्राण हो गई हों। किसी डाल से लटककर झूला झूलना भी कई पक्षियों को बड़ा पसंद है, विशेषत: तोते तथा कनेरियों को। बक, कोयल, कौए आदि, मानव शिशु के साथ बड़े आनंद से खेलते हैं।

आयु  पक्षियों की आयु की औसत अवधि निश्चित रूप से कहना कठिन है परंतु जब से पक्षियों के परों में छल्ला पहनाने की प्रणाली चल पड़ी है तब से इनकी आयु का पता लगना कुछ सुगम हो गया है। नीचे की सारणी में कुछ पक्षियों की आयु दी हैं।

जाति

पूर्णायु

पालतू अवस्था में

पूर्णायु

जंगली अवस्था में

औसत आयु

जंगली अवस्था में

कस्तूरिका

17 वर्ष

9 वर्ष

1।। वर्ष

कस्तूरी

20 वर्ष

10 वर्ष

1।।। वर्ष

विदेशी मैना

15 वर्ष

9 वर्ष

1।। वर्ष

दहंगल

20 वर्ष

11 वर्ष

1-1। वर्ष

शुतुरमुर्ग

40 वर्ष

 

 

द्रोणाकाक

50-59 वर्ष

 

 

ग्ध्रृ

52 वर्ष

 

 

प्रावाकरर्ण उलूक

68 वर्ष

 

 

हंस

25 वर्ष

 

 

कबूतर

22-25 वर्ष

 

 

मोर

20 वर्ष

 

 



छल्लों की मदद से साधारण तौर पर यह पाया गया है कि बड़े पक्षियों की आयु अधिक होती हैं और छोटे की कम। यह भी ज्ञात हुआ है कि जंग में स्वतंत्र रहनेवाले पक्षियों की अपेक्षा पालतू पक्षी दीर्घायु होती हैं।

पश्चिमी देशों के एक पक्षीविशेषज्ञ के अनुसंधान के परिणाम उपर्युक्त सारणी में दिए हैं। जहाँ छोटी चिड़ियाँ जंगलों में औसतन 1।। वर्ष से अधिक नहीं जीतीं, वहाँ बड़े पक्षी स्पष्टत: ज्यादा दिनों तक जिंदा रहते हैं, जैसे उल्लू, जिसकी अवस्था में आयु प्राय: पाँच साल की होती हैं, या गरुड़, जो औसतन चार साल तक जीता है।पक्षियों की उपयोगिता  पक्षी प्रकृति और मनुष्य दोनों के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। इन उपयोगिताओं में से कुछ निम्नलिखित हैं :

(1) मांसाहारियों के लिए पक्षी का मांस सुस्वादु भोजन है। अतएव कुछ ऐसे पक्षी, जिनका शिकार किया जाता है, भोजन के काम आते हैं। मुर्गी, तीतर, बटेर, जल की बतखें, कबूतर, हारिल आदि प्रसिद्ध भक्ष्य पक्षियों में हैं।

(2) पक्षियों के अंडों में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है, अतएव यह पुष्टिकारक भोजन हैं। इसप्रकार अंडे के लिए मुर्गी, बतख, जीवंजीवक (pheasant) का पालन अच्छा व्यवसाय हो गया है।

(3) फाकलैंड द्वीप (Falkland Island) में चिड़ियों की चर्बी से तेल तैयार किया जाता है। आयुर्वेद के अनुसार कई चिड़ियों का मांस और तेल विभिन्न रोगों के लिए लाभदायक ओषधि है। गिरहबाज कबूतर मांस लकवा के लिए और धनेश का तेल वात रोग के लिए अच्छी ओषधि मानी गई है।

(4) पक्षियों के पर, सुरखाब के पर आदि, नारीसमाज के लिए शृंगार के साधन हैं। पुरुष भी किसी किसी देश में इन्हें सर पर धारण किया करते हैं।

(5) संदेशवाहक का काम भी पक्षी पुरातन काल से करते आए हैं, जैसे दमयंती का संदेशवाहक हंस बना था और राजकुमारी का हीरामन तोता। आधुनिक समय में, विशेषत: युद्ध में, कपोत संदेशवाहक का काम करते हैं। अकबर ने 20,000 कबूतर इसके लिए पाल रखे थे।

