पंप

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 14:57
पंप बहुत प्राचीन काल से ही निम्न धरातल पर भरे हुए, अथवा बहते हुए, पानी का उदंचन कर ऊँचे धरातल पर लाने के लिए अनेक प्रकार के उपकरणों और साधनों का व्यवहार किया जाता रहा है। आधुनिक युग के विविध कार्यक्षेत्रों में नाना प्रकार के तरल पदार्थों का उदंचन करके उन्हें स्थानांतरित करने के लिए एक विशेष साधन का अनिवार्यत: उपयोग करना पड़ता है, जिसे पंप कहते हैं।

पंप का सिद्धांत और वर्गीकरण 


बनावट के अनुसार सब प्रकार के पंपों को हम तीन वर्गों में स्थूल रूप में बाँट सकते हैं : (1) प्रत्यागामी पंप (reciprocating), (2) अपकेंद्री पंप (centrifugal pump) और घूर्णनी पंप (rotatory)। लेकिन जिन वैज्ञानिक सिद्धांतों पर ये सब काम करते हैं वे सबके लिए एक ही हैं। समुद्रतल पर वायुमंडल की दाब 14.7 पाउंड प्रति वर्ग इंच रहती है। यदि इसकी तुलना एक वर्ग इंच क्षेत्र पर पानी के भारत से करें तो समान भारवाले एक वर्ग इंच के जलस्तंभ की ऊँचाई 34 फुट होगी, अर्थात्‌ यदि किसी लंबे नल के भीतर पूर्णनिर्वातन कर उसके नीचे सिरे को पानी में डुबोकर खोल दें तो उसके भीतर 34 फुट ऊँचाई तक पानी चढ़ जाएगा। इसी बात को चित्र 1. की क, ख और ग आकृतियों में स्पष्ट किया गया है। नलों में 34 फुट तक पानी चढ़ने की बात केवल सैद्धांतिक ही है, क्योंकि पूर्ण निर्वात का होना व्यवहार में असंभव है और पानी के ठंढा या गरम होने से उसके भिन्न घनत्व आदि के कारण भी अंतर पड़ जाता है।

सरल बनावट का पंप 


चित्र 1. में जिस प्रकार का पंप दिखाया गया है। वह प्रत्यागामी पंप कहलाता है। इसका डट्टा या तो चमड़े का बना होता है या रबर का, जिसे बकेट (bucket) कहते हैं। कई पंपों के डट्टे पिस्टन अथवा मज्जक (plunger) के रूप में होते हैं।

चित्र 2. में इन तीनों प्रकार के डट्टों की बनावट दिखाई है। चित्र 3. में बाईं ओर जिस प्रकार बकेट पंप दिखाया है, इसी प्रकार का पंप सर्वप्रथम आविष्कृत किया गया था। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, पिस्टन (piston) दंड के द्वारा बकेट को ऊपर की तरफ खींचने से पंप के सिलिंडर और उसके नीचे लगे चूषण नल (suction pipe) में निर्वात होने से, वायु की दाब कम होते ही चुषण नल में पानी भर आता है। फिर सिलिंडर के पेंदे में लगे चूषण कपाट व को ढकेलकर वह सिलिंडर में प्रवेश कर जाता है, क्योंकि वहाँ भी निर्वात ही है। जब बकेट नीचे की तरफ उतरता है तब चूषण कपाट व तो दाब के कारण बंद हो जाता है, लेकिन उस सिलिंडर में और जगह खाली न होने के कारण पानी बकेट के ऊपरी लचीले ढक्कन को, जो अकसर रबर की मोटी चादर का बना होता है, ऊपर की तरफ मोड़कर डट्टे के ऊपर की तरफ चला जाता है अर्थात्‌ डट्टे सहित पूरा बकेट पानी में डूब जाता है। जब बकेट दुबरा ऊपर उठता है तब रबर का बकेट डट्टे पर चपटा होकर बैठ जाता है जिससे उसके ऊपर चढ़ा हुआ पानी नीचे न जाकर सिलिंडर में ऊपर के भाग में बने निकास मार्ग में से निकल जाता है, जिसे निकाम नल (delivery pipe) कहते हैं, और बकेट के नीचे की तरफ फिर दुबारा निर्वात हो जान से कपाट व को खोलकर पानी सिलिंडर में भर जाता है। इसी प्रकार से क्रम चालू रहता है।

चित्र 3 (ख) में एक दूसरे ही प्रकार का परिष्कृत पंप दिखाया है, जिसके डट्टे के ऊपर लचीला बकेट न लगाकर उसे ठोस पिस्टन का रूप दे दिया गया है। इसकी बनावट चित्र 2 (ख) में दिखाई गई है। इसका चूषण कपाट तो कब्जेनुमा ढक्कन व के रूप में है, जो पिस्टन के ऊपर चढ़ते समय सिलिंडर के भीतर की तरफ खुलता हैं, और निकास वाल्व वा पिस्टन में ही लचीले बकेट के रूप में होने के बदले एक दूसरे कब्जेनुमा-ढक्कन के रूप में निकास मार्ग में लगा है। जिस समय पिस्टन नीचे उतरता है, चूषण कपाट व तो दाब के कारण बंद हो जाता है और निकास वाल्ब वा वायुप्रकोष्ठ में खुल जाता हैं, जिसमें पानी भर जाने से उसके भीतर बंद हुई हवा दबकर और प्रकोष्ठ के ऊपरी भाग में इकट्ठी होकर पानी के लिय मुलायम गद्दी जैसा काम करता है। इस कारण पानी निकास नल में झटके के साथ न रहकर अटूट धारा के रूप में बहता रहता है।

