प्रकाश उत्पादन और कृत्रिम प्रकाश

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 12:27
प्रकाश उत्पादन और कृत्रिम प्रकाश अनादि काल से ही अपने व्यावसायिक अथवा आमोद प्रमोद के कामों में रात्रि के समय का सदुपयोग करने के लिये मनुष्य किसी न किसी प्रकार के कृत्रिम प्रकाश का प्रयोग करता आया है। उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार इतना ही मालूम है कि विद्युत शक्ति द्वारा प्राप्त, कृत्रिम प्रकाश का प्रयोग आरंभ होने के पहले तक लकड़ियाँ, घी, तेल, चरबी अथवा मोम आदि को किसी न किसी प्रकार जला कर ही प्रकाश उत्पन्न किया जाता था। लगभग 50 वर्ष पहले तक भारतीय गाँवो में विवाह आदि के अवसर पर लकड़ी की मूठ लगी लोहे की छड़ के दूसरे सिरे पर तेल से तर चिथड़ा लपेटकर बनी मशाल के प्रकाश से काम लिया जाता था।

मोमबत्ती- यूरोपीय इतिहास के अनुसार ईसा की 11वीं शताब्दी में लकड़ी की पतली खपचियों को चरबी में भिगोकर मोमबत्ती के ऐसा प्रयोग किया जाता था। ह्वेल मछली की चरबी का प्रयोग आरंभ होने पर 18वीं शताब्दी में ह्वेल की स्पर्मासेटि (spermaceti) चरबी से मोमबत्ती बनाई गई। स्टिऐरिन के मिश्रण से मोमबत्ती सर्वप्रथम 1840 ई. में बनाई जाती है।

तेलदीपक- भारत में सरसों, रेंडी, नारियल, बिनौले और तिल्ली के तेल के दीपक अब भी गाँवों में सर्वत्र जलाए जाते हैं। धी का दीपक तो पूजा में अत्यंत आवश्यक समझा जाता है। दीपावली पर तो बड़े शहरों में भी तेल के हजारों दीपकों से जगमगाती रोशनी की जाती है। हमारे सुपरिचित केरोसिन तेल की लालटेन का आविष्कार लगभग 1860 में हुआ था।

गैस लैंप- इतिहासज्ञों के मतानुसार, नमक की खानों से निकली प्राकृतिक गैस को किसी नालीदार बरतन में भरकर प्रकाश के लिये जलाने का सर्वप्रथम प्रयोग चीन देश में हुआ, फिर 1664 ई. में इंग्लैंड के डा. जॉन क्लेटन ने भी कुछ इसी प्रकार के प्रयोग किए 1855 ई. में बुनसेन (R.W Von Bunsen) ने अपना प्रसिद्ध गैस ज्वालक बनाया, जिसका प्रयोग अब भी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में होता है। 1890 ई. में उद्दीप्त मैंटल युक्त लैंप बना और 1892 ई. में कैल्सियम कार्बाडइ से निकली ऐसीटिलीन गैस का प्रयोग प्रकाश के लिये आरंभ हुआ।

बिजली द्वारा प्रकाश- सर हफ्रीं-डेवी ने 1801 ई. में सर्वप्रथम विद्यच्चाप प्राप्त किया, जिससे प्रकाश तो मिला, लेकिन उसका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं था। इसके बाद कई लोगों ने विद्युतधारा से प्रकाश प्राप्त करने के अनेक असफल प्रयोग किए। परंतु उन्हें निरंतर विद्युतधारा उत्पन्न करते रहने का कोई साधन नहीं मिल पाया। इनमें से डे ला रू (De la Rue) ने 1820 ई. में बिजली का उद्दीप्त लैंप बनाने का प्रयत्न किया और ग्रोव (Grove) ने 1840 ई. में अपनी बैटरी से एक तापद्दीप्त प्रकार के लैंप को एक सभाभवन में जलाकर प्रदर्शन किया, लेकिन इसका भी कोई व्यावहारिक उपयोग न हो सका। जब 1870 ई. में ग्रैमि (Gramme) डायनामो का आविष्कार हुआ, तब ही इस विषय में दिलचस्पी लेनेवालों का प्रोत्साहन मिला। 1876 ई. में जैबलोक़कोफ (Jablochkov) ने पैरिस नगर के बाजार को बिजली की रोशनी से सर्वप्रथम जगमगाया। 1877 ई. में ब्रश (Brush) नामक एक अमरीकन वैज्ञानिक ने विवृत आर्कलैंपों को श्रेणी में संबंधित कर जलाया, जिनमें विद्यतधारा एक के बाद दूसरे में जाती थी और किसी एक के खराब हो जाने पर सब बुझ जाते थे। अत: सन्‌ 1878 ई. में एडिसन के दिमाग में इस दोष को दूर करने की बात आई और 1879 ई. में उसने कार्बन तंतुयुक्त लैंप का आविष्कार किया। लगभग इसी समय इंग्लैंड के स्वेन नामक व्यक्ति ने भी कार्बन तंतुयुक्त एक लैंप बनाया, लेकिन एडिसन के लैंप की अपेक्षा इसमें कुछ भिन्नता थी। अंत में व्यापारिक उद्देश्य से उन दोनों ने आपस में समझौता कर लिया। 1890 ई. में स्थिर विभव की विद्युतधारा से, जो 110 अथवा 220 वोल्ट की तथा दिष्ट (direct) प्रकार की होती थी, उसे अथवा चार आर्क लैंप श्रेणी में जलाए गए। इसके तीन वर्ष बाद ही इन लैंपों को प्रत्यावर्ती धारा से भी सफलतापूर्वक जलाया गया। 1894 ई. में इस प्रकार आवृत्त कार्बन-आर्क-लैंप बनाए गए जो 110 वोल्ट की दिष्ट और प्रत्यावर्ती दोनों ही प्रकार की धाराओं से जलाए जा सकते थे। 1895 ई. तक प्रत्यावर्ती धारा के द्वारा यूरोप के बड़े नगरों के बाजारों में प्रकाश करने का रिवाज ही हो गया और सन्‌ 1868 तक स्थिर धारा के ट्रैंस्फॉर्मर और प्रेरक नियंत्रक (inductive regulator) लगाकर, उक्त प्रकाशव्यवस्था में काफी सुधार कर दिए गए। 1897 ई. में नन्स्ट (Nernst) लैंप, 1899 ई. में विवृत ज्वालयुक्त आर्क लैंप, 1902 ई. में पारद वाष्प लैंप, 1903 ई. में कूपर हिवेट निऑन लैंप, 1905 ई. में मूर (Moor) वैक्युअम ट्यूब और 1909 ई. में दिष्ट धारा से जलनेवाले आवृत आर्कलैंप बने। एडिसन के कार्बन तंतुयुक्त तापदीप्त लैंप में ऑस्मियन का तंतु लगाने का प्रयोग 1904 ई. में किया गया, लेकिन इसे अधिक सफलता नहीं मिली। 1905 ई. मे टैटेलम के तंतुका प्रयोग किया गया और 1906 ई. 'जेम' (Gem) नाम के धात्वीकृत (metallized) कार्बन का तंतु लगाया, जिसे विशेष सफलता मिली 1911 ई. में टंग्स्टन के तार की कुडली बनाकर तंतु के स्थान पर लगाई गई और बल्व के निर्वातन करने के बदले नाइट्रोजन गैस भरी गई।