(6) पक्षियों से मनोरंजन भी होता है। तोता, मैना, बुलबुल, श्यामा, कोयल और पपीहे की बोली अत्यंत मनभावनी होती है। मुर्गी, तीतर, बटेर, मैना, बुलबुल इत्यादि को लड़ाकर बहुत लोग मनोरंजन करते हैं।

(7) पक्षियों की बीट से खाद प्राप्त होता है। दक्षिणी अमरीका के प्रशांत महासागर के किनारे पाया जानेवाला गुआनों (guano) नामक खाद सामान्य उर्वरक की अपेक्षा लगभग तीस गुना अधिक उर्वरक होता है। यह पक्षियों के मल से बनता है। कुछ फलों के लिए कबूतर की बीट की खाद अच्छी पाई गई हैं।

(8) कीटों के नियंत्रण में पक्षियों का बहुत बड़ा हाथ होता है। यदि कीटों की वृद्धि न रोकी जाय तो फसलों की अपार क्षति, वनस्पतियों का संहार और घातक रोगों का प्रसार बहुत बढ़ जायगा। पक्षी कीटों को खाकर उनका नियंत्रण करते है।

(9) पक्षी, जंगली घासों के बीज खाकर, जंगली घासों का भी नियंत्रण करते हैं।

(10) शिकारी चिड़ियाँ क्षतिकारक कृंतक (rodent), जैसे चूहे, गिलहरियाँ, खरगोश आदि, के उत्पात से भी हमारी रक्षा करते हैं। चिडियाँ इन्हें खाकर इनके प्रसार को रोकती हैं।

(11) पौधों के परागण में भी पक्षी बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। एक फूल का पराग दूसरे में पहुँचाकर नए नए पौधों और फूल फलों का उत्पादन करते हैं।

(12) फलवृक्षों के प्रसार में भी चिड़ियों का बहुत बड़ा हाथ होता है। पर्यटनशील होने के कारण एक स्थान का फल खाकर दूसरे स्थान में मलत्याग कर, मल द्वारा बीज को फैलाते हैं। ऐसे बीज से उगे पौधे अधिक बलिष्ठ और फल देनेवाले होते हैं।

(13) चील, कौवे, गिद्ध और गोबरगिद्ध आदि, भंगी जाति के पक्षी है और ये मृत प्राणियों का शव खाकर सफाई करते रहते हैं तथा इस प्रकार नाना प्रकार की बीमारियों को फैलने से रोकते हैं।

पक्षी अन्य अनेक प्रकार से भी हमारे लिए लाभदायक सिद्ध हुए हैं। यह सही है कि तोता, कौआ आदि कुछ पक्षी फसल के शत्रु भी है, किंतु इनकी यह बुराई अनेक भलाइयों की तुलना में नगण्य है।

पक्षियों का वर्गीकण  पक्षी वर्ग दो उपवर्गों में विभक्त है : (1) आर्किमॉनिथीज़ (Archaeornithes) उपवर्ग के अंतर्गत जुरैसिक काल के वे सभी दंतयुक्त जबड़े, नाखूनदार अंगुलियों और लंबी दुमवाले तथा स्वतंत्र रीढ़, कशेरुकपुच्छीय और स्वंतत्र करभिकास्थियाँ (metacarpals) तथा पतली तलदंडहीन उरोस्थि (keelless sternum) वाले पक्षी, जैसे ऑर्किआँप्टेरिक्स (Archaeopteryx) तथा आर्किऑरनिस (Archaeornis) आते हैं। (2) निऑरनिथीज़ (Neornithes) उपवर्ग के अंतर्गत कुछ लुप्त और ऐसे वर्तमान पक्षी है जिनकी करभिकास्थियाँ मिलकर एकाकार हो गई हैं तथा दुम छोटी और डैने की अँगुलियों में बिरले ही किसी किसी में नख वर्तमान हैं। दाँत केवल लुप्त पक्षियों में विद्यमान थे।

