प्राणिपारिस्थितिकी (Animal Ecology)

Submitted by Hindi on Mon, 08/22/2011 - 12:33
प्राणिपारिस्थितिकी (Animal Ecology) जीवाणु से लेकर विशालकाय हाथी तक प्रत्येक छोटे-बड़े जीवित प्राणी की एक विशिष्ट जीवनपद्धति होती है, जो उसकी बनावट, शारीरिक क्रिया तथा पर्यावरण के भौतिक, मौसमी तथा जैव कारकों पर निर्भर होती है। जीवों और उनके पर्यावरण के अंत:संबंधों का अध्ययन प्राणिपारिस्थितिकी की विषयवस्तु है।

वृद्धि, उपापचय (metabolism) तथा अन्य बहुत सी क्रियाओं के लिए जीव सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। वनस्पतियाँ इस ऊर्जा को विकीर्ण सूर्यप्रकाश से प्राप्त करती हैं और अपनी कोशिकाओं में पर्णहरित (chlorophyll) की प्रकाश-संश्लेषण-क्रिया से कार्बोहाइड्रेट, वसा और प्रोटीन का संश्लेषण करती हैं। वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट में स्थित ऊर्जा प्राणियों के काम आती है, क्योंकि आहार का संश्लेषण कुछ प्रोटोजोआओं (protozoa) को छोड़कर अन्य सभी प्राणी नहीं कर सकते। अत: प्राणिसमुदाय में प्राणियों की संख्या और उनका प्रकार परिस्थितियों (environments) से सीधे नियंत्रित होता है और अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों को प्रभावित करने वाले कारकों से नियंत्रित होता है, क्योंकि प्राणी आहार, आवास और प्रजनन के लिए इन वनस्पतियों पर निर्भर करते हैं। वनस्पति और प्राणियों के शरीर का निर्माण करनेवाले तत्व पर्यावरण से प्राप्त होते हैं और जीवों के निरंतर पैदा होते और मरते रहने के कारण इन तत्वों का अबाध रूप से विनिमय होता रहता है।

प्रकृति में रासायनिक चक्र


कार्बन - यह उन सभी कार्बनिक यौगिकों में पाया जाता है जिनसे जीवद्रव्य (protoplasm) बनता है। हवा या पानी में स्थित कार्बन डाइऑक्साइड से कार्बोहाइड्रेटों का संश्लेषण होता है। ये कार्बोहाइड्रेट वसा और प्रोटीन से मिलकर ऊतक बनाते हैं। जब इन वनस्पतियों को वनस्पतिभक्षी प्राणी खा जाते हैं तब ये कार्बन के यौगिक, पाचन तथा अवशोषण के बद, जांतव जीवद्रव्य के रूप में पुनर्गठित हाते हैं। क्रम से यह जांतव जीवद्रव्य दूसरे प्राणियों में जाता है। प्राणियों में भंजक उपापचय गारा उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड श्वसन अपशिष्ट (respiratory waste) के रूप में निकलकर हवा या पानी में लौट जाता है।

ऑक्सीजन - ऑक्सीजन प्रक्रम (oxidative process) के लिए प्राणी ऑक्सीजन पानी या हवा से सीधे प्राप्त करते हैं और फिर कार्बन से संयुक्त होकर कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में या हाइड्रोजन से संयुक्त होकर पानी के रूप में यह वातावरण में लौटता है। वनस्पतियों द्वारा प्रयुक्त कार्बन डाइऑक्साइड से ऑक्सीजन वातावरण को लौट आता है। लेकिन संतुलित जलजीवशालाओं में देखा गया है कि वनस्पतियाँ भी कुछ ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन में करती है।

वायुमंडलीय नाइट्रोजन - इसे मिट्टी या कुछ फलियों की मूलग्रंथिकाओं (root nodules) में स्थित नाइट्रीकारी जीवाणु (nitrifying bacteria) नाइट्रेट में बदल देते हैं। पौधे नाइट्रेटों का उपयोग करके वनस्पति प्रोटीन बनाते हैं। ये वनस्पति प्रोटीन की सड़न की क्रिया से मिट्टी में पहुँच जाते हैं, या पशुओं द्वारा खाए जाने पर जांतव प्रोटीन में बदल जाते हैं।

