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जनसत्ता, 4 नवंबर 2012
पांच नदियों से घिरे पंजाब का अतीत जितना सुखद है वर्तमान उतना ही दुखद। अपनी उपजाऊ भूमि और उन्नत खेती की वजह से यह इलाका सदियों से खुशहाल रहा। लेकिन भारत-पाक बंटवारे के साथ ही इसकी उपजाऊ भूमि भी टुकड़ों में बंट गई। यह विभाजन रेखा पंजाब के लिए मुसीबत साबित हुई। इसकी दास्तान बता रहे हैं कश्मीर उप्पल।
पंजाब, फारसी के शब्द पंज और आब यानी पांच नदियों के पानी के संयोग से मिलकर बना है। यह माना जाता है कि दक्षिण एशिया की शुरुआती सभ्यता का विकास यहीं हुआ था।अकबर के वित्तमंत्री राजा टोडरमल ने सर्वप्रथम पंजाब की भूमि का सर्वे और फसल उत्पादन का अध्ययन 1570-80 के मध्य दस सालों में कराकर कृषि सुधार की शुरुआत की थी। राजा टोडरमल ने कृषि क्षेत्र को विभिन्न मंडलों में विभाजित किया और वजन मापने की मानक बांट प्रणाली लागू की थी। राजा टोडरमल ने फारसी भाषा की वर्णमाला के मुताबिक नदियों के प्रथम अक्षर से प्रत्येक दोआब क्षेत्र के नाम निर्धारित किए थे। प्रथम दोआब जो सिंधु और झेलम के मध्य का क्षेत्र था का नाम छोड़कर शेष नाम फारसी वर्णमाला के मुताबिक रखे गए थे। सिंधु नदी से झेलम नदी तक का भूक्षेत्र ‘सिंध-सागर दोआब’ कहलाया।
इसी तरह झेलम और चिनाब नदी के मध्य स्थित दोआब का नाम झेलम के ‘जे’ और चिनाब के ‘च’ से ‘जेच दोआब’ नाम रखा गया। चिनाब और रावी का मध्य क्षेत्र ‘रेचना दोआब’ कहलाया। रावी और व्यास नदी के बीच का मध्य क्षेत्र ‘बारी दोआब’ कहलाया इसे ‘माज्हा’ भी कहते हैं। माज्हा संस्कृत के मझले से बना है। यह पांचों नदियों के मध्य का दोआब है। इसी प्रकार व्यास और सतलुज का मध्य क्षेत्र ‘बिस्त दोआब’ कहलाया जिसे जलंधर दोआब भी कहते हैं। पंजाब के इन पांच दोआबों में सिंचाई और कृषि भूमि की दृष्टि से सिंध-सागर, जेच और रेचना दोआब सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र माने जाते थे क्योंकि यहां सिंचाई की प्राचीन और मध्यकालीन व्यवस्थाएं स्थित थीं। 1947 में भारत के विभाजन के लिए गठित ‘पंजाव बाउंड्री कमीशन’ के समक्ष बारी और बिस्त दोआब सबसे अधिक विवादित क्षेत्र थे। रावी से सतलुज नदी के मध्य भारतीय सिख समुदाय के लोग बसे हुए थे। महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) का राज्य लाहौर, अमृतसर, कश्मीर और पेशावर चार सूबों में बंटा था। इसलिए झेलम से सतलुज नदी तक सिख किसानों की जमीनें थीं। भारत का बंटवारा वास्तव में भारत की उपजाऊ कृषि भूमि का बंटवारा था। इसीलिए पंजाब में 1947 में एक और रक्ताभ छठी नदी बह निकली थी। भारत विभाजन के बाद पंजाब, पूर्वी पंजाब और पश्चिमी पंजाब कहलाया। पूर्वी पंजाब भारतीय पंजाब है। कुछ लोगों ने ‘पंजाब बाउंड्री कमीशन’ के समक्ष भारतीय पंजाब का नाम ‘दोआब’ रखने का सुझाव दिया था, जिसे स्वीकार नहीं किया गया।
भारत के पंजाब में जो कृषि क्षेत्र आया था। उसमें कम और असमान उत्पादन होता था। विश्व बांध आयोग के लिए तैयार की गई आर रंगाचारी और अन्य की रिपोर्ट (2000) के मुताबिक विभाजन के फलस्वरूप सिंचित क्षेत्र का एक गैर-समानुपातिक हिस्सा पाकिस्तान में चला गया। हालांकि, पाकिस्तान को जो कृषि-भूमि मिली वह कुल का सोलह फीसद थी। लेकिन, उसे सिंचाई की सुविधाओं और सुनिश्चित वर्षा का लाभ मिला। तबके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पंजाब के इस दर्द को समझा था। नेहरू ने प्राथमिकता के आधार पर भाखड़ा बांध के निर्माण कार्य का आरंभ 1948 में कर दिया था। गौरतलब है कि इस समय तक भारत के योजना आयोग की स्थापना भी नहीं हुई थी। पंडित नेहरू ने 20 नवंबर 1963 को इस बांध का उद्घाटन करते हुए भाखड़ा बांध को ‘आधुनिक भारत का तीर्थ’ कहा था। 1960-70 के दशक में पंजाब का सिंचित क्षेत्र बढ़ जाने से कृषि उत्पादन में वृद्धि होने लगी। भाखड़ा के पानी ने पंजाब के सामाजिक जीवन में मीठी ठंडक घोल दी थी।
1 अप्रैल 1951 से भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का युग प्रारंभ हो गया। पहली योजना कृषि प्रधान थी और इसमें पंजाब की कृषि अधोरचना का काम हुआ। इस अवधि तक अनुकूल मानसून के कारण पूरे देश में अनाज का पर्याप्त उत्पादन हुआ था। अनुकूल मानसून से 1959-60 तक कृषि उत्पादन में वृद्धि होती रही। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) उद्योग प्रधान थी। इस योजना के अंतिम वर्षों में मानसून के प्रतिकूल हो जाने से देश के अनाज उत्पादन में कमी आने लगी। इसलिए तीसरी पंचवर्षीय योजना (1966-69) में कृषि और गेहूं उत्पादन को प्राथमिकता दी गई। इसी समय अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के भी प्रतिकूल हो जाने के कारण चीन से युद्ध (1961-62) और 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के कारण योजनाओं की प्राथमिकता बदल दी गई। देश की तत्कालीन परिस्थितियों के मुताबिक योजनाओं की प्राथमिकता युद्ध सामग्री निर्माण के कारखाने बन गए थे। इसलिए कृषि के लिए बड़े बांधों, बिजली और सिंचाई की कई योजनाएं स्थगित हो गई थीं। अमेरिका के कृषि वैज्ञानिक डॉ. नारमन बोरलाग का नाम मेक्सिको में कृषि क्रांति के लिए चर्चा में था। डॉ. नारमन बोरलाग की कोशिशों से मेक्सिको 1940-1960 के मध्य खाद्यान्न आयात करने वाले देश से खाद्यान्न निर्यात करने वाला देश बन गया था।
भारत में भी 1959-60 से प्रतिकूल मानसून रहने से अकाल की परिस्थितियां बनने लगी थीं। इस कारण भारत को बड़ी मात्रा में विदेशों से गेहूं का आयात करना पड़ा। इन परिस्थितियों में भारत सरकार ने डॉ. नारमन बोरलाग को भारत आमंत्रित किया। डॉ. बोरलाग ने 1963 में पंजाब को अपनी प्रयोगशाला बनाया। पंजाब में डॉ. बोरलाग ने मेक्सिको में पैदा किए गए मेक्सिकन जीन संवर्धित (जीएम) गेहूं के बीज और फिलिपींस स्थित अंतरराष्ट्रीय चावल शोध संस्थान द्वारा विकसित चावल के नए बीजों का प्रयोग किया। डॉ. बोरलाग ने अधिक उत्पादन देने वाले जीन-संवर्धित बीज, बोरवेल से सिंचाई, रासायनिक खाद, कीटनाशक, खेती की चकबंदी, गांवों का विद्युतीकरण, ग्रामीण अधोसंरचना का विकास, कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, आधुनिक कृषि प्रणाली में शोध, अधिक आय देने वाली फसलों को प्रोत्साहन वगैरह की शुरुआत पंजाब में की थी। इन सब प्रयासों के मिले-जुले प्रभाव को ही ‘हरित-क्रांति’ कहा जाता है।
भारत में 1959-60 से प्रतिकूल मानसून रहने से अकाल की परिस्थितियां बनने लगी थीं। इन परिस्थितियों में भारत सरकार ने डॉ. नारमन बोरलाग को भारत आमंत्रित किया। डॉ. बोरलाग ने अधिक उत्पादन देने वाले जीन-संवर्धित बीज, बोरवेल से सिंचाई, रासायनिक खाद, कीटनाशक, खेती की चकबंदी, गांवों का विद्युतीकरण, ग्रामीण अधोसंरचना का विकास, कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, आधुनिक कृषि प्रणाली में शोध, अधिक आय देने वाली फसलों को प्रोत्साहन वगैरह की शुरुआत पंजाब में की थी। इस साझे प्रभाव से पंजाब देश का अन्नदाता बनने की राह पर चल पड़ा। इस साझे प्रभाव से पंजाब देश का अन्नदाता बनने की राह पर चल पड़ा। डॉ. नारमन बोरलाग के बताए ‘रोडमैप’ पर पंजाब आगे ही आगे जरूर बढ़ा, लेकिन इससे हजारों वर्षों में विकसित हुई कृषि समाज की संस्कृति पीछे छूट गई। पंजाब के किसानों के जीवन में अभी खुशियों ने ठीक से घर भी नहीं बसाया था कि 1966 में पंजाब का फिर विभाजन हो गया। इस विभाजन से पंजाब के पंजाबी भाषी छोटा सा राज्य बन कर रह गया। पंजाब से अलग होकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश अलग राज्य बन गए थे। इससे पंजाब की प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था भी लड़खड़ा गई। आम लोग दुखी मन से पंजाबी-सूबा को ‘पंजाबी-सूबी’ कहते थे। एक छोटे से राज्य में पंजाब की कृषि-संस्कृति सिमट कर रह गई।
कृषि वैज्ञानिक डॉ. बोरलाग की ‘हरित क्रांति’ से पंजाब ने आधुनिक कृषि के ‘औजार’ पा लिए थे। अब पंजाब पहले जैसी फैली हुई कृषि-भूमि का क्षेत्र नहीं रह गया था। पंजाब के जंगल, चारागाह और रेतीले भू-क्षेत्र शीघ्र ही ट्यूबवेल संस्कृति ट्यूबवेल संस्कृति से खेतों में बदल गए। पंजाब खेती का फैलाव रुक जाने से अधिक उत्पादन के लिए ‘गहन-खेती’ का क्षेत्र बन गया। नतीजतन, पंजाब के कुल भूभाग के 85 फीसद पर खेती होती है जबकि भारत के कुल भूभाग के 40 फीसद भूभाग पर ही खेती की जाती है। पंजाब की खेती की कुछ मौन सच्चाइयां ऐसी हैं जो पंजाब के जुझारू किसानों की कीमत पर हो रही खेती का इतिहास बयान करती हैं। असल में, भाखड़ा बांध पंजाब में है, लेकिन इसके नहरों से पंजाब की भूमि की 24 फीसद भूमि पर ही सिंचाई होती है। शेष 76 फीसद भूमि ट्यूबवेल से सींची जाती है। इसके विपरीत हरियाणा में 50 फीसद सिंचाई नहरों से और 50 फीसद भूमि की सिंचाई ट्यूबवेल से होती है। हरियाणा को यमुना नदी का पानी भी उपलब्ध होता है।
पंजाब में 1960-61 से 2000-01 के मध्य गेहूं के उत्पादन में नौगुना और 1970-71 से 2000-01 के मध्य चावल का उत्पादन तेरह गुना बढ़ा है। इसका अर्थ है कि इस बीच धान का उत्पादन 390 हजार हेक्टेयर से बढ़कर 2612 हजार हेक्टेयर हो गया। इसी प्रकार अमेरिकन कपास का उत्पादन क्षेत्र 212 हजार हेक्टेयर से बढ़कर 358 हजार हेक्टेयर हो गया। इसके विपरीत मक्का, बाजरा, ज्वार, मूंगफली और गन्ने का उत्पादन क्षेत्र काफी घट गया। केवल दालों के उत्पादन में मामूली वृद्धि हुई है। यह परिवर्तन पंजाब की भूमि के लिए घातक सिद्ध होने लगा। गेहूं और चावल पर केंद्रित फसल चक्र से भूमिगत पानी, मिट्टी और पर्यावरण तेजी से प्रदूषित होने लगा है। गेहूं और धान की बारंबार उपज लेने के कारण रासायनिक खाद, कीटनाशकों और भूमिगत जल के अधिकतम मात्रा में उपयोग करने से कई तरह की नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। एक अध्ययन के मुताबिक 1990 के दशक से प्रमुख फसलों का उत्पादन स्थिर हो गया है। कृषि लागत बढ़ जाने के कारण प्रति हेक्टेयर शुद्ध आय कम हो गई है। प्रति हेक्टेयर कृषि आय की वृद्धि दर ऋणात्मक आ रही है। यही पंजाब की वास्तविक समस्या है। कृषि से आय कम हो जाने के कारण अनेक किसान अपने खेतों की मिट्टी ईंट बनाने के लिए ठेके पर बेचने लगे हैं। आसानी से चार फुट गहरे कटे खेत दिखाई देते हैं।
किसी व्यवस्था को उत्पादन केंद्रित बना देने के क्या प्रभाव होते हैं, पंजाब इसका जीता जागता उदाहरण है। पंजाब, देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 1.5 फीसद भाग है। यह देश के कुल गेहूं उत्पादन का 22 फीसद, चावल का 12 फीसद और कपास का भी 12 फीसद पैदा करता है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रति हेक्टेयर खाद का उपयोग 99 किलोग्राम है जो पंजाब में बढ़कर 177 किलोग्राम हो गया है। नेशनल सेंपल सर्वे ऑफिस के मुताबिक देश के कई राज्यों, विशेषकर पंजाब में ‘उलट-बंटाई’ (रिवर्स लीसिंग) की नई परंपरा उभरी है। इसके अंतर्गत संपन्न बड़े किसान एक निश्चित रकम के बदले छोटे किसानों की जमीन बंटाई पर लेते हैं। इससे भी रासायनिक खाद, कीटनाशकों और पानी के अधिक उपयोग को प्रोत्साहन मिलने लगा है। छोटे किसानों के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने के बाद अब छोटे किसानों के पैरों के नीचे का पानी भी खिसकने लगा है। अब बड़े किसान ‘जमींदार’ होने के साथ-साथ ‘पानीदार’ भी हो गए हैं।
पूरे देश में खेती की जमीन निकलकर ‘अन्य उपयोग’ में चली जा रही है। नेशनल सेंपल सर्वे के मुताबिक 1992-93 से 2002-03 के मात्र दस वर्षों में देश की खेती की जमीन 12.5 करोड़ हेक्टेयर से कम होकर 10.7 करोड़ हेक्टेयर रह गई है। इस कारण खेतों का आकार भी छोटा हो गया है। यही प्रवृत्ति पंजाब में भी है। डॉ एमएस स्वामीनाथन के मुताबिक वैश्विक तापमान में एक डिग्री की वृद्धि से पंजाब में फसल की बुआई में एक हफ्ते देरी होगी। यानी फसल पकने की अवधि में एक हफ्ते की कमी होगी। इससे प्रति हेक्टेयर 400 किलोग्राम कम गेंहू का उत्पादन होगा। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ वैश्विक-तापमान की समस्या एक नई और कठिन चुनौती के रूप में सामने आ रही है।
अभी संसद के मानसून सत्र में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायण सामी ने एक सवाल के जवाब में राज्यसभा को बताया कि भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बीआरसी) ने भूजल में यूरेनियम की मौजूदगी का पता लगाने के लिए एक अध्ययन किया है। अमृतसर स्थित गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के सहयोग से पंजाब के चार जिलों भटिंडा, मनसा, फरीदकोट और फिरोजपुर से इकट्ठे किए गए 1109 नमूनों में यूरेनियम का विश्लेषण किया गया है। इस अध्ययन के नतीजों से पता चला है कि कुल नमूनों में से 42 फीसद नमूनों में यूरेनियम सांद्रता तय की गई सीमा से अधिक है। पंजाब में खेती के संकट की भयावहता का पता विशेषकर भटिंडा जिले के कुओं के पानी में यूरेनियम पाए जाने से लगता है। इसी जिले में कैंसर के सबसे अधिक मरीज भी मिलते हैं। भटिंडा जिले के भगता भाइके, मोयर, नथाना, फुल्ल और रामपुरा ब्लॉक के 43 गांवों के पानी के नमूने जांच के लिए भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर (बार्क) मुंबई भेजे गए थे। बार्क के मुताबिक पानी के इन सभी नमूनों में यूरेनियम पाया गया है। भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर के मुताबिक फुल्ल ब्लॉक के दुल्लेवाला गांव के कुएं के पानी में यूरेनियम का सर्वाधिक अंश पाया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 15 ‘पार्ट्स पार्टिकल पर बिलियन ऑफ वाटर’ (पीपीबी) पानी में यूरेनियम की अधिकतम सीमा है जबकि पंजाब के इन गांवों में 295.8 पीपीबी तक यूरेनियम पाया गया है। भारतीय स्वास्थ्य मानकों के मुताबिक 60 पीपीबी यूरेनियम की पानी में मिलने की अधिकतम सीमा है।
