प्रकाशिकी (Optics)

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 13:45
प्रकाशिकी (Optics) प्रकाश की प्रकृति और उसके गुणों के अध्ययन से संबंधित विज्ञान है। अध्ययन की सुविधा के लिये इसे तीन भागों में विभाजित किया जाता है। वे तीन भाग हैं : 1. ज्यामितीय प्रकाशिकी (Geometrical optics), 2. भौतिकी प्रकाशिकी (Physical optics) तथा 3. क्वांटम प्रकाशिक (Quantum optics)।

ज्यामितीय प्रकाशिकी में प्रकाश के गुणों का अध्ययन, किरण सिद्धांत के आधार पर किया जाता है अर्थात्‌ यह मान लिया जाता है कि प्रकाश सीधी रेखा में चलता है। इस भाग में प्रकाश की प्रकृति के बारे में कुछ भी प्रकाशिकी में किया जाता है और बहुत अंशों तक उसकी व्याख्या के लिये तरंगसिद्धांत का सहारा लेना पड़ता है। ज्यामितीय प्रकाशिकी में प्रकाश के परावर्तन तथा अपवर्तन का अध्ययन होता है जिनका सीधा संबंध हमारी आँखों से होता है। अतएव ज्यामितीय प्रकाशिकी को स्थूल प्रकाशिकी (Macro optics) कहते हैं। प्रकाश की प्रकृति समझने के लिये हमें उन नियमों का प्रतिपादन करना पड़ता है जिनकी क्रियाएँ हमारी आँखों से दिखाई नहीं देतीं। अतएव भौतिक प्रकाशिकी को सूक्ष्म प्रकाशिकी (Micro opitcs) कहते हैं। प्रकाशिकी का तीसरा भाग क्वांटम प्रकाशिकी कहलाता है। इसमें परमाणु कणों तथा प्रकाश की पारस्परिक क्रियाओं का वर्णन होता है। इन क्रियाओं की सही व्याख्या के लिये क्वांटम यांत्रिकी का सहारा लेना पड़ता है। इस भाग को परमाणु प्रकाशिकी (Atomic optics) भी कहते हैं। कुछ लोग आँख की रचना और क्रिया को लेकर शरीरक्रियात्मक प्रकाशिकी (physiological optics) को भी प्रकाशिकी का एक भाग मानते है। इस भाग में आँखों पर प्रकाश के पड़ने के बाद की क्रिया का अध्ययन होता है।

प्रकाशिकी का वास्तविक विकास 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में गैलिलीओ के कार्यो से प्रारंभ होता है। इसके बाद इस क्षेत्र में न्यूटन, हाइगेंज (Huygens) और रोमर जैसे वैज्ञानिकों ने पदार्पण किया। सन्‌ 1608 में हालैंड के चश्मे के लेंस बनानेवाले हैंस लिपरशे (Hans Lippershey) ने पहला खगोलीय दूरदर्शी (astronomical telescope) बनाया। इसके कुछ महीने बाद गैलिलीओ ने अपना खगोलीय दूरदर्शी (astronomical telescope) बनाया। इसके बाद कई प्रकार के दूरदर्शी बनाए गए, यद्यपि उनमें गोलीय और वर्णिक विपथन के दोष वर्तमान थे। सन्‌ 1663 में ग्रेगोरि और न्यूटन ने ऐसे सूक्ष्मदर्शी बनाए जिनमें वर्णिक विपथन का दोष नहीं था। इसी समय स्पेक्ट्रोस्कोप का भी अविष्कार हुआ। सन्‌ 1675 में प्रसिद्ध खगोलशास्त्री रोमर ने बृहस्पति के उपग्रहों की गति का पर्यवेक्षण कर बताया कि प्रकाश की किरणें दिक्‌ (space) में एक निश्चित वेग से चलती हैं। इस आविष्कार के बाद न्यूटन तथा हाइगेंज ने प्रकाश के संचारण (propagation) संबंधी अपने अपने सिद्धांत प्रतिपादित किए।

प्रकाश के संचरण की यांत्रिकता समझाने के लिये न्यूटन ने अपना कणिका सिद्धांत (Corpuscular theory) प्रस्तुत किया। प्रकाश की प्रकृति के दिग्दर्शन के लिये यही उन्हें सबसे सरल सिद्धांत जान पड़ा। उन्होंने बतलाया कि प्रकाशस्रोत से प्रकाश के छोटे छोटे कण निकलते हैं और ये कण, प्रकाश के वेग से, दिक्‌ में फेंके जाते हैं। दिक्‌ में इनकी गति ठीक वैसी ही होती है, जैसी बंदूक से छोड़ी हुई गोली की होती है। जब ये कण आँख की रेटिना पर पड़ते हैं, तो हमें वस्तु का आभास होता है। इस सिद्धांत से प्रकाश का ऋजुरेखी संचरण (rectilinear propagation of light) आसानी से समझा जा सकता है। परावर्तन और अपवर्तन की घटनाओं का स्पष्टीकरण इस सिद्धांत द्वारा संभव है। परावर्तन की क्रिया में जब प्रकाश कण परावर्तन करनेवाले समतल के समीप आता है तो इसके वेग का अभिलंब घटक (normal component) समतल की उपस्थिति से प्रभावित होने लगता है। ज्योंही प्रकाश कण समतल से एक विशेष दूरी तक पहुँचता है, प्रतिकर्षण के कारण अभिलंब घटक का मान कम होने लगता है और समतल पर पहुँचते शून्य हो जाता है। समांतर घटक का मान सदैव वही रहता है। समतल से स्पर्श करते ही प्रकाशकण, पहलेवाले माध्यम में, किंतु दूसरी दिशा में ढकेल दिया जाता है। पुन: समतल की उपस्थिति का प्रभाव समाप्त होने पर प्रकाश कण पूर्ववत्‌ वेग प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार अपवर्तन (refraction) की भी व्याख्या दी जा सकती है। किंतु न्यूटन के कणिका सिद्धांत से यह निष्कर्ष निकला कि अपवर्तन की क्रिया में, माध्यम में, प्रकाशकण का वेग, वायु के वेग से अधिक होता है। बाद में प्रयोगों द्वारा यह पूर्णतया निश्चित हो गया कि कणिका सिद्धांत का यह निष्कर्ष त्रुटिपूर्ण था। व्यतिकरण और विवर्तन की घटनाओं की व्याख्या इस सिद्धांत से करने का अवश्य प्रयत्न किया गया, किंतु विशेष सफलता न मिल सकी। यह स्पष्ट है कि इस घटना के प्रतिपादन पर गुरुत्वाकर्षण की घटना का समुचित प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

