परमाण्वीय ऊर्जा (Atomic energy) उस ऊर्जा का नाम है जो परमाणुओं के टूटने या बनने से प्राप्त होती है। जो ऊर्जा कोयले या तेल को जलाने से प्राप्त होती है, यह रासायनिक अथवा आण्विक ऊर्जा है। व अणुओं के संयोजन और वियोजन से प्राप्त होती है। इन क्रियाओं में परमाणु टूटते नहीं, ज्यों के त्यों बने रहते हैं।
आण्विक ऊर्जा की अपेक्षा परमाण्वीय ऊर्जा की मात्रा बहुत अधिक होती है। केवल एक ग्राम यूरेनियम के परमाणुओं के टूटने से जितनी ऊर्जा प्राप्त हो सकती है उतनी ही प्राय: 45 लाख ग्राम (लगभग 120 मन) कोयला, अथवा 9 लाख गैलन तेल, जलाने से प्राप्त होती है। अत: कल कारखाने चलाने के लिये कोयले के स्थान में यूरेनियम, अथवा थोरियम, अथवा थोरियम, का उपयोग ईधन के रूप में किया जाय तो स्पष्ट है कि ईधन की मात्रा बहुत कम खर्च होगी। जहाँ कोयला या तेल बहुत दूर से लाना पडता है वहाँ इस प्रकार ऊर्जा बहुत सस्ती उत्पन्न हो सकती है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी में तेल और कोयला इतनी सीमित मात्रा में है कि उससे बहुत अधिक वर्षो तक काम नहीं चल सकेगा, किंतु विखंडन योग्य पदार्थो की बहुतायत है। भारत में भी थोरियम और यूरेनियम प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। अत: परमाण्वीय ऊर्जा का उपयोग बहुत लाभदायक है। अभी तो हमने इन भारी परमाणुओं का तोड़ना ही सीखा है, किंतु जब हम हलके हाइड्रोजन के परमाणुओं को मिलाकर हीलियम परमाणु बनाने की क्रिया को नियंत्रित करना सीख लेंगे तब समुद्रों की विशाल जलराशि से भी परमाण्वीय ऊर्जा प्राप्त हो सकेगी और ईधंन की कमी का डर बिलकुल ही न रहेगा।
परमाण्वीय ऊर्जा इतनी अधिक क्यों होती है, इसे समझने के लिये परमाणु की संरचना का ज्ञान अवश्यक है (देखें परमाणु)। परमाणु का केंद्रीय भाग नाभिक कहलाता है। इस अत्यंत छोटे, धन विद्युत् से आविष्ट, नाभिक का व्यास परमाणु से प्राय: एक लाख गुना छोटा (10- 13 सेंमी.) होता है: किंतु परमाणु का समस्त भार इसी नाभिक में होता है। नाभिक दो प्रकार की कणिकाओं से बना होता है, जिन्हें प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन कहते हैं। दोनों के भार लगभग हाइड्रोजन परमाणु के भार के बराबर होते हैं। प्रोटॉन धन विद्युत् से आविष्ट होता है, किंतु न्यूट्रॉन अनाविष्ट होता है। परमाणु के रासायनिक गुण नाभिकीय प्रोटॉनों की संख्या पर अवलंबित होते हैं और परमाणु भार प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों की संख्या पर अवलंबित होते है और परमाणु भार प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों की संमिलित संख्या के बराबर होता है। नाभिक में इन कणिकाओं का पारस्परिक बंधन इतना प्रबल होता है कि साधारण तापीय अथवा वैद्युत् बल से नाभिक टूट नहीं सकता। इसी कारण परमाणु अखडं समझा जाता था।
इस नाभिक के चारों ओर कुछ थोड़े से, अत्यंत हलके ऋणाविष्ट इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते रहते हैं। वैद्युत् आकर्षण ही इन्हें नाभिक से, बाँध रखता है। किंतु यह बंधन कमजोर होता है। रासायनिक क्रिया में केवल इन्हीं इलेक्ट्रॉनों में थोड़ा हेर फेर होता है। अत: अधिक ऊर्जा की उत्पत्ति नहीं होती।