अपचय (catabolism) के दौरान में, जांतव प्रोटीन यूरिया प्रधान नाइट्रोजनी अपशिष्ट के रूप में विभक्त हाकर प्राणियों के बाहर आ जाते हैं। भूमिजीवाणु और अन्य जीवाणु इस यूरिया के अमोनिया और नाइट्राइट में परिवर्तित कर देते हैं। जीवाणुओं की क्रिया के कारण नाइट्रोजन या तो वायु में चला जाता है, या नाइट्राइट, अथवा नाइट्रेट में परिवर्तित हो जाता है।

खनिज - वनस्पति अपनी जड़ों से कुछ अकार्बनिक पदार्थ प्राप्त करते हैं, जो वनस्पति के सड़ने पर भूमि में वापस लौटते हैं। प्राणियों को आहार्य वनस्पतियों और पानी से खनिज प्राप्त होते हैं। प्राणियों के उत्सर्जन, विष्ठा और मरणोपरांत शरीर के सड़ने से खनिज भूमि या पानी में लौटता है।

पानी - यह जीवों की सभी उपापचय क्रियाओं के लिए आवश्य जीवद्रव्य का सारतत्व है। यह कोशिकाओं द्वारा अवशोषण करने या उत्सर्जन के लिए पदार्थों के वाहन का काम करता है। प्राणियों की पाचनक्रिया में पानी के रासायनिक उपयोग से जलअपघटन (hydrolysis) द्वारा मंड (starch) शर्करा में परिणतश् होता है और ऑक्सीकर प्रक्रमों से ऊतकों में उपापचयी पानी बनता है।

जलवायु संबंधी कारक


उष्ण कटिबंध में कुछ स्थलों तथा समुद्रों में पर्यावरण लगभग स्थिर रहता है, परंतु पृथ्वी के विशाल विस्तार में ताप, आर्द्रता और सूर्यप्रकाश हर मौसम में बदलते रहते हैं। ये परिवर्तन विभिन्न प्राणियों को अनेक प्रकार से प्रभावित करते हैं। प्राणी की प्रत्येक जाति का जीवनचक्र वातावरण के जलवायु की दशाओं के अतिशय अनुकूल होता है।

ताप - पक्षियों और स्तनपायियों का शरीर पूर्णत: ऊष्मारोधी होता है। ये नियततापी प्राणी हैं, अत: इनपर तापपरिवर्तन का प्रभाव शायद ही होता है। परंतु इनके खाद्य पदार्थ पर जाड़े की ठंढक और ग्रीष्म की गर्मी का असर हो सकता है।

कीटभक्षी पक्षी तथा अन्य प्राणी, जो उत्तर ध्रुवीय और शीतोष्ण प्रदेशों में गर्मियाँ बिताते हैं, जाड़ों में उपयुक्त आहार के लिए गर्म देशों मे चले आते हैं। ऊँचे पहाड़ों पर गर्मी बितानेवाले प्राणी जाड़ों में निम्न भूमि पर चले आते हैं।

गिलहरी, भालू और कुछ कीटभक्षी चमगादड़ों को जब गर्म मौसम के आहार सर्दियों में नहीं मिलते तब वे शीतनिष्क्रियता (hibernation) का सहारा लेते हैं। शीतनिष्क्रियता की स्थिति में प्राणियों का ताप गिरकर आश्रयस्थल के ताप के बराबर हो जाता है, श्वसन मंद हो जाता है, उपापचय घटता है और ये उसी वसा के सहारे जीवित रहते हैं, जो शीतनिष्क्रियता के पूर्व उनके शरीर में संचित हो जाती है।