प्रकाश के संचरण को समझाने के लिये हाइगेंज ने तरंग सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्होंने बतलाया कि ध्वनितरंगों की भाँति प्रकाश की तरंगें होती हैं। जिस प्रकार जल से भरे गड्ढे में पत्थर का टुकड़ा फेंकने से, जल की सतह पर तरंगें उत्पन्न होती हैं या ध्वनि उत्पादक के कंपन से ध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार प्रकाश स्रोत में स्थित द्रव्यकणों के कंपन से प्रकाश की तरंगें उत्पन्न होती हैं। प्रकाश स्रोत के पासवाले माध्यम में विक्षोभ उत्पन्न होता है और यह विक्षोभ आगे बढ़ता चला जाता है। किसी भी तरंग के संचरण के लिये माध्यम आवश्यक है, किंतु अनंत शून्य में फैले तारों से फिर भी प्रकाश हम तक पहुँचता है। इस बात को समझने के लिये हाइगेंज ने एक ऐसे माध्यम की कल्पना की जो संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला हो। इस माध्यम को उन्होंने ईथर कहा। प्रकाश के प्रचंड वेग के कारण यह मान लिया गया है कि इसकी प्रत्यास्थता बहुत अधिक और घनत्व बहुत कम होता है। ईथर कणों का कंपन उसी दिशा में होता है जिस दिशा में तरंगें चलती हैं अर्थात्‌ प्रकाश की तरंगें, हाइगेंज के अनुसार, अनुदैर्ध्य (longitudinal) होती हैं। बाद में, फ्रेनेल (Fresnel) के प्रतिभापूर्ण कार्यो से यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि प्रकाश की तरंगें अनुदैर्ध्य न होकर अनुप्रस्थ (transverse) होती हैं। हाइगेंज के सिद्धांत के अनुसार, तरंगाग्र (wave front) पर स्थित प्रत्येक कण नए विक्षोभ (disturbance) का केंद्र होता है। इन नए विक्षोभकेंद्रों से उत्पन्न तरंगों को द्वितीयक तरंगें कहते हैं। इन सब द्वितीयक तरंगों का अन्वालोप (envelope) प्रकाशतरंग को प्रदर्शित करता है और इस प्रकार तरंग आगे बढ़ती चली जाती है। इस धारणा के अनुसार, अग्रमुख तरंग के साथ साथ पश्चमुख (back ward) तरंग भी होना चाहिए, किंतु हाइगेंज का सिद्धांत इस तरंग के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इस सिद्धांत पर हाइगेंज, प्रकाश का अपवर्तन, परावर्तन तथा आंतरिक पूर्ण परावर्तन तो समझा सके किंतु ऋजुरेखी संचरण की समुचित व्याख्या न कर सके। न्यूटन के व्यक्तित्व के प्रभाव से लगभग 100 वर्षो तक हाइगेंज के तरंग सिद्धांत का विशेष समादर न हो सका।

सन्‌ 1665 में ग्रिमाल्डी ने देखा कि बारीक छिद्रों से निकलने पर प्रकाश की किरणें फैल जाती हैं। प्रकाश के इस गुण को उन्होंने विवर्तन (diffraction) बतलाया। सन्‌ 1670 में बर्थोलीनियस (Bertholinious) ने कैल्साइट के क्रिस्टलों (Crystals) में द्विअपवर्तन (double refraction) देखा और किरणों में ध्रुवण (polarisatoion) का गुण पाया। 18वीं शताब्दी के अंत में (Young) ने एक बड़ा मनोरंजक प्रयोग किया। एक पर्दे के बारीक छिद्र को उन्होंने सूर्य की किरणों से प्रकाशित किया। इस छिद्र से किरणें निकलकर दूसे पर्दे पर पड़ीं। कुछ दूरी पर रखे तीसरे पर्दे पर प्रकाशहीन और प्रकाशमान बैंड दिखाई दिए। इन बैंडों की रचना, दूसरे पर्दे के दोनों छिद्रों से निकली हुई प्रकाशतरंगों के अध्यारोपण (superposition) के कारण हुई थी। इस घटना को व्यतिकरण (Interference) कहा गया। 100 वर्षो पूर्व हाइगेंज द्वारा प्रतिपादित तरंगसिद्धांत को इस प्रयोग से एक दृढ़ आधार मिला, क्योंकि यह घटना केवल तरंगसिद्धांत से ही समझी जा सकती है।

