पनडुब्बी

Submitted by Hindi on Mon, 08/22/2011 - 08:00
पनडुब्बी (Submarine) सिगार के आकार की चारों ओर से बंद नौका है, जिसमें बैठकर मनुष्य पर्याप्त समय तक जल के अंदर रह सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसे उतराकर ऊपर सतह पर ला सकता है। यह नौका सतह पर ड़ीजल इंजन द्वारा और जल के अंदर विद्युत्‌ मोटरों द्वारा चलती है। परमाणु शक्ति के विकसित हो जाने के कारण अब इसके परिचालन में नाभिकीय रिऐक्टरों का उपयोग होने लगा है। इसमें एक या अनेक परिदर्शी (periscope) लगे रहते हैं। जब पनडुब्बी जल में डूबी रहती है तब परिदर्शी द्वारा पनडुब्बी के अधिकारी जल के बाहर के दृश्यों को देख सकते हैं। यह नौका जलाभेद्य, स्वत: नादी (self propelled) तथा गहराई में जल के दबाव को सहने योग्य होती है। इसमें पानी भरने के लिये टंकियाँ होती है, जिन्हें नीरम टंकी (ballast tank) कहते हैं। इन टंकियों में पानी भरने पर पनडुब्बी डूबती है और इस प्रकार इसकी उत्प्लाविकता निष्प्रभावित हो जाती है। पनडुब्बी द्वारा आक्रामक काररवाई जल के अंदर ही होती है। शत्रु के जलयानों पर टारपीडो से आक्रमण करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है। कुछ पनडुब्बियों पर 12 इंच की तोप और एक हवाई जहाज रखने की भी व्यवस्था होती है।

इतिहास -


20वीं शताब्दी के प्रारंभ में समुद्री युद्ध के प्रधान साधन युद्वपोत थे, किंतु अब इनका स्थान पनडुब्बियों एवं हवाई जहाजों ने ले लिया है। सर्वप्रथम 17वीं शताब्दी में पनडुब्बी की कल्पना की गई, किंतु उस समय इसे युद्धोपकरण के रूप में नहीं सोचा गया था। 17वीं शताब्दी में कॉरनेलिउस फॉन ड्रिबेल (Cornelius Van Drebell) नामक हालैंडवासी ने तत्कालीन निमज्जिका काष्ठ (diving well) में सुधारकर उसे गतिशील बनाया। यह पनडुब्बी लकड़ी की बनी थी और इसपर चमड़ा मढ़ा था। इसके अगल बगल दो चप्पू लगे थे, जो इसको डूबाते और उतराते थे।

150 वर्ष बाद डेविड बुशनेल (David Bushnell) नामक अमरीकी ने फॉन ड्रिबेल की पनडुब्बी में सुधार किया। इन्होंने अपनी पनडुब्बी के पेदे में पानी भरने के लिये टंकी बनाई, नोदन के लिये नाव के अंदर हाथ से चलनेवाली गियर (gear) तथा क्षैतिज धरातल पर साधारण रडर के द्वारा स्टियरिंग (steering) लगाया। इसमें एक आदमी बैठ सकता था।

रॉबर्ट फुल्टन (Robert Fulton, 1765-1815) ने, जो कि स्टीमबोट का आविष्कारक था, फ्रांसीसी सरकार की सहायता से पनडुब्बी बनाई। यह क्षैतिज बेलनाकार थी तथा इसके सिरे नुकीले थे। 1865 से 1875 ई. तक के बीच संसार के भिन्न देशों में पनडुब्बी पर अलग अलग प्रयोग होते रहे।

1894 ई. में साइमन लेक ने शांतिकालीन उपयोग की दृष्टि से पनडुब्बी की अभिकल्पना की थी। इनकी प्रथम पनडुब्बी आरगोनॉट जूनियर (Argonaut, Jr.) थी, जो प्रयोग के लिये बनी थी और हाथ से चलती थी। इसके बाद 1897 ई. में 36 फुट लंबी 30 अश्वशक्तिवाले गैसोलिन इंजन से युक्त पनडुब्बी लेक ने बनाई। यह परडुब्बी नदी या झील की तली में तीन पहियों पर चलती थी और पानी में चलते समय इसके पहिए कील (keel) में बने खोखले में चले जाते थे। 1898 ई. में आरगोनॉट नामक पनडुब्बी थी जो खुले समुद्र में चली। 1906ई. में लेक ने अपनी प्रोटेक्टर नामक पनडुब्बी रूस के हाथ बेच दी। इसके बाद रूसी सरकार के लिये लेक ने कई पनडुब्बियाँ ठेके पर बनाई। प्रथम विश्वयुद्ध के समय गैसोलिन एवं डीजल दोनों प्रकार के अंतर्दहन इंजन पनडुब्बी को चलाने के लिये प्राप्त थे। परिदर्शी के आविष्कार ने पानी में रहते हुए भी, इसे पानी के बाहर देखने की सुविधा प्रदान की। टारपीडो, पनडुब्बी से चलाने येग्य बना लिया गया। इस प्रकार पनडुब्बी नौसेनिक युद्धों में भाग लेने योग्य बन गई।