पंपों की प्राविधि मापें और परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं :

स्थैतिक चूषणोत्थापन (Static Suction Lift)  कोई पंप किसी द्रव को उसे प्राथमिक तल से जितना ऊँचा उठा सकता है वह ऊँचाई उस पंप का चूषणोत्थापन कहलाती है। यह द्रव के संग्रहस्थान में द्रव के ऊपरी तल से पंप के सिलिंडर की मध्य रेखा तक पानी जाती है।

चूषण शीर्ष (Suction Head)  जब पंप को उसके स्थैतिक चूषणोत्थापन के तल से नीचे लगाया जाता है, तब ऊपर बचे हुए उत्थापनांश के अनुपात से चूषण नल में तरल पदार्थ की जो कुछ दाब होगी वह चूषण शीर्ष कहलाती है।

स्थैतिक निकास शीर्ष (Static Delivery Head)  पंप के सिलिंडर की मध्य रेखा से निकास नल के खुले मुँह की ऊर्ध्वाधर दूरी को स्थैतिक निकास शीर्ष कहते हैं।

घर्षण शीर्ष (Friction Head)  तरल पदार्थ के निष्कासन से संबंध रखनेवाले पंपीय नलों में जो प्रवाहजनित धर्षण होता है, उसके प्रतिरोध समतुल्यशीर्ष को घर्षण शीर्ष कहते हैं।

वेगात्मक शीर्ष (Velocity Head)  निष्कासन नलों में तरल पदार्थ का प्रवाह बनाए रखने के लिए दबाव के रूप में जितने शीर्ष की आवश्यकता होती है उसे वेगात्मक शीर्ष कहते हैं।

संपूर्ण स्थैतिक शीर्ष (Total Static Head)  द्रव संग्राहक में द्रव के ऊपरी तल के निकास नल के मुँह तक की संपूर्ण ऊर्ध्वाधर दूरी को संपूर्ण स्थैतिक शीर्ष कहते हैं।

समग्र शीर्ष (Total Head)  चूषण द्वार और निकास द्वार पर होनेवाली दाबों का अंतर समग्र शीर्ष कहलाता है।

जब किसी पंप को लगाने की योजना बनाई जाती है तब उपर्युक्त सभी शीर्षों की मात्रा पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। चित्र 4. में इन्हीं सब परिभाषाओं को अंकित किया गया है।

चूषणोत्थापन और पानी का ताप  समुद्रतल पर 20 फुट का व्यावहारिक चूषणोत्थापन भी, ज्यों ज्यों पानी का ताप बढ़ता जाएगा क्रमश: घटकर 82 सें. पर शून्य हो जाएगा, क्योंकि चूषणनल में निर्वात के कारण गरम पानी में से इतना वाष्प उठेगा कि वह संग्राहक में पानी के ऊपरी तल पर पड़नेवाले वायुमंडल की दाब का प्रतिकार करने लगेगा। अत: वहाँ पंप को इतनी ऊँचाई पर लगाना होता है कि उपर्युक्त चूषणोत्थापन का कुछ भाग पंप की मध्य रेखा के ऊपर की तरफ धनात्मक रहे।

घर्षण शीर्ष  किसी गोल परिच्छेद के सीधे तथा क्षैतिज (horizontal) नल में पानी के बहाव का घर्षणात्मक प्रतिरोध शीर्ष के रूप में जानने के लिए निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है :

घर्षण शीर्ष  फुट,

यहाँ   घर्षणगुणंक (औसत 0.0075), ल (L)  नल की लंबाई फुटों में, फ (v)  पानी का वेग प्रति सेकंड फुटों में, व (D)  नल का व्यास फुटों में, गु (g)  गुरुत्वाकर्षणांक 32.21 फुट प्रति सेकंड सेकंड।

नलों में माड़ लगाने के कारण अतिरिक्त शीर्ष खर्च हो जाता है, मोड़ की त्रिज्या जितनी ही छोटी होगी उसमें उतना ही अधिक घर्षण होगा। त्रिवेणिक (T) मोड़ों और कोनियों में सबसे अधिक घर्षण होता है। अनुमान लगाते समय प्रत्येक मोड़ के लिए 10 से 20 फुट तक उसकी त्रिज्या के हिसाब से शीर्ष घटा देना चाहिए। नलों के भीतर मैल जम जाने के कारण 25 प्रति शत प्रतिरोध की मात्रा बढ़ जाती है। इसका अनुमान प्रतिशत प्रति वर्ष के हिसाब से लगाया जा सकता है।

