प्रकृति की सेवा करें, सब कुछ शुभ होगा

Submitted by Hindi on Fri, 06/24/2011 - 11:17
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मासानोबू फुकूओका पर लिखी गई पुस्तक 'द वन स्ट्रा रेवोल्यूशन'

अपनी इच्छा-शक्ति को परे सरका कर केवल प्रकृति के इशारों पर ही चलें तो भी उन्हें भूखों मरने की नौबत नहीं आएगी। पहले के जमाने में खेती को एक पवित्र काम माना जाता था। जब मानवता ने इस आदर्श को भुलाया तभी से व्यापारिक कृषि पैदा हुई। जैसे ही किसान ने पैसे कमाने के लिए फसलें उगाना शुरू किया, वह खेती के असली सिद्धांतों को भूल गया।

दुनिया के मौजूदा संकटों का एक मात्र बुनियादी कारण मानव की मनमानी इच्छाएं हैं। समाज के विघटन के साथ कम के बजाए ज्यादा, धीमे के स्थान पर तेज, इस भड़कीले विकास की धारणा की सीधा संबंध है। इसी के कारण मानव प्रकृति से दूर होता चला गया है। मानवता को व्यक्तिगत फायदों और भौतिक सुविधाओं पर अंकुश लगा आध्यात्मिक चेतना की तरफ मुड़ना होगा। कृषि को विराट यांत्रिक गतिविधियों से दूर हो ऐसे छोटे फार्मों की तरफ लौटना होगा जो खुद जिंदगी से जुड़े हुए हों। भौतिक जीवन और आहार को सादगी भरा परिवेश देना होगा। ऐसा करने से ही हमारे काम हमें सुखद लगेंगे तथा आध्यात्मिक अनुभवों के लिए पर्याप्त गुंजाइश निकल आएगी। किसान अपनी गतिविधियों का दायरा जितना बढ़ाता है उतना ही ज्यादा उसके मन और शरीर का क्षय होता है, और उतना ही वह आध्यात्मिक दृष्टि से संतुष्टिदायक जीवन से दूर होता जाता है। छोटे पैमाने की खेती आपको पुराने ढर्रे की लग सकती है, लेकिन ऐसा जीवन जीते हुए ही आपको आत्मिक चेतना के उस ‘महान पथ’ के बारे में चिंतन करने का मौका मिल सकता है, जिसमें आप दैनिक जीवन की सामान्य क्रिया कलापों पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं।

मेरे ख्याल से यदि हम अपने परिवेश और रोजमर्रा के जीवन पर गहराई से विचार करें तो हमारी आंखों के सामने एक नई महानतम दुनिया उजागर हो सकेगा। बहुत पुराने दिनों में एक एकड़ खेत पर खेती करने वाला किसान जनवरी, फरवरी तथा मार्च के महीने पहाड़ों पर खरगोशों का शिकार करते हुए बिताता था। यद्यपि वह ‘बेचारा किसान’ कहलाता था, फिर भी उसे इस प्रकार की आजादी प्राप्त थी। नये साल की छुट्टियां तीन महीने तक चलती थीं। धीरे-धीरे यह अवकाश सिकुड़ते हुए पहले दो महीने, फिर एक महीने और अब सिर्फ तीन दिन का रह गया है। नव वर्ष की छुट्टियों का इस तरह कम हो जाना यह बतलाता है कि, किसान कितना ज्यादा व्यस्त हो गया है तथा उसने अपनी सहज शारीरिक और मानसिक सेहत खो दी है। आधुनिक किसानी में किसान के लिए कविता करने या गीत रचने के लिए वक्त बचने का सवाल ही नहीं उठता।

पिछले दिनों गांव के उपासना स्थल की सफाई करते हुए मैं यह देखकर चौंक गया कि, वहां दीवारों पर कुछ पट्टिएं लटकी हुई हैं। उन पर की गर्द झाड़कर जब मैंने धुंधले पड़ गए अक्षरों को ध्यान से देखा तो वहां दर्जनों ‘हाईकू’ कविताएं लिखी नजर आई। इतने छोटे से गांव में भी बीस-तीस लोगों ने ‘हाईकू’ काव्य रचा और उसे ईश्वर को भेंट किया। यानी उस जमाने में लोगों के जीवन में इतनी ढेर सारी खुली जगह थी। इनमें से कुछ पद्य रचनाएं तो सदियों पुरानी रही होंगी, चूंकि यह इतनी पुरानी बात है, वे किसान निश्चय ही गरीब रहे होंगे, लेकिन उनके पास कविता रचने के लिए खाली वक्त की कमी नहीं थी। अब इस गांव में किसी के पास कविता के लिए समय नहीं है। सर्द जाड़ों के महीनों में वे ब-मुश्किल एक-दो दिन का समय खरगोश के शिकार के लिए निकाल पाते हैं। अब तो फुर्सत के समय भी आकर्षण का केंद्र, उनके लिए टेलिविजन होता है। किसी किसान के जीवन को समृद्ध बनाने वाले सादी कलाओं की अब कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। जब मैं कहता हूं कि खेती अब आत्मा के लिहाज से दरिद्र हो गई है तो मेरा यही मतलब होता है, खेती अब सिर्फ भौतिक विकास का साधन बन गई है।

ताओवादी संत लाओत्जू कहते हैं कि, एक संपूर्ण और भली जिंदगी छोटे से गांव में ही जी जा सकती है। जैन, बौद्ध सम्प्रदाय के संस्थापक बोधिधर्म ने नौ वर्ष का समय, बगैर इधर-उधर भटके एक गुफा में बिताया था। हरदम पैसा बनाने, नकद फसलों को उगाने-बढ़ाने तथा उन्हें बाजार में भेजने की चिंता करते रहना किसी किसान को शोभा नहीं देता। यहां गांव में रहना, प्रत्येक दिन और सब दिन की सम्पूर्णता को पूरी आजादी और खुशहाली के साथ जीना ही कृषि का मूल तरीका हो सकता है। अपने तजुर्बों को आधे-आधे हिस्सों में बांटकर एक को भौतिक तथा दूसरे को आध्यात्मिक कहना, संकुचित और उलझे हुए सोच का नतीजा है। भोजन पर ही निर्भर करते हुए लोग जी नहीं सकते। अंत में जाकर हम निश्चित रूप से तो कह ही नहीं सकते कि, भोजन या खाद्य वस्तु क्या है। सबसे अच्छा तो यह है कि, लोग खाद्य के बारे में सोचना ही बंद कर दें। इसी तरह यदि लोग ‘जीवन का सच्चा मतलब क्या है’ इसे जानने की कोशिश में परेशान होना भी बंद कर दें, तो भी उनका भला होगा।

इस महान आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर शायद हमें कभी भी नहीं मिल सकता। लेकिन यदि हम उसे नहीं जान पाते तो वह भी वैसे ठीक ही है। हम पैदा हुए हैं और इस धरती पर जीते हुए जिंदगी की वास्तविकता का प्रत्यक्ष सामना कर रहे हैं। जिंदगी पैदा हो जाने के नतीजे से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिंदा रहने के लिए लोग क्या कुछ न खाते हों, यह सब जो कुछ उन्होंने इसके बारे में सोच रखा है, उससे ज्यादा कुछ नहीं है। यह दुनिया इस ढंग से बनी है कि, यदि वे अपनी इच्छा-शक्ति को परे सरका कर केवल प्रकृति के इशारों पर ही चलें तो भी उन्हें भूखों मरने की नौबत नहीं आएगी। मानव जीवन का सच्चा आधार है - यहां इस क्षण में जिओ। जब हमारा अधकचरा वैज्ञानिक ज्ञान जिंदगी का आधर बन जाता है तो लोग कुछ इस ढंग से जीने लगते हैं जैसे के केवल चोकर, चर्बी, प्रोटीन, वनस्पतियां और केवल नाईट्रोजन, फास्फोरस के भरोसे ही जिंदा रह सकते हैं और वैज्ञानिकः वे प्रकृति को चाहे जितना टटोलें, चाहे कितना अनुसंधान करें, अंत में उन्हें यही पता चलता है कि, यह कुदरत कितनी रहस्यमयी मगर कितनी परिपूर्ण है। यह मानना कि शोध और आविष्कारों के द्वारा इंसान प्रकृति से बेहतर कोई चीज रच सकता है, बहुत बड़ा भ्रम है। मेरे ख्याल से तो लोगों के इतने सारे संघर्षों का कारण सिवा इसके कोई अन्य नहीं है कि, एक दिन वे उस चीज को महसूस कर लेंगे, जिसे हम ‘प्रकृति की विराटता’ कह सकते हैं। जब तक किसान अपने काम के लिए प्रकृति की सेवा करता है, सब ठीक रहता है।

पहले के जमाने में खेती को एक पवित्र काम माना जाता था। जब मानवता ने इस आदर्श को भुलाया तभी से व्यापारिक कृषि पैदा हुई। जैसे ही किसान ने पैसे कमाने के लिए फसलें उगाना शुरू किया, वह खेती के असली सिद्धांतों को भूल गया। बेशक, व्यापारी की भी समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन उनकी गतिविधियों की महिमा बखान करने से जीवन के असली स्रोत के महत्व को मानने से लोग दूर होने लगते हैं। खेती एक ऐसा पेशा है जो कि प्रकृति के दायरे में होने के कारण इस स्रोत के करीब होता है। बहुत से किसान प्राकृतिक परिवेश में रहते और काम करते हुए भी उससे अनजान रह जाते हैं। लेकिन मेरे खयाल से खेती ही उन्हें उसके प्रति जागरूक होने के अवसर प्रदान करती है। ‘शरद ऋतु वर्षा लाएगी या आंधी, मैं नहीं जानता, मगर मुझे आज खेतों में काम करना है।’ यह शब्द हैं एक पुराने देहाती गीत के। इनमें एक जीवनशैली के रूप में खेती का सार छुपा हुआ है। बिना इसकी परवाह किए कि फसल कैसी होगी, खाने को पर्याप्त अनाज उगेगा या नहीं, सहज भाव से बीज और प्रकृति के मार्गदर्शन में पौधों की स्नेहपूर्वक साज-संवार करने का भी एक आनंद होता है