आधुनिक पनडुब्बी लगभग 312 फुट लंबी और मध्य में 16 फुट चौड़ी होती है। इसका सबसे ऊपरवाला भाग समतल होता है, जिसे डेक (deck) कहते हैं। इसका अगला और पिछला भाग नुकीला होता है। डेक के नीचे प्राय: दो खोखु (hull) होते हैं। ऊपरवाला खोखु बेलनाकार होता है और इसके अंदरवाला खोखु दबाव खोखु कहलाता है। बाह्य खोखु आगे के टारपीडो कक्ष की पिछली पोतभीत (bulkhead) से लेकर पिछले टारपीडो कक्ष की अगली पोतभीत तक फैला रहता है। अंदरवाला खोखु अगली नति (trim) टंकी की अगली पोतभीत से लेकर पिछली नति टंकी की पिछली पोतभीत तक फैला रहता है। बाह्य एवं दबाव खोखु के बीच के स्थान में इंधन तेल रखने तथा पानी भरनेवाली टंकियाँ रहती है। डेक और दबाव खोखु के बीच का खाली स्थान संसार लंगर गियर एवं उन उपकरणों को रखने के काम आता है, जो पानी में डूबे रहने पर खराब नहीं होते। डेक के दोनों ओर की संपूर्ण लंबाई में वृत्ताकार छिद्र बने रहते हैं। जब डेक पानी से भरा रहता है तो ये छिद्र बने रहते हैं। जब डेक पानी से भरा रहता है तो ये छिद्र वायुकोष का बनना रोकते हैं। डेक के मध्य से जलरोधी, निर्देशक की मीनार (conning tower) निकली रहती है। जब पनडुब्बी पानी की सतह पर रहती है उस समय इस मीनार का शीर्ष पुल (bridge) का कार्य करता है और जब पनडुब्बी निमज्जित रहती है उस समय उसका नियंत्रण, या तो इस मीनार से होता है, या मीनार के ठीक नीचे नियंत्रणकक्ष से। जब पनडुब्बी निमज्जित रहती है तब प्रेक्षण के लिये परिदर्शी को मीनार के पुल के ऊपर उठा दिया जाता है। परिदर्शी का परिचालन निर्देशक की मीनार से किया जाता है। मीनार में रेडिया कंपास का लूप (radio compass loop) तथा रेडियो गियर (radio gear) भी लगे रहते हैं।

पनडुब्बी में नीरम टंकियों की उचित व्यवस्था ही पनडुब्बी के डूबने एवं उतराने को नियंत्रित रखना संभव बनाती है और किसी भी गहराई में डुबाव के झुकाव को कायम रखती है। नीरम पानी टंकियों के चार समूह होते हैं। तीन नीरम-ईधंन-तेल टंकियाँ रहती हैं, जो अ और ब खंडों में बँटी रहती हैं। ये खंड नितलछिद्र (limber hole) द्वारा ऊर्ध्व कील प्लेटिंग (keel plating) से जुड़े रहते हैं। नीरम-ईधंन-तेल टंकियाँ साधारणत: तेल ढोती हैं, किंतु तेल के न रहने पर ये नीरम जल टंकियों का कार्य करती हैं। मुख्य नीरम टंकियाँ बाह्य खोखु और दबाव खोखु के मध्य में रहती हैं ओर ये हलकी आड़ी पोतभीत द्वारा पृथक्‌ रहती हैं। इन टंकियों का भारावमुख बाह्य खोखु के सबसे निचले स्थान पर स्थित रहता है। इन टंकियों में जलचालित निकास वाल्व (vent) होते हैं। जब जल टंकी में प्रवेश करता है तब टंकी के शीर्ष पर स्थित निकास वाल्व से वायु बाहर निकल जाती है। जब पनडुब्बी को उतराना होता है तब उच्च दबाव की वायु नीरम टाकी में प्रविष्ट कराई जाती है और जल भरावमुख से बाहर निकल जाता है। पनडुब्बी के दोनों सिरों पर नति टंकियाँ होती हैं। जब पनडुब्बी सामान्य डूबी हुई अवस्था में रहती है तब ये नति टंकियाँ आंशिक रूप से जल से भरी रहती हैं। ये नति टंकियाँ नल द्वारा एक दूसरे से संबद्ध रहती हैं और इनके द्वारा आवश्यकतानुसार जल एक से दूसरे में पहुँचाया जाता है। अनुदैर्ध्य भार में हुए परिवर्तन का सुधार इन नति टंकियों द्वारा किया जाता है।

ईधंन तेल बराबर खर्च होता रहता है, अत: पनडुब्बी का संतुलन बनाए रखने के लिये नीरम तेल टंकियों के खाली स्थान की पूर्ति पानी से करनी पड़ती है। जब नीरम-ईधंन-तेल टंकियों से तेल की आवश्यकता होती है, तब इन टंकियों के तल में स्थित मुख से पंप द्वारा समुद्र का जल टंकी में प्रविष्ट किया जाता है, जिसके दबाव द्वारा तेल टंकी के शीर्ष पर लगी नली में पहुँचकर ईधंन तेल की टंकियों में पहुँच जाता है। इस प्रकार संतुलन बना रहता है।

पनडुब्बी को डुबाने तथा सतह पर उतराने की प्रारंभिक क्रियाओं में मुख्य प्रणोदन इंजनों को चलाने तथा टारपीडो के क्षेपण के लिये वायु की आवश्यकता पड़ती है। इस वायु की पूर्ति पनडुब्बी में रखी संपीडित वायु से की जाती है। ऑक्सीजन मिश्रित वायु पनडुब्बी के वायुमंडल को स्वच्छ रखने के काम आती है। पनडुब्बी में संपीडित वायु के सात या अधिक फ्लास्क रहते हैं। एक फ्लास्क की संपूर्ण धारिता 560 घन फुट रहती है। जबकि फ्लास्क के प्रत्येक वर्ग इंच पर वायु का दबाव 3,000 पाउंड रहता है।

दबाव खोखु ऐसा अभिकल्पित किया जाता है कि यह समुद्री दबाव को सह सके। इस खोखु के अंदर ही पनडुब्बी के अफसरों तथा कर्मियों के निवास का प्रबंध रहता है एवं अधिकांश उपकरणों को रखने की व्यवस्था रहती है। खोखु आठ जलरोधी कोष्ठों में विभक्त रहता है। दबाव पोतभीत द्वारा, जिसमें जलरोधी एवं दबावरोधी द्वार लगे रहते हैं, ये कोष्ठ एक दूसरे से अलग रहते हैं। बेलनाकार, निर्देशक मीनार नियंत्रणकक्ष के ऊपर रहती है और विपटद्वार (aड़ड़ड्ढद्मद्म ण्aद्यड़ण्) द्वारा यह नियंत्रणकक्ष से मिली रहती है। उपर्युक्त कोष्ठ मचान के द्वारा ऊपर नीचे दो भागों में बँटे रहते है, जिनमें पनडुब्बी के अधिकारियों तथा कर्मियों के रहने के स्थान की व्यवस्था तथा उपकरणों के रखने की व्यवस्था रहती है।

पनडुब्बी सतह पर इच्छित चाल से चले और इच्छित चाल से डूब सके, इसके लिये आवश्यक है कि पनडुब्बी का अगला और पिछला भाग संतुलित रहे और पनडुब्बी पर आड़ी स्थिरता बनाई रखी जाए। उपर्युक्त संतुलन का कार्य नति एवं जल-निर्गम-प्रणालियों पर निर्भर करता है। ये प्रणालियाँ जल के परिमाण एवं विभाजन को नियंत्रित रखती हैं। पनडुब्बी में दो मोटर चालित पंप होते हैं, जो किसी भी गहराई के दबाव पर पनडुब्बी की टंकियों के जल को पनडुब्बी से बाहर निकालने में सक्षम होते हैं। संपीडित वायु के कम हो जाने पर, इन पंपों से कुछ नीरम टंकियों को भरा भी जा सकता है।

पनडुब्बी के पतवार (rudder) सतही जहाजों की तरह होते हैं। सामान्य कार्यों में स्टियरिंग (steering) प्रणाली विद्युत्‌ तथा जलचालित शक्ति (eletrohydraulic power) के द्वारा कार्य करती है। मुख्य नियंत्रण इकाइयाँ स्टियरिंग के उपस्तंभ में सज्जित रहती है, जो निंयत्रण कक्ष में स्थित रहता है। स्टियरिंग का चक्रनिर्देश मीनार में रहता है। प्रत्येक संभाव्य घटना को दृष्टि में रखते हुए स्टियरिंग प्रणाली इस प्रकार नियोजित की जाती है कि तीन प्रकार की स्टियरिंग विधियाँ उपलब्ध रहती हैं और ये विधियाँ विद्युत्‌ तथा जलचालित शक्ति के तीन पृथक्‌ पृथक्‌ स्त्रोतों पर निर्भर करती है।

हाइड्रोप्लेन (hydroplane) तथा स्टर्नप्लेन (sternplane) आयताकार क्षैतिज पतवार है। ये 35रू का कोण बनाते हुए दोनों तरफ मोड़े जा सकते हैं। जब पनडुब्बी आप्लावित होती है उस समय कोणीय नियंत्रण एव गहराई में नियंत्रण वैद्युत तथा जलचालित शक्ति द्वारा होता है। हाइड्रोप्लेन पनडुब्बी के निमज्जन में सहायक होता है। हाइड्रोप्लेन एवं स्टर्न प्लेन में से प्रत्येक प्रणाली का अपना शक्ति प्रदाय होता है। इन रडरों के निमज्जन एवं ऊपर उठने का नियत्रण कक्ष में स्थित रहता है। नियंत्रण फलक पर निमज्जन संकेतमापी और मोटर के स्विच (switch) लगे रहते हैं।

आधुनिक पनडुब्बी चार प्रणोदन डीजल इंजन से चलती है। इसमें से प्रत्येक 1,600 अश्वशक्ति उत्पन्न करता है। चार मुख्य जनित्रों में से प्रत्येक 11,000 किलोवाट विद्युत्‌ उत्पन्न करता है। जनित्र या बैटरी द्वारा चालित मंद गतिवाली चार मोटरे भी पनडुब्बी में रहती है, जिनमें से प्रत्येक 1,375 अश्वशक्ति उत्पन्न करती हैं। पनडुब्बी के सहायक इंजन 450 अश्वशक्ति उत्पन्न करते हैं और 300 किलोवाटवाले जनित्रों को चलाते हैं।

जब पनडुब्बी निमज्जित रहती है तब जनित्र एवं डीजल इंजन काम में नहीं आते। इस समय मोटरों को संचायक बैटरियों (storage batteries) द्वारा चलाया जाता है। ये बैटरियाँ सहायक एवं मुख्य जनित्रों द्वारा आवेशित की जाती है। पनडुब्बी में दो मुख्य संचायक वैटेरियाँ होती हैं और प्रत्येक के साथ 126 सेलों का समूह रहता है। आगेवाली बैटरी डेक के नीचे अधिकारियों के कमरे (wardroom) में लगी रहती है तथा पीछेवाली बैटरी कर्मियों के रहने के स्थान पर। प्रत्येक सेल का भार लगभग 1,650 पांउड होता है। प्रत्येक बैटरी में बैटरी की गैस को हटाने के लिये रेचक वातन (exhaust ventilation) का प्रबंध रहता है। इस प्रणाली को चलाने के लिये प्रत्येक बैटरी कूप के संमुख सिरे पर स्थित, वायु प्रवेशद्वार से वायु प्रविष्ट की जाती है।

जब पनडुब्बी परिदर्शी की लंबाई के बराबर गहराई में निमज्जित रहती है तब ताजी वायु को पनडुब्बी के अंदर लेने के लिये एक नली का उपयोग किया जाता है, जिसे स्नोकल (snorkel) कहते हैं। इसके उपयोग से पनडुब्बी में विद्युत्‌ का व्यय कम हो गया और इसका बाहर निकलना भी घट गया, क्योंकि अब पनडुब्बी को अपनी बैटरियों को अवेशित करने के लिये बार बार बाहर आने की आवश्यकता नहीं होती हैं। अब पनडुब्बी निमज्जित रहते हुए अपने इंजनों के सहारे यात्रा कर सकती है। हवाई जहाजों और जलयानों पर सुधरे हुए रेडार एवं सोनार (sonar) के लग जाने के कारण द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मन लोगों ने इस नवीन युक्ति का आविष्कार किया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पनडुब्बी की बनावट में बहुत से परिवर्तन हुए हैं। अब टारपीडो संपीडित वायु के स्थान पर जल दबाव से फायर किया जाता है। इसके कारण पानी में बुलबुलों का बनना समाप्त हो गया है, अन्यथा पहले टारपीडो चलाने पर पानी में बुलबुले बनते थे, जिनसे पनडुब्बी की उपस्थिति का ज्ञान हो जाता था। पनडुब्बी के खोखु को अधिक दृढ़ किया गया है, जिससे अब यह अधिक गहराई में जा सकती है। शांत और कुशल काररवाई के लिये पनडुब्बी में तेल चालित यंत्र लगाए गए हैं। इंजन जनित्र एवं विद्युत्‌ मोटरें अब बहुत सुसंहत बनाई जाती हैं। टारपीडो को ठीक लक्ष्य कर साधने की अब आवश्यकता नहीं रही, क्योंकि रेडियो अनुसरणी (homing) टारपीडो एव फायर नियंत्रण उपकरणों के आविष्कार ने टारपीडो के फायर करने में अवसर तथा अनुमान लगाने के कार्य को कम कर दिया है।