पंप का प्रतिरोध और कार्यक्षमता 


मज्जक और पिस्टवाले पंपों द्वारा निष्कासित द्रव की मात्रा लगभग उस पंप की चाल के अनुपात में होती है और निकास द्वार पर जितना दबाव होता है, उसी के बराबर पंप का प्रतिरोध होता है। चाहे पंप का वेग उस समय कुछ भी हो, लेकिन अपकेंद्री पंपों में निकास द्वार पर होनेवाली दाब उसके वेग पर ही निर्भर करती है। अत: यदि निकास द्वार पर द्रव का वेग पंप के वेगानुपात से कम है तो अवश्य ही पंप की शक्ति का अपव्यय हो रहा है। उदंचित द्रव के धनत्व, ताप और श्यानता तथा उसमें किसी प्रकार की गैस मिश्रित होने पर दबाव में कमी बेशी हो जाती है।

1. प्रत्यागामी पंप  इन पंपों का वर्गीकरण इनकी बनावट तथा कार्यप्रणाली के अनुसार भी किया जाता है, यथा (1) जिन पंपों में पिस्टन के केवल एक ही तरफ से चूषण होता है और फिर उधर से ही निष्कासन भी होता है उन्हें एकक्रिया (Single acting) पंप कहते हैं, (2) जिनमें पिस्टन के दोनों ओर से चूषण और निष्कासन पृथक्‌ पृथक्‌ होता है उन्हें द्विक्रिया (Double acting) पंप कहते हैं, (3) जिनमें द्विक्रिया रीति से काम करनेवाला एक ही सिलिंडर होता है उन्हें सरल (Simplex) पंप कहते हैं, (4) जिनमें दो अथवा तीन द्विक्रिया सिलिंडर एक साथ लगे होते हैं उन्हें क्रमश: डुप्लेक्स और ट्रिप्लेक्स (Duplex & Triplex) द्विक्रिया पंप कहते हैं, (5) जिनमें पिस्टन दंड के ऊपर वाष्प आदि का सीधा दबाव डालकर काम किया जाता है उन्हें प्रत्यक्ष क्रिया (Direct acting) पंप कहते हैं तथा (6) जिन पंपों में घूमनेवाले क्रैंक और संयोजक दंड के द्वारा, या घिरनी के द्वारा, काम लिया जाता है उन्हें परोक्ष क्रिया (Indirect acting) पंप कहते हैं।

प्रत्यागामी पंपों की धारित 


एकक्रिया पंप में जब पिस्टन वापस लौटता है उसी समय यह सिलिंडर में से पानी फेंकता है। अत: इस पानी का आयतन पिस्टन के क्षेत्रफल और दौड़ की लंबाई के गुणनफल के बराबर होता है। साधारण व्यवहार के लिए निम्न सूत्र से गणना की जा सकती है :

धारिता  गैलन प्रति मिनट,

यहाँ व (d)  पिस्टन का व्यास इंचों में, ल (S)  पिस्टन की दौड़ इंचों में, स (N) दौड़ों की संख्या प्रति मिनट। इस सूत्र से प्राप्त होनेवाली धारिता सैद्धांतिक धारिता से लगभग 3 प्रति शत कम आती है, लेकिन व्यवहार में वाल्व आदि से कुछ पानी चूकर वापस निकल जाता है, अत: यदि इसपर विचार किया जाय तो उक्त सूत्र ठीक ही जँचता है, जब कि पंप खूब अच्छी हालत में हो।

द्विक्रिया सरल पंप की धारिता  इस प्रकार के पंपों में पिस्टन के आगे और पीछे दोनों तरफ चलते समय द्रव का विस्थापन होता है, लेकिन जिधर पिस्टन दंड लगा रहता है उधर वह भी कुछ जगह रोकता है जिससे उधर का आयतन कुछ कम हो जाता है। यदि इस बात का विचार न किया जाय तो इस प्रकार के पंप की धारिता एकक्रिया पंप से दुगुना होती है, जबकि दोनों पंपों का व्यास समान हो। व्यवहार में इस बात पर विचार करते समय पिस्टन दंड के क्षेत्रफल को दोनोंं तरफ आधा बाँट दिया जाता है।

डुप्लेक्स पंपों की धारिता  इस प्रकार के पंपों में दो सिलिंडर एक साथ मिलकर काम करते हैं इसलिए इनके द्वारा होने वाले द्रव का विस्थापन एकक्रिया पंप सें चार गुना होगा।

जल अश्वशक्ति (Water Horse Power) और दक्षता (Efficiency) 


पानी को ऊपर उठाने में पंप जो उपयोगी कार्य करता है उसे उसकी जल अश्वशक्ति कहते हैं। पंप द्वारा निष्कासित जल की पाउंडों में तथा शीर्ष की फुटों में गणना करके, इन दोनों के गुणनफल को 33,000 से भाग दे देना चाहिए। एक घनफुट पानी में 62.5 पाउंड और एक गैलन में 10 पाउंड होते हैं।

पंपों की दक्षता इनकी जल अश्वशक्ति और रोषक अश्वशक्ति की अनुलोमानुपाती होती है। अर्थात्‌ पंप की रोधक अश्वशक्ति (Brake Horse Power) जानने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जा सकता है :