सरीसृप, उभयचर, मछलियाँ, कीट और अन्य अकशेरुकी (invertebrates) अनियततापी प्राणी हैं और इनके शरीर का ताप इनके वातावरण के ताप के लगभग बराबर होता है। वातावरण के ताप का प्रत्यक्ष प्रभाव इन प्राणियों पर पड़ता है और गर्मी से इनका उपापचय, वृद्धि और क्रियाशीलता तीव्र हो जाती है तथा ये सभी ठंढक से मंद पड़ जाते हैं। इस दृष्टि से उपर्युक्त प्राणियों की प्रत्येक जाति की सीमाएँ हैं। अधिक समय तक हिमीभवन (freezing) होने से या घोर गर्मी पड़ने से ये मर सकते हैं। इनके अधिकांश विकासशील अंडे और लार्वा हिमकारी मौसम में मर जाते हैं, जिनसे इनकी संख्या में ्ह्रास होता है।

सरीसृप और उभयचर गर्मी के मौसम में खाते हैं और वृद्धि करते हैं। ठंडे मौसम में इनके लिए पृथ्वी या जल में शीत निष्क्रियता अनिवार्य होती है, अन्यथा इसके अभाव में ये उन भूभागों में, जहाँ ताप निम्न होता है, जमकर मर जाएँ।

शुष्क प्रदेशों के कुछ साँप, जो वसंत ऋतु में दिन में घूमते फिरते हैं, गर्मियों में असह्य गर्मी से बचने के लिए रात्रिचर हो जाते हैं। शीतऋतु में अलवण जल की अधिकांश मछलियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। समुद्री जीवों पर जलवायु के मौसमी परिवर्तनों का आकस्मिक असर कम इसलिए होता है, क्योंकि समुद्र में ताप कभी चरम स्थितियों पर नहीं पहुँचता। कुछ प्रौढ़ कीट तथा ताजे पानी के क्रस्टेशिया (crustaceans) और रोटिफेरा (rotifera) प्रतिरोधी अंडे देते हैं, जो जल में और स्थल पर हिमांक पर भी जीवित रहते हैं।

तापपरिवर्तन विभिन्न प्राणियों के आहार्य वनस्पतियों की वृद्धि, उत्तरजीविता एवं फलने को प्रभावित करता है। जब बहुत समय तक सर्दी पड़ती है तब घास पत्तों का विकास धीमा हो जाता है, जिससे कीट, कृंतक और चरनेवाले पशुओं के लिए आहारसंकट उपस्थित हो जाता है। यही संकट इनकी उत्तरजीविता की कोटि निर्धारित करता है। अनेक फलों की फसल असामयिक मौसम के कारण घट जाती है, जिससे उनपर निर्भर रहनेवाले पक्षियों को भटकना और भूखों रहना पड़ सकता है।

जल संबंध - अधिकांश जलीय परिस्थितियाँ प्राय: स्थिर रहती हैं, विशेषकर ठंडे देशों में। ऐसी स्थिति में, जाड़ों में पानी जमकर सुरक्षित रहता है और गर्मियों में वाष्पीकरण द्वारा हुई हानि वर्षा से पूरी हो जाती है। गर्म प्रदेशों में वर्षा और हिमपात के उतार-चढ़ाव के कारण छोटी-बड़ी, सभी झीलें समय-समय पर सूख जाती हैं, जिससे मछलियाँ, मेंढक, भेक, बतख और पानी के पास दलदलों में रहनेवाले जीव मारे जाते हैं।

बहती हुई जलधाराओं में प्रवाह के परिवर्तन से भी उसमें रहनेवाले जीवों पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। भीषण बाढ़, और तीव्र प्रवाह अनेक जीवों को मार डालता है। नदियों की शाखाओं में प्रवाह अपर्याप्त होने से पानी शीघ्र गर्म हो जाता है और साथ ही जलजीव स्थलीय परभक्षियों के शिकार बनते हैं। कुछ भेक और कीट बरसाती तालों में प्रजनन करते हैं। वर्षा के कम होने, बेमौसम होने, या तालों के सूखने से छोटे भेक और कीट तथा इनके लार्वा मारे जाते हैं।

आर्द्रता - मिट्टी में रहनेवाले सभी जीव आर्द्रता के जलांश के परिवर्तन से प्रभावित होते हैं। केंचुए तथा कुछ अन्य कीटों के लार्वा सतह की निकटतम मिट्टी में रहते हैं और गर्मियों में सतही परतों के सूखने पर गहराइयों में चले जाते हैं। कृमियों और लार्वाओं पर निर्वाह करनेवाला छछूंदर भी आवश्यकतानुसार उथली या गहरी परतों में आया करता है।

मूल आवश्यकताएँ तथा अन्य बातें


आहार - प्राणियों की आहार की आदतें एक दूसरे से भिन्न होती हैं। प्रप्य की प्रत्येक जाति को आहार की आदतों के अनुसार उचित आहार उचित मात्रा में मिलना चाहिए। मनुष्य, चूहे, घरेलू मक्खियों आदि जीवों की खाद्य आदतों की सामान्यीकरण हो गया है और ये आवश्यतानुसार अपना आहार बदल सकते हैं।

प्राणी की कुछ जातियों की आहार संबंधी खास आदतें होती हैं और ये जातियाँ वहीं रह सकती हैं जहाँ इनका प्रिय खाद्य मिले, जैसे ऊदबिलाव वैतवृक्ष की भीतरी छाल पर, बंद गोभी की तितली का लार्वा क्रूसीफेरी (cruciferous) पौधों की पत्तियों पर और घोड़ामक्खी स्तनपायी के रक्त पर निर्वाह करती हैं। कुछ खाद्य मौसमी होते हैं और इनपर निर्वाह करनेवाले जीव दूसरे मौसमों में आहार बदल देते हैं, या प्रसुप्त हो जाते हैं, प्र्व्राजन करते हैं या फिर मर ही जाते हैं।

शाकाहारी प्राणी ही प्राणिसमुदाय के आधार होते हैं, क्योंकि ये ही दूसरे प्राणियों के खाद्य हैं। इन्हें इनसे शक्तिशाली प्राणी खा जाते हैं। इस प्रकार सूर्य से वनस्पतियों द्वारा प्राप्त की गई मौलिक ऊर्जा आहारश्रृंखला में प्राकृतिक रूप से पारित होती हैं। समुदाय की सभी आहारशृंखलाओं से आहारचक्र (food cycle) बनता है। छोटे से छोटे समुदाय के आहार संबंध भी बहुत जटिल होते हैं, जिन्हें निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है :

(1) तालों में जीवाणु और डायटम (diatom) खाद्य पदार्थ को संश्लेषित करते हैं और इसके फलस्वरूप बड़े जीव छोटे जीवों को आगे लिखे हुए क्रम से खा जाते हैं : जीवाणु और डायटम र छोटे प्रोटोज़ोआ र बड़े प्रोटोज़ोआ र रोटफ्रेिरा और क्रस्टैशिया र जलीय कीट र मछलियाँ। बड़ी मछलियाँ मरने और सड़ने पर जीवाणुओं का खाद्य बनती हैं और इस प्रकार चक्र पूरा होता है।

(2) स्थल पर आहारचक्र निम्नलिखित प्रकार का हो सकता है :

भूमिखनिज, कार्बन डाइऑक्साइड और पानी र पौधे र वनस्पतिभक्षी कीट, कृंतक या चरनेवाले पशु र परभक्षी कीट या छोटे मांसभक्षी प्राणी र बड़े मांसभक्षी। यह चक्र बड़े मांसभक्षियों की मृत्यु और सड़न से पूरा होता है।

प्रत्येक आहारशृंखला में उत्तरवर्ती सदस्य पूर्ववर्ती सदस्य से आकार में बड़े और कुल संख्या में कम होते हैं। शृंखलाएँ सीधी नहीं होतीं, बल्कि इनकी अनेक शाखाएँ और वैकल्पिक कड़ियाँ होती हैं। अत: किसी सदस्य की संख्या में होनेवाले परिवर्तनों का पूर्वानुमान नहीं हो सकता।