सन्‌ 1850 में फूको (Foucault) ने प्रकाश के वेग संबंधी कई प्रयोग किए। उन्होंने यह ज्ञात किया कि प्रकाश का वेग किसी सघन माध्यम में विरल माध्यम की अपेक्षा कम पाया जाता है। इससे तरंगसिद्धांत की विशेष पुष्टि हुई। यद्यपि हाइगेंज अपने तरंगसिद्धांत से ध्रुवण की व्याख्या नहीं कर सके, तथापि इसकी व्याख्या तरंगसिद्धांत से ही फ्रेनेल ने की और उन्होंने सिद्ध किया कि प्रकाश की तरंगें अनुदैर्ध्य नहीं बल्कि अनुप्रस्थ होती हैं। इन्हें अनुप्रस्थ तरंगें मानकर प्रकाश की ऋजुरेखी संचरण, परावर्तन, अपवर्तन तथा विवर्तन आदि की व्याख्या दी गई। फ्रेनेल के समय तक प्रकाशिकी ऐसी घटनाओं का विज्ञान समझी जाती थी जिससे भौतिकी के अन्य क्षेत्र, जैसे विद्युत्‌ तथा चुंबकत्व आदि से कोई विशेष संबंध न था। फैराडे प्रभाव से सर्वप्रथम प्रकाश और चुंबकत्व के बीच का संबंध मालूम हुआ।

सन्‌ 1873 में डाइइलेक्ट्रिकों (dielectrics) में विस्थापन धारा के अध्ययन से मैक्सवेल इस परिणाम पर पहुँचे कि विद्युच्चुंबकीय विक्षोभ दिक्‌ में एक निश्चित वेग से चलता है। यह वेग वे = होता है। यहाँ चुं ( ) चुंबकशीलता (magnetic permeability) है। ग (c) विद्युचुंबकीय और स्थिर विद्युतीय इकाइयों की निष्पत्ति है। शून्य में चुं ( ) तथा नि (k) के इकाई के बराबर होने के कारण वे = ग (v = c) होता है। वेबर (waber) तथा कोलरासश (Kohlraush) के प्रयोगों से विदित हुआ कि विद्युच्चुंबकीय तथा स्थिर विद्युतीय इकाइयों की निष्पत्ति ग (c) = 3.107 1010 सेंमी. प्रति सेकंड है। अब यह स्पष्ट हो गया कि शून्य में विद्युच्चुंबकीय विक्षोभ का वेग प्रकाश के वेग के बराबर होता है। इस निष्कर्ष के आधार पर मैक्सवेल ने प्रकाश विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत के अनुसार प्रकाश की प्रकृति विद्युच्चुंबकीय होती है। मैक्सवेल सिद्धांत मंर विद्युत्‌ और चुंबकीय दोलन के आयामों का वर्ग तीव्रता का समानुपाती होता है। विद्युत्‌ तथा चुंबकीय क्षेत्र एक दूसरे के अभिलंबवत्‌ तथा वेग की दिशा के भी अभिलंबवत्‌ होते हैं। विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत के आधार पर परावर्तन, अपवर्तन तथा वर्णविक्षेपण (dispersion) आदि प्रक्रियाओं की विवेचना बड़ी सुंदरता से की गई जिनकी व्याख्या प्रत्यास्थ ठोस सिद्धांत (elastic solid theory) के आधार पर बड़ी कठिनाई के साथ हुई थी। इस सिद्धांत के अनुसार प्रकाश अब बृहत्‌ विद्युच्चुंबकीय समुदाय का एक सदस्य पाया गया। इसका विस्तार गामा किरणों से लेकर रेडियो तरंगों तक हैं। मैक्सवेल के विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत की सत्यता की पुष्टि सन्‌ 1888 में हर्ट्स (Hertz) के प्रयोगों द्वारा हुई। हर्ट्‌स ने पाया कि विद्युच्चुंबकीय विक्षोभ, दोलनीय विसर्जन (oscillating discharge) से उत्पन्न होता है। हर्ट्‌स के विद्युच्चुंबकीय तरंगों का रूप प्रकाश तरंगों के समान होता है। उनमें भेद केवल उनके तरंगदैर्ध्य में होता है।

सन्‌ 1910 में विज्ञान में एक नए युग का प्रवेश हुआ जल प्रकाश की यांत्रिक व्याख्या छोड़कर वैज्ञानिकों ने गणित की ओर कदम उठाया। काले पिंडों के विकिरण (black body radiation) पर कार्य करते हुए मैक्सप्लांक (Max Planck) ने देखा कि विकिरण के प्रायोगिक निष्कर्ष और सैद्धांतिक विवेचना में साम्य नहीं है। यह देखा गया कि प्रयोग के परिणामों की व्याख्या करना ------ सिद्धांत (classical theory) के अनुसार संभव न था। अतएव को काले पिंड़ों के विकिरण की व्याख्या को अधिक स्पष्ट करने के लिये प्लांक ने एक नए सिद्धांत की खोज की, जिसे क्वांटम सिद्धांत कहते हैं। यह सिद्धांत यह बतलाता है कि ऊर्जा दिक्‌ में सतत रूप में नही अपितु खंडित रूप में चलती है। ऊर्जा की इन छोटी इकाइयों को क्वांटम कहते हैं। एक तरंग क्वांटम दूसरी तरंग की क्वांटम से भिन्न होता है। तरंग की ऊर्जा की माप, आवृत्ति होती है। किसी क्वांटम की ऊर्जा ऊ= थिआ (E = h ) होती है। इस समीकरण में आ ( ) Êविकिरण की आवृत्ति और थि (h) प्लांक का स्थिरांक है। यह स्थिरांक प्रकृति के व्यापक स्थिरांकों में से एक है। इसका मान अत्यंत कम, अर्थात्‌ 6.55 10-27 अर्ग सेकंड है।