यहाँ म (Q)  विस्थापित पानी की मात्रा प्रति मिनट गैलनों में, श (H)  वास्तविक शीर्ष फुटों में, क्ष (E)  पंप की दक्षता। यदि इस रोधक अश्वशक्ति को पंप की प्रदर्शित अश्वशक्ति में से घटा दिया जाय तो शेष घर्षण अश्वशक्ति बच रहेंगी। पंप की यांत्रिक दक्षता जानने के लिए उसकी रोधक अश्वशक्ति को उसकी प्रदर्शित अश्वशक्ति से जो उसमें नियोजित की जाती है, भाग दे देना चाहिए।

पंपों की दक्षता, उनकी बनावट, आकार और कार्य की परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। उदाहरण के लिए बायरल में 200 से 400 पाउंड प्रति वर्ग इंच की दाब पर पानी पहुँचानेवाले साधारण एक सिलिंडर युक्त पंप की दक्षता 88 से 90 प्रतिशत तक हो सकती है, लेकिन वही पंप यदि 20 से 40 पाउंड दाब के विरुद्ध पानी पहुँचाए तो उसकी दक्षता 80 प्रति शत तक ही रह जाएगी। दूसरे एक ही प्रकार की बनावट के छोटे पंप उसी प्रकार के बड़े पंपों से कम दक्ष हुआ करते हैं, क्योंकि उनके चलाने में घर्षण तो लगभग उतना ही हो जाता है किंतु उनकी धारिता कम होने के कारण उपयोगी कार्य कम होने पाता है। साधारण कार्यों के लिए एक सिलिंडर युक्त पंप अच्छा, सस्ता और भरोसे योग्य समझा जाता है, लेकिन द्वियुग्मी पंपों की अधिक धारिता होने के अतिरिक्त विशेष लाभ यह है कि उनके दोनों सिलिंडरों में पिस्टनों की दौड़ इस प्रकार से अतिव्यापी (overlapping) होती हैं कि उनके प्रदायी तरल पदार्थ का बहाव लगातार एक सा रहता है।

वायुप्रकोष्ठ का आकार 


चित्र 3 (ख) के अनुसार वायुप्रकोष्ठ इतना बड़ा होना चाहिए कि प्रदायी द्वार से बहती हुई धारा पर पिस्टन के झटके के प्रभाव को सँभालने योग्य वायु संचित कर सके। अत: वायुप्रकोष्ठ का भीतरी व्यास पिस्टन के व्यास से कम नहीं होना चाहिए और उसकी न्यूनतम ऊँचाई निम्नलिखित सूत्र के अनुसार रखी जाती है।

न्यूनतम ऊँचाई यहाँ व (d)  वायुप्रकोष्ठ का भीतरी व्यास इंचों में और द (P)  पानी की दाब प्रति वर्ग इंच पाउंडों में है।

द्विक्रिया पंपों के चूषण और भरण वाल्व चित्र 5. में दिखाए गए है, जो खुलते समय तो पानी की दाब से खुल जाते हैं और बंद होते समय पानी की दाब और कमानी दोनों ही सहायता करती हैं। आकृति 5 (क) में पिस्टनयुक्त पंप का एक भाग दिखाया है और आकृति 5 (ख) में अवगाहक (plunger) युक्त पंप है।

प्रत्यक्ष क्रिया पंप (Direct Acting Pump) 


इसमें पानी खींचनेवाले पिस्टन की शक्ति किसी घूमनेवाले क्रैंक और संयोजक दंड से न आकर सीधी वाष्प सिलिंडर के पिस्टन से आती है, अर्थात्‌ वाष्प और पानी के पिस्टनों का पिस्टन दंड एक ही होता है। अत: इसमें विशेष महत्व की वस्तु वाष्प सिलिंडर को वाष्प पहुँचानेवाला वाल्व-गति-यंत्र ही है, जिसे पंप निर्माता अनेक प्रकार से बनाते हैं, लेकिन रचना चाहे कैसी भी हो, इसके वाल्ब दो श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं। एक प्रकार के वाल्व तो स्वचालित होते हैं जिन्हें वाष्प ही अपनी दाब से इधर उधर सरक देता है। दूसरे प्रकार के वाल्ब यंत्र की सहायता से चलते हैं और इस वाल्ब को चलाने की शक्ति पिस्टन दंड से प्राप्त की जाती है। स्वचालित बाल्व कभी अकेला नहीं लगता, वरन्‌ उसे यंत्रचालित वाल्व के साथ ही लगाया जाता है, जैसा कि वेयर के पंप में देखा जाता है।

परोक्ष क्रिया पंप 


ये पंप इंजन अथवा मोटर कीशक्ति से पट्टों, अथवा किर्रों, द्वारा चलाए जाते हैं। इनके पानी का पिस्टन, क्रैंक और संयोजक दंड की सहायता से, चलता है। यह पंप खड़े, आड़े एक अथवा अनेक सिलिंडरों से युक्त भी होते हैं। जहाँ थोड़ी मात्रा में पानी उठाना हो, जैसे जलचालित यंत्रों के लिए, तथा जहाँ बिजली की शक्ति प्राप्त हो वहाँ इसी प्रकार के पंप उपयुक्त समझे जाते हैं। इन्हें प्रत्यक्षक्रिया पंपों की अपेक्षा तेज गति से भी चलाया जाता है, अर्थात्‌ इनके क्रैंक का धुरा 100 चक्कर प्रति मिनट तक घूम सकता है।

