प्रलय

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 15:00
प्रलय विश्व के पुराख्यानों में इसकी बड़ी मान्यता है। भारतीय साहित्य में प्रलय का सर्वप्रथम संदर्भ शतपथ ब्राह्मण (1,8,1-6) में उपलब्ध है। इसके बाद महाभारत (वनपर्व, अ. 187) तथा मत्स्य पु. (अध्याय 2) और भाग. पु. (8.24) में है। अन्य पुराणों में भी प्रलय का विवरण प्रतिसर्ग, अंतरप्रलय, उदाप्लुत, आभूत संप्लव, संप्लव आदि शब्दों के अंतर्गत मिलता है।

विष्णु पुराण में कहा गया है कि जबतक ब्रह्मा जागते रहते हैं, संसार की सभी क्रियाएँ संपन्न होती रहती हैं। किंतु ब्रह्मा के सो जाने पर प्रलय होता है। एक सहस्र चतुर्युग (= 4,32,00,00,000 वर्ष) बीतने पर, जिसमें ब्रह्मा जागरण करते हैं, पृथ्वी क्षीणकाय हो जाती है। तत्पश्चात्‌ 100 वर्षो तक घोर अनावृष्टि होती है, जिसमें अधिकांश सत्वधारी विनष्ट हो जाते हैं। सप्त सूर्य अपनी रश्मियों से संपूर्ण जल को सोख लेते हैं। पृथ्वी कच्छप की पीठ की तरह कठं हो जाती है। त्रिलोकों मे अग्नि के आवर्त भीषण उत्पात मचाते हैं तदुपरांत बड़े गर्जन तर्जन के साथ वृष्टि होती है जिसके फलस्वरूप संपूर्ण सृष्टि एकार्णव में परिणत हो जाती है। त्रिजगत्‌ से जीवसृष्टि विनष्ट हो जाती है। विश्व का यह एकार्णव स्वरूप तब तक बना रहता है जब तक ब्रह्मा शयन करते रहते हैं।

यह हुआ सामान्य या नैमित्तिक प्रलय। इसके सिवा ब्रह्मा की अवक्षीण होने पर प्राकृत प्रलय होता है। यह ऐसा महाप्रलय है जिस सातो प्रकृतियाँ, पंच तन्मात्राएँ, अहंकार और महत्तत्व प्रकृति में लीन हो जाते हैं। अतिवृष्टिजन्य जलप्लावन पृथ्वी को उसके समस्त गंधों गुणों के साथ आत्मसात्‌ कर लेता है। व्यक्त जगत्‌ अव्यक्त प्रकृत में और अव्यक्त प्रकृति पुरुष मे लीन हो जाती है। यह पुरुष नित्यपरमात्मा (ब्रह्मा, विष्णु अथवा शिव के रूप में) है जो जग का कारण है।

तीसरा प्रलय आत्यंतिक प्रलय है जो कभी भी हो सकता है त्रिविध तापों से आत्मा की मुक्ति ही संक्षेप में आत्यंतिक प्रलय है इसमें सृष्टि के मायादि उपादान नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रक्रिया को नित्यप्रलय समझना चाहिए।

विश्व की अनुश्रुतियों के सम्यक्‌ अध्ययन से प्रलय अथवा महाप्लाव के निम्नलिखित तत्व निर्धारित किए जा सकते हैं  (1) पूर्वप्लावन के लोगों के प्रति किसी देवी या देवता का आक्रोश, जो अंत में प्लावन संबंधी शाप देता है, (2) प्लावन का हेतु होता है, यथा पापियों दंडित करना, (3) प्लावन का पूर्वाभास, जिसमें देवता प्लावन चेतावनी भी देते हैं, (4) प्लावन से रक्षा के लिये (जिन्हें दैवी कृपा से बचना रहता है) किसी नौका या पिटकादि का संग्रह, जिसमें भावीसृष्टि के संचालन के लिये पशु, बीज आदि को सुरक्षित कर लिया जाता है, (5) प्लावन अत्यधिक वृष्टि अथवा समुद्रसंक्षोभ द्वारा संभव होता है और (6) प्लावन के अंत में सृष्टि के सभी उपादन स्थिर हो जाते हें जो नूतन सृष्टि का समारंभ करते हैं।

भारतीय ख्यातों में प्रलय का निमित्त, पाश्चात्य देशी पुराख्या की तरह किसी देवी देवता का क्षुद्र कोप नहीं रहता, अपितु सृष्टि की एक अनिवार्यावस्था है। आधुनिक विज्ञान भी पृथ्वी और जीवसृष्टि के आयु विकास संबंधी विवेचन में प्रलय और अवांतर प्रलय विभिन्न अवस्थाओं को स्वीकार करता है। पाश्चात्य ख्यातों में विशेष प्रलयोत्तर दशा का वर्णन कम या बिलकुल ही नहीं रहता। भारत पुराणों का संपूर्ण विकास ही पूर्वप्रलय और प्रलयोत्तर दशा विवेचन में प्रलय और अवांतर प्रलय विभिन्न अवस्थाओं को स्वीकार करता है। पाश्चात्य ख्यातों में विशेष प्रलयोत्तर दशा का वर्णन कम या बिलकुल ही नहीं रहता। भारत पुराणों का संपूर्ण विकास ही पूर्वप्रलय और प्रलयोत्तर दशा विवेचन पर आधारित है। सर्ग, पूर्वप्रलय की, प्रतिसर्ग प्रलय की। वंश मन्वंतर तथा वंशानुचरित प्रलयोत्तर दशा की विवेचना करता है।

प्रलय और जलप्लावन संबंधी भारतीय अनुश्रुति यद्यपि शत ब्राह्मण, महाभारत और पुराण वाड़्‌मय में समान रूप से सुरक्षित तथापि ग्रंथभेद से उनमें किंचित्‌ विभेद भी है। शतपथ ब्राह्मण महाभारत के अनुसार प्लावन मनु के समय में हुआ था। किंतु महा पुराण में मनु की जगह स्व्रुात और भागवत में सत्य्व्रात का उल्लेख है। इन्हें विष्णु ने मत्स्य रूप में महाप्लावन का पूर्वाभास दिया था। भागवत के अनुसार एक समय सत्य्व्रात कृतमाला नदी (महा के अनुसार नर्मदा, महाभारत के अनुसार चीरिणी नदी) में तप कर रहे थे कि उनकी अंजलि में एक छोटी मछली आ गई। राजा आग्रह करके उसे कमंडलु के जल में रखकर आश्रम ले गए। रात भर ही में मछली इतनी बढ़ गई कि कमंडलु में उसका रहना कठिन हो गया। राजा ने उसे निकालकर कलश में डाल दिया, किंतु वहाँ भी उसका आकार बढ़ गया। जब मत्स्य का आकार इतना बढ़ गया कि उसे बड़े सरोवर में भी रखना संभव न रहा तो राजा उसे समुद्र में डालने की चेष्टा करने लगा। तब मत्स्य ने राजा को बताया कि आज से ठीक सातवें दिन त्रिलोक विश्वसमुद्र में डूब जायगा। ऐसी स्थिति में तुम्हारे पास तुम्हारी रक्षा के लिये एक बहुत बड़ी नौका प्रस्तुत होगी। तुम उसमें सप्त ऋषियों तथा औषधि और बीज लेकर बैठ जाना। उस समय मैं पुन: प्रस्तुत होऊँगा। मेरे श्रृंग में वासुकी नाग को रज्जु बनाकर नौका को बाँध देना। ऐसा करने से प्लावन काल में भी तुम्हारी नौका सुरक्षित रह सकेगी। ऐसा आदेश देकर महामत्स्य रूपी भगवान्‌ अंतर्ध्यान हो गए। अपार वृष्टि के कारण जब महाप्लावन प्रस्तुत हो गया तो स्व्रुात ने महामत्स्य के आदेशानुसार अपनी सुरक्षा की। (भागवत 8-24) महामत्स्य से बँधी स्व्रुात की नौका हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर जा लगी। प्लावन के स्थिर हो जाने पर प्रजापति की आज्ञा से स्व्रुात ने पूर्वकल्प के अनुसार भू, भुव: स्व: आदि लोकों की सृष्टि की तथा उसमें समस्त भौतिक उपादनों से संपन्न प्रजा को बसाया।

प्लावन की इस कथा के आधार पर ही पुराणकारों ने कूर्म और वराह अवतार की कथाएँ पल्लवित कीं। विष्णुपुराण (1.14) में मत्स्य की जगह वराह को ही पृथ्वी के संरक्षण का श्रेय है।

बाइबिल (जिनिसिस 6-7) में मनु या स्व्रुात की ही तरह नोआ अपना विशाल नौका के द्वारा प्लावित पृथ्वी से जीवसृष्टि का उद्धार करते हुए वर्णित किए गए हैं। इस प्लावन से संपूर्ण जीवसृष्टि का विनाश हो गया, केवल वे ही जीव शेष रह गए थे जिन्हें ईश्वर बचाना चाहता था। हिब्रू परंपरा के अनुसार प्लावन की अवधि 40 दिन थी। अन्य परंपरा के अनुसार प्लावन 150 दिन तक रहा। बाइबिल के अनुसार यह प्लावन जीवसृष्टि की प्रारंभिक अवस्था में ही आया। किंतु बाबुली परंपरा के अनुसार महाप्लावन मानवी संस्कृति की विकसित अवस्था में संभव हुआ, जबकि मनुष्य ने अनेक कलाओं और उद्योगों का विकास कर लिया था और उसमें संग्रहवृत्ति का भी उदय हो गया था। इस प्रकार प्लावन का आभास होते ही लोगों ने सुरक्षा के लिये नौका में बहुमूल्य द्रव्य और कारीगरों को भी सुरक्षिति कर लिया था, जिसमें एक नाविक भी था। इसी नाविक ने कुशल नौसंचालन द्वारा प्लावन काल में लोगों को डूबने से बचाया।

ग्रीक परंपरा में प्लावन संबंधी वृत्तांत अपोलोडोरस के ग्रंथ में सुरक्षित है। यहाँ प्लावन या प्रलय का वृत्तांत अपेक्षाकृत भिन्न है। इसके अनुसार फथीया नगर के राजा ड्यूकेलियन के शासनकाल में जीयस के कोप के कारण महाप्लावन हुआ और अतिवृष्टि से संपूर्ण सृष्टि विनष्ट हो गई। केवल ड्यकेलियन और उसकी पत्नी पिर्रहा मंजूषा में बैठकर बच सके। प्लावन के स्थिर होने पर इनकी मंजूषा पर्रनेरुस पर्वत पर टिकी। यह प्लावन नौ दिन तक रहा। मंजूषा से निकलकर राजा रानी ने जीयस को बलि दी, जिससे ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया कि ये जब एक पत्थर आकाश में फेकेंगे तो वे पत्थर पुरुष और स्त्री के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होंगे और वे ही नूतन मानवी संस्कृति के विकास के हेतु बनेंगे। फारस की अनुश्रुतियों में भी प्लावन की चर्चा है। विभिन्न परंपराओं के आधार पर प्लावन संबंधी पुराकथा के कुछ तथ्य इस प्रकार थे  (1) प्लावन की सूचना मशहूर मजदा ने देवसभा में थी, (2) प्लावन अति शीतवृष्टि के कारण संभव हुआ, (3) शीत प्रलय से संरक्षण के लिये देवताओं के आदेश से यीमा ने सुविस्तृत दुर्ग का निर्माण किया और उसमें पशुओं तथा मनुष्यों को सुरक्षित किया और (4) शीतप्रलय 10 दिनों तक रहा।

प्लावन की चर्चा किसी न किसी रूप में लिथूनिया, चीन, बर्मा, कोचीन, चीन, मलाया, उत्तरी अमरीका आदि देशों की पुराकथाओं में भी आई है। (बलराम श्रीवास्तव)

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संदर्भ
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