जिन परमाणुओं के रासायनिक गुणों में तो अंतर नहीं होता, किंतु भार विभिन्न होते हैं, वे एक ही तत्व के समस्थानिक कहलाते हैं; यथा यूरेनियम के कई समस्थानिक होते हैं, जिनके परमाणुभार 233 से 239 तक विभिन्न मानों के होते हैं। इन्हें यू (छ) 233, यू (छ) 235, यू (छ) 238 आदि संकेतों से व्यक्त करते हैं। इन सबके नाभिकों में प्रोटॉनों की संख्या तो बराबर (92) होती है, किंतु न्यूट्रॉनों की संख्या 147 तक हो सकती है। इसी तरह हाइड्रोजन के तीन समस्थानिक होते हैं; साधारण हाइड्रोजन हा (क्त) 1, भारी हाइड्रोजन या ड्यूटरान (ड्यूट 2) और ट्राइटॉन (ट्राइ 3)।
यूरेनियम, थोरियम आदि भारी परमाणुओं के नाभिकों में प्रोटॉनों की संख्या अधिक होने के कारण वे अस्थायी हाते हैं। वे स्वत: ही टूटते रहते हैं। इस घटना का नाम रेडियोऐक्टिवता (radioactivity) है (देखें रेडियोऐक्टिवता), किंतु इससे लाभदायक ऊर्जा नहीं प्राप्त हो सकती। कभी कभी नाभि के दो लगभग बराबर टुकड़े भी हो जाते हैं। इसे विखंडन कहते हैं।
कृत्रिम रीति से विखंडन करने के लिये नाभिक पर ऐल्फा कण या प्रोटॉन जैसे क्षिप्रगामी लघु कणों की चोट लगाई जाती है और इनका वेग अधिक बढ़ाने के लिए अनेक यंत्र भी बना लिए गए हैं। किंतु सबसे अधिक सफलता मिली है न्यूट्रॉनों की चोट से, विशेषकर जब उनका वेग कम हो। अनाविष्ट होने के कारण इन्हें नाभिक का धन आवेश प्रतिकिर्षित नहीं करता और ये बिना बाधा के नाभिक में प्रवेश कर जाते हैं और उसे विक्षुब्ध कर देते हैं। कभी कभी तो इससे नाभिक रेडियोऐक्टिव हो जाता है और ऐल्फा या बीटा कण मात्र उत्सर्जित करता है। यथा यू (छ) 235 के विखंडन से बेरियम और क्रिप्टॉन के, अथवा स्ट्रौशियम और ज़ीनान के, नाभिक बन जाते हैं।
यूरेनियम 235उ बेरियम 137अ क्रिप्टॉन 83
अथवा यूरेनियम 235उ स्ट्रौशियम 88अ जीनान 131
साथ ही एक, दो या तीन न्यूट्रॉन भी तीव्र वेग से उत्सर्जित होते हैं (देखें चित्र 1), किंतु यू 238 का विखंडन नहीं होता। वह एक नयूट्रान को अवशोषित करके पहले यू 239 बन जात है और तब प्लूटोनिय प्लू 239 के रूप में तत्वांतरित हो जाता है। प्लू 239 का विखंडन हो सकता है।
संलयन (Fusion) - विखंडन के अतिरिक्त परमाण्वीक ऊर्जा प्राप्त करने का एक और भी उपाय है। इसमें हलके नाभिकों के संमेलन या संलयन से एक भारी नाभिक बनता है, यथा हाइड्रोजन के समस्थानिकों के संलयन से हीलियम नाभिक बन जाता है :
ड्यूटेरियम 2+ ड्यूटेरियम 2उ ही3अ न
ट्राइटियम 3अ ड्यूटेरियम 2उ ही4अ न
इस क्रिया के लिये लाखों डिगरी ऊँचे ताप की आवश्यकता होती है। इसी से ऐसे संलयन को ताप-नाभिकीय (thermo-nuclear) प्रतिक्रिया कहते हैं। इससे भी प्रचुर मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न हो सकती है; किंतु कठिनाई है उच्च ताप प्राप्त करने की। यह संभवत: यूरेनियम के विखंडन से प्राप्त किया जाता है। अनुमान है कि सूर्य की ऊर्जा ऐसी ही क्रिया स उत्पन्न होती है।