आश्रय और प्रजनन के स्थान - खुले पानी के विशाल क्षेत्र में रहनेवाले जीव अपनी उत्कृष्ट गमनशक्ति के कारण शत्रु से बच निकलते हैं, परन्तु छोटे जलाशयों के जीव और स्थलचर, शत्रु और अपनी प्रकृति के विपरीत पर्यावरण से बचने के लिए, आश्रय या निरापद स्थान का सहारा लेते हैं। अनेके छोटे स्तनपायी, पक्षी, छिपकली, कीट आदि चरागाह या पेड़ों के कोटर जैसे आवरणों में रहते हैं। समुद्री मछलियाँ और अकशेरुकी जीव तटीय जल में चट्टानों या प्रवालभित्ति पर रहते हैं। छछूँदर, साँप, कीट और कृषि हमेशा भूमि में रहते हैं। ऐसे स्थानों पर पशु अपने स्वभाव के अनुकूल आहार प्राप्त करते और शत्रु तथा मौसम के कुप्रभावों से बचते हैं।

जीवों की हर जाति को प्रजननस्थान की विशेष आवश्यकता होती है, जहाँश् वे बच्चे या अंडे जनती हैं। कुछ जीव आश्रयस्थल ही पर प्रजनन कर लेते हैं, लेकिन पक्षी और मछलियाँ प्रजनन का स्थान तैयार करते हैं। छोटे जीव अपने उपयुक्त स्थल में प्रजनन करते हैं।

स्पर्धा - आहार के लिए जाति के सभी सदस्यों में गहरी स्पर्धा चलती है। विभिन्न जाति के प्राणियों का आहार भी एक ही होने पर तो स्पर्धा और भी विकट होती है। एक ही चरागाह टिड्डों, वनस्पतिभक्षी कीटों, कृंतकों, खरगोशों और घरेलू मवेशियों की आहारभूमि हो सकता है। खाद्याभाव की स्थिति में, जीवन के लिए संघर्ष तीव्र हो उठता है। प्राणियों की जो जाति निश्चित खाद्य के अतिरिक्त अन्य पदार्थ खा सकती है वह बची रहती है, परंतु जो जाति दूसरा खाद्य नहीं खा सकती उसका अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता है। फसल खराब होने पर अनेक प्राणी भूखों मरते हैं।

शत्रु - आहार की आदतों के अनुसार प्राणी तीन प्रकार के होते हैं : (1) मांसभक्षी, (2) शाकभक्षी और (3) अपमार्जक (scavengers)। मांसभक्षी दो प्रकार के होते हैं : (1) परभक्षी (predators) और (2) पराश्रयी (parasites)। परभक्षी अपने शिकार को मारकर खा जाते हैं, परंतु पराश्रयी प्राय: अपने जीवित परपोषी (host) को खाते ही रहते हैं। आहारशृंखला में प्रत्येक परभक्षी अपने शिकार से बड़ा होता है, जबकि पराश्रयी अपने परपोषी से अवश्य ही बहुत छोटा होता है।

कहा जाता है कि परभक्षी अपने शिकार की संख्या को नियंत्रित रखते हैं। यह भी ठीक है, पर यह संबंध संतुलित होता है। यदि शिकार की जनसंख्या बढ़ती है, तो अधिक परभक्षियों का निर्वाह संभव होता है और फलस्वरूप शिकार की संख्या घटती है और परभक्षियों की बढ़ती है। परभक्षियों के लिए, किसी सीमा तक शिकार का ्ह्रास होना और फिर दूसरे खाद्य की तलाश करना लाभदायक है, अन्यथा आहार के अभाव में उनका अपना ्ह्रास होने लगेगा।