आधुनिक पक्षी निम्नलिखित तीन अधिगणों (super orders) में विभक्त हैं। किसी किसी अधिगण के अंतर्गत लुप्त सदस्य भी मिलें हैं। कुछ अधिगणों में कोई जीवित प्रतिनिधि नहीं मिलता।

(क) ओडॉएटॉग्नैथी (Odontognathae) अधिगण  इसके अंतर्गत वे दंतधारी पक्षी हैं, जो आर्किऑर्निथीज़ से अधिक विकसित थे, किंतु उड़ने में असमर्थ थे।

यह अधिगण फिर निम्नलिखित दो भागों में विभक्त है :

1. हेस्पेरॉर्निथिफांर्मीज (Hesperornithiformes) गण  इसके अंतर्गत हेस्पेरॉर्निस (Hesperornis) तथा उत्तरी अमरीका के क्रिटैशस (cretaceous) कालीन तैराक और गोताखोर पक्षी आते हैं। इनके जबड़ों में नुकीले दाँत होते थे। इनका शरीर लंबा था और उरोस्थि तलदंडहीन थी। अंसमेखला (shoulder girdle) अति क्षीण थी और ये पक्षी उड़ने में असमर्थ थे।

2. इक्थिऑर्निथिफॉर्मीज़ (Ichthyornithiformes)  इस गण के अंतर्गत उत्तरी अमरीका के कैनजैस प्रदेश के क्रिटेशस युग की अनेक जातियाँ आती हैं। इनमें छोटे और नुकीले, मुड़े हुए और गड्ढों में स्थित दाँत होते थे। उरोस्थि में भली भाँति विकसित तल दंड होता था तथा कुररी पक्षी की भाँति वे तेज उड़ाकू होते थे। ये इक्थिऑर्निस (Ichthyornis) की भाँति जलवासी थे।

(ख) पैलिऑग्नैथी (Palaeognathae) अथवा रैटाइटी (Ratitae) अधिगण  इसके अंतर्गत अनुडुयी, किंतु दौड़ने में सहायता करनेवाले, क्षीण डैने और उरफलक, लंबी टांगें और घुँघराले परवाले पक्षी आते हैं। इस अधिवर्ग के सदस्यों में हनुसंधिका (quadrate) करोटि (skull) के साथ केवल एक ही शीर्ष द्वारा जुड़ती हैं, अंसफलक (scapula) और अंसतुंड (coracoid) छोटे और एकरूप होते हैं एवं अंसतुंड अंसफलकीय कोण (coraco scapular angle) एक समकोण से अधिक होता है। जत्रुक (clavicle) और पुच्छफाल (pygostyle) अनुपस्थित होते हैं। पिच्छिकाओं (barbules) में अंतर्ग्रंथित रचना नहीं होती। नर में शिश्न विद्यमान रहता है और बच्चे अकाल प्रौढ़ होनेवाले (precocious) होते हैं।

यह अधिक निम्नलिखित सात गणों (orders) में बँटा है :

1. स्ट्रथिऑनिफारमीज (Struthioniformes) गण  इस गण के अंतर्गत अफ्रीका और दक्षिण एशिया का आठ फुट ऊँचा शुतुर्मुर्ग (ostrich) नामक पक्षी आता है। इस गण के पक्षियों में केवल दो पदांगुलियाँ (दूसरी और तीसरी) होती हैं और परों में अनुपिच्छ (aftershaft) का अभाव होता है। दौड़ते समय ये अपने अल्पवर्धित परों को फैला लेते हैं।

2. रीफॉरमीज़ (Rheiformes) गण  इसके अंतर्गत दक्षिणी अमरीका की दौड़नेवाली दो जातियाँ हैं। इनमें तीन पदांगुलियाँ होती हैं, जैसे रीआ (rhea) में होता है।

3. कैज़ुएरिइफॉरमीज (Casuariiformes) गण  इसके अंतर्गत एमू और कसोवरी (cassowary) पक्षी हैं। ये आस्ट्रेलिया, न्यूगिनी और ईस्ट इंडीज में पाए जाते हैं। कसोवरी छह फुट ऊँचा और तेज दौड़नेवाला होता है। इस गण के पक्षियों में तीन पदांगुलियों में तीक्ष्ण नाखून होते हैं। शुतुर्मुर्गु के बाद एमू ही बड़ा पक्षी है।

4. ऐप्टरिजिफॉर्मीज (Apterygiformes) गण  इसके अंतर्गत कीवी की जातियाँ हैं, जो न्यूजीलैंड तथा उसे समीपवर्ती द्वीपों में पाई जाती हैं। कीवी शतुरर्मुर्ग और ऐमू की तुलना छोटी चिड़िया है, जो घरेलू मुर्गी से थोड़ी बड़ी, लगभग डैने रहित, तेज दौड़नेवाली और अपने नाखूनों से अपनी रक्षा करनेवाली होती है। इसका नासाद्वार चोंच के छोर पर स्थित होता है और आँखें छोटी होती हैं। आजकल के सभी पक्षियां के अंडों से इसका अंडा बड़ा होता है। पर में अनुपिच्छ नहीं होता।

5. डाइनॉर्निथिफॉरमीज (Dinornithiformes) गण  इसके अंतर्गत न्यूजीलैंड की मोआ (moa) चिड़िया है। मोआ की संभवत: 20 जातियाँ थी, जिनके दस में पक्षी टर्की की माप से लेकर 10 फुट तक ऊंचे होते थे। अधिकांश जातियों में डैने और अंशमेखला का बिल्कुल ्ह्रास हो गया था और किसी किसी में उरोस्थि में तलदंड का कुछ भी अवशेष नहीं रह गया था। चोंच छोटी होती थी और स्थूल पैरों में चार चार अंगुलियाँ होती थीं। संभवत: वे शाकाहारी थीं और जिराफ की भाँति पत्तियाँ खाती थी। अत्यंतनूतन (pleistocene) युग की चट्टानों में इसके अनेक अवशेष मिलते हैं।

6. ईपिऑर्निथिफारॅमीज (Aepyornithiformes) गण  इसके अंतर्गत मैडागास्कर की भीमकाय और अनुडुयी चिड़ियाँ थीं, जो हाल में ही, संभवत: कुछ ही शताब्दी पूर्व, लुप्त हो गई हैं। उपर्युक्त अन्य गणों के पक्षियों की तुलना में इनके डैने छोटे होते थे, किंतु पैर मजबूत और शक्तिशाली थे तथा उनमें चार चार अंगुलियाँ होती थीं। इनमें कुछ शुतुर्मुर्ग से भी बड़े थे। इनके अंडे 330  241 मिमी. तक के पास गए है, जिनकी धारिता दो गैलन तक की है, जैसे ईपिऑर्निस (aepyornis) तथा मुलेरॉर्निस (mullerornis) के अंडे।

7. टिनैमिफॉरमीज (Tinamiformes) गण  इस गण की चिड़ियों की आकृति तीतर से मिलती जुलती है और दुम नहीं के बराबर होती है। उरोस्थि तलदंडयुक्त होती है। इस गण के अंतर्गत एक परिवार और पचास जातियाँ हैं, जो दक्षिण मेक्सिको की मुख्य भूमि और मध्य तथा दक्षिणी अमरीका में पाई जाती हैं। ये प्राय: वृक्षवासी हैं और भद्दे तरीके से किसी प्रकार कुछ दूर तक उड़ सकती है। ये शाकाहारी हैं और एक बार में एक ही चमकीला रंगीन अंडा देती हैं।

(ग) इंपेनी (Impennae) अथवा पेंग्विन (Penguins) अधिगण  इसके अंतर्गत वे पक्षी हैं जिन्होंने उड़ान का त्याग कर दिया है और जलजीवन के अनुकूल ढल गए हैं। इनकी अग्रभुजाएँ तैरने के लिए क्षेपणियों (fippers) में रूपांतरित हो गई हैं और पैर झिल्लीदार (webbed) हो गए हैं।

इस अधिगण में निम्नलिखित केवल एक ही गण हैं :

1. स्फ़ेनिसिफॉरमीस (Sphenisciformes) या इंपेनीस (Impennes) अथवा पेंग्विन गण  यह गण दक्षिणी गोलार्ध के ठंढे भागों, मुख्यत: अंटार्टिक के हिम और समुद्री अंचलों में, सीमित हैं। ये मछलियों का शिकार करते हैं और अपने अंडे पैरों पर ढोते हैं।

(घ) निऑग्नेथी (Neognathae) अथवा कैरिनेटी (Carinatae) अधिगण  इसके अंतर्गत सभी आधुनिक पक्षी आते हैं। इस वर्ग के पक्षियों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं : ये उड़नेवाले होते हैं, डैने अधिक विकसित, परों में अंतग्रंथित (interlocking) पिच्छिकाएँ और उरोस्थि तलदंडयुक्त होती है। पुच्छफाल उपस्थित रहता है, जिसके चारों तरफ पुच्छ के पर लगे होते हैं। जत्रुक वर्तमान होता है और अंसतुंड-अंसफलक (coraco scapular) कोण एक समकोण से छोटा होता है। हनुसंधिकास्थि (quadrate bone) करोटि से दो फलकिकाओं (facets) द्वारा जुड़ी रहती है।

इस अधिगण के अंतर्गत निम्नलिखित 22 गणों को मान्यता मिली है, जिनमें 16 प्रमुख हैं।

1. गेविइफॉर्मीज़ या क़ोलिंबिफॉर्मीज़ या पाइगॉपोडीज़ (Gaviiformes या Colymbiformes या Pygopodes)  इस गण के सदस्य जलवासी पक्षी हैं और झीलों के किनारे नीड़निर्माण करते हैं। जल में तैरते नीड़ में ये छिलकेदार अंडे देते हैं। इनकी गर्दन लंबी होती है तथा ये गोताखोर होते हैं। ये पक्षी उत्तरी अमरीका, यूरोप तथा आर्कटिक क्षेत्र में पाए जाते हैं।

2. पॉडिसिपिफॉर्मीज़ (Podicipiformes) गण  ये ठोस शरीरधारी है और प्राय: गोताखोर (divers) कहलाते हैं। ये पानी के किनारे रहनेवाली चिड़ियाँ हैं और इनका विस्तार विसतृत है। ये तैरनेवाले नीड़ों का निर्माण करती हैं। इनमें पदांगुलियाँ शरीर के बहुत पीछे स्थित होती हैं। बंजुल या पनडुब्बी (grebs) इनके उदाहरण हैं।

3. प्रॉसेलैरिइफॉर्मीज़ या टरबाईनरीज़ (Procelariiformes या Turbinares) गण  इस जाति के पक्षी सामुद्रिक पक्षी हैं, जो वेलापवर्ती (pelagic) जीवन व्यतीत करते हैं और मादा प्राय: बिल में एक ही अंडा देती है। समुद्रकाक (petrels), फुल्मेरस (fulmarus) और ऐल्बेट्रॉस (albatross) इनके उदाहरण हैं।

4. पेलिकैनिफॉर्मीज़ या स्टेगैनापॉडीज़ (Pelicaniformes या Stetganopodes)  इस गण के पक्षी जलवासी होते हैं और जल में गोता लगाने और शिकार करने के अनुकूल बन गए हैं। सभी सामूहिक रूप से चट्टानों या पेड़ों पर नीड़निर्माण करते हैं और इनके अंडे चित्तीदार होते हैं। फैलेक्रोकोरैक्स (phalacrocorax niger), शूलकाक (gannet), चम्मचबाज (spoon bill) तथा मेरुया या पेलिकन (pelican) इस गण के पक्षी हैं।

5. सिकोनिइफॉर्मीज़ या हेरोडिओनीज़ (Ciconiiformes या Herodiones) गण  इस गण के अंतर्गत अर्धजलीय पक्षी हैं, जो दलदली स्थानों में रहते हैं और समीप के तालाबों या झीलों में शिकार करते हैं। इनकी टाँगें लंबी होती हैं। ये प्रबल उड़ाकू होते हैं और समूहों में नीड़निर्माण करते तथा बसेरा लेते हैं। इनके अंडे चित्तीदार नहीं होते। श्वेत बक (stork), खैरे या प्रख्यात अंजन बक (grey heron), बगुला या गाय बगुला (cattle egret), इसके उदाहरण हैं।

6. ऐन्सेरिफॉर्मीज़ (Anseriformes) गण  इस गण के पक्षियों ने अपना जीवन जलवास के अनुकूल ढाल लिया है। अतएव इनके पैर झिल्लीदार तथा चोंच चिपटी होती है। ये जमीन पर अंडे देते हैं। अंडे बड़े और सफेद होते हैं। बतख तथा हंस इस गण के पक्षी है।

7. फैलकोनिफॉर्मीज़ या ऐक्सीिपिट्रीज (Falconiformes या Accipitres) गण  इसके अंतर्गत दिन में शिकार करनेवाली चिड़ियाँ आती हैं। इनकी चोंचें तीक्ष्ण, मजबूत और मुड़ी तथा पैर और पंजे शक्तिशाली होते हैं। बाज (hawks), गिद्ध (vultures) और चील (kites) इस गण में आते हैं।

8. गैलिफॉर्मीज़ (Galliformes) गण  इसके अंतर्गत मुर्गियाँ, तीतर और मोर आदि शिकार की (game birds) चिड़ियाँ आदि आती हैं। ये दाना चुगती हैं और स्थलीय हैं।

9. ग्रुइफॉर्मीज़ (Gruiformes) गण  इसके अंतर्गत स्थलीय पक्षी हैं, किंतु ये दलदली स्थानों में रहते हैं। ये दौड़तें, तैरते हैं और जल में गीता भी लगाते हैं, किंतु अच्छे उड़ाकू नहीं होते। जलमुर्गी, करंडकुक्कुट (coot) और क्रौंच इसके उदाहरण हैं।

10. डाइआट्राइमिफॉर्मीज़ (Diatrymiformes)  इस गण के साथ एक अन्य गण है, जो लुप्त हो गया है। इसके अंतर्गत उत्तरी अमरीका के इयोसिन (ecocene) युग के अनेक पक्षी आते हैं। यह बहुत बृहदाकार पक्षी था, जो सात फुट ऊँचा होता था। इसके डैने क्षीण थे, जिसके कारण यह उड़ने से लाचार था। डाइआट्राइमास्टीनी (Diatrymasteini) इसका उदाहरण है।

11. कैरेड्राइफॉर्मीज़ (Charadriiformes) गण  इसके अंतर्गत छिछले जल में चलनेवाले अनेक पक्षी आते हैं। जल में चलनेवाले पक्षी मुख्यत: जमीन पर रहते हैं, पर कभी-कभी खुले जलस्थानों या दलदलों में भी रहते हैं। इनमें कुछ के पैर और चोंच लंबी होती है। कठफोड़वा तथा ढोमरा या गंगचिल्ली (gulls) इसके उदाहरण है।

12. कोलंबिफॉर्मीज़ (Coumbiformes) या कपोत गण  इस गण के अंतर्गत सभी प्रकार के कबूतर, हारिल, पेड़की इत्यादि आते हैं। ये दाना चुगनेवाले होते हैं और मकानों तथा पेड़ों पर नीड़निर्माण करते हैं। ये तेज और कौशलपूर्वक उड़नेवाले पक्षी हैं। इनके बच्चे अन्नपुट ग्रंथियों (crop glands) से स्रावित कपोतदुग्ध (pigeon's milk) पर पलते हैं।

13. सिटासिफॉर्मीज़ (Psittaciformes) या शुक गण  इस गण के पक्षी सुग्गा, तोता, पहाड़ी सुग्गा, इत्यादि लाक्षणिक रूप से पेड़ों पर निवास करनेवाले और फलाहारी होते हैं। इनकी चोंच विशेष रूप मुड़ी होती है और पैर की अँगुलियाँ आपस में जुड़ी (syndactylus) होती हैं। ये वृक्षों की शाखाओं और टहनियों पर आरोहण के अनुकूल होते हैं।

14. कुक्यूलिफॉर्मीज़ (Cuculiformes) गण  इसके अंतर्गत सभी प्रकार के कोयल और पपीहे आते हैं। ये जंगलों में दूसरे पक्षियों के घोसलों में अंडे देकर उनसे अंडे सेने का कार्य लेते हैं।