परमाणवीय ऊर्जा का उद्गम - सन् 1905 में आइन्स्टाइन ने अपने आपेक्षिता सिद्धांत से (देखें आपेक्षितावाद) यह प्रमाणित किया था कि ऊर्जा भी द्रव्य का ही रूपांतर है। वह कोई भिन्न वस्तु नहीं है। उन्होंने इस रूपांतर का सूत्र, ऊर्जाउ द्रव्यमानव् (प्रकाश का वेग)2, बताया था (प्रकाश का वेगउ 3व् 1010 सेंटीमीटर प्रति सेकंड)। इसके अनुसार यदि एक ग्राम द्रव्य को विलुप्त कर दिया जाय तो 9व् 1020 अर्ग ऊर्जा प्राप्त हो जायगी। यह ऊर्जा इतनी अधिक होगी कि इससे 10 लाख अश्वशक्ति के इंजन 33 घंटे तक चल सकेंगे। केवल 20 ग्राम द्रव्य प्रतिदिन विलुप्त होने से अमरीका के समस्त कारखाने चलाए जा सकते हैं।
यूरेनियम 245 के विखंडन से प्राप्त वेरिय 137 ओर क्रिस्टॉन 83 का संमिलित भार केवल 220 है। इसमें दो, तीन उत्सर्जित न्यूट्रॉनों का भार जोड़ देने पर भी प्राय: 12-13 मात्रक भार के द्रव्य का विलोप हो जाता है। यही विलुप्त द्रव्य ऊर्जा के रूप में प्रकट होता है। हाइड्रोजन के समंजन में भी द्रव्य विलुप्त होता है।
श्रृंखलित क्रिया (Chain Reaction) - एक नाभिक के विखंडन से तो बहुत ही थोड़ी ऊर्जा प्राप्त होती है। करोड़ों अरबों नाभिकां के विखंडन से ही लाभदाकय ऊर्जा मिल सकती है। अत: यह आवश्यक है कि विखंडन की क्रिया इस प्रकार हो कि एक बार आरंभ हो जाने पर वह श्रृंखलित रूप से चलती ही रहे। दिए का जलना ऐसी ही श्रृंखलित क्रिया है। प्रारंभ में तो दियासलाई से बत्ती के तेल को इतना गरम करना पड़ता है कि वह जलने लगे। फिर तो इस जलने की गरमी से ही अधिकाधिक तेल जलने लगता है। इस प्रकार एक नाभिक के विखंडन से जो न्यूट्रॉन प्राप्त होते हैं, यदि वे ही अन्य नाभिकों का विखंडन कर सकें तो क्रिया श्रृंखलित हो जायगी और विखंडित नाभिकों की संख्या बहुत बढ़ जायगी। चित्र 2. में इस क्रिया का सरलतम रूप दिखाया गया है। प्रथम नाभिक तो स्वत: ही विखंडित होता है। उसमें से निकले दो न्यूट्रॉन दो अन्य नाभिकों की विखंडित करते हैं और अब चार विखंडक न्यूट्रॉन प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर विखंडित नाभिकों की संख्या बढ़ती जाती है।
इस श्रृंखलित क्रिया के लिये निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं :
1. यूरेनियम पिंड शुद्ध यू235 का होना चाहिए। प्राकृतिक यूरेनियम में केवल 0.7 प्रतिशत यू235 होता है। शेष 99.3ऽ अविखंडनीय यू238 होता है। अत: अनेक न्यूट्रॉन यूरेनियम के परमाणुओं से टकराकर व्यर्थ हो जाते हैं। शुद्ध यू235 को पृथक् करना कठिन काम है, किंतु इसके बिना काम भी नहीं चल सकता। कम से कम यूरेनियम पिंड में यू235 का अनुपात तो बढ़ाना ही चाहिए। ऐसे यूरेनियम को समृद्ध (enriched) यूरेनियम कहते हैं।
2. यूरेनियम पिंड इतना छोटा न हो कि अनेक न्यूट्रॉन बिना विखंडन के ही बाहर निकल जाएँ। पिंड के जिस न्यूनतम भार में शृंखलित क्रिया हो सकती है उसे क्रांतिक द्रव्यमान (Critical Mass) कहते हैं। इसका मान यूरेनियम की समृद्धि पर, पिंड की आकृति पर तथा उसमें अन्य पदार्थो की उपस्थिति पर निर्भर होता है। शुद्ध यू235 का क्रांतिक द्रव्यमान 11-12 किलोग्राम के लगभग है।