उदाहरणार्थ लाल लोमड़ी खरगोशों, चूहों, चिड़ियों, कीटों और साथ ही फलों और बेरों पर निर्वाह करती हैं। ऐसे परभक्षियों की संख्या, जो स्थान और ऋतु के अनुसार आहार बदलते हैं, ध्रुवीय खरगोश या लेमिंग (lemming) पर (जिनकी संख्या घटती बढ़ती रहती है) निर्वाह करनेवाली ध्रुवीय लोमड़ी की अपेक्षा अधिक स्थिर रहती है।

परजीविता और प्राणियों के रोग - वाइरस (virus), जीवाणु, प्रोटोज़ोआ, पराश्रयी कृमि तथा पराश्रयी संधिपाद प्राणियों में से प्रत्येक अपने-अपने परपोषी जीवों पर जीवित रहते हैं। ये पराश्रयी प्राणी परिस्थिति के विभिन्न कारकों से प्रभावित होकर अपने परपोषियों में रोग उत्पन्न कर देते हैं। इस प्रकार अनेक रोगों को उत्पन्न करनेवाली पराश्रयिता, परपोषी प्राणियों की जनसंख्या को नियंत्रित रखनेवाला बहुत बड़ा साधन है।

जूँ और जोंक जैसे पराश्रयी, जो परपोषी की त्वचा पर रहते हैं, बाह्य परजीवी (ectoparasite) होते हैं और परपोषी के शरीर के अंदर आंत्र या यकृत में रहनेवाले फीताकृमि और पर्णाभ कृमि अंत: परजीवी (endoparasite) होते हैं।

कीट और किलनी जैसे कुछ परजीवी मध्यवर्ती परपोषी का काम करते हैं और परजीवी प्रोटोज़ोआ को निश्चित परपोषियों (definitie hosts) तक पहुँचाते हैं। हानिकारक परजीवी रोगोत्पादक कहलाते हैं। परजीवी के प्राथमिक आक्रमण के बाद स्वस्थ हुआ परपोषी, प्राय: परजीवियों का वाहक बनकर, उनके अंडों और लार्वाओं को अन्य परपोषियों में संक्रमित करता है।

सहभोजिता (Commensalism) - इसके अंतर्गत एक जाति के प्राणी दूसरी जाति के प्राणियों के शरीर में उन्हें बिना किसी प्रकार का लाभ या हानि पहुँचाए रहते हैं, जैसे (1) चूषण मत्स्य (remora) यातायात के लिए पृष्ठीय चूषण अंग द्वारा दूसरी मछलियों से चिपकता है तथा (2) केकड़ा आहार और रक्षा के लिए ऐनेलिड (annelid) कृमियों की नलियों में रहता है।

सहजीविता (Simbiosis) - इसके अंतर्गत प्राणियों की दो जातियाँ परस्पर लाभदायक स्थिति में साथ साथ रहती हैं। दोनों जातियों का पृथक्‌ जीवन असंभव होता है। इसका उदाहरण दीमकों की एक जाति है। ये दीमकें लकड़ी खाती हैं, परंतु इन्हें अपनी आँतों में रहनेवाले सैलूलोज़ को पचानेवाले कशाभिक (flagellate) प्रोटोज़ोआओं पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि प्रयोग द्वारा दीमकों को उनके कशाभिकों से अलग कर दिया जाए तो दीमकें भूखी मर जाएँ और कशाभिक भी परपोषी के बाहर जीवित नहीं रह सकते।

प्राणिनिवह (colony) और समाज - सभी कशेरुकी और लगभग सभी संधिपाद प्राणी और अनेक अकशेरुकी भी मुक्त रहनेवाले जीव हैं और स्वतंत्र विचरण करते हैं। स्पंज, कई प्रवाल, हाइड्रॉयड (hydroid) तथा कंचुकित (tunicate) चट्टानों, पौधों, या अन्य प्राणियों की खोल से चिपके रहते हैं। कशेरुकी और अकशेरुकी दोनों वर्गों में अनेक एकल जातियाँ हैं, जिनके प्रत्येक सदस्य लगभग स्वतंत्र होते हैं और बाकी जातियाँ समूह या निवह में रहती हैं। स्पंज, कंचुकित और ब्राइओज़ोऐनों (Bryozoans) के सदस्य जन्म से ही जुड़े होते हैं। कीट, मछलियों और चिड़ियों के निवह तथा खुरदार प्राणियों के यूथ में सदस्य जन्म से अलग रहते हैं, पर उनके व्यवहार सामाजिक संगठनां के प्रति समान होते हैं।