परिदर्शी पनटुब्बी की आँख है। प्रारंभिक पनडुब्बियों में परिदर्शी नहीं लगा रहता था। 1854 ई. में ई.एम. मेरी डेवी ने दर्पणयुक्त साधारण परिदर्शी को पनडुब्बी में लगाया एवं 1872 ई. में परिदर्शी में दर्पण के स्थान पर प्रिज्म लगाया गया। परिदर्शी को यंत्रों की सहायता से ऊपर नीचे किया जाता है। युद्ध के समय परिदर्शी की सहायता से टारपीडो के लक्ष्यवेध का फोटोग्राफ भी लेते हैं

नाभिकीय पनडुब्बी -


परमाणवीय ऊर्जा के विकास ने पनडुब्बी के परिचालन में क्रांति कर दी है। अब पनडुब्बी को चलाने के लिये वायु की आवश्यकता नहीं रही है। अत: सतह पर बार बार आने की भी आवश्यकता नहीं रह गई है। नॉटिलस (Nautilus) पहली पनडुब्बी है, जिसमें शक्ति प्राप्त करने के लिये नाभिकीय रिऐक्टर (nucleus reactor) का उपयोग किया गया है। यह यूरेनियम 235 का ईधन बिना दुबारा लिए, समुद्रों में होते हुए 60,000 मील से अधिक दूरी तक गई। पानी के अंदर इसकी गति 20 नॉट (knot) थी। पुरानी पनडुब्बियों की अपेक्षा यह समुद्र में अधिक देर तक रही और तेज चली। इसके खोखु और ढेक की अभिकल्पना में पुरानी पनडुब्बियों की अपेक्षा बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है।

नाभिकीय पनडुब्बी में न तो वायु की आवश्यकता पड़ती है और न ईधंन गैसों के निकास की समस्या ही रहती है। इसमें नाभिकीय रिऐक्टर रहता है, जिसका कोर (core) इस्पात की मोटी दीवारों से घिरा रहता है। रिऐक्टर के बाहरी तरफ पानी से भरा एक कक्ष हाता है। इस कक्ष के चारों तरफ सीसे की मोटी दीवारें होती है, जिसके कारण मनुष्य एवं यंत्र विकिरण से बचे रहते हैं।

रिऐक्टर से गुजरनेवाला पानी विखंडन से उत्पन्न ऊष्मा से गरम हो जाता है और बॉयलर में स्थित इस्पात की नलियों से गुजरता है। इस पानी को शीतक जल कहते हैं। शीतक जल पर उच्च दबाव होता है, जिसके कारण यह बिना भाप बने अधिक ऊष्मा ले जाता है। बॉयलर की नालियाँ शीतक जल से गरम होकर बॉयलर के पानी को गरम कर भाप बना देती हैं। यह भाप टरवाइनों को चलाती है। टराबाइनों से निकलने के बाद भाप समुद्र के पानी में ठंढे होनेवाले पाइपों में जाकर पानी बन जाती है और यहाँ से यह पानी पुन: बॉयलर में पहुँच जाता है तथा भाप बनने में खर्च हुए पानी की पूर्ति करता है।

नाभिकीय रिऐक्टर के कारण नाभिकीय पनडुब्बी में पुरानी पनडुब्बियों की अपेक्षा अधिक स्थान रहता है। इससे कर्मचारियों को वातानुकूलित पर्याप्त निवासस्थान प्राप्त होता है। प्रत्येक अधिकारी एवं कर्मी के कोट पर एक ऐसी युक्ति लगी रहती है जिससे यह प्रकट होता रहता है कि उसे कितना विकिरण प्राप्त हो रहा है। पनडुब्बी में लगाए जानेवाले नाभिकीय रिऐक्टर इतने हानिरहित बनाए जाते हैं कि इसके कारण मनुष्य का दुर्घटनाग्रस्त होना लगभग असंभव होता है।

सं.ग्रं.- दी बुक ऑव नॉलेज, दी वर्ल्ड बुक, इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, कोलियर्स इन्साइक्लोपीडिया।

(अजितनारायण मेहरोत्र )

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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