सन्‌ 1905 में प्लांक के अनुमान की व्यापकता और बढ़ी। आईस्टांइन ने प्लांक के सिद्धांत को और आगे बढ़ाया और इसकी उपयोगिता सिद्ध की। स्वयं हेर्टस ने, जिन्होंने तरंगसिद्धांत की नींव को मजबूत किया था, एक प्रयोग में पाया कि जब किसी कंडेंसर की दो प्लेटों के बीच स्फुरण कराया जाता है और उनपर अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश पड़ने दिया जाता है, तब स्फुलिंग की तीव्रता (intensity) बढ़ जाती है। वे तरंगसिद्धांत के आधार पर इस घटना की व्याख्या न कर सके। दूसरे वैज्ञानिकों ने भी देखा कि जब किसी धातुपत्र को बैगनी, पीली तथा लाल रश्मियों से बारी बारी से चमकाया जाता है तब धातुपत्र से इलेक्ट्रॉन निकलते हैं, यद्यपि विभिन्न रश्मियों के पड़ने से निकले इलेक्ट्रानों के वेग में भिन्नता होती है। इलेक्ट्रॉनों के वेग पर रश्मियों के तरंगदैर्ध्य का ही प्रभाव पड़ता है, उनकी तीव्रता का नहीं। इस घटना की व्याख्या न तो फ्रेनेल के प्रत्यास्थ-ठोस सिद्धांत पर और न मैक्सवेल के विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत पर ही की जा सकी। अंत में आइंस्टान ने इस घटना को क्वांटम सिद्धांत पर समझाया। उन्होंने बतलाया कि प्रकाश अविरल धारा के रूप में न प्रवाहित होकर, ऊर्जा की छोटी छोटी पोटलियों में प्रवाहित होता है और इन पोटलियों को उन्होंने (Photon) कहा। जब ये फोटॉन प्लेट में स्थित इलेक्ट्रॉनों से टकराते हैं तो इनकी ऊर्जा लेकर इलेक्ट्रान प्लेट से निकल पड़ते हैं। यदि फोटॉन की ऊर्जा कम होती है तो इलेक्ट्रॉन नहीं निकल पड़ते हैं। यदि फोटॉन की ऊर्जा कम होती है तो इलेक्ट्रॉन नहीं निकल पाते। इस घटना को आइंस्टाइन ने प्रकाश-विद्युत्‌-प्रभाव नाम दिया और इसे प्रकाश-विद्युत-समीकरण से समझाया, जिसमें द्र (m) इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान, वे(v) वेग, थि (h) प्लांक स्थिरांक, आ ( ) तरंग की आवृत्ति और का (w) इलेक्ट्रॉन को धातुपत्र से बाहर निकालने के लिये आवश्यक ऊर्जा का मान है। आगे चलकर क्वांटम सिद्धांत के आधार पर अन्य घटनाएँ, जैसे कॉम्पटन प्रभाव, रमन प्रभाव आदि की, व्याख्या की जा सकी।

आइंस्टाइन आदि वैज्ञानिकों की खोजों के परिणामस्वरूप क्वांटम सिद्धांत के महत्व को स्वीकार किया गया और यह भी मान लिया गया कि प्रकाश अत्यंत छोटे कणों (क्वांटम) में चलता है। किंतु प्रकृति में कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जिनकी व्याख्या क्वांटम सिद्धांत पर बिलकुल नहीं हो सकती। एक ओर क्वांटम सिद्धांत के आधार पर प्रकाश-विद्युत-प्रभाव, कॉम्पटन प्रभाव ओर रमन प्रभाव आदि की व्याख्या की गई तो दूसरी ओर व्यतिकरण, विवर्तन और ध्रुवण आदि घटनाओं की व्याख्या के लिये तरंगसिद्धांत का ही सहारा लेना पड़ा। प्रकाश की इस दोहरी प्रवृत्ति से वैज्ञानिकों को बड़ी उलझन मंद पड़ना पड़ा। प्रकृति के इस दोहरे रूप की विवेचना सर्वप्रथम सन्‌ 1925 में लूइ द ब्रॉगली (Louis de Broglie) ने की। इन्होने बतलाया कि पदार्थ और विकिरण की परस्पर क्रीड़ा को समझाने के लिये कणों को पृथक्‌ न मानकर, तरंगप्रणाली से समन्वित माना जाय। इन्होंने अपना तर्क उपस्थित करते हुए बतलाया कि चूँकि प्रकृति सममिति (symmetry) पसंद करती है, अत: जब प्रकाश, तरंग और कण दोनों रूप में रह सकता है तो पदार्थके कण भी दो रूपों में अर्थात्‌ कण ओर तरंग के रूप में अपना अस्तित्व रख सकते हैं। उनके इस सिद्धांत का प्रायोगिक सत्यापन दो अमरीकी वैज्ञानिक डेविसन (Davisson) और गरमर (Germer) ने किया। इन लोगों ने निकल के क्रिस्टल पर इलेक्ट्रॉन की किरण डाली, जिसके परिणामस्वरूप ठीक उसी तरह के विवर्तन के प्रभाव प्रकट हुए जिस तरह के प्रभाव एक सूक्ष्म छिद्र से प्रकाश को गुजारने से होते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञात हुआ कि इलेक्ट्रॉन का तरंगदैर्ध्य ठीक उतना ही होता है जितना ब्रॉगली के समीकरण दै = थि/द्र वे ( द्वारा मिलता है। आगे चलकर अनेक प्रयोग किए गए और इन प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया कि इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, परमाणु तथा अणु आदि भी अलग अलग कण न होकर तरंगों की भिन्न प्रणालियों से संबंधित होते हैं। बाद में श्रोडिंगर ने ब्रॉगली के सिद्धांत पर गणित की सहायता से एक नवीन शाखा स्थापित की, जिसे तरंग यांत्रिकी (Wave Mechanics) कहते हैं।