विद्युत्‌ प्रकाश के आधुनिक साधन- साधारणतया बिजली की रोशनी का जहाँ भी प्रयोग किया जाता है, वहाँ प्रदीप्ति के लिये तापदीप्त तंतुयुक्त बल्वों (incandescent lamps) का ही विविध प्रकार से उपयोग होता है। आरंभ में इस प्रकार के लैंप कार्बन के तंतु से ही बनाए जाते हैं। कार्बन तंतुयुक्त लैंप अब भी बनाए जाते हैं, लेकिन इनका प्रयोग कुछ विशेष प्रयोजन से ही होता है।अत: इनका वर्णन हम संक्षेप में ही करेंगे।

कार्बन-तंतुयुक्त लैंप- आरंभ में कार्बन तंतु बनाने के लिये बांस अथवा रुई के रेशों का ही प्रयोग किया गया था। बाद में ऐसे तंतु बनाने के लिये बांस अथवा रुई के रेशों का ही प्रयोग किया गया था। बाद में ऐसे तंतु बनाने के लिये रुई को जिंक़ क्लोराइड में घुलाकर, उसकी लेई सी बनाकर, डाई के बारीक छेद में से दबाकर, लंबी बत्ती सी बना लेते थे। फिर इन बत्तियों के सूख जाने पर, पेट्रोल के वाष्प के वातावरण में रखकर इनमें से विद्युतधारा प्रवाहित करने से, पेट्रोल का वाष्प विघटित होकर, उस बत्तीनुमा तंतु पर कार्बन की गहरी कलई के रूप में चढ़ जाता था। इस प्रकार के तंतु केवल निर्वात बल्बों में ही काम देते थे। इस विधि में यह दोष रह जाता था कि धारा प्रवाहित होने के आरंभिक क्षणों में तंतुओं का विशिष्ट प्रतिरोध बहुत उच्च रहने के कारण, ये बल्ब में अधिक लंबे नहीं लगाए जा सकते थे। अत: आरंभिक बल्बों में तंतुओं को एक मोड़युक्त U आकार का ही बनाते थे। फिर इन बल्बों में कुछ सुधार भी किए गए, लेकिन मालूम हुआ कि इनमें सबसे बड़ी दिक्कत यह रहती है कि इस प्रकार के तंतु का तापगुणांक (temperature coefficient) ऋणात्मक (negative) रहता है, अर्थात्‌ ठंढे की अपेक्षा गरम हालत में इसका विद्युत्प्रतिरोध बहुत कम रहता है। अत: जलते समय जब धारा की वोल्टता कम हो जाती है। इस दोष को दूर करने के लिये जेम (Gem) नामक धात्वीकृत तंतु बनाने की विधि निकाली गई। इसके अनुसार उपर्युक्त कार्बन की बत्ती को बिजली की भट्ठी में तपाकर, उसके प्रतिरोध प्रदर्शित करने की प्रकृति को ही बदल दिया गया, अर्थात्‌ उसका तापगुणांक ऋणात्मक से धनात्मक हो गया, जैसा कि धातुओं में हुआ करता है। इसलिये इसका नाम धात्वीकृत तंतु पड़ गया। इस प्रकार के तंतुयुक्त लैंप की धारा की वोल्टीयता जब कम होती है, तब तंतु का प्रतिरोध भी कम हो जाता है। अत: लैंप में से प्रवाहित होनेवाली धारा की मात्रा और शक्ति अधिक कम नहीं होने पाती, जिससे लैंप की कैंडिल शक्ति में अधिक कम नहीं होने पाती, जिससे लैंप की कैंडिल शक्ति में अधिक अंतर नहीं आने पाता।

टंग्स्टन तंतु के तापदीप्त लैंप- इस लेख के आरंभ में विद्युत्‌ लैंपों के क्रमिक विकास पर विचार करते समय बताया है कि कार्बन तंतु के बाद ऑस्मियम और टैंटेलम के तंतु भी बनाए गए, लेकिन उनका प्रचार रुक गया, क्योंकि ऑस्मियम का तंतु बहुत मँहगा पड़ता है और टैंटेलम तंतु भी बनाए गए। ये सस्ते, सुविधाजनक और टिकाऊ सिद्ध हुए। अत: आधुनिक समय में इनका ही प्रचार अधिक है। टंग्स्टन तंतु से विद्युतधारा प्रवाहित होने पर वह गरम होकर इतना सफेद हो जाता है कि चमककर तेज प्रकाश देने लगता है। चित्र 1. में इस प्रकार के लैंप की बनावट और प्रयुक्त पदार्थों का विवरण दिया है। विभिन्न प्रदीप्ति के लैंपों में तंतु इतनी लंबाई तथा परिमाण का लगाया जाता है कि वह एक निश्चित वोल्टता की विद्यतधारा को अपने में से प्रवाहित होते समय इतना काफी प्रतिरोध प्रस्तुत करे कि वह उसके कारण ऐसा गरम होकर चमकने लगे कि उससे आवश्यक मात्रा में प्रदीप्ति प्राप्त हो जाय। साधारण बल्बों में टंग्स्टन के तंतु, निकल आदि धातु के विद्युत संवाहक तार, काच का डंठल और नली आदि बल्ब में लगाकर, उसके अंदर आवश्यक मात्रा में निर्वातन कर देते हैं, जिससे प्रचंड गरमी के कारण तंतु की धातु में छीजन न हो। फिर भी समय पाकर कुछ न कुछ छीजन तो होती ही है। कुछ आधुनिक बल्बों में आवश्यक निर्वातन करने के बाद नाइट्रोजन और आर्गन गैस इतने दबाव के साथ भर दी जाती है कि बल्ब के भीतर की गैसों और बाहर के वायुमंडल की दाब संतुलित हो जाती है। इन गैसों के निष्क्रिय होने के कारण गरम तंतु पर उनकी कोई रासायनिक क्रिया नहीं होने पाती, अत: तंतु पर उनकी कोई रासायनिक क्रिया नहीं होने पाती, अत: तंतु में छीजन नहीं होती तथा उसका जीवनकाल दीर्घ होता है।