बाज, मक्खीमार पक्षी, साँप और परभक्षी कीट आदि मांसभक्षी अकेले रहते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अपना आहार सरलता से मिलता है। ये केवल प्रजनन के लिए मादा से संपर्क करते हैं। जाड़ों में रोबिन और बतख चारा ढूढँने और निरापद रूप से सोने के लिए साथ रहते हैं। शीतनिष्क्रियता के समय चमगादड़, रैटल साँप तथा सोनपाँखी गुबरैला (lady bird beetle) को एकत्र रहने में सुविधा होती है। मेढक, भेक, जलमुर्गी, (gull) तथा फरदार सील मछलियाँ आदि यूथचर संगम के समय समूह में रहते हैं।

जहाँ भी एक जाति के बहुत से सदस्य मिल जुलकर रहते हैं और एक दूसरे के हितों की रक्षा करते हैं वहाँ सामाजिक संगठन पाए जाते हैं। अनेक कीटगण में सामाजिक आदतों का स्वतंत्र विकास हुआ है, जिसका सर्वाधिक उन्नत रूप हीमेनॉप्टेरा (Hymenoptera) में है। जन्म, कार्यिकी (physiology) और आदतों की दृष्टि से इनकी अनेक जातियाँ हैं, लेकिन किसी जाति का स्वतंत्र अस्तित्व संभव नहीं।

जनसंख्या - पर्यावरण की परिस्थितियों के कारण प्राणियों की जनसंख्या में उतार चढ़ाव होते रहते हैं। हर जाति की जनसंख्या हर साल और हर मौसम में बदलती है।

अनुकूलन (Adaptations) - परिस्थिति के अनुकूल किसी खास पद्धति का जीवनयापन करने के लिए प्राणी की शरीररचना शारीरिक क्रिया और आदत होती है। मधुमक्खी में अनेक अनूकूलन हैं, जैसे मधुसंचय के लिए मुँह में चूषण अंग और शक्कर पर निर्वाह करने की क्षमता। शरीर के बाल और कूर्च (brushes) पराग संचय में और मोम को आहार और आश्रय के रूप में ढालने के लिए उपयोगी होते हैं। मधुमक्खियों की तीन जातियों की तीन विशेष प्रकार की आदतें होती हैं।

मनुष्य - मनुष्य व्यापक जाति है, जो विभिन्न परिस्थितियों में रह सकती हैं।

चूहा - अपनी विशिष्टताओं के बावजूद यह कृंतक पर्याप्त व्यापक है और जलवायु, आश्रय और आहार की विविधताओं में रह सकता है।

छछूँदर - यह जमीन में रहने के लिए अनुकूलित होता है। इसके दाँत पतले होते हैं और कृमियों को पकड़ने के लिए उपयुक्त होते हैं। इसके नेत्र आवरणयुक्त, कान सिकुड़े हुए, आगे के पैर छोटे मिट्टी खोदने और मिट्टी में चलने फिरने के लिए हथेलियाँ बड़ी और पंजे भारी होते हैं। शरीर पर छोटा, प्रतिवर्त्य (reversible) फर (fur) होता है, जो आगे या पीछे चलने से अव्यवस्थित नहीं होता।

विभिन्न स्तनपायियों के दाँतों में उनके विभिन्न आहारों के लिए अनुकूल रूपांतर होते हैं। पक्षियों की चोंच भी अनुकूलित होती है। बहुत से परजीवी किसी एक ही परपोषी जाति में रहते हैं और अन्य अपने जीवनचक्र की पूर्ति के लिए मलेरिया परजीवी और यकृत पर्णाभ (liver flukes) के समान दो विशिष्ट परपोषियों की अपेक्षा करते हैं।