प्रकृति के इस विरोधाभास को दूर करने के लिये अनेक वैज्ञानिक प्रकाश में आए, जिनमें मैक्सबॉर्न (Maxborn), हाइजेनबेर्ख (Heisenberg), डिरैक (Dirac) और जॉर्डन (Jordon) मुख्य हैं। इन वैज्ञानिकों ने गणित के आधार पर दिखाया कि इलेक्ट्रॉन को किसी भी रूप में, अर्थात्‌ कण के रूप में या तरंग के रूप में, मानने से कोई अंतर नहीं पड़ता। वह केवल संभावना (Probability) की तरंग है और इसके आयाम का वर्ग किसी विशेष स्थान पर (प्रणाली में) उपस्थिति की संभावना को व्यक्त करता है। इन वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के कारण 300 वर्षो से आती हुई खाई पूरी तरह पाट दी गई। आज का वैज्ञानिक यह चिंता ही नहीं करता कि प्रकाश एक तरंग है अथवा कण। इन वैज्ञानिकों ने अपने जिन सिद्धांतों का विवेचन किया है, अब उसे क्वांटम यांत्रिकी कहते हैं। यह तर्कसमत और क्रमबद्ध विचारों की पद्धति है, जिसमें गणित की विशेष सहायता ली जाती है।

ज्यामिति प्रकाशिकी में तीन नियम बड़े ही महत्व के हैं। इन्हे ज्यामिति प्रकाशिकी की आधारशिला कह सकते हैं। ये हैं प्रकाश का ऋजुरेखी संचारण, परावर्तन तथा अपवर्तन। समांगी माध्यम में प्रकाश किरण सीधी रेखा में चलती है। इस तथ्य का दृष्टांत हम अपने दैनिक जीवन में तथा साधारण प्रयोगों में पाते हैं। दूर स्थित बिजली के बल्ब से आते हुए प्रकाश के मार्ग में यदि कोई अवरोध आ पड़ता है, अथवा चंद्रमा या सूर्य को बादल का छोटा टुकड़ा ढँक लेता है तो प्रकाश नहीं दिखाई देता। कमरे की छत के छोटे से छिद्र से आता हुआ प्रकाश एक सीधी रेखा में दिखाई देता है। प्रकाश के सीधी रेखा में चलने का परिणाम छाया है। चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इसी कारण होते हैं। परावर्तन और अपवर्तन की घटनाओं की जानकारी बहुत पहले ही प्रयोगों के आधार पर हो चुकी थी। किंतु इनका महत्व बहुत बाद में ज्ञात हुआ। प्रकाश की प्रकृति स्पष्ट करने के लिये, प्रतिपादित अनेक सिद्धांतों के द्वारा अब परावर्तन और अपवर्तन के नियमों की व्युत्पत्ति दी जा सकती है, किंतु ज्यामिति प्रकाशिकी में इन्हें केवल तथ्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। जब कोई किरण एक माध्यम में चलकर दूसरे माध्यम की सीमा से टकराती है तब वह या तो पहले ही माध्यम में लौट आती है, या दूसरे माध्यम में प्रवेश करती है। किरण के पहले माध्यम में लौटने को परावर्तन तथा दूसरे माध्यम में प्रवेश करने को अपवर्तन कहते हैं। परावर्तन के नियम निम्नलिखित हैं :

(अ) आपतित, किरण, अभिलंब (normal) तथा परावर्तित किरण एक ही समतल में होती हैं।

(ब) आपतन कोण और परावर्तन कोण बराबर होते हैं।

इसी प्रकार अपवर्तन के नियम निम्नलिखित हैं :

(स) अपवर्तित किरण, अभिलंब तथा अपवर्तित किरण एक ही समतल में होती हैं।

(द) आपतन कोण तथा अपवर्तन कोण की ज्याओं (sines) में एक निश्चित निष्पत्ति पाई जाती है।

यदि आपतन कोण तथा अपवर्तन कोणों की क्रमश: फ ( ) और फ (  ) से संबोधित करें तो यदि पहला माध्यम शून्य, अथवा वायु, हो तो स्थिरांक ( ) को दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक (refractive index) कहते हैं। शून्य अथवा वायु के लिये यह स्थिरांक लगभग ईकाई के बराबर पाया जाता है। यदि पहले माध्यम का स्थिरांक थि ( ) तथा दूसरे का थि1 ( 1) हो, तो समीकरण को निम्न प्रकार लिखा जा सकता हैं :

अर्थात्‌ थि ज्या फ = थि1 ज्या फ [ sin =  1 sin  ]

इस समीकरण को स्नेल का नियम (Snell' law) कहते हैं, क्योंकि, सर्वप्रथम स्नेल ने ही इस नियम का आविष्कार किया था। इस नियम का सबसे पहले उपयोग करनेवाला फ्रांस का वैज्ञानिक देकार्त (Descartes) था। अतएव फ्रांस में इस नियम को देकार्त का नियम भी कहते हैं।