विभिन्न प्रकार के तंतुयुक्त तापदीप्ति लैंपों को तुलना

निर्माण का समय

तंतु का प्रकार

बिजली का खर्च वाटों में प्रति औसत क्षैतिज कैंडिल शक्ति

प्रतिवाट खर्चे पर प्राप्त औसत क्षैतिज कैंडिल शक्ति

1879

कार्बन तंतु, एडिसन निर्मित

7.60

0.13

1886

कार्बन तंतु, अनुपचारित

4.00

0.25

1896

कार्बन तंतु, उपचारित

3.10

0.31

1905

कार्बन तंतु, धात्वीकृत

2.50

0.40

1906

ऑस्मियम तंतु

1.50

0.67

1906

टैंटेलम

2.00

0.50

1907

टंग्स्टन, चिपकाया हुआ तार

1.25

0.80

1913

टंग्स्टन, खीचें हुए तार का तंतु

1.00

1.00

1914

टंग्स्टन, नाइट्रोजन गैस भरा बल्ब

0.50

2.00

कार्बन आर्क लैंप- यदि कार्बन की दो छड़ों को आपस में सिरे से सिरा मिलाकर तथा इनके बाहरी सिरों को संयोगी पेचों द्वारा तार के माध्यम से डाइनेमो के सिरों (terminals) से संबंधित कर दिया जाए, तो इस प्रकार से बने परिपथ में विद्युतधारा प्रवाहित होने लगेगी। अब यदि इन कार्बन की छड़ों को थोड़ा सा सरकाकर, इनके भीतरी सिरों के बीच 3-4 मिलीमीटर का अंतर (gap) कर दिया जाए, तो विद्युतधारा चिनगारी के रूप में उक्त अंतर में से भी होकर प्रवाहित होती रहेगी। आर्क लैंपों का यही सिद्धांत है। लेकिन प्रयोग में आनेवाले आर्क लैंपों का यही सिद्धांत है। लेकिन प्रयोग में आनेवाले आर्क लैंपों की बनावट ऐसे ढंग की होती है कि जब विद्युतधारा चालू की जाती है, उस समय किसी उचित प्रकार की प्रयुक्ति के द्वारा कार्बन की छड़ों के भीतर सिरों के बीच अंतर पड़ जाता है। जब धारा बंद की जाती है तब वे सिरे आपस में मिल जाते हैं। इस प्रयुक्ति में दूसरी बात यह भी होती है कि ज्यों ज्यों बिजली की तेज गरमी के कारण कार्बन की छड़ों के भीतरी सिरे खर्च होते जाते हैं, वे छड़ें स्वत: ही थोड़ी थोड़ी आगे सरककर उस कमी को पूरी करती रहती हैं।

जिन आर्क लैंपों में साधारण प्रकार के कार्बन इलेक्ट्रोड लगाए जाते हैं, उनमें रोशनी इलेक्ट्रोड़ों के अग्रछोरों (tips) में से ही निकलती है और स्वयं विद्युत्‌ आर्क में से बहुत कम। अत: उन्नत प्रकार के लैंपों के इलेक्ट्रोडों मे कुछ ऐसे पदार्थ मिला दिए जाते हैं, जो साधारण कार्बन में नहीं होते। इनके कारण विद्युच्चाप की प्रदीप्ति बढ़ जाती है। इन लैंपों में निम्नलिखित दो में से किसी एक विधि का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाता है : (1) विष्टधारा से जलने वाले लैंपों का ऋणात्मक इलेक्ट्रोड कुछ ऐसे पदार्थो के मिश्रण से बनाया जाता है कि लैंप के जलते समय उसके तापदीप्त वाष्प (vapour) से बड़ी ही प्रखर ज्योतिर्मय ज्वाला निकलती है, या (2) दोनों इलेक्ट्रोड़ों को ही इस प्रकार के ऊष्मसह पदार्थो के मिश्रण से बनाया जाता है जिससे, विद्युच्चाप के अत्युच्च ताप के कारण, धनात्मक इलेक्ट्रोड के पदार्थ तापदीप्त वाष्प में परिणत होकर बड़ा ही प्रखर प्रकाश देने लगते हैं। इस प्रकार के लैंपों को धात्विक मैग्नेटाइट, अथवा साधारणतया प्रदीपी (luminous) आर्क लैंप कहते हैं।

दिष्टधारा से जलनेवाले एक प्रदीपी आर्क लैप की बनावट दिखाई है जिसमें 4, 5 और 6.6 ऐंपियर की धारा खर्च होती है। इसमें आर्क के ऊपर की तरफ प्रिज्मीय काच का परावर्तक तथा बाहर की तरफ काँच की हँड़िया लगी है। इसका प्रकाश बिलकुल सूर्य के प्रकाश के समान ही होता है। नीचेवाले इलेक्ट्रोड की उमर 100 से 350 घंटे और ऊपर वाले की इससे कई गुना अधिक होती है, इस प्रकार के कम से कम दो लैंप एक श्रेणी में लगाने होते है, इस प्रकार के कम से कम दो लैंप एक श्रेणी में लगाने होते है, इस प्रकार के कम से कम दो लैंप एक श्रेणी में लगाने होते हैं, जिनके संबंधनों का रेखाचित्र, में दिखाया गया हैं। इस लैंप की प्रयुक्ति इस प्रकार की है कि जब इसे बुझाने के लिये विद्युतपरिपथ को काट दिया जाता है उस समय इसके इलेक्ट्रोड बहुत दूर सरक जाते हैं, लेकिन जब जलाने के लिये परिपथ चालू किया जाता है तब इसका स्टार्टर चुंबक नीचेवाले इलेक्ट्रोड को खींच कर ऊपर वाले के निकट ले आता है। ऐसा होने पर विद्युतधारा चुंबकों की श्रेणी में से होकर गुजरती है, जिससे 'कट आउट कॉन्टेंक्ट' पर स्टार्टिग चुंबक का परिपथ चालू हो जाता है और नीचे वाला इलेक्ट्रोड कुछ नीचे खिसक जाता है और विद्युत आर्क बन जाता है। नीचे वाला इलेक्ट्रोड नीचे खिसकने पर अपने रोक (stop) पर रुक जाता है और चुंबक श्रेणियाँ 'कट आउट कैन्टैक्ट' को खुला रखती हैं। जलते जलते जब नीचे वाला इलेक्ट्रोड कुछ खर्च हो जाता है, तब शंट (shunt) चुंबक के कारण, वैद्युतिक स्वचल प्रयुक्ति से, इलेक्ट्रोड आवश्यकतानुसार स्वत: ही थोड़ा ऊपर उठ जाता है।

निर्वात नलीयुक्त लैंप (Vacuum Tubes)- इनकी विशाल कैंडिल शक्ति, दीप्ति (intrinsic brilliancy) और उत्तम विसरण (good diffusion) के साथ साथ कम परिचालन खर्च इनका प्रधान गुण है, जिसके कारण इस प्रकार के लैंप ओद्यौगिक तथा व्यापारिक संस्थाओं में सर्वप्रिय होते जा रहे हैं। इनकी दक्षता बहुत ऊँचे दरजे की होने के कारण प्रति कैंडिल शक्ति वाटों में बिजली का खर्चा खुले आर्क लैंपों का आधा, आवृत्त आर्क लैंपों का तिहाई और साधारण तंतुमय तापदीप्त लैंपों का आधा, आवृत्त आर्क लैंपों का तिहाई और साधारण तंतुमय तापदीप्त लैंपों का 1/6 भाग ही होता है तथा इनकी कीमत ड्योढी से तिगुनी तक अधिक होती है। लेकिन इनके द्वारा बिजली खर्च में जो बचत होती है उससे जल्दी ही घाटा पूरा हो जाता है। इस प्रकार के कूपर-हिवेट-पारदवाष्प लैंपों की बनावट और कार्यप्रणाली चित्र 4. में दिष्टधारा और चित्र 5. में प्रत्यावर्ती धारा के उपयुक्त दिखाई गई है। इनकी नलियों का व्यास 1 इंच और लंबाई इनकी कैंडिल शक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होती है। साधारणतया 21 और 45 इंच की लंबाईयाँ ही अधिक प्रयोग में आती हैं, जिनकी कैंडिल शक्ति क्रमश: 300 और 700 होती है। ये लैंप 110 और 220 वोल्ट की दोनों प्रकार की धाराओं से जल सकते हैं। इन लैंपों की काच नली एक विशेष प्रकार के काँच से बनी होती है। इनके धनात्मक सिरे पर तो लोहे का इलेक्ट्रोड और ऋणात्मक सिरे पर पारे का इलेक्ट्रोड होता है। इनका बाहर की तरफ से संबंध मिलाने के लिये काँच में ही सील (seal) लगाकर प्लैटिनम का तार लगा देते हैं। नली में सील लगाने के पहले ऋणात्मक सिरे के बल्बनुमा हिस्से में जरा सा पारा रखकर निर्वातन कर दिया जाता है। इन लैंपों के साथ ही श्रेणीबद्ध कर एक प्रेरण कुंडली और लौह प्रतिरोध भी लगाना आवश्यक है।

विद्युत्‌ विसर्जन लैंप (Electric Discharge Lamps)- अभी तक हमने जिन लैंपों का वर्णन किया है वे सब तापदीप्त प्रकार के लैंप कहे जाते हैं, जिनमें किसी न किसी प्रकार का तंतु गरम होकर प्रकाशरेखा बनाता है। लेकिन विद्युद्विसर्जन लैंपों मे एक टूटती हुई सी प्रकाश रेखा बनती है जो लैंपों में भले हुई गैस पर निर्भर करती है। इस प्रकार के लैंपों में निऑन लैप, मरकरी वेपर (पारद वाष्प) लैंप, सोडियम वाष्प लैंप, अल्ट्रावायलेट लैंप और फ्लोरेसेंट लैंप मुख्य हैं।

प्रदीप्त निऑन ट्यूब लाइट- निऑन एक प्राकृतिक गैस है, जो हमारे वायुमंडल में बड़ी अल्प मात्रा में रहती है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य गैसें भी स्वल्प मात्रा में वायु में पाई जाती हैं। जब विद्युतधारा को इन विरल गेसों में प्रवाहित कर इन्हें उत्तेजित किया जाता है तब ये अपने विशेष प्रकार के रंगीन प्रकाश से चमकने लगती हैं। अत: लैंपों में इनका प्रयोग रात्रि के समय नाना प्रकार के रंगीन विज्ञापनों का प्रदर्शन करने के लिये किया जाता है। आसमानी रंग प्रस्तुत करने के लिये नलियों में पारे का वाष्प भरा जाता है। हरे रंग प्रस्तुत करने के लिये नलियों में पारे का वाष्प भरा जाता है। हरे रंग के लिये पारे के वाष्प् का ही प्रयोग होता है, लेकिन नली के काँच का रंग पीला बना दिया जाता है। इसी प्रकार कुछ गैसों से लाल प्रकाश की नलियाँ भी बनाई जाती हैं। नलियों से अक्षर अथवा आकृतियाँ अलग अलग भी बनाई जाती हैं, अथवा एक ही लंबी नली को उचित प्रकार से मोड़कर कई अक्षर या आकृतियाँ एक साथ भी बनाई जाती हैं। अलग अलग अक्षरों का नमूना दिखाने के लिये चित्र 6. में N.P.S. (नगरी प्राचारिणी सभा) के तीन अक्षरों का साइन बोर्ड तथा उनको बिजली के तारों से संबंधित करने की विधि दिखाई है।

कई अक्षर अथवा आकृतियाँ एक साथ एक ही नली से मोड़कर बनाने के लिये 50 फुट लंबाई तक प्रतिदीप्तशील नलियाँ बनाई जाती हैं, जो एक परिणामित्र (transformer) से संचालित की जा सकती हैं। लेकिन मरम्मत तथा उठाने धरने की सुविधा के लिये 5-6 फुट तक की कई नलियों का प्रयोग कर प्रत्येक टुकड़े को अलग अलग परिणामित्र से संचालित किया जाता है। इस सुविधा के अतिरिक्त नली के भीतरी व्यास तथा उसमें भरी गैस की मात्रा के अनुसार भी एक परिणामित्र के साथ लगाई जानेवाली नली की लंबाई का निश्चय किया जाता है। इन परिणामित्रों में ऐसा प्रबंध होता है कि ये 110 वोल्ट की प्रधान विद्युतधारा को नली के इलेक्ट्रोडों के बीच 2,000 से 15,000 वोल्ट तक की धारा में परिवर्तित कर देते हैं, तब कहीं नली में भरी हुई गैस उत्तेजित हो पाती है। इन प्रदीप्त प्रयुक्तियों का संचालित करते समय नली का वह भाग जिसमें कि गैस पर विद्युतधारा का जो प्रभाव पड़ता है उसी से प्रकाश उत्पन्न होता है। निऑन गैस की रोशनी 'ठंढी रोशनी कहलाती है, क्योंकि इसमें किसी प्रकार का तापदीप्त तंतु तो होता ही नहीं, जो गरम हो जाए। अत: साधारण तंतुमय लैंपों में तंतु को गरम करने में जो शक्ति खर्च होती है, वह इसमें बच जाती है। इसलिये इनमें बिजली का खर्चा बहुत ही कम होता है।

उपर्युक्त काम के लिये काँच की नलियों का प्रयोग किया जाता है। इस काँच में निम्नलिखित विशेषताएँ होना आवश्यक है : (क) नली काफी मजबूत होनी चाहिए, (ख) गलकर नली के मुलायम होने का ताप ऐसा सुविधाजनक होना चाहिए कि नली साधारण गैसज्वालक की ली पर गरम कर मोड़ी जा सके तथा (ग) मोड़ने के निमित्त गरम करने और फिर ठंढा करने से नलियाँ चटखें नहीं। अत: इस काम के लिये बहुधा लेड काँच, अथवा पायरेक्स काँच, का ही प्रयोग किया जाता है। लेड काँच में लेड ऑक्साइड काफी मात्रा में मिला रहता है। पोटाश के साथ सिलिकन ऑक्साइड, लेड ऑक्साइड तथा अन्य पदार्थो को मिलाने के बाद सबको गलाकर लेड काँच बनाया जाता है। पायरेक्स काँच की नलियाँ साधारण गैस के ज्वालक पर लेड काँच की जैसे सरलता से नहीं मोड़ी जा सकतीं। इसके लिये ऑक्सिजनयुक्त ज्वालक की आवश्यकता होती है। पायरेक्स काँच के भौतिक गुण भी लेड काँच की अपेक्षा भिन्न होते हैं। प्रथम तो यह काफी मजबूत होता है और दूसरे, उच्च तापों को भी सह सकता है। में हिंदी के ना प्र स, इन तीनों अक्षरों को एक ही नली से मोड़कर बनाया है। बोर्ड के पीछे की तरफ जानेवाले भाग बिंदुरेखा से प्रदर्शित किए हैं। नली का प्रारंभिक सिरा बाएँ हाथ की ओर है और मोड़ चुकने के बाद अंतिम सिरा भी उसी तरफ लाकर परिणामित्र (परिवर्त्तक) से दोनों को संबंधित कर दिया गया है।

अन्य प्रकार के निऑन लैंप- आधुनिक प्रकार के अन्य निऑन लैंपों में गरम ऋणाग्र नली (hot cathode tube) युक्त और तापदीप्ति लैंप (glow lamp) मुख्य हैं। प्रथम प्रकार के लैंप में एक विद्युत को इतना गरम कर दिया जाता है और फिर बाद में वह लैंप बहुत ही न्यून वोल्टता पर साधारण विद्युद्वि सर्जन लैपों की अपेक्षा अधिक क्षमता पूर्वक काम करने लगता है। तापदीप्ति (glow) लैंपों का प्रयोग पाइलट दीप, तथा चालदर्शी कार्यो (stroboscopic work) में किया जाता है। इसके प्रधान गुण अधिक आयु, कम विद्युत खर्च, निम्न प्रदीप्ति तथा यंत्रों की चाल के झटके को सह सकना है। परीक्षणयंत्रों के लिये यह बहुत ही उपयोगी रहता है और इसका प्रयोग बिना अन्य सहायक प्रसाधनों के दिष्ट और प्रत्यावर्ती दोनों ही प्रकार की धाराओं के साथ किया जा सकता है।

पारद वाष्प लैंप (Mercury Vapour Lamp)- आजकल शहरों की सड़कों तथा खुले मैदानों में रोशनी करने के लिये इनका प्रयोग होता है, क्योंकि इनका प्रकाश नीला हरापन लिए बहुत ही सुहावना तथा उच्च कोटि की प्रखरतायुक्त होता है। इनके भीतर पारद के वाष्प की दाब एक वायुमंडल से लेकर, विशेष प्रकार लैंपों में, 80 वायुमंडल दाब के बराबर तक होती है।

पारद लैंप में जो थोड़ा सा पारा भरा होता है, उसका ताप बाहरी वायुमंडल के ताप के बराबर ही होता है। आंशिक निर्वातन में भी वह बहुत ही स्वल्प मात्रा में उद्वाष्पित होता है। इसके बल्ब में थोड़ी सी ऑर्गन गैस भी भर दी जाती है, जिसके कारण ही प्रदीपन आरंभ होता है। लैंप जलाने के लिये स्विच खोलने के कुछ मिनट बाद हो इसके इलेक्ट्रोड इतने गरम हो जाते हैं कि उनमें निकलनेवाले चाप की गरमी से पारद की काफी मात्रा उद्वाष्पित हो जाती है। इसमें कितनी देर लगती है, यह लैंप की बनावट तथा उसके सहायक उपकरणों पर निर्भर करता है। अत: ज्यों ही पारद के वाष्प की दाब बढ़ती है, इलेक्ट्रोडों के बीच बननेवाला चाप बल्व के मध्यभाग में केंद्रित हो जाता है। इस प्रकार के लैंप बल्ब को ऊर्ध्वाधर रखकर ही जलाए जाते हैं। इस प्रकार के लैंप बल्व को ऊर्ध्वाधर रखकर ही जलाए जाते हैं, क्योंकि क्षैतिज दिशा में इन्हें रखने से चाप के नीचे झुक जाने का डर रहता है, जिससे वह काँच के बल्ब को छूकर तोड़ दे सकता है। इन लैंपों में बननेवाले विद्युतच्चाप में इतनी गरमी होती है कि साधारण काँच के बल्ब काम दे ही नहीं सकते, अत: इसके लिये या तो विशेष प्रकार के तापसह काँच का प्रयोग किया जाता है, अथवा स्फटिक ही खोल बनाई जाती है।

सोडियम वाष्प लैंप- इन लैंपों के बल्ब एक विशेष प्रकार के काँच से बनाए जाते हैं, जो सोडियम को सह सकते हैं। बल्ब में धात्विक सोडियम और पिननुमा दो इलेक्ट्रोड लगे रहते हैं तथा थोड़ी सी निऑन गैस भरी जाती है। इन लैंपों के भीतर बड़ी ही तीव्र गरमी पैदा होती है, अत: मुख्य बल्व के ऊपर एक पादर्शक खोल चढ़ा दिया जाता है, जिसमें निर्वातन किया होता है। निऑन गैस के कारण विद्यद्विसर्जन क्रिया आरंभ होती है और फिर तेज गरमी के कारण भीतर का सोडियम उद्वाष्पित हो जाता है। आरंभ के कुछ मिनटों तक तो उसमें से लाल, पीले रंग का मिश्रित प्रकाश निकलता है और जब धात्विक सोडियम शनै: शनै: उद्वाष्पित होकर आयनित (ionisied) हो जाता है तब उसमें से एकरंगी पीली रोशनी निकलने लगती है। इस प्रक्रिया में कुल मिलाकर लगभग 15-20 मिनट लग जाते हैं।

पराबैंगनी लैंप (Ultra-violet Lamp)- पराबैंगनी विकिरण संबंधी काफी जानकारी प्राप्त हो जाने से दस प्रकार की लघुतरंगीय ऊर्जा प्राप्त करने के आजकल कई स्रोत मालूम हो गए हैं। साधारणतया इसे कार्बन तथा टंग्स्टेन विद्युच्चापों तथा कई प्रकार के गैसीय वैद्युत विसर्जन लैंपों द्वारा भी प्राप्त किया जाता है।

प्रतिदीप्तिशील (Flurescent) लैंप- यह भी एक प्रकार का पराबैंगनी विकिरण लैंप है। इसकी नली के भीतर कुछ प्रतिदीप्तिशील पदार्थो के चूर्णों द्वारा बने विलयन पोत दिए जाते हैं। इसकी नली के भीतर उत्पन्न होनेवाली लघुतरंगीय पराबैंगनी ऊर्जा, जो साधारणतया अदृश्य रहती है, उन प्रतिदीप्तिशील पदार्थों को सक्रिय बनाकर दृश्यमान प्रकाश उत्पन्न कर देती है। इन पोते जानेवाले पदार्थो में जिंक सिलिकेट, कैडमियम सिलिकेट अथवा कैल्सियम टंग्स्टेन आदि पदार्थ हैं। जैसा भी रंग प्राप्त करना हो, उसके अनुसार उपर्युक्त पदार्थ प्रयुक्त किए जाते हैं।

ये लैंप लंबी काँच की नलियों के रूप में बनाए जाते हैं। दोनों सिरों पर एक एक बाहरी संयोजक लगा दिए जाते हैं, जिसमें टंग्स्टेन के तार के वेष्टनयुक्त, तंतुमय इलेक्ट्रोड लगे होते हैं। इन तंतुमय इलेक्ट्रोडों पर भी किसी प्रकार का इलेक्ट्रान उत्सर्जक पदार्थ लगा होता है तथा कॉच की नली के भीतर भी पारद की एक छोटी सी बूँद और कुछ मिलीमीटर दाबयुक्त शुद्ध ऑर्गन गैस भर दी जाती है, जिसके कारण लैंप को चालू करने में आसानी होती है। इस प्रकार के लैंप की बनावट तथा उपकरणों का बाहरी दृश्य दिखाया है उसके विद्युत तारों का संयोजन आरेखीय विधि से दिखाया है। प्रत्येक लैंप के साथ में विद्युद्धारा का स्थिरीकरण करने के लिये, छोटे से बेष्टन के रूप में एक चोक (choke) लगा दिया जाता है, जिससे एक निश्चित मात्रा में ही विद्युत धारा उस लैंप में प्रविष्ट हो सके। साथ में एक स्टार्टिंग स्विच भी लगाई जाती है, जो प्रधान स्विच लगाते ही स्वयं खुल जाती है, इससे उच्च वोल्टीयता का क्षणिक आवेग उत्पन्न होकर दोनों इलेक्ट्रोडों के बीच विद्युतच्चाप उत्पन्न हो जाता है, जो उन्हें गरम कर फिर स्वयं बंद हो जाता है। प्रत्येक लैंप के साथ इस प्रकार के उपकरण जुदा जुदा लगाना आवश्यक होता है, जो उस लैंप को वाट शक्ति, आवृत्ति तथा वोल्टीयता के अनुसार होते हैं।

शक्ति गुणक में सुधार की आवश्यकता- विद्युद्विदों को यह भली भाँति मालूम है कि किसी भी विद्युत चालित यंत्र के साथ विद्युतधारा प्रेरण-कुंडलियों तथा धारानियंत्रक आदि सहायक उपकरणों का प्रयोग करने से, प्रधान यंत्र में खर्च होनेवाली विद्युतशक्ति का गुणक (power factor) कुछ कम पड़ जाता है, अर्थात्‌ विद्युद्धारा की वोल्टीयता की मात्रा में कुछ कमी हो जाती है, जो कुंडलियों को नाप और सहायक उपकरण के प्रकार पर निर्भर करती है। यदि सहायक उपकरण न लगे हों तो उस यंत्र में साधारणतया दिष्ट और प्रत्यावर्ती दोनों ही प्रकार की धाराओं के परिपथों में ओह्म का नियम, 'वाट = वोल्ट X ऐंपीयर' लागू होता है। लेकिन उपयुक्त प्रकार के लैंपों के साथ यदि प्रेरण कुंडली और धारा नियंत्रक चोक आदि श्रेणी में लगे हों, तो उक्त नियम का रूप 'वाट = वोल्ट X ऐंपीयर X शक्तिगुणक' हो जाता है। केवल प्रदीप्त लैपों के लिये औसत शक्ति गुणक 90% के लगभग होता है, लेकिन चोक आदि उपकरण साथ में लगा देने पर वह 50% से 60% तक हो जाता है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ एक ही जगह कई प्रतिदीप्त लैंप श्रेणीबद्ध लगाए जाएँ, वहाँ प्रत्येक लैंप के साथ ऐसा विशेष उपकरण भी लगाना अत्यावश्यक होता है जिससे उसके गिरते शक्तिगुणक में सुधार होकर खर्चे में किफायत हो। इस उद्देश्य से प्रत्येक लैंप के साथ एक उचित प्रकार का कंडेंसर चोक-कुंडली के परिपथ के आड़े (across the circuit) में लगा दिया जाता है (देखें चित्र 100) जहाँ विच्छिन्न कला युक्त (split phase) धारा परिपथ के सिद्धांत पर दो लैंप साथ साथ लगाए जाते हैं, वहाँ एक लैंप को तो केवल प्रेरणिक प्रतिरोधक (inductive resistance) के साथ और दूसरे को प्रेरणकुंडली (inductance) और धारित्र (capacitor) से श्रेणी में संबंधित कर देते हैं। इस प्रकार के लैपों के लिये विद्युतीय संबंधों को चित्र 11. में दिखाया है।

प्रकाश प्रदीप्ति मापन देखें प्रकाशमिति।

प्रदीपन विधियाँ  किसी स्थान को प्रदीप्त करने की तीन विधियाँ है :(1) प्रत्यक्ष प्रदीपन, (2) अप्रत्यक्ष प्रदीपन तथा (3) अर्धप्रत्यक्ष प्रदीपन।

प्रत्यक्ष प्रदीपन विधि- इस विधि के अनुसार लैंप से निकलनेवाला समस्त प्रकाश पहले छत को प्रकाशित करता है, फिर वहाँ से विसरित (diffuse) होकर फर्श और समस्त कमरे को प्रकाशित करता है। इसमें कमरे की छत स्वयं प्रकाश के स्रोत का काम करने लगती है, जिससे प्रकाश की चौंध कम होकर कमरे की प्रदीप्ति मृदु हो जाती है तथा परछाइयाँ हलकी पड़कर स्थान सुहावना लगने लगता है:

अर्धप्रत्यक्ष प्रदीपन विधि- थोड़ा सा प्रकाश तो इस विधि में सीधा नीचे को आता है और अधिक भाग छत की तरफ जाकर उसे प्रकाशित करता है, जिससे उपर्युक्त दोनों विधियों से होनेवाले लाभ प्राप्त हो जाते हैं। दूसरी और तीसरी विधि का प्रयोग करते समय यह आवश्यक है कि छत साफ हो और सफेदी मिले किसी हलके रंग से रंगी हो।

प्रकाशवितरण की विधियाँ- प्रकाश सदैव सीधी किरणों के रूप में ही अपने स्रोत से सब दिशाओं में फैला करता है। अत: हमारे इष्ट स्थान पर स्रोत के समस्त प्रकाश का बहुत ही कम भाग पहुँचने पाता है। स्रोत से निकलनेवाले प्रकाश का पूरा लाभ उठाने के लिये हमें कुछ युक्तियाँ अपनानी पड़ती हैं। निम्नलिखित चार तरीकों में से किसी एक अथवा अधिक के मिश्रित प्रयोग प्रकाश का पूरा लाभ उठाया जाता है : (1) परावर्तन (reflection), (2) अपर्वतन (refraction), (3) विसरण (diffusion), तथा (4) अवशोषण (absorption).

परावर्तन- बत्ती ब में से आनेवाली प्रकाशकिरण बत एक खूब पालिश की हुई क्षैतिज सतह के त बिंदु पर लंब रेखा से जितना कोण बनाती हुई पड़ती है, उसी के बराबर कोण विपरीत दिशा में बनाती हुई तथा दिशा में परावर्तित होकर चली जाती है। इस प्रकार के परावर्तन के विषय में बाद रखना चाहिए कि क्षैतिज सतह चाहे कितनी भी उत्तमत्ता पालिश की गई हो, प्रकाश की जितनी मात्रा बत दिशा से आती है, वह सबकी सब परावर्तित होकर तय दिशा में नहीं जाने पाती। उसका कुछ भाग क्षैतिज परावर्तक का धरातल, जो अपारदर्शी है सोख लेता है।

परावर्तन और अपवर्तन प्रकाश के स्रोत ब से बत किरण एक मोटे काँच पर पड़ती है, जिसकी निचली सतह पर चाँदी की कलई की हुई है। इस किरण के प्रकाश का कुछ भाग तो ऊपर की सतह पर पड़कर त बिंदु से ही तय दिशा में यथापूर्व परावर्तित हो जाता है और उसी किरण के प्रकाश का कुछ भाग काँच की निचली सतह में परावर्तित होता है। इस प्रकार के परावर्तक से अपवर्तन और परावर्तन द्वारा हमें कुछ अधिक प्रकाश प्राप्त हो जाता है। फिर भी काँच की ऊपरी सतह और निचली कलईयुक्त सतह प्रकाश का कुछ न कुछ भाग तो सोख ही लेती है।

विसरण- प्रकाशस्रोत य से वत किरण एक धुँधली पालिशुक्त सतह पर पड़ती है, जिसको हम अनगनित कोणीय क्रिस्टलयुक्त समझ सकते हैं। अत: उपर्युक्त सतह पर कोई प्रकाशकिरण पड़ते ही उन भिन्न भिन्न क्रिस्टलों से टकराकर, उनके विभिनन कोणों के कारण अनेक भागों में विभक्त होकर, विभिन्न दिशाओं में परावर्तित होतीहै, जैसा चित्र 14. में तथा दिशा में एक प्रभामंडल (halo) द्वारा प्रदर्शित किया है। इस प्रकार प्रकाशकिरण के विभक्त होकर परावर्तित होने को हम विसरण कहते हें। बाजार में स्टील के बने ऐल्यूमिनियम के पेंट चढ़े जो परावर्तक मिलते हैं वे अर्धधुँधले (semi-mat) प्रकार के पॉलिशयुक्त होते हैं। इनके द्वारा होनेवाला विसरित परावर्तन केवल एक ही दिशा में होता है। लेकिन जब कोई प्रकाशकिरण किसी खुरदरी तथा बिना पॉलिश की हुई सतह पर पड़ती है तब प्रकाश की किरण वहों पर विभक्त होकर सब दिशाओं में विसरित होकर फैल जाती है। इस प्रकार की सतह को हम किसी भी दिशा, वह एक सी ही चमकती दिखाई देगी (देखें चित्र 15.)। सफेद अथवा हल्के रंग की दीवारों से जो प्रकाश हमारे पास नीचे आता है, वह इसी प्रकार के विसरण का फल है। प्रकाश का कुछ भाग ये सतहें ही सोख लेती हैं।

दूधिया काँच (Opal glass) के परावर्तक- आजकल परावर्तक तथा हँड़ियों के बनाने में दुधिया काँच का भी प्रयोग होता है। इससे प्रकाश का कुछ भाग तो पॉलिश किए हुए तल पर पड़ते ही परावर्तित हो जाता है और शेष भाग काँच के भीतर घुसकर उसके सफेद कणों से टकराकर सब दिशाओं में फैलता है (देखें चित्र 16.)। दूधिया काँच के परावर्तक और हँड़िया औरों से अच्छी समझी जाती है जैसा दूधिया काँच का। इस्पात लगा होने के कारण ये बिलकुल अपारदर्शक होते है।

तुवारित कोंच (Frosted glass) के परावर्तक- पारदर्शक काँच पर तुषारण की क्रिया केवल उसकी एक ही सतह पर की जाती है। यह क्रिया या तो अम्ल से निक्षारित (etch) कर, अथवा सतह की रेतमारी (sand blasting) द्वारा, होती है। इस प्रकार की बहुधा हँडियाँ ही बनाई जाती हैं, जो भीतर से आनेवाले प्रकाश को केवल विसरित कर बाहर की तरफ फैला देती हैं। यहाँ प्रकाश के स्रोत से आनेवाली किरण का कुछ भाग तो थ चिह्नित दिशा में परिवर्तित हो जाता है और कुछ भाग अपवर्तन द्वारा बाहर दूसरी तरफ निकलकर, तुषारित सतह के ऊँचे नीचे दाँतों से विभक्त होकर, एक प्रभामंडल के रूप में निकलता है और एक अन्य भाग अपवर्तित किरण के रूप में भी अपने निर्दिष्ट कोण पर चलता है, जिससे प्रभामंडल की पूँछ सी बन जाती है।

प्रिज्मीय काँच (Prismatic glass) के परावर्तक एवं हँडियाँ  इस प्रकार के परावर्तक अथवा हँड़ियाँ आवश्यकतानुसार लैंप के साथ लगा देने से किरणों की दिशा बदल जाती है। चित्र 19. में प्रिज्म द्वारा किरणों का परावर्तन तथा चित्र 20. में उनका अपवर्तन दिखाया गया है।

प्राकृतिक तथा कृत्रिम प्रकाश- मानवीय स्वास्थ्य तथा आँखों के लिये वास्तव में सुखकर तो सूर्य से आनेवाला प्राकृतिक प्रकाश ही है। बड़ी इमारतों में यह प्रकाश खिड़कियों, रोशनदानों तथा दरवाजों से प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन इनमें से आनेवाले प्रकाश की प्रखरता बड़े कमरों के मध्य भाग में, जो वास्तव में काम करने की एक खास जगह होती है, पहुँचते पहुँचते बड़ी शीघ्रता से घटने लगती है। इस दोष को कम करने के लिये लोग खिड़कियों को बड़ा तथा ऊँचा बनाते हैं। उत्तर गोलार्ध में स्थित देशों के मकानों में उत्तर की तरफ बनी खिड़कियों से प्रकाश मिलता है, लेकिन इसकी एक सीमा होती है, क्योंकि खिड़की या रोशनदानों से कुछ दूर हटकर यह प्रकाश अपर्याप्त जँचने लगता है। दूसरे, बरसात के दिनों में बादल होने पर तथा सूर्योस्त के बाद काम करने की आवश्यकता पड़ने पर और दिन के प्रथम तथा अंतिम प्रहर में भी सूर्य का प्रकाश मंद रहता है, अत: कृत्रिम प्रकाश के बिना काम चल ही नहीं सकता। लेकिन यह कृत्रिम प्रकाश भी ऐसा होना चाहिए जो दोपहर के समय कमरे के भीतर धूपरहित तेज प्रकाश के लगभग समान हो।

अनुपयुक्त प्रकाश का स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव- प्रकाश की मंदता के कारण, जिसे हम व्याप्त तथा हलकी छाया कह सकते हैं, कार्यकर्ताओं को अपने काम की वस्तुएँ देखने में आँखों पर जोर डालना, पड़ता है, जिससे उन्हें शारीरिक तथा मानसिक थकावट होकर काम करने में उत्साह कम हो जाता है। फिर लगातार उसी वातावरण में जबरदस्ती काम करते रहने से उनके स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। आवश्यकता से अधिक प्रखर प्रकाश भी, जो निरंतर चौंधियानेवाला हो, आँख की नाड़ियों में थकावट उत्पन्न कर देता है और यह भी स्वास्थ्य के लिये उतना ही हानिप्रद होता है जितना मंद प्रकाश।

दुर्घटनाएँ उसी समय होती है जब कार्यकर्ता यह नहीं देख पाते कि वे किस चीज पर कहाँ और क्या क्रिया कर रहे हैं। यह बात बहुत चौंधियानेवाले प्रखर प्रकाश तथा मंद प्रकाश दोनों ही में हो सकती है। किसी भी वस्तु को स्पष्टतया देख सकने की योग्यता उस वस्तु के आकार, प्रकाश के रंग व्यतिरेक (contrast), प्रकाश की प्रखरता तथा अवलोकन के लिये प्राप्त समय पर निर्भर करती है। जब प्रकाश मंद होता है तब वस्तु के पहचानने में अधिक समय लगता है और इसी बीच में दुर्घटना भी हो सकती है। आँख पर बत्ती का सीधा प्रकाश, अथवा अप्रत्यक्ष रीति से भी अधिक प्रखर प्रकाश, पड़ने के कारण आँखों द्वारा देखने की सामर्थ्य कम हो जाती है। आँखों को लगातार असुविधा और नाड़ियों पर अधिक देर तक तनाव रहने के कारण सिर में दर्द होने लगता है, फिर एकाएक दृष्टिक्षेत्र को कम प्रकाश को ओर ले जाते ही आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है तथा लाल, पीले, नीले, हरे आदि धब्बे दिखाई देने लगते हैं। इसी अवसर पर दुर्घटना भी हो सकती है। वास्तव में कम प्रकाश की अपेक्षा चौंध के कारण अधिक दुर्घटनाएँ हुआ करती हैं। प्रकाश के फुस्फुरण (flickering), अर्थात्‌ अस्थिरता से, जो प्रकाश के स्रोत और दर्शक के नेत्रों के बीच में किसी बिजली के पंखे या पुली जैसी ठोस वस्तु के बार बार गुजरने से होती है, आँखे थक जाया करती हैं।

अच्छे प्रकाश से उसकी तीव्रता का ही आशय नहीं समझना चाहिए, बल्कि उपयुक्त तीव्रता का स्थिर प्रकाश ही समझना चाहिए। उदाहरणत:, यदि 20 फुट कैंडिल के प्रकाश को दिन के पूर्ण-प्राकृतिक प्रकाश के समान मान लिया जाए, जिसमें बिना किसी थकावट से सही काम हो सकता है, तो उसे घटाकर 18 फुट कैंडिल के बराबर कर देने से उसमें काम करनेवालों की उत्पादन क्षमता 75% ही रह जाएगी, औ जो गलतियाँ 20 फुट कैंडिल प्रकाश में हुआ करती थीं उनकी संख्या दुगनी हो जाएगी।

प्रकाश के साथ छाया का महत्व- यदि किसी वस्तु पर हम ऊपर तथा चारों तरफ से प्रकाश डालें, तो उस वस्तु के उभार आदि हमें नहीं दिखाई देंगे और वह वस्तु चपटी तथा भद्दी मालूम पड़ेगी एवं उसे तुरंत पहचानने में भी कठिनता होगी। यदि वस्तु पर दोनों बगल तथा ऊपर से ही प्रकाश आने देकर कुछ हलकी छायाएँ भी दें, तो उसके उभार तथा निचाई के स्थल भी स्पष्ट मालूम पड़ेंगे। अत: उसे पकड़ने तथा उठाने में भी कठिनता न होगी और वह सुंदर भी लगेगी।

प्रदीप्ति आयोजन- जिस स्थान पर जैसा काम करना हो, अथवा जिस प्रयोजन से किसी जगह का उपयोग करना हो, वहाँ उसी के अनुसार लैंप तथा उनके उपसाधन, तार, खंभे, ब्रैकेट, परावर्तक आदि लगाने चाहिए। यदि कोई दस्तकारी के काम करने हों, या मशीनें चलानी हों तो, उसके अनुसार, और यदि रहने का मकान, सोने का तथा खाने का स्थान, सभाभवन, दफ्तर, दुकान, आने जाने का मार्ग, अथवा खेल आदि का खुला मैदान हो, तो इनके अनुसार प्रकाश का आयोजन करना चाहिए। इसमें भी छतों की ऊँचाई, कमरों की लंबाई चौड़ाई तथा दीवारों और फर्नीचर के रंग के अनुसार लैंपों आदि का चुनाव करना चाहिए। किसी काम के लिये बत्ती को बिल्कुल पास या दूर रखना आवश्यक है, इसका विचार करना चाहिए। औद्योगि कारखानों और मालगोदामों में प्रकाश की क्षमता पर अधिक ध्यान देना चाहिए तथा सजावट पर बहुत कम। व्यापारिक कार्य के दफ्तरों, गोदामों, होटलों, पुस्तकालयों अजायबघरों, रेलेवे स्टेशनों और आवास घरों में सुंदरता तथा सुरक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए। हलके लाल प्रकाश से गर्मी, स्पूर्ति और शक्ति की भावना बढ़ती है, हलके हरे और नीचे प्रकाश से ठंढक, शांति तथा सुंदर की भावना बढ़ती है।

किस प्रकार और कितने कितने लैंप कहाँ लगाए जायँ, यह बात वहाँ होनेवाले काम पर निर्भर करती है। कारखानों में प्रत्यक बेंच अथवा मशीन पर अलग अलग बत्ती होनी चाहिए, जिससे प्रत्येक कर्मचारी को यथेष्ट प्रकाश मिल सके। सार्वजनिक इमारतो और बड़े हों, यह बात छत की ऊँचाई और प्रदीप्ति की प्रखरता पर निर्भर करती है। यदि छत गर्डरों से बँटी हुई हो, तो प्रत्येक गर्डर से उचित दूरी पर लैंप लटकना चाहिए। दुकान की प्रदर्शन खिड़कियों में एक दम सामने चमकता लैंप न लगाकर परावर्तित प्रकाश देना चाहिए, जिससे ग्राहक को समान तो दिखाई दे लेकिन चौंध न लगे। लोग बड़े विस्तृत क्षेत्रों को प्रदीप्त करने के लिये एक ही बहुत शक्तिशाली लैंप लगाने की सोचा करते हें, लेकिन उससे सब जगह एक सा प्रकाश नहीं मिलता। अच्छा तो यह हो कि जहाँ एक हजार कैंडिल शक्ति का लैंप लगाने का विचार हो, वहाँ सौ सौ कैंडिल शक्ति के दस लप लगाए जाऍ। बहुत अधिक दूरी पर अलग अलग लैंप लगाने से भी नीचे एक समान प्रकाश नहीं रहता और अधिक छायाएँ पड़ती हैं, अत: उनकी ऊँचाई बढ़ाकर तेज लैंप लगाना चाहिए। बहुत छोटे लैंपों को यदि अधिक नीचा कर कम दूरियों पर लगाएँ, तो प्रकाश तो एक समान मिल जाएगा और छाया भी नहीं रहेगी, लेकिन लगाने का आरंभिक खर्चा अधिक हो जाएगा।

सं. ग्रं.  ए. डब्लू. बार्टन : ए टेक्स्ट बुक ऑव लाइट; बी. सी. चैटर्जी : इल्यूमिनेशन इंजीनियरिंग। (ओंकारनाथ शर्मा)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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