15. स्ट्रिजिफाँर्मीज़ (Strigiformes) गण  इसके अंतर्गत वे निशिचर पक्षी या उल्लू, श्वेत उल्लू इत्यादि, हैं, जो छछँदर, चूहे इत्यादि का शिकार करते हैं। इस कार्य के लिए इनकी चोंच और पंजे विशेष प्रकार से मुडे और फौलादी होते हैं। इनकी श्रवणशक्ति तीक्ष्ण और ध्वनिहीन उड्डयन शक्ति होती है।

16. कैप्रिमुल्जिफॉर्मीज़ (Caprimulgiformes) गण  इसके अंतर्गत दबनक या अंधी चिड़ियाँ या चिप्पक आते हैं।

17. माइक्रोपॉडिफॉर्मीज़ या एपॉडिफ़ॉर्मीज़ (Micropodi formes या Apodiformes) गण  इसके अंतर्गत अच्छी उड़ान भरनेवाली, अबाबील इत्यादि, चहचहानेवाली चिड़ियाँ हैं। इनके डैने लंबे होते हैं और ये कीटाहारी होती हैं।

18. कोलिइफॉर्मीज़ (Coleiformes) गण  यह एक छोटा गण है, जो अफ्रीका में पाया जाता है। इसके अंतर्गत सभी प्रकार के कौलीज़ (colies) आते हैं।

19. ट्रोगोनिफॉर्मीज़ (Trogoniformes) गण  इसके अंतर्गत केवल एक परिवार सदासुहागिन या कुचकुचिया या हमेशापियारा (togons) है।

20. कॉरासाइफॉरमीज़ (Coraciiformes) गण  इसके अंतर्गत वे पतरींगा, नीलकंठ इत्यादि, चिड़ियाँ आती हैं, जिनके पैर की अँगुलियाँ कुछ दूर तक जुड़ी होती हैं।

21. पिसिफॉरमीज़ (Piciformes) गण  इसके पक्षी हुदहुद, काष्ठकूट (picus) और धनेश हैं, जो कीटाहारी और वृक्षारोहक होते हैं। ये पेड़ में छिद्र बनाकर घोंसला बनाते हैं।

22. पैसेरिफॉर्मीज़ (Passeriformes) गण  यह गण बहुत ही बड़ा है और इसके अंतर्गत विविध प्रकार के पक्षी जैसे कौवे, गौरैया, चटक, तिलियर (starling), चकवा (lark), तुलिका (pipits), खंजन (wagtail), रामगंगरा (tit), वृक्षसर्पी (treecreeper) आदि हैं। इनके पैर विश्राम करने के लिए पक्षिसाद (perching) होते हैं। इनके अतिरिक्त श्यामा, पीलक, भुजंगा, मैना, लालमुनिया, लाल, चकोर, रज्जुपुच्छ या माराडीक (circletailed swallow), बया और दर्जिन चिड़िया आदि भी हैं।

पक्षियों का विकास और इतिहास 


पक्षियों के पूर्वज के विषय में ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये रेंगनेवाले जंतु (सरीसृप), छिपकली आदि, थे। वे दो टाँगों पर कूदकर चलते थे और पंखहीन थे। इसका प्रमाण हमें जीवाश्मों से उपलब्ध होता हैं। ज्यों ज्यों इनका विकास हुआ, पंख उग आए; यद्यपि ऐसा होने में कई हजार वर्ष लगे होंगे। पक्षिवैज्ञानिकों के अनुसार पक्षियों के पूर्वज तथा आधुनिक पक्षियों के बीच के प्राणियों के कंकाल आर्किऑप्टेरिक्स (archaeapteryx) और आर्किऑर्निस (archaeornis) हैं, जो बवेरिया (Bavaria) में भूगर्भ में प्राप्त हुए हैं। पक्षियों की उत्पत्ति जुरैसिक कल्प में आज से लगभ पंद्रह करोड़ वर्ष पूर्व हुई, जब उरगों का विकास चरम सीमा पर था और उनकी तूती बोलती थी।