ज्यामिति प्रकाशिकी का एक महत्वपूर्ण उपयोग गोलीय दर्पणों और लेंसों के बनाने मंद किया जाता है। गोलीय दर्पण खोखले गोलों से काटकर बनाए जाते हैं। उभरे भाग पर कलई करने से अवतल दर्पण (concave mirror) और चिपटे भाग पर कलई करने से उत्तल दर्पण (convex mirror) बनता है। जिस गोले से दर्पण काटकर बनाया जाता है, उसका केंद्र दर्पण का वक्रताकेंद्र (center of curvature) कहलाता है। दर्पण का मध्यबिंदु ध्रुव (pole) कहलाता है। ध्रुव और वक्रताकेंद्र को मिलानेवाली रेखा दर्पण का अक्ष कहलाती है। इस अक्ष पर एक ऐसा बिंदु होता है जिसपर दर्पण पर आपतित समांतर किरणें या तो आकर संकेंद्रित होती है, या संकेंद्रित होती हुई प्रतीत होती हैं। इस बिंदु को दर्पण का फोकस (focus) कहते हैं। ध्रुव से फोकस की दूरी, फोकस दूरी, (focal length) कहलाती है। गोलीय दर्पणों में फोकस दूरी,वक्रता त्रिज्या (radius of curvature) की आधी होती है। दर्पणों में 1/य + 1/र = 1/ना [1/u+1/v=1/f] सूत्र प्रयुक्त होता है। यहाँ य (u) दर्पण से वस्तु की दूरी र (v) दर्पण से प्रतिबिंब की दूरी तथा ना (f) दर्पण की फोकस दूरी है। फोकस दूरी के व्युत्क्रम को दर्पण की क्षमता (power of miror) कहते हैं। ना (f) को मीटर में प्रदर्शित किया जाता है। क्षमता को इकाई को डायप्टर (diopter) कहते हैं।

लेंस दो प्रकार के होते हैं, अभिसारी (convergent) तथा (divergent) । अभिसारी लेंस बीच में मोटे तथा सिरों पर पतले होते हैं। ये आपतित किरणों को इकट्ठी कर देते हैं। इसके विपरीत अपसारी लेंस किरणों को फैला देते हैं। ये बीच में पतले तथा सिरों पर मोटे होते हैं। लेंस में दो फोकस होते हैं। इन्हें प्राथमिक तथा द्वितीयक फोकस कहते हैं। यदि लेंस के दोनों और दो प्रकार के माध्यम हों, तो प्राथमिक तथा द्वितीयक फोकस दूरियों के मान विभिन्न होते हैं1 माध्यम के एक होने पर इनके मान बराबर होते हैं। लैंसों द्वारा प्रतिबिंब रचना में सूत्र का उपयोग किया जाता है। यहाँ त्रि1 (r1) तथा त्रि2 (r2) लेंस के दो वक्र पृष्ठों (जिनमें एक समतल भी हो सकता है। वैसी अवस्था में 1/ त्रि1 = 0 (1/r2 = 0) हो जाता है) की वक्रता त्रिज्याएँ हैं। लैंसों की क्षमता भी डायप्टर में निकाली जाती है। मुख्यतया लेंसों को दो वर्गो में बाँटा जाता है : पतले लेसों में तथा मोटे लेंसों में। जब लेंस की मोटाई, उसकी फोकस दूरी तथा वक्रता त्रिज्याओं की तुलना में, उपेक्षणीय हो तब लेंस को पतला लेंस कहते हैं। लेंस की मोटाई पर्याप्त होने पर उसे मोटा लेंस कहते हैं। मोटे लेंस के लिये आवश्यक नहीं है कि केवल एक लेंस हो। इसमे बहुत से पतले लेंस या लेंस संयोजन हो सकते हैं। हाँ, सभी लेंसों का समाक्ष (coaxial) होना आवश्यक है। यदि किसी तंत्र में एक से अधिक लेंस हों, तो तंत्र द्वारा बने प्रतिबिंब का स्थान ज्ञात करने के लिये एक विधि यह है कि प्रत्येक पृष्ठ पर प्रकाश-किरण का अपवर्तन देखा जाय। यद्यपि यह सिद्धांत में बड़ी सरल है, किंतु काम बड़े परिश्रम का है। गाउस (Gauss) ने तंत्र में स्थित दो ऐसे समतलों को बताया जिनकी जानकारी से प्रतिबिंब का स्थान सुगमता से ज्ञात हो सकता है। इन समतलों को मुख्य समतल (Principal planes) कहते है। किसी प्रकाशतंत्र में इनकी संख्या दो होती है। जहाँ ये दो समतल मुख्य अक्ष को काटते हैं, उन दो बिंदुओं को मुख्य बिंदु (Principal points) कहते हैं। इसके अतिरिक्त लेंस तंत्र में चार बिंदु तथा चार समतल और होते हैं, जो बड़े महत्व के हैं। ये निनंति बिंदु (nodal points) और फोकस बिंदु (focal points) तथा निनंति समतल (nodal planes) और फोकस समतल (focal planes) कहलाते हैं। इस तरह के बिंदुओं, अर्थात्‌ मुख्य, निर्नति तथा फोकस, को प्रधान बिंदु (cardinal points) कहते हैं और समतलों को प्रधान समतल (cardinal planes)। चूँकि गाउस ने इन बिंदुओं और समतलों को खोजा था, अतएव इन्हें गाउस बिंदु और गाउस समतल भी कहते हैं। निर्नति बिंदुओं और समतलों का अस्तित्व तभी तक होता है जब तक लेंस या लेंस तत्र के दोनों ओर दो माध्यम हों। माध्यम एक होने पर निर्नति बिंदु, मुख्य बिंदुओं से संपाती हो जाते हैं।दर्पण और लैंसों द्वारा बने प्रतिबिंबों में यह मान लिया जाता है कि उनका द्वारक अथवा ऐपरचर बहुत कम है, तथा उनपर आपतित किरणें मुख्य अक्ष से दूर नहीं हैं। किंतु बहुत से प्रयोगों में इन शर्तो का ठीक ठीक पालन नहीं हो पाता। स्पष्ट और तीव्र प्रतिबिंब बनाने के लिये ऐपरचर बड़ा करना ही पड़ता है ताकि मुख्य अक्ष से दूर की किरणों को भी ग्रहण किया जा सके। फलत: जिन अनुमानों के आधार पर दर्पण और लेंसों द्वारा प्रतिबिंब बनते हैं, उन अनुमानों में व्यतिरेकता आ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिबिंबों में दोष आ जाते हैं। एकवर्णी प्रकाश प्रयुक्त करने पर दर्पणों और लेंसों द्वारा बने प्रतिबिंबों में उत्पन्न दोषों को एकवर्णी दोष (monochromatic defects) कहते हैं। ये दोष पाँच प्रकार के होते हैं : (क) गोलीय विपथन (spherical aberation), (ख) अविंदुकता (astigmatism), (ग) कोमा (coma), (घ) वक्रता (curvature) तथा (च) विकृति (distortion)। लेंस का ऐपरचर और आकार छोटा होने पर भी, बहुवर्णी प्रकाश के उपयोग से वस्तु का प्रतिबिंब दोषयुक्त हो जाता है, क्योंकि लेंस की फोकस दूरी विभिन्न वर्णो के लिये विभिन्न मान की होती है। इस प्रकार लेंस द्वारा बने प्रतिबिंब विभिन्न वर्णो और आकृतियों के हो जाते हैं। प्रतिबिंबों मे उत्पन्न इस दोष को वर्णिक विपथन (chromatic aberration) कहते हैं। जब लेंस या दर्पण के ऐपरचर और फोकस दूरी की निष्पत्ति बड़ी होती है, तो समांतर परिरेखीय किरणें (peripheral rays) परावर्तन या अपवर्तन के बाद दर्पण या लेंस के फोकस पर न केंद्रित होकर उससे दूर केंद्रित होती हैं। मुख्य अक्ष से ज्यों ज्यों किरणों का झुकाव कम होता जाता है। उपाक्षीय किरणों से वस्तु का प्रतिबिंब ठीक फोकस पर बनता है। अतएव किसी एक स्थान पर वस्तु का प्रतिबिंब तीव्र और स्पष्ट नहीं बन पाता। प्रतिबिंब में पाए जानेवाले इस दोष का होता है : अनुदैर्ध्य (longitudinal) तथा पार्श्विक या अनुप्रस्थ (lateral or transverse)। गोलीय विपथन प्रतिबिंबों में गोलीय विपथन दूर करने के लिये परवलयिक या दीर्घवृत्तज दर्पण, या संशोधक प्लेट (corrector plate) प्रयुक्त किया जा सकता है। द्वारक को छोटा करके भी यह दोष दूर हो सकता है। अविवथी तंत्र में भी यह दोष नहीं पाया जाता। प्रतिबिंबों में अविंदुकता का दोष वस्तु के प्रधान अक्ष से दूर होने के कारण उत्पन्न होता है। द्वारक को छोटा करके तथा उत्तल और अवतल लेंसों के उचित संयोजन से भी यह दोष बहुत अंशों तक दूर हो जाता है। लेंस के विभिन्न भागों से प्रतिबिंब का आवर्धन समान न होने से, प्रतिबिंब में दोष आ जाता है। इस दोष को कोमा (coma) कहते हैं। प्रतिबिंब का आकार कॉमेट (पुच्छल तारा) के आकार का होने से इस दोष को कोमा कहा जाता है। उचित ऐपरचर के उपयोग से तथा वस्तु को लेंस से उचित दूरी पर रखने से, कोमा का कुछ निवारण हो जाता है। अविपथी बिंदुओं के लिये भी गोलीय विपथन के साथ कोमा का दोष भी समाप्त हो जाता है। वक्रता और विकृति से उत्पन्न दोष उचित द्वारक के व्यवहार से ठीक हो जाते हैं। लेंसों से वर्णिक विपथन का दोष दूर करने के लिये दो लेंसों का ऐसा संयोजन प्रयुक्त करते हैं जिनमें लेंस विपरीत प्रकृति के हों तथा उनकी वर्ण विक्षेपण क्षमताएँ विभिन्न हों।

भौतिक प्रकाशिकी में व्यतिकरण, विर्वतन तथा ध्रुवण को घटनाएँ बड़ी महत्वपूर्ण हैं। इन सभी घटनाओं की प्रक्रियाएँ प्रकाश की तरंग प्रकृति से संबंधित हैं। हाइगेंज के तरंगसिद्धांत को लोगों ने तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक सन्‌ 1801 में यंग ने अपने ऐतिहासिक प्रयोग द्वारा इसकी सत्यता का प्रमाण नहीं दे दिया। उनका तक था कि यदि प्रकाश तरंग स्वरूप है, तो उसमें अध्यारोपण के कारण व्यतिकरण अवश्य होना चाहिए और इस व्यतिकरण के परिणाम स्वरूप प्रदीप्त और अदीप्त धारियाँ (फ्रन्जें, fringes) मिलनी चाहिए। उन्होंने इस तथ्य की सच्चाई जानने के लिये प्रयोग किए और व्यतिकरण के कारण प्रदीप्त और अदीप्त फ्रंजों को देखा। यों तो अध्यारोपण के सिद्धांत के अनुसार किन्हीं दो तरंगों के कारण व्यतिकरण की घटना दिखाई देनी चाहिए, किंतु स्थायी व्यतिकरण की तरंगों का समदैर्ध्य का होना आवश्यक है। इस घटना को पानी से भरे एक गढ़े में देखा जा सकता है। दो कला संबद्ध (coherent) स्रोतों से ही व्यतिकरण की घटना दिखाई देती है। व्यतिकरण फ्रंजों को अनेक विधियों से प्राप्त किया जा सकता है, जिसमें फ्रेनेल के दर्पण, लायड का दर्पण और फ्रेनेल के द्विक्प्रिज्म (biprism) मुख्य हैं। व्यतिकरण फ्रजों को उत्पन्न करनेवाली इन विधियों में तरंगाग्र (wave front) का विभाजन होता है। माइकेल्सन के व्यतिकरणमापी (Michelson's) में तरंग के आयाम का विभाजन होता है, अर्थात्‌ इस विधि में प्रकाश का कुछ भाग परावर्तित और कुछ भाग अवर्तित होता है। इनकी परस्पर क्रिया से व्यतिकरण फ्रजें उत्पन्न होती हैं। साबुन के बुलबुलों में, या किसी द्रव के ऊपर फैली तेल की पतली सतह पर, कई प्रकार के रंग दिखाई देते हैं। यह घटना दो समतल पृष्ठों से परावर्तित किरणों के व्यतिकरण के कारण होती है। इसे बहुल व्यतिकरण (multiple interference) कहते हैं। इस प्रकार के फ्रंजों को उत्पन्न करनेवाले मुख्य उपकरण फ्रैबी-पेरो का व्यतिकरणमापी (Fabry-Perot interferometer) तथा लूमर गहर्के का प्लेट (Lummer Gehrcke plate) हैं।