अनुकूलन का विकिरण - यह ऑस्ट्रेलिया के धानी प्राणियों (Marsupialia) के एक गण में पाया जाता है और इसका अनेक जातियों में विकिरण हुआ है जो दौड़ती, कूदती, पेड़ों पर चढ़ती, बिल बनाती और उड़ती हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :

पेरामेलीज़ (Perameles) - यह स्थलीय और बिल बनानेवाली हैं।

फैलेंजर (Phalanger) - यह वृक्षवासी है।

पिटॉरस (Pitaurus) - यह उड़नेवाले प्राणियों की जाति है।

मैक्रोपस (Macropus) - यह स्थलीय है।

डेंड्रोलागस (Dendrolagus) - यह वृक्षवासी है।

विभिन्न वर्गों के प्राणियों के सर्वसामान्य आवास में रहने लगने पर भी अनुकूलन का विकिरण होता है। समुद्रवासी कशेरुकियों का शरीर सुप्रवाही होता है और उनके पंख (fin) तैरने की सुविधा के लिए डाँड़े जैसे होते हैं। कई अनुकूली गुण प्राणियों के लिए रक्षात्मक होते हैं, जैसे आर्माडिलो (Armadillo), कछुआ और मोलस्क के खोल, साही के पिच्छाक्ष, मधुमक्खियों तथा ततैयों के डंक और विषैले साँपों का विष।

प्राणियों के रंग - प्राणियों के चारों ओर व्याप्त वातावरण से मेल खाता हुआ उनका रंग एक और अनुकूलन है, जिससे शत्रु उसे पहचान नहीं पाते। उत्तर कटिबंधों में जब बर्फ पड़ती है तब वहाँ के शशक और लकड़बग्घे सफेद आवरणधारी हो जाते हैं। कई समुद्री अकशेरुकी प्राणियों और मछलियों के लार्वा पारदर्शी होते हैं। पेड़ों की छाल पर रहनेवाले कीड़ों का रंग पृष्ठभूमि से मिलता जुलता होता है।

भयसूचक रंग (Warning Colouration) - कुछ तितलियों और कीटों का रंग भयसूचक होता है, जिससे शत्रु इन्हें अरुचिकर समझ लेते हैं। तेज डंकवाली तितलियों और ततैयों का रंग गाढ़ा काला और पीला होता है।

अनुहरण (Mimicry) - कुछ तितलियाँ, जे सुस्वादु होती हैं और हानिकारक नहीं होतीं, वे हानिकारक तितलियों की नकल उतारती हैं। बैसिलारकिया अर्किपस या वाइसराय तितली (Basilarchia archippus Or viceroy butterfly) तितली अरुचिकर डैनॉस प्लेक्सिपस (Danaus plexippus) की नकल उतारती है।

रक्षात्मक समानता - यह समानता वातावरण में स्थित किसी पदार्थ से प्राणी के रंग और आकार दोनों में होती है। ज्योमेट्रिक इल्ली (geometric caterpillar) जब पेड़ पर बैठी होती है, तब वह उस पेड़ की टहनी जैसी दीखती है। भारत में कैलिमा (kallema) पतंग जब पंख समेट कर बैठते हैं, तब सूखे पत्ते के समान लगते हैं। कुछ तृणकीट (walking sticks) सूखी या हरी टहनियों जैसे और बाकी हरे पत्तों जैसे होते हैं।

पहचान के चिन्ह - कुछ प्राणी अपने शरीर के चिन्हों से अपनी तरह के प्राणियों को खतरे से आगाह करते हैं। जंका (Junca) और घासस्थली के चंडूल (lark) के पूँछ के पर श्वेत होते हैं। भय की स्थिति में ये इस प्रकार हिलते डुलते हैं कि अन्य पक्षियों को भयावह स्थिति का संकेत प्राप्त हो जाता है। (रामचंद्र सक्सेना)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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