चिड़ियों की अंत:रचना, इनके प्रारंभिक विकास का उरगों के विकास से सादृश्य, तथा आर्कियाप्टरिइक्स (एक बहुत प्राचीन चिड़िया के अवशेष), इन तीन बातों से पता चलता है कि पक्षियों का विकास सरीसृपीय कुटुंब से हुआ है। तब प्रश्न उठता है कि क्या पक्षियों के पूर्वज टेरोडैक्टिल (Pterodactyl), या टैरोसॉरि (Pterosauri), या डाइनोसॉरिया (Dinasauria) थे, जिनसे कुछ कुछ बातों में ये समानता रखते हैं।

कुछ विशेषज्ञों का मत हैं कि पक्षियों का विकास लंबी पूछोंवाले द्विपाद उरगों से हुआ है, जो जमीन पर दौड़ते और छंलाग भरते थे और अग्रभुजाओं को फड़फड़ाते थे।

ऑसबार्न (Osborn, 1900 ई.) का विचार है कि पक्षियों का विकास वृक्षवासी उरग से, जो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलाँग भरते थे, हुआ। इनमें ज्यों ज्यों परों का विकास हुआ और वक्षपेशियाँ मजबूत होती गईं, छतरी (पैराशूट, parchute) ने डैनों का रूप ले लिया, जो हवा में थपेड़े मारने लगे। इस अवस्था में उनके पैर पीछे की ओर मुड़े होते थे।

बीब (Beebe, 1910 ई.) का बड़ा ही मनोरंजक कथन है कि पक्षी पहले चार डैनोंवाली अवस्था से अथवा टेट्राप्टेरिक्स (tetrapteryx) और वृक्षजीवन से गुजरकर इस अवस्था में पहुँचा है। और आज जिस प्रकार अग्र भुजा में पर होते हैं, उसी भाँति पश्च भुजाएँ भी परयुक्त थीं और ये दोनों अग्र और पश्च भुजाओं के पर विसर्पण (gliding) के समय पैराशूट की भाँति कार्य करते थे। इसका प्रमाण वे यह देते हैं कि वर्तमान चिड़ियाँ जब अंडे से बाहर निकलती हैं तब उनके पैरों में परों के गुच्छे उसी स्थान पर होते हैं जिस स्थान पर आर्किऑप्टेरिक्स की पश्च शाखाओं में होते थे।

किंतु डब्ल्यू. के. ग्रेगोरी (W. K. Gregory 1916) का मत है कि पक्षियों की उत्पत्ति द्वैती (dual origin) है। कुछ की उत्पत्ति तीव्र धावी (cursorial) और कुछ की वृक्षवासी (arboreal) पूर्वजों से हैं। ये प्राक्यपक्षी (pro-aves) अवश्य ही पृथ्वी तथा वृक्षों पर तेजी से दौड़ते थे, किंतु यह निश्चित नहीं है कि उनके सीधे खड़े होने (upright position) की स्थिति का विकास पहले जमीन पर हुआ या वृक्षों पर। हाँ, इतना सभी मानते हैं कि चिड़ियों ने पहले दौड़ना और कूदना सीखा, बाद में वृक्षारोहण और छलांगें भरना (volplaning) और अंत में हवा फड़ाफड़ाना तथा बाद में उड़ना।

उरगों के मूल कुटुंब (stock) के विषय में जो भी मतभेद हों, इतना तो सभी वैज्ञानिक, पुरातत्ववेत्ता और जीवविज्ञानवेत्ता मानते हैं कि पक्षियों के पूर्वज निश्चय ही सरीसृप (reptile) थे।

सं.ग्रं.  सलीम अली : दी बुक ऑव इंडियन बर्ड्स, दी बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी, बंबई; राजेश्वरनारायण सिंह : भारत के पक्षी, पब्लिकेशन्स डिवीजन, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, दिल्ली; ह्यू ह्वीसलर : पॉपुलर हैंडबुक ऑव इंडियन वर्ड्स; इंगलिश एंड फ्लेचर : बर्ड्स ऑव दि इंडियन गार्डन्स; ई. सी. स्टुवर्ट बेकर : नोडीफीकेशन ऑव बर्ड्स इन दि इंडियन एंपायर, वालयुम 1, टेलर ऐंड फ्रांसिस, लंदन, 1932। ए. लैंड्सबरो टामसन : बर्ड्स; विलियम्स ऐंड नौरगेट लिमिटेड,लंदन।(भृगुनाथप्रसाद )

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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