प्रकाश का ऋजुरेखीय संचारण तभी तक सत्य उतरता है जब तक उसकी राह में पर्याप्त आकारवाली वस्तु रखी जाय। जब प्रकाश किसी छोटे छिद्र से गुजरता है, या इसकी राह में कोई छोटा अवरोध, जैसे बाल, महीन तार आदि, रखा जाता है तब परदे पर वस्तु का ठीक ज्यामितीय आकार नहीं मिलता। लगता है कि वस्तु की ज्यामितीय छाया में प्रकाश का अनधिकार प्रवेश हो गया है। उन स्थानों पर जहाँ पूर्ण प्रकाश होना चाहिए था, पूर्ण प्रकाश नहीं होता। अवरोध के तेज किनारों पर प्रकाश मुड़ जाता है। प्रकाश के इस प्रकार के मुड़ने को विवर्तन (diffraction) कहते हैं। अध्ययन की सरलता के हेतु विवर्तन की घटना का अध्ययन दो वर्गो में होता है  फ्रेनेल वर्ग तथा फ्राउनहोफर वर्ग में। फ्राउनहोफर वर्ग का विवर्तन, फ्रेनेल वर्ग से (प्रयोग तथा सिद्धांत दोनों दृष्टियों में) सुगम होता है। फ्रेनेल वर्ग में प्रकाशस्रोत तथा पर्दा दोनों सीमित दूरी पर होते हैं, जब कि फ्राउनहोफर वर्ग में प्रकाशस्रोत, पर्दा या दोनों अनंत पर स्थित होते हैं। वर्ण विक्षेपण के लिये विवर्तन ग्रेटिंग (diffraction grating) एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपकरण सिद्ध हुई है। विवर्तन ग्रेटिंग दो तरह की होती है : पारगमन ग्रेटिंग तथा अवतल (concave) ग्रेटिंग। उच्च अनुसंधान कार्यो में अवतल ग्रेटिग का उपयोग बढ़ता जा रहा है। चूँकि स्पेक्ट्रम को प्लेट पर फोकस करने के लिये अवतल ग्रेटिंग में लेंस की आवश्यकता नहीं होती, अतएव इसका उपयोग अल्ट्रावॉयलेट क्षेत्र में सुगमता से हो सकता है। इसके आरोपण (mounting) की विधियों में ईगल (Eagle) की आरोपण विधि पर्याप्त लोकप्रिय होती जा रही है।

व्यतिकरण और विवर्तन की घटनाओं से हमें यही पता चलता है कि प्रकाश की प्रकृति तरंग की प्रकृति है और व्यतिकरण तथा विवर्तन के प्रयोगों द्वारा तरंगों का तरंगदैर्ध्य ज्ञात करते हैं1 किंतु इन प्रयोगों से हमें यह नहीं पता चलता कि तरंगें किस प्रकार की हैं, अर्थात्‌ वे अनुदैर्ध्य होती हैं या अनुप्रस्थ, कंपन रेखिक होते हैं या वृत्तीय या दीर्घवृत्तीय। हमें इन सबकी जानकारी उन प्रयोगों द्वारा होती हैं, जो प्रकाश के ध्रुवण से संबंधित होते हैं। ध्रुवित प्रकाश उत्पन्न करने की बहुत सी विधियाँ हैं, जिनमें परावर्तन, पारगमन, द्विअपवर्तन तथा प्रकीर्णन मुख्य हैं। द्विअपवर्तन की क्रिया कैल्साइट और क्वाटंज्‌ के क्रिस्टलों में पाई जाती है। ये दोनों प्रकार के क्रिस्टल प्रकृति में, दृश्य और पराबैंगनी किरणों के लिये पारदर्शी पाए जाते हैं। जब साधारण प्रकाश का किरणपुंज इन क्रिस्टलों पर पड़ता है तब बाहर निकलने पर दो किरणपुंज दिखलाई देते हैं। इनमें एक किरणपुंज (beam) कहलाता है और दूसरा जो स्नेल के नियम का पालन नहीं करता, असाधारण किरणपुंज कहलाता है। वस्तुओं में उपस्थित ध्रुवण समतल को घुमाने के गुण को ध्रुवण धूर्णकता (optcal activity) कहते हैं।

क्वांटम प्रकाशिकी में प्रकाश की कणिकाप्रकृति तथा तरंगप्रकृति में सामंजस्य उत्पन्न किया गया है। व्यतिकरण, विवर्तन तथा ध्रुवण जैसी घटनाओं की व्याख्या फोटॉन सिद्धांत पर की जाती है। क्वांटम यांत्रिकी की नींव अब पर्याप्त मजबूत हो चुकी है और इसपर प्रकाशिकी का विशाल भवन बड़ी तेजी से बनता जा रहा है (जयनारायण राय)

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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