अपकेंद्री पंप 


ये पंप पंखेनुमा होते हैं, जो घूमते हुए अपकेंद्रीय बल के द्वारा काम करते हैं, अर्थात्‌ इनकी पंखुड़ियों के तेजी से घूमने के कारण इनके संपर्क में आने वाले द्रव को भी उच्च वेग प्राप्त हो जाता है। यह द्रव आंतरनोदक (impeller) पंखें के केंद्र में बने मार्ग से प्रविष्ट होकर अपकेंद्री बल के द्वारा बाहर फेंक दिया जाता है। पंखे की परिधि के चारों ओर क्रमश: बड़ा होता हुआ एक सपिंल (volute) मार्ग बना होता है, जिसमें से गुजरते समय द्रव को प्राप्त हुई गतिज ऊर्जा का अधिकांश दाब में परिणत हो जाता है। जिन पंपों में कई आंतरनोदक पंखें लगे होते हैं, उनकी पंखुड़ियों के बीच के मार्ग क्रमश: अधिकाधिक चौड़े होते चले जाते हैं, जिनके कारण द्रव को प्राप्त हुई गतिज ऊर्जा छितरने नहीं पाती। इन्हें बहुक्रमीय (multistage) पंप कहते हैं।

आंतरनोयक पंखे 


इनकी पंखुड़ियाँ खुली हुई भी होती हैं और ढकी हुई थी। जिनमें खुली पंखुड़ियाँ होती हैं, उनमें तो केंद्र के एक ही तरफ से द्रव का प्रवेश होता है और जिनमें ढकी हुई होती है उनमें केंद्र के दोनों तरफ से द्रव का प्रवेश होता है।

पंपों की खोल 


खोल की बनावट के अनुसार पंपों को दो समूहों में बाँटा जाता है। एक तो सर्पिल मार्ग, पंखुड़ीयुक्त पंप, जिसकी चर्चा की जा चुकी है, और दूसरा मार्ग प्रदर्शक पंखुड़ीयुक्त पंप है। ये क्रमश: चित्र 6 (क) और (ख) में दिखाए गए हैं। सर्पिल मार्ग पंखुड़ीयुक्त पंपों में इनका आंतरनोदी द्रव को त्रिज्यीय दिशा में धूर्णनी बल प्रदान करता है। इस कारण यह द्रव आंतरनोदी की बाहरी परिधि की तरफ जाने को बाध्य होकर खोल की परिधि से टकराता है, जिससे इसकी गतिज ऊर्जा, दाब में परिणत हो जाती है और द्रव सर्पिल मार्ग में से होता हुआ प्रदाय मार्ग से बड़ी दाब के साथ निकलता है। इस प्रकार के पंप सिंचाई, मलप्रवाह और कीचड़ आदि को स्थानांतरित करने तथा नित्य प्रति के साधारण काम काज में, जहाँ द्रवों का घूर्णन ही मुख्य उद्देश्य होता है, अधिक उपयोगी होते हैं।

मार्गप्रदर्शक पंखुड़ीयुक्त पंपों में, आंतरनोदी से बाहर निकलने के बाद द्रव के बहिर्प्रवाह के लिए, मार्ग सर्पिल न बनाकर एक सी चौड़ाई का बनाया जाता है और आंतरनोदी की परिधि के बाहर और इस गोल मार्ग के बीच कई पंखुड़ियाँ स्थिरतापूर्वक और लगी रहती हैं (चित्र 6 ख), जो घूमतीं नही। अत: आंतरनोदी में से निकलने के बाद, अपकेंद्री बल से युक्त होकर द्रव पंखुड़ियों में से होकर गुजरता है, जहाँ पर इसक गतिज ऊर्जा, स्थैतिक दबाव में परिणत हो जाती है और यह गोल मार्ग में प्रवेश करके बाहर निकल जाता है। इस प्रकार के पंप को टरबाइन पंप भी कहते हैं, क्योंकि इसकी बनावट प्रतिक्रियात्मक टरबाइन जैसी ही होती है, लेकिन इसका काम उससे उलटा होता है। उदंचित द्रव का संपूर्ण शीर्ष 200 फुट से अधिक होने पर, सर्पिल मार्ग युक्त पंप के आंतरनोदी की गति अत्यधिक हो जाती है। अत: ऐसे अवसरों पर मार्गप्रदर्शक पंखुडीयुक्त पंप का ही प्रयोग किया जाता है, यदि आवश्यक हो तो इसे भी बहुक्रमीय बना देते हैं। इस संबंध में स्पष्ट बात यह है कि जब उदंचित द्रव के शीर्ष की अपेक्षा उसका आयतन अधिक हो तब तो सर्पिल मार्ग पंखुडीयुक्त पंप का प्रयोग किया जाता है और जब द्रव के आयतन की अपेक्षा शीर्ष अधिक हो तो मार्गप्रदर्शक पंखुड़ीयुक्त पंप का प्रयोग किया जाता है।

अपकेंद्री पंपों की दक्षता 


किसी प्रकार के अपकेंद्रीय पंप का उचित व्यावहारिक सीमाओं के भीतर यदि हम परीक्षण करें तो मालूम होगा कि पंप के शीर्ष, शक्ति, के व्यय, दक्षता और तदनुसार प्रदाय की मात्रा में पंप की एक विशेष चाल पर आपस में एक निश्चित अनुपात बना रहता है। अत: किसी भी पंप में (1) पंप की धारिता उसकी चाल के, (2) प्रदायित द्रव की दाब उसकी चाल के वर्ग के तथा (3) पंप की रोधक अश्वशक्ति उसकी चाल के धन के अनुसार अनुलोभत: परिणामी होती है।

शीर्ष और पंप की चाल का संबंध निम्नलिखित सूत्र से जाना जा सकता है :

जहाँ स (N)  आंतरनोदी के प्रति मिनट चक्करों की संख्या, व (D)  आंतरनोदी का व्यास इंचों में (पंखुड़ियों के छोर पर), शी (H)  शीर्ष फुटों में, तथा न (K)  नियतांक।

नियतांक का मान, पंप की द्रवचालित अभिकल्पना (hydraulic design) के अनुसार बदलता रता है, जो 1.05 से 1.2 तक रहता है। ऊँचे अंक उन्हीं पंपों के लिए प्रयुक्त होते हैं जो साधारण दक्षता से ऊपर काम करते हैं अथवा जिनकी पंखड़ियों का कोण कम अंशों का होता है।

आंतरनोदियों की विभिन्न प्रकार की पंखुड़ियाँ चित्र 6 की ग, घ और च आकृतियों में दिखाई हैं, जो सब एक में ढली हुई हैं। बड़े पंपों में ये लोहे की चादर को अलग अलग मोड़ अथवा ढालकर भी लगाई जाती हैं।

पंपों का अपक्रामण (Priming) 


कोई भी द्रव पंप में तब तक स्वत: बहकर नीचे से ऊपर की ओर नहीं आ सकता, जब तक चूषण प्रणाली से हवा अथवा उस द्रव की भाग (vapour) को बाहर नहीं निकाल दिया जाता, जिससे भीतर की दाब बाहर की दाब से कम हो जाय। चालू किए जाने पर प्रत्यागामी और घूर्णनी पंप स्वत: ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं, किंतु अपकेंद्री पंप ऐसा नहीं कर सकते। उनके लिए आवश्यक है कि उदंधित किया जानेवाला द्रव उनकी पहली पंखुड़ी तक भरा हो, तभी ये अपकेंद्री जल के द्वारा उस द्रव को गति प्रदान कर उसमें बहाव उत्पन्न कर सकते हैं। इसी कारण उन्हें धनात्मक उद्वाह पर लगाना आवश्यक हो जाता है, लेकिन ऐसा करना व्यवहार में सदैव साध्य नहीं होता। अत: उनके चूषण नल में से हवा आदि को निकालकर निर्वात करने के लिए जिन प्रयुक्तियों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें अपक्रामण प्रयुक्ति कहते हैं। कई पंपों में इस प्रकार की प्रयुक्तियाँ उसी के मुख्य अंग में बनी होती हैं। इस कारण उन्हें स्वापक्रामण पंप कहते हैं। कई पंपों में ये अलग से लगाई जाती अथवा की जाती हैं। कई पंपों में तो यह काम वाष्पचालित वायुनिर्वातक से होता है और कई में यंत्रचालित निर्वातक पंप से किया जाता है, जो उसी पंप की मोटर से पट्टे द्वारा चलाया जाता है। इस प्रकार के निर्वातक का प्रयोग करते समय पंप की धुरी में कुछ अंतराल (clearance) रखा जाता है, क्योंकि जब तक चूषण प्रणाली की सारी हवा नहीं निकल जाती तब तक पंप के पखे को व्यर्थ ही सूखा चलना पड़ता है। ये यंत्र भी तीन प्रकार के होते हैं, प्रथम तो पिस्टनयुक्त प्रत्यागामी, दूसरे नियत क्रियांगी घूर्णनी प्रकार के (positive action rotary type), जो अलग पंखें के रूप में होते हैं और तीसरे घूर्णनी द्रव कुंडलीयुक्त, जिन्हें चालू करने के पहले उनकी कुंडली में थोड़ा पानी भरना होता है।

विशेष प्रकार के अपकेंद्री पंप  (1) दोहरे चूषवाले ऋजुक्रमीय पंपों की धारिता 25,000 गैलन प्रति मिनट, 300 फुट शीर्ष के विरुद्ध तक काम करने की होती है। बहुक्रमीय पंप भी ऋजुक्रमीय पपों के समान ही होते हैं, लेकिन उनमें एक ही चूषण प्रणाली के साथ दो आंतरनोदी लगे रहते हैं। इनकी पीठ एक दूसरे की तरफ होती है, जिससे पंप की धुरी का जलीय संतुलन बना रहे। इसमें प्रथम आंतरनोदी का प्रदायित जल दूसरे आंतरनोदी नेत्रद्वार द्वारा प्रवेश कर फिर वहाँ से सर्पिल निष्कासन मार्ग में से होकर निकास प्रणाली में चला जाता है। जहाँ बहुत भारी काम उच्च दक्षता के साथ करवाना हो, वहाँ इनमें एक के बाद, दस आंतरनोदी तक लगा दिए जाते हैं।

(2) उच्च शीर्ष के वरीवर्त्त पंप भी बहुक्रमीय होते हैं जिनके द्वारा जितना भी शीर्ष देना हो उसी के अनुसार आंतरनोदियों की संख्या रखी जाती हैं। यह अधिक से अधिक दस तक होती है।

(3) उच्च दाब विसारक पंप (High pressure diffuser pump) 1,400 पाउंड प्रति वर्ग इंच से ऊँची दाबों पर भी 440 सें. तक के ताप के द्रव पर काम कर सकते हैं। इनकी धारिता 2,000 गैलन प्रति मिनट तक पहुँच जाती है।

इन पंपों का प्रयोग पराउच्चदाबयुक्त वाष्प बायलरों में उबलते पानी का घूर्णन करवाने के लिए किया जाता है, जिनके वाष्प की दाब ही 1,600 पाउंड प्रति वर्ग इंच तक पहुँच जाती है। इस प्रकार के पंपों में एक महत्वपूर्ण गुण यह भी है कि इनके चलते त्रिज्यीय आघात (radial thrust) अत्यंत ही कम होता है और इनके ढोल की रचना इतनी संतुलित होती है कि उदंचित द्रव बिना किसी मार्गाविरोध के क्रमानुसार आगे बढ़ता और शक्तसंचय करता चला जाता है। इनके आंतरनोदियों को अलग अलग बनाकर चाभी और खाँचों द्वारा धुरी पर सही सही बिठा दिया जाता है और बीच बीच में चिरे हुए वलय लगा दिए जाते हैं।

(4) जलवलय वायु पंप (Water Ring Air Pump) 


अपक्रामण के प्रसंग में इनका उल्लेख किया गया था, लेकिन यही नहीं, इनकी सहायता से बहुत ऊँची कोटि का निर्वात भी उत्पन्न किया जा सकता है, जिसकी उत्कृष्टता आंतरनोदी के व्यास ओर चाल पर निर्भर करती है। यह विशुद्ध वायु के निर्वात के अतिरिक्त द्रवों और उनके साथ गैसों के मिश्रणों को भी उदंचित कर सकते हैं और यदि चाहें तो केवल द्रव को भी।

अक्षीय प्रवाह पंप (Axial Flow Pump) 


जिस प्रकार चालक पेंच के पंखे द्वारा समुद्रजल में प्रवाह उत्पन्न करके जहाजों को चलाया जाता है, उसी सिद्धांत पर ये पंप बनाए जाते हैं। जहाँ कम ऊँचाई पर अधिक मात्रा में द्रव उदंवित करने के लिए अपकेंद्री पंप असुविधाजनक हों वहाँ इनका प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इनमें प्रणोदक (propeller) की उच्च गति सरलता से प्राप्त हो जाती है और यंत्र भी अपकेंद्री पंप से हलका होता है। ये कम शक्ति की मोटर से ही चल जाते हैं, फिर भी इनकी दक्षता अपकेंद्री पंपों के समकक्ष रहती है। इनका उपयोग ऐसी विशेष परिस्थितियों में भी किया जाता है, जहाँ शीर्ष तो निरंतर परिवर्तित होता रहे, लेकिन गति वही बनी रहे जैसे कुओं अथवा ज्वार भाटे का पानी खाली करने के लिए और अन्य इस प्रकार के उद्योगों में भी जहाँ हौजों के द्रव में परिवहन चालू रखना आवश्यक होता है, जैसे निस्यंदकस्तर (filterbeds), मलप्रवाही शोधन (sewage purification) अथवा बायलरों में जहाँ उष्ण जल का बलात्‌ परिवहन दाब के विरुद्ध करना पड़ता है। इन पंपों में तीन ही भाग मुख्य होते हैं : (1) प्रवेश-मार्ग-दर्शक पंखुड़ियाँ। वैसे देखने में तो यह जहाजी प्रणादक पेचों के समान ही लगता है, लेकिन सिद्धांत में इससे कुछ भी साम्य नहीं होता। जहाजों के प्रणोदक तो शून्य स्थैतिक शीर्ष पर काम करते हैं, जिनकी रचना सर्षण (slip) और नोद (thrust) के सिद्धांत पर होती है, लेकिन इन पंपों को लगातार किसी शीर्ष के विरुद्ध द्रवों को प्रेरित करना होता है। इन पंपों के साधारण चाल से घूमते समय, प्रणोदक की पंखुडियों द्वारा द्रववेग वृद्धि को प्राप्त कर निकास मार्ग में लगी हुई विशेष आकार की पंखुड़ियों में से होकर जब जाता है, तब द्रव की गति दाब में परिणत हो जाती है। द्रव की गति जितनी ही तेज होगी, उतना हो वह उन पंखुड़ियों में उलझकर अधिक दाब प्राप्त करेगा, जिसे पंप शीर्ष के रूप में व्यक्त करते हैं, और उसी दाब की प्रतिक्रिया के रूप में चूषण होगा। जहाँ चूषण प्रणाली पूरी होती है, वहाँ भरणशीष अधिक से अधिक 30-40 फुट तक हो सकता है।

घूर्णनी पंप (Rotary pump) 


घूर्णनी पंप भी विस्थापन पंप ही समझे जाते हैं, जिनमें किसी एक प्रकार का रोटर (rotor) होता है, जो उस पंप के यंत्र में लगे पिस्टनों अथवा मज्जकों, बेलनों अथवा किरों को चलाता है, इनके कारण द्रव का विस्थापन हो जाता है। इनका प्रयोग बहुधा श्यान (viscous) द्रवों को विस्थापित करने के लिए किया जाता है। इनकी बनावट बहुत ही संहत (compact) होती है और इनका अपक्रमण भी स्वत: ही हो जाता है और किसी प्रकार के वाल्व की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये थोड़ी मात्रा में द्रव अधिक शीप के विरुद्ध, और अधिक मात्रा में द्रव अल्प शीर्ष के विरुद्ध, विस्थापित कर सकते हैं। इसी कारण इनका प्रयोग इंजन सिलिडरों के शीतक खोल में पानी पहुँचाने, बेयरिंगों में तेल पहुँचाने, जल-दाब-चालित यंत्रों, प्रेसो, क्रेनों ओर गतिपरिवर्तक किरों को चलाने में किया जाता है।

किर्रे युक्त पंप 


चित्र 7. में कई प्रकार के घूर्णनी पंप दिखाए गए हैं, जिनमें से कुछ तो एक धुरे से युक्त है और कुछ दो धुरे से। एक धुरे युक्त पंप तो मोटर से अथवा पट्टा या बाहर की ओर किर्रे लगाकर प्रत्यक्ष रीति से चलाए जा सकते हैं। दो धुरे से युक्त पंपों में दो समांतर धुरे किरों द्वारा एक दूसरे की विरुद्ध दिशा में चलाए जाते हैं। इनके भीतर भी विशेष आकृति के किर्रे अथवा बेलन लगे होते हैं, जो एक दूसरे से जुटकर एक सही सही बनी खोल में परिवेष्टित होकर चलते हैं। भीतरी किर्रे अंतर्वलित वक्र द्वारा बने दांतों के होते है, जिनकी संख्या कम से कम दो और अधिक से अधिक आठ या दस तक होती है और अपनी सही सही बनी खोल को हलके हलके छूते रहते हैं। इस खोल के नीचे और ऊपर अथवा दोनों पार्श्वों में एक एक मार्ग द्रव के प्रवेश और निष्कासन के लिए बना होता है। इन्हें प्राय: बहुत गाढ़े द्रवों को स्थानांतरित करने के ही काम में लाया जाता है। इनकी धारिता 2 से लेकर 60,000 गैलन प्रति मिनट तक होती है और प्रदाय प्रणाली की दाब 5 से लेकर 400 पाउंड प्रति वर्ग इंच तक।

पेंच युक्त घूर्णनी पंप भी उपरिवर्णित किर्रे युक्त पंपों के समान ही होते हैं, जिनकी खोल के भीतर किर्रों के बदले, दो समांतर धुरियों पर विशेष आकृति की क्रमश: सीधी और उलटी चूड़ियाँ बनाई जाती हैं, तो धुरियों के घूमते समय एक दूसरे के खाँचों (grooves) पर बैठकर चलती हैं। पेचों की चूड़ियों के संपर्क तलों को घिसकर इतना सही बनाया जाता है कि उनके बीच सब जगह एक सा, बड़ा ही सूक्ष्म अंतराल रहता है, जिससे न तो वे स्वयं ही एक दूसरे के संपर्क में आते हैं और न खोल के ही संपर्क में आते हैं। इन्हें इस प्रकार समायोजित किया जाता है कि एक पेंच के खाँच के और दूसरे पेंच के खाँच, जो उससे सटकर बैठता है, बीच में थोड़ा समयांतर (time difference) रहता है। इस कारण उनमें द्रव भर जाता है और फिर जैसे जैसे ये घूमते हैं, यह द्रव आगे सरकता है, उन खाँचों द्वारा चूषण प्रणाली में से और द्रव पकड़ लिया जाता है तथा उसकी धारा बनकर निरंतर निर्बाध गति से बिना किसी झटके के भरण मार्ग में से बहती रहती है। इन पेंचों में जलीय संतुलन भी बड़ा अच्छा बना रहता है, क्योंकि द्रव का दबाव उनके बीच के भाग से दोनों तरफ बराबर ही पड़ता है।

सं.ग्रं.  एम. पोविस बेल : पंप्स ऐंड पंपिंग, क्रॉसनी लॉकवुड ऐंड संस, लंदन; एफ. ए. क्रिस्टल ऐंड ऐफ. ए. ऐनट : पंप्स्‌, मैकग्रॉहिल पब्लिशिंग कंपनी, न्यूयार्क।

(ओंकारनाथ शर्मा)

Hindi Title


विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)




अन्य स्रोतों से




संदर्भ
1 -

2 -

बाहरी कड़ियाँ
1 -
2 -
3 -