परजीवीविज्ञान

Submitted by Hindi on Mon, 08/22/2011 - 08:16
परजीवीविज्ञान (Parasitology) परजीवियों की प्रकृति और उनके प्रभाव का अध्ययन जिस विज्ञानशाखा के अंतर्गत होता है उसे परजीवीविज्ञान कहते हैं। परजीवी ऐसे जीव हैं जो अपने परपोषी पर कुछ समय, या समस्त जीवन, जीवनयापन करते हैं। इन्हें परपोषी से ही आहार तथा संरक्षण प्राप्त हो जाता है (देखें परजीवी)। परजीवी सामान्यत: छोटे होते हैं और परपोषी (host) अपेक्षाकृत बड़े। परजीवियों को अन्य जीवों की भाँति खाद्य की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे खाद्यों में नाइट्रोजन या जीवद्रव्य (protoplasm) का होना अत्यावश्यक है। इसे इन्हें मिलना चाहिए। कुछ परजीवी पौधों से ये अन्य जीवों के प्रोटीन से, नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं। कुछ परजीवी मृत पौधों या मृत जंतुओं से खाद्य प्राप्त करते हैं। कुछ परजीवी अन्य जीवों को भक्षण कर नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं। कुछ परजीवी पौधों के रसों या जंतुओं के रुधिर से खाद्य प्राप्त करते हैं। कुछ के पास ऐसे साधन होते हैं कि वे स्वयं पौधों या जंतुओं में छेदकर उनसे रस या रुधिर प्राप्त कर अपना निर्वाह करते हैं।

परजीवी बहुत विस्तृत, वनस्पति या जांतव जगत में पाए जाते हैं। अधिकांश परजीवी विषाणु, दंडाणु, और कवक वर्ग के, अथवा प्रोटोज़ोआ, कृमि तथा ऐं्थ्राोपॉड किस्म के जीव होते हैं (देखें दंडाणु, विषाणु, कवक)। परजीवी विषाणुओं तथा दंडाणुओं से पौधों और मनुष्यों में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं (देखें परजीविता)। परजीवी कवकों से फसलों के अनेक रोग, केंदवा, रितुआ, फफूंदी, अंगमारी इत्यादि और मनुष्यों के चर्मरोग, दाद आदि, होते हैं। परजीवी प्रोटोज़ोआ से मलेरिया, ऐमीबिक पेचिश और अफ्रीकी सुप्त रोग आदि होते हैं।

परजीवियों का जीवनचक्र बड़ा पेंचीदा होता है। इनमें अनेकों का, विशेषत: रोगोत्पादक परजीवियों का, अध्ययन बड़े विस्तार से हुआ है, जैसे ये कहाँ बनते, कैसे बनते, कैसे अंडे देते और कैसे फैलते हैं, रोगों की रोकथाम के लिये इनका अध्ययन बड़ा आवश्यक है। इनकी आकारिकी (morphology) का भी अध्ययन विस्तार से हुआ है। ये कैसे उत्पन्न होते, कैसे रहते, कैसे बढ़ते हैं, इन सब बातों का अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि आवश्यकता पडने पर इनकी वृद्धि रोकी जा सके। परजीवियों के उपापचय का भी अध्ययन हुआ है। अनेक परजीवी दंडाणु विटामिनों का सृजन नहीं करते। विटामिनों के लिये उन्हें परपोषियों पर निर्भर रहना पड़ता है। परपोषी पर निर्भर रहने के कारण वे अपने आवश्यक खाद्य को स्वयं संश्लेषण करने में असमर्थ होते हैं। ऐसा विशेष रूप से विषाणुओं में देख जात है। विषाणुओं को जीवित कोशिकाओं के बाहर उत्पन्न करना संभव नहीं है। सामान्य अर्थ में कुछ विषाणुओं का हम जीवित होना भी नहीं कह सकते। ये परपोषी के उपापचय तंत्र के सहयोग से ही जीवित रहते और पनपते हैं।

परजीवी और परपोषी का संबंध साधारणतया सहयोजन (adjustment) का होता है। इसे सहोपकारिता (Mutualism) और कभी कभी सहजीवन (Symbiosis) भी कहते हैं। कुछ परजीवी यदि रोग भी उत्पन्न करें तो परपोषी बिना किसी बुरे प्रभाव, या अपनी हनि के उन्हें रखे रहते हैं। ऐसे परजीवी वाहक (carriers) का काम करते है और रोगोत्पादक परजीवियों के फैलाने में सहायक होते हैं। परजीवियों का परपोषी पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका भी अध्ययन हुआ है और अब भी हो रहा है। पहले पहल जब परजीवी परपोषी को आक्रांत करते हैं तब परपोषी उनके रोकने का प्रयास करते हैं। परपोषी में असंक्राम्यता (immunity) उत्पन्न होती है। यह असंक्राम्यता सहज (innate) हो सकती है या उपार्जित (acquired)। सहज असंक्राम्यता अधिकांश अ-विशिष्ट (non-specific) होती है। उपार्जित असंक्राम्यता भी अधिकांश अविशिष्ट होती है। पर कुछ जंतुओं में विशिष्ट पिंड बनने के कारण विशिष्ट भी होती है। जब परजीवी किसी परपोषी जंतु में प्रविष्ट करते हैं तब सहज असंक्राम्यता के कारण बहुत से परजीवी नष्ट हो जाते हैं। इस कारण उनके बढ़ने की गति में शिथिलता आ जाती है। संक्रमणकाल में परजीवी का प्रतिजन (antigen) परपोषी में प्रतिपिंड (antibody) उत्पन्न करता है। प्रतिपिंड दो प्रकार के होते हैं : एक प्रतिजीवविष (antitoxin) और दूसरा प्रतिजीवाणु और प्रतिकवक (antibacterial and antifungus)* जब परजीवी विष उत्पन्न करता है तब प्रतिपिंड उसके प्रभाव का निराकरण कर देता है। इसी से उपार्जित असंक्राम्यता आती है।

सहज असंक्राम्यता से अनेक पौधों के रोगों के रोकने में सफलता मिली है। ऐसे ही पौधे उगाए जाते हैं जो किसी विशेष जीवाणु या विशेष कवकों के प्रति विशेष रूप से प्रतिरोधक होते हैं। उपार्जित असंक्राम्यता से मनुष्यों और जंतुओं में अनेक विषाणु और जीवाणुरोगों के नियंत्रण में बड़ी सहायता मिली है। इसके द्वारा डिप्थीरिया, टायफायड ज्वर, चेचक, पीतज्वर, अलर्करोग (rabies) इत्यादि के रोकने में सहायता मिली है। परजीवीजन्य रोगों से बचने के लिये आज रसायन चिकित्सा का व्यवहार दिन ब दिन बढ़ रहा है। (देखें परजीवीजन्य रोग)।

सं.ग्रं.- ए.सी. चैंडलर : इंट्रोडक्शन टु पैरासिटॉलोजी, (1944); एफ.एम. बार्नेट : बायोलॉजिकल ऐस्पेक्ट्स ऑव इनफेक्शस डिज़ीज़ (1940)

(फूलदेवसहाय वर्मा)

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संदर्भ
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