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री के मुताबिक पंजाब में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से 50 फीसद अधिक प्रदूषित पानी है। बार्क के मुताबिक 43 में से 13 गांव का पानी उच्च खतरे के स्तर में आता है। बार्क की रिपोर्ट के मुताबिक दुल्लेवाला 295.8 पीपीबी, पट्टी करमचंद 164, गिद्दड़ 140.5, भाईरूपा 116, सेमा 101, कल्याण सुक्खा 94.1, धपाली 87, धिंगर 77.8, भैनी 66, घुरेली 66, पीथो 65, संधु खुर्द 62.9 और सलाबतपुर 61 पीपीबी यूरेनियम की मात्रा पानी में पाया गया। सरकार ने इनमें से कुछ गांवों में आरओ पानी शुद्धिकरण प्लांट लगाए हैं।
पंजाब के किसानों को यह समझाना बहुत जरूरी है कि मिट्टी के अंदर मौजूद सूक्ष्म जीवाश्म तत्वों के कारण ही मृदा अपने से दस गुना वजनी पानी को अपने अंदर समाहित कर लेती है। मिट्टी में कार्बन अथवा जीवाश्म तत्वों की मात्रा बढ़ाए बिना फसलों का उत्पादन बढ़ाना बहुत ही कठिन है। पंजाब का किसान आत्महत्याओं में भी देश में तीसरे स्थान पर आ गया है। अपनी धरती के लिए कभी ‘घल्लूघारा’ (मरणांतक लड़ाई) करने वाला पंजाब का किसान अब आत्महत्या कर रहा है तो उसकी असहायता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।पंजाब में लोक-स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही एक संस्था के मुताबिक आरओ प्रणाली के बावजूद कैंसर फैलता जा रहा है। अब पानी में यूरेनियम की उपलब्धता को लेकर पंजाब की सरकारी संस्थाओं और वैज्ञानिकों के अलग-अलग अभिमत सामने आ रहे हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के भूविज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. सदाना के मुताबिक पिछले 30 वर्षों में फास्फेटिक खाद का उपयोग एक निर्धारित सीमा में ही किया गया था। भूमिगत जल में यूरेनियम पाए जाने का कारण खाद का उपयोग नहीं है। दूसरी तरफ एटॉमिक एनर्जी विभाग के सचिव के मुताबिक इस क्षेत्र की भूमि के नीचे स्थित ग्रेनाइट-पत्थर की चट्टानें हैं जो भूमिगत जल में यूरेनियम तत्व का कारण हैं।
इसके विपरीत परमाणु ऊर्जा के वैज्ञानिक डॉ. एचएस विर्क के मुताबिक भूमिगत ग्रेनाइट-पत्थर की चट्टानों के कारण भूमिगत जल में यूरेनियम का पाया जाना सत्य से परे है। उनके मुताबिक यदि ग्रेनाइट पत्थर की चट्टानों से पानी में यूरेनियम पैदा हुआ होता तो लुधियाना, मोगा, नवांशहर, रोपड़ और होशियारपुर जिलों में पानी में यूरेनियम नहीं पाया जाता क्योंकि इन जिलों में ग्रेनाइट की चट्टानें नहीं है।
डॉ. विर्क का सुझाव है कि पंजाब के मालवा क्षेत्र में कैंसर रोग के फैलने के कारणों की जांच मेडिकल-साइंस के विशेषज्ञों द्वारा की जानी चाहिए। इसमें प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का सहयोग भी लिया जाना चाहिए। डॉ. अमर सिंह आजाद पंजाब के लोकहित विशेषकर स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम करते हैं। डॉ. अमर सिंह के मुताबिक प्रदूषित पानी से न केवल कैंसर रोग हो रहा है, वरन लोगों का डीएनए भी खराब हो रहा है। अमर सिंह यह भी बतातें हैं कि यूरेनियम मिश्रित पानी वाले क्षेत्रों में पुरुषों में ‘सीमन’ की मात्रा भी 40 फीसद कम पाई गई है।
प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एल नारायण रेड्डी के मुताबिक उन क्षेत्रों में जहां बोरवेल के माध्यम से सिंचाई होती है, वहां धान की खेती करना सबसे दुखद गतिविधि है। शोध बताते हैं कि एक किलोग्राम धान (न कि चावल) उगाने के लिए पांच हजार लीटर पानी का उपयोग होता है। उनके मुताबिक पानी के इस तीव्र संकट का कारण मृदा में समुचित जीवांश का अंश न होने के कारण मृदा नमी संरक्षण में अक्षम हो रही है। 1960 में जहां मृदा में सूक्ष्म जीवाणुओं की मात्रा तीन फीसद थी वहीं निरंतर रासायनिक खादों के प्रयोग से घटकर 0.3 फीसद रह गई है।
पंजाब के किसानों को यह समझाना बहुत जरूरी है कि मिट्टी के अंदर मौजूद सूक्ष्म जीवाश्म तत्वों के कारण ही मृदा अपने से दस गुना वजनी पानी को अपने अंदर समाहित कर लेती है। मिट्टी में कार्बन अथवा जीवाश्म तत्वों की मात्रा बढ़ाए बिना फसलों का उत्पादन बढ़ाना बहुत ही कठिन है। पंजाब का किसान आत्महत्याओं में भी देश में तीसरे स्थान पर आ गया है। अपनी धरती के लिए कभी ‘घल्लूघारा’ (मरणांतक लड़ाई) करने वाला पंजाब का किसान अब आत्महत्या कर रहा है तो उसकी असहायता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। प्रश्न है कि पंजाब की रक्ताभ छठी नदी क्या कभी सूख पाएगी?
पंजाब की कृषि को लेकर राजनेताओं की भूमिका मुफ्त बिजली और यंत्रीकरण को बढ़ावा देकर अपने मतदाताओं को खुश करने तक सीमित हैं। जरूरत इस बात की है बीमारी के कारणों को दूर किया जाए। विदेशों में रहने वाले भारतीयों (एनआरआई) द्वारा भेजे गए धन से पंजाब में जो मृगतृष्णा पैदा हुई है, वह कृषि के लिए घातक सिद्ध हो रही है। पंजाब की कृषि के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहास लेखक लैकी का यह वक्तव्य विचारणीय है- ‘राजनीतिज्ञों की गरज अपना काम निकालने तक सीमित है।’
सत्य से निस्वार्थ प्रेम और जबरदस्त राजनीतिक भावना, ये दोनों साथ नहीं चल सकतीं। उन देशों में, जहां के लोगों के विचार और उनके सोचने के तरीके अधिकतर राजनीतिक जीवन के आधार पर बने हैं। हमें यह दिखाई देता है कि लोग अपनी स्वार्थसिद्धि को ही सत्य की कसौटी बना बैठते हैं।’
पंजाब, फारसी के शब्द पंज और आब यानी पांच नदियों के पानी के संयोग से मिलकर बना है। यह माना जाता है कि दक्षिण एशिया की शुरुआती सभ्यता का विकास यहीं हुआ था।अकबर के वित्तमंत्री राजा टोडरमल ने सर्वप्रथम पंजाब की भूमि का सर्वे और फसल उत्पादन का अध्ययन 1570-80 के मध्य दस सालों में कराकर कृषि सुधार की शुरुआत की थी। राजा टोडरमल ने कृषि क्षेत्र को विभिन्न मंडलों में विभाजित किया और वजन मापने की मानक बांट प्रणाली लागू की थी। राजा टोडरमल ने फारसी भाषा की वर्णमाला के मुताबिक नदियों के प्रथम अक्षर से प्रत्येक दोआब क्षेत्र के नाम निर्धारित किए थे। प्रथम दोआब जो सिंधु और झेलम के मध्य का क्षेत्र था का नाम छोड़कर शेष नाम फारसी वर्णमाला के मुताबिक रखे गए थे। सिंधु नदी से झेलम नदी तक का भूक्षेत्र ‘सिंध-सागर दोआब’ कहलाया।
इसी तरह झेलम और चिनाब नदी के मध्य स्थित दोआब का नाम झेलम के ‘जे’ और चिनाब के ‘च’ से ‘जेच दोआब’ नाम रखा गया। चिनाब और रावी का मध्य क्षेत्र ‘रेचना दोआब’ कहलाया। रावी और व्यास नदी के बीच का मध्य क्षेत्र ‘बारी दोआब’ कहलाया इसे ‘माज्हा’ भी कहते हैं। माज्हा संस्कृत के मझले से बना है। यह पांचों नदियों के मध्य का दोआब है। इसी प्रकार व्यास और सतलुज का मध्य क्षेत्र ‘बिस्त दोआब’ कहलाया जिसे जलंधर दोआब भी कहते हैं। पंजाब के इन पांच दोआबों में सिंचाई और कृषि भूमि की दृष्टि से सिंध-सागर, जेच और रेचना दोआब सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र माने जाते थे क्योंकि यहां सिंचाई की प्राचीन और मध्यकालीन व्यवस्थाएं स्थित थीं। 1947 में भारत के विभाजन के लिए गठित ‘पंजाव बाउंड्री कमीशन’ के समक्ष बारी और बिस्त दोआब सबसे अधिक विवादित क्षेत्र थे। रावी से सतलुज नदी के मध्य भारतीय सिख समुदाय के लोग बसे हुए थे। महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) का राज्य लाहौर, अमृतसर, कश्मीर और पेशावर चार सूबों में बंटा था। इसलिए झेलम से सतलुज नदी तक सिख किसानों की जमीनें थीं। भारत का बंटवारा वास्तव में भारत की उपजाऊ कृषि भूमि का बंटवारा था। इसीलिए पंजाब में 1947 में एक और रक्ताभ छठी नदी बह निकली थी। भारत विभाजन के बाद पंजाब, पूर्वी पंजाब और पश्चिमी पंजाब कहलाया। पूर्वी पंजाब भारतीय पंजाब है। कुछ लोगों ने ‘पंजाब बाउंड्री कमीशन’ के समक्ष भारतीय पंजाब का नाम ‘दोआब’ रखने का सुझाव दिया था, जिसे स्वीकार नहीं किया गया।
भारत के पंजाब में जो कृषि क्षेत्र आया था। उसमें कम और असमान उत्पादन होता था। विश्व बांध आयोग के लिए तैयार की गई आर रंगाचारी और अन्य की रिपोर्ट (2000) के मुताबिक विभाजन के फलस्वरूप सिंचित क्षेत्र का एक गैर-समानुपातिक हिस्सा पाकिस्तान में चला गया। हालांकि, पाकिस्तान को जो कृषि-भूमि मिली वह कुल का सोलह फीसद थी। लेकिन, उसे सिंचाई की सुविधाओं और सुनिश्चित वर्षा का लाभ मिला। तबके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पंजाब के इस दर्द को समझा था। नेहरू ने प्राथमिकता के आधार पर भाखड़ा बांध के निर्माण कार्य का आरंभ 1948 में कर दिया था। गौरतलब है कि इस समय तक भारत के योजना आयोग की स्थापना भी नहीं हुई थी। पंडित नेहरू ने 20 नवंबर 1963 को इस बांध का उद्घाटन करते हुए भाखड़ा बांध को ‘आधुनिक भारत का तीर्थ’ कहा था। 1960-70 के दशक में पंजाब का सिंचित क्षेत्र बढ़ जाने से कृषि उत्पादन में वृद्धि होने लगी। भाखड़ा के पानी ने पंजाब के सामाजिक जीवन में मीठी ठंडक घोल दी थी।
1 अप्रैल 1951 से भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का युग प्रारंभ हो गया। पहली योजना कृषि प्रधान थी और इसमें पंजाब की कृषि अधोरचना का काम हुआ। इस अवधि तक अनुकूल मानसून के कारण पूरे देश में अनाज का पर्याप्त उत्पादन हुआ था। अनुकूल मानसून से 1959-60 तक कृषि उत्पादन में वृद्धि होती रही। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) उद्योग प्रधान थी। इस योजना के अंतिम वर्षों में मानसून के प्रतिकूल हो जाने से देश के अनाज उत्पादन में कमी आने लगी। इसलिए तीसरी पंचवर्षीय योजना (1966-69) में कृषि और गेहूं उत्पादन को प्राथमिकता दी गई। इसी समय अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के भी प्रतिकूल हो जाने के कारण चीन से युद्ध (1961-62) और 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के कारण योजनाओं की प्राथमिकता बदल दी गई। देश की तत्कालीन परिस्थितियों के मुताबिक योजनाओं की प्राथमिकता युद्ध सामग्री निर्माण के कारखाने बन गए थे। इसलिए कृषि के लिए बड़े बांधों, बिजली और सिंचाई की कई योजनाएं स्थगित हो गई थीं। अमेरिका के कृषि वैज्ञानिक डॉ. नारमन बोरलाग का नाम मेक्सिको में कृषि क्रांति के लिए चर्चा में था। डॉ. नारमन बोरलाग की कोशिशों से मेक्सिको 1940-1960 के मध्य खाद्यान्न आयात करने वाले देश से खाद्यान्न निर्यात करने वाला देश बन गया था।
भारत में भी 1959-60 से प्रतिकूल मानसून रहने से अकाल की परिस्थितियां बनने लगी थीं। इस कारण भारत को बड़ी मात्रा में विदेशों से गेहूं का आयात करना पड़ा। इन परिस्थितियों में भारत सरकार ने डॉ. नारमन बोरलाग को भारत आमंत्रित किया। डॉ. बोरलाग ने 1963 में पंजाब को अपनी प्रयोगशाला बनाया। पंजाब में डॉ. बोरलाग ने मेक्सिको में पैदा किए गए मेक्सिकन जीन संवर्धित (जीएम) गेहूं के बीज और फिलिपींस स्थित अंतरराष्ट्रीय चावल शोध संस्थान द्वारा विकसित चावल के नए बीजों का प्रयोग किया। डॉ. बोरलाग ने अधिक उत्पादन देने वाले जीन-संवर्धित बीज, बोरवेल से सिंचाई, रासायनिक खाद, कीटनाशक, खेती की चकबंदी, गांवों का विद्युतीकरण, ग्रामीण अधोसंरचना का विकास, कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, आधुनिक कृषि प्रणाली में शोध, अधिक आय देने वाली फसलों को प्रोत्साहन वगैरह की शुरुआत पंजाब में की थी। इन सब प्रयासों के मिले-जुले प्रभाव को ही ‘हरित-क्रांति’ कहा जाता है।
भारत में 1959-60 से प्रतिकूल मानसून रहने से अकाल की परिस्थितियां बनने लगी थीं। इन परिस्थितियों में भारत सरकार ने डॉ. नारमन बोरलाग को भारत आमंत्रित किया। डॉ. बोरलाग ने अधिक उत्पादन देने वाले जीन-संवर्धित बीज, बोरवेल से सिंचाई, रासायनिक खाद, कीटनाशक, खेती की चकबंदी, गांवों का विद्युतीकरण, ग्रामीण अधोसंरचना का विकास, कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, आधुनिक कृषि प्रणाली में शोध, अधिक आय देने वाली फसलों को प्रोत्साहन वगैरह की शुरुआत पंजाब में की थी। इस साझे प्रभाव से पंजाब देश का अन्नदाता बनने की राह पर चल पड़ा। इस साझे प्रभाव से पंजाब देश का अन्नदाता बनने की राह पर चल पड़ा। डॉ. नारमन बोरलाग के बताए ‘रोडमैप’ पर पंजाब आगे ही आगे जरूर बढ़ा, लेकिन इससे हजारों वर्षों में विकसित हुई कृषि समाज की संस्कृति पीछे छूट गई। पंजाब के किसानों के जीवन में अभी खुशियों ने ठीक से घर भी नहीं बसाया था कि 1966 में पंजाब का फिर विभाजन हो गया। इस विभाजन से पंजाब के पंजाबी भाषी छोटा सा राज्य बन कर रह गया। पंजाब से अलग होकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश अलग राज्य बन गए थे। इससे पंजाब की प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था भी लड़खड़ा गई। आम लोग दुखी मन से पंजाबी-सूबा को ‘पंजाबी-सूबी’ कहते थे। एक छोटे से राज्य में पंजाब की कृषि-संस्कृति सिमट कर रह गई।
कृषि वैज्ञानिक डॉ. बोरलाग की ‘हरित क्रांति’ से पंजाब ने आधुनिक कृषि के ‘औजार’ पा लिए थे। अब पंजाब पहले जैसी फैली हुई कृषि-भूमि का क्षेत्र नहीं रह गया था। पंजाब के जंगल, चारागाह और रेतीले भू-क्षेत्र शीघ्र ही ट्यूबवेल संस्कृति ट्यूबवेल संस्कृति से खेतों में बदल गए। पंजाब खेती का फैलाव रुक जाने से अधिक उत्पादन के लिए ‘गहन-खेती’ का क्षेत्र बन गया। नतीजतन, पंजाब के कुल भूभाग के 85 फीसद पर खेती होती है जबकि भारत के कुल भूभाग के 40 फीसद भूभाग पर ही खेती की जाती है। पंजाब की खेती की कुछ मौन सच्चाइयां ऐसी हैं जो पंजाब के जुझारू किसानों की कीमत पर हो रही खेती का इतिहास बयान करती हैं। असल में, भाखड़ा बांध पंजाब में है, लेकिन इसके नहरों से पंजाब की भूमि की 24 फीसद भूमि पर ही सिंचाई होती है। शेष 76 फीसद भूमि ट्यूबवेल से सींची जाती है। इसके विपरीत हरियाणा में 50 फीसद सिंचाई नहरों से और 50 फीसद भूमि की सिंचाई ट्यूबवेल से होती है। हरियाणा को यमुना नदी का पानी भी उपलब्ध होता है।
पंजाब में 1960-61 से 2000-01 के मध्य गेहूं के उत्पादन में नौगुना और 1970-71 से 2000-01 के मध्य चावल का उत्पादन तेरह गुना बढ़ा है। इसका अर्थ है कि इस बीच धान का उत्पादन 390 हजार हेक्टेयर से बढ़कर 2612 हजार हेक्टेयर हो गया। इसी प्रकार अमेरिकन कपास का उत्पादन क्षेत्र 212 हजार हेक्टेयर से बढ़कर 358 हजार हेक्टेयर हो गया। इसके विपरीत मक्का, बाजरा, ज्वार, मूंगफली और गन्ने का उत्पादन क्षेत्र काफी घट गया। केवल दालों के उत्पादन में मामूली वृद्धि हुई है। यह परिवर्तन पंजाब की भूमि के लिए घातक सिद्ध होने लगा। गेहूं और चावल पर केंद्रित फसल चक्र से भूमिगत पानी, मिट्टी और पर्यावरण तेजी से प्रदूषित होने लगा है। गेहूं और धान की बारंबार उपज लेने के कारण रासायनिक खाद, कीटनाशकों और भूमिगत जल के अधिकतम मात्रा में उपयोग करने से कई तरह की नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। एक अध्ययन के मुताबिक 1990 के दशक से प्रमुख फसलों का उत्पादन स्थिर हो गया है। कृषि लागत बढ़ जाने के कारण प्रति हेक्टेयर शुद्ध आय कम हो गई है। प्रति हेक्टेयर कृषि आय की वृद्धि दर ऋणात्मक आ रही है। यही पंजाब की वास्तविक समस्या है। कृषि से आय कम हो जाने के कारण अनेक किसान अपने खेतों की मिट्टी ईंट बनाने के लिए ठेके पर बेचने लगे हैं। आसानी से चार फुट गहरे कटे खेत दिखाई देते हैं।
किसी व्यवस्था को उत्पादन केंद्रित बना देने के क्या प्रभाव होते हैं, पंजाब इसका जीता जागता उदाहरण है। पंजाब, देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 1.5 फीसद भाग है। यह देश के कुल गेहूं उत्पादन का 22 फीसद, चावल का 12 फीसद और कपास का भी 12 फीसद पैदा करता है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रति हेक्टेयर खाद का उपयोग 99 किलोग्राम है जो पंजाब में बढ़कर 177 किलोग्राम हो गया है। नेशनल सेंपल सर्वे ऑफिस के मुताबिक देश के कई राज्यों, विशेषकर पंजाब में ‘उलट-बंटाई’ (रिवर्स लीसिंग) की नई परंपरा उभरी है। इसके अंतर्गत संपन्न बड़े किसान एक निश्चित रकम के बदले छोटे किसानों की जमीन बंटाई पर लेते हैं। इससे भी रासायनिक खाद, कीटनाशकों और पानी के अधिक उपयोग को प्रोत्साहन मिलने लगा है। छोटे किसानों के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने के बाद अब छोटे किसानों के पैरों के नीचे का पानी भी खिसकने लगा है। अब बड़े किसान ‘जमींदार’ होने के साथ-साथ ‘पानीदार’ भी हो गए हैं।
पूरे देश में खेती की जमीन निकलकर ‘अन्य उपयोग’ में चली जा रही है। नेशनल सेंपल सर्वे के मुताबिक 1992-93 से 2002-03 के मात्र दस वर्षों में देश की खेती की जमीन 12.5 करोड़ हेक्टेयर से कम होकर 10.7 करोड़ हेक्टेयर रह गई है। इस कारण खेतों का आकार भी छोटा हो गया है। यही प्रवृत्ति पंजाब में भी है। डॉ एमएस स्वामीनाथन के मुताबिक वैश्विक तापमान में एक डिग्री की वृद्धि से पंजाब में फसल की बुआई में एक हफ्ते देरी होगी। यानी फसल पकने की अवधि में एक हफ्ते की कमी होगी। इससे प्रति हेक्टेयर 400 किलोग्राम कम गेंहू का उत्पादन होगा। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ वैश्विक-तापमान की समस्या एक नई और कठिन चुनौती के रूप में सामने आ रही है।
अभी संसद के मानसून सत्र में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायण सामी ने एक सवाल के जवाब में राज्यसभा को बताया कि भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बीआरसी) ने भूजल में यूरेनियम की मौजूदगी का पता लगाने के लिए एक अध्ययन किया है। अमृतसर स्थित गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के सहयोग से पंजाब के चार जिलों भटिंडा, मनसा, फरीदकोट और फिरोजपुर से इकट्ठे किए गए 1109 नमूनों में यूरेनियम का विश्लेषण किया गया है। इस अध्ययन के नतीजों से पता चला है कि कुल नमूनों में से 42 फीसद नमूनों में यूरेनियम सांद्रता तय की गई सीमा से अधिक है। पंजाब में खेती के संकट की भयावहता का पता विशेषकर भटिंडा जिले के कुओं के पानी में यूरेनियम पाए जाने से लगता है। इसी जिले में कैंसर के सबसे अधिक मरीज भी मिलते हैं। भटिंडा जिले के भगता भाइके, मोयर, नथाना, फुल्ल और रामपुरा ब्लॉक के 43 गांवों के पानी के नमूने जांच के लिए भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर (बार्क) मुंबई भेजे गए थे। बार्क के मुताबिक पानी के इन सभी नमूनों में यूरेनियम पाया गया है। भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर के मुताबिक फुल्ल ब्लॉक के दुल्लेवाला गांव के कुएं के पानी में यूरेनियम का सर्वाधिक अंश पाया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 15 ‘पार्ट्स पार्टिकल पर बिलियन ऑफ वाटर’ (पीपीबी) पानी में यूरेनियम की अधिकतम सीमा है जबकि पंजाब के इन गांवों में 295.8 पीपीबी तक यूरेनियम पाया गया है। भारतीय स्वास्थ्य मानकों के मुताबिक 60 पीपीबी यूरेनियम की पानी में मिलने की अधिकतम सीमा है।
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री के मुताबिक पंजाब में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से 50 फीसद अधिक प्रदूषित पानी है। बार्क के मुताबिक 43 में से 13 गांव का पानी उच्च खतरे के स्तर में आता है। बार्क की रिपोर्ट के मुताबिक दुल्लेवाला 295.8 पीपीबी, पट्टी करमचंद 164, गिद्दड़ 140.5, भाईरूपा 116, सेमा 101, कल्याण सुक्खा 94.1, धपाली 87, धिंगर 77.8, भैनी 66, घुरेली 66, पीथो 65, संधु खुर्द 62.9 और सलाबतपुर 61 पीपीबी यूरेनियम की मात्रा पानी में पाया गया। सरकार ने इनमें से कुछ गांवों में आरओ पानी शुद्धिकरण प्लांट लगाए हैं।
पंजाब के किसानों को यह समझाना बहुत जरूरी है कि मिट्टी के अंदर मौजूद सूक्ष्म जीवाश्म तत्वों के कारण ही मृदा अपने से दस गुना वजनी पानी को अपने अंदर समाहित कर लेती है। मिट्टी में कार्बन अथवा जीवाश्म तत्वों की मात्रा बढ़ाए बिना फसलों का उत्पादन बढ़ाना बहुत ही कठिन है। पंजाब का किसान आत्महत्याओं में भी देश में तीसरे स्थान पर आ गया है। अपनी धरती के लिए कभी ‘घल्लूघारा’ (मरणांतक लड़ाई) करने वाला पंजाब का किसान अब आत्महत्या कर रहा है तो उसकी असहायता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।पंजाब में लोक-स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही एक संस्था के मुताबिक आरओ प्रणाली के बावजूद कैंसर फैलता जा रहा है। अब पानी में यूरेनियम की उपलब्धता को लेकर पंजाब की सरकारी संस्थाओं और वैज्ञानिकों के अलग-अलग अभिमत सामने आ रहे हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के भूविज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. सदाना के मुताबिक पिछले 30 वर्षों में फास्फेटिक खाद का उपयोग एक निर्धारित सीमा में ही किया गया था। भूमिगत जल में यूरेनियम पाए जाने का कारण खाद का उपयोग नहीं है। दूसरी तरफ एटॉमिक एनर्जी विभाग के सचिव के मुताबिक इस क्षेत्र की भूमि के नीचे स्थित ग्रेनाइट-पत्थर की चट्टानें हैं जो भूमिगत जल में यूरेनियम तत्व का कारण हैं।
इसके विपरीत परमाणु ऊर्जा के वैज्ञानिक डॉ. एचएस विर्क के मुताबिक भूमिगत ग्रेनाइट-पत्थर की चट्टानों के कारण भूमिगत जल में यूरेनियम का पाया जाना सत्य से परे है। उनके मुताबिक यदि ग्रेनाइट पत्थर की चट्टानों से पानी में यूरेनियम पैदा हुआ होता तो लुधियाना, मोगा, नवांशहर, रोपड़ और होशियारपुर जिलों में पानी में यूरेनियम नहीं पाया जाता क्योंकि इन जिलों में ग्रेनाइट की चट्टानें नहीं है।
डॉ. विर्क का सुझाव है कि पंजाब के मालवा क्षेत्र में कैंसर रोग के फैलने के कारणों की जांच मेडिकल-साइंस के विशेषज्ञों द्वारा की जानी चाहिए। इसमें प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का सहयोग भी लिया जाना चाहिए। डॉ. अमर सिंह आजाद पंजाब के लोकहित विशेषकर स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम करते हैं। डॉ. अमर सिंह के मुताबिक प्रदूषित पानी से न केवल कैंसर रोग हो रहा है, वरन लोगों का डीएनए भी खराब हो रहा है। अमर सिंह यह भी बतातें हैं कि यूरेनियम मिश्रित पानी वाले क्षेत्रों में पुरुषों में ‘सीमन’ की मात्रा भी 40 फीसद कम पाई गई है।
प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एल नारायण रेड्डी के मुताबिक उन क्षेत्रों में जहां बोरवेल के माध्यम से सिंचाई होती है, वहां धान की खेती करना सबसे दुखद गतिविधि है। शोध बताते हैं कि एक किलोग्राम धान (न कि चावल) उगाने के लिए पांच हजार लीटर पानी का उपयोग होता है। उनके मुताबिक पानी के इस तीव्र संकट का कारण मृदा में समुचित जीवांश का अंश न होने के कारण मृदा नमी संरक्षण में अक्षम हो रही है। 1960 में जहां मृदा में सूक्ष्म जीवाणुओं की मात्रा तीन फीसद थी वहीं निरंतर रासायनिक खादों के प्रयोग से घटकर 0.3 फीसद रह गई है।
पंजाब के किसानों को यह समझाना बहुत जरूरी है कि मिट्टी के अंदर मौजूद सूक्ष्म जीवाश्म तत्वों के कारण ही मृदा अपने से दस गुना वजनी पानी को अपने अंदर समाहित कर लेती है। मिट्टी में कार्बन अथवा जीवाश्म तत्वों की मात्रा बढ़ाए बिना फसलों का उत्पादन बढ़ाना बहुत ही कठिन है। पंजाब का किसान आत्महत्याओं में भी देश में तीसरे स्थान पर आ गया है। अपनी धरती के लिए कभी ‘घल्लूघारा’ (मरणांतक लड़ाई) करने वाला पंजाब का किसान अब आत्महत्या कर रहा है तो उसकी असहायता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। प्रश्न है कि पंजाब की रक्ताभ छठी नदी क्या कभी सूख पाएगी?
पंजाब की कृषि को लेकर राजनेताओं की भूमिका मुफ्त बिजली और यंत्रीकरण को बढ़ावा देकर अपने मतदाताओं को खुश करने तक सीमित हैं। जरूरत इस बात की है बीमारी के कारणों को दूर किया जाए। विदेशों में रहने वाले भारतीयों (एनआरआई) द्वारा भेजे गए धन से पंजाब में जो मृगतृष्णा पैदा हुई है, वह कृषि के लिए घातक सिद्ध हो रही है। पंजाब की कृषि के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहास लेखक लैकी का यह वक्तव्य विचारणीय है- ‘राजनीतिज्ञों की गरज अपना काम निकालने तक सीमित है।’
सत्य से निस्वार्थ प्रेम और जबरदस्त राजनीतिक भावना, ये दोनों साथ नहीं चल सकतीं। उन देशों में, जहां के लोगों के विचार और उनके सोचने के तरीके अधिकतर राजनीतिक जीवन के आधार पर बने हैं। हमें यह दिखाई देता है कि लोग अपनी स्वार्थसिद्धि को ही सत्य की कसौटी बना बैठते हैं।’