परमाणु बम (Atomic Bomb) - यू235 के क्रांतिक द्रव्य मान वाले न पिंड में श्रृंखलित क्रिया अनियमित होती है और इतने वेग से प्रगति करती है कि क्षणमात्र में पिंड के सब नाभिकों का विस्फोट हो जाता है। यही परमाणु बम है। ऐसे बम की परीक्षा सबसे पहले 16 जुलाई, 1945, को मेक्सिको में हुई थी और युद्ध में अमरीका ने पहला बम जापान के हिरोशिमा नगर पर 6 अगस्त, 1945, को तथा दूसरा नागासाकी पर तीन दिन बाद गिराया था। इस विस्फोट में 5 करोड़ टी.एन.टी. से भी अधिक भयंकर शक्ति थी और एक ही बम से प्राय: 60,000 व्यक्ति मर गए थे और प्राय: पूरा नगर ध्वस्त हो गया था। इस बम बनाने के अनुसंधान कार्य में अमरीका के लगभग 200 करोड़ डॉलर खर्च हुए थे।
परमाणु भट्ठी अथवा रिऐक्टर - उपर्युक्त अनियंत्रित विस्फोट की ऊर्जा कल कारखाने चलाने के लिये उपयुक्त नहीं है। परमाण्वीय ऊर्जा को नियंत्रित मात्रा में उत्पन्न करने के लिये जो कई प्रकार की भट्ठियाँ बनाई गई हैं उन्हें रिऐक्टर कहते हैं।
भट्ठी के मुख्य अवयव ये हैं :
(क) ईधंन (Fuel) - शुद्ध यू235 या समृद्ध प्राकृतिक यूरेनियम की कई पतली छड़। इनकी संख्या घटा-बढ़ाकर इच्छानुसार मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।
(ख) मंदक पदार्थ (Moderator) - ये ऐसे पदार्थ होते हैं जो न्यूट्रॉनों का अवशोषण तो नहीं करते, किंतु इनके परमाणुओं से टकराने पर न्यूट्रॉनों का वेग घटकर विखंडन के लिये उपयुक्त हो जाता है। ग्रैफ़ाइट, पानी या भारी जल ऐसे ही पदार्थ हैं। यूरेनियम की छड़ों के चारों ओर ये ही भरे रहते हैं।
(ग) नियंत्रक छड़ें (Control Rods) - ये कैडमियम या बोरन मिले हुए इस्पात की छड़ होती हैं। ये अवशोषण के द्वारा न्यूट्रॉनों की संख्या घटा देती है। इनकी संख्या को घटा बढ़ाकर ऊर्जा की मात्रा का नियंत्रण किया जाता है।
(घ) शीतक (Coolant) - जल या अन्य कोई पदार्थ भट्ठी में प्रवाहित होता रहता है, जिससे भट्टी का ताप बहुत बढ़ न जाय।
(ङ) परिरक्षक (Shield) - विखंडन के कारण जो रेडियो ऐक्टिव विकिरण भट्ठी में से निकलता है, उससे कर्मचारियों की तथा वातावरण की रक्षा करने के लिये भट्ठी को बहुत मोटी सीमेंट कंक्रीट की दीवारों से घेर दिया जाता है।
बंबई में ऐसी ही एक छोटी सी भट्ठी लगाई गई है। इसमें 50ऽ समृद्ध यूरेनियम का उपयोग होता है, मंदक, शीतक और परिरक्षक का काम जल से लिया जाता है। वास्तव में यूरेनियम की छड़ें और नियंत्रक छड़ें जल के कुंड में ही डूबी रहती हैं। इस कारण इसे संतरण कुंड भट्ठी (Swimming Pool Reactor) कहते हैं। इसका उद्देश्य अनुसंधान कार्य है, ऊर्जा की प्राप्ति नहीं। मुख्य काम है विभिन्न तत्वों के रेडियों ऐक्टिव समस्थानिकों की प्राप्ति। न्यूट्रॉनों की बौछार से इनकी सृष्टि होती है।
जब उद्देश्य ऊर्जाप्राप्ति होती है तो चित्र 3. के समान व्यवस्था की जाती है। क. परमाणु भट्ठी है। ख. एक नली है, जिसमें द्रव सोडियम प्रवाहित होता है। यह न्यूट्रॉनों का अवशोषण नहीं करता, किंतु भट्ठी की ऊष्मा को बायलर ग के जल में पहुँचा देता है। इससे भाप बनकर नली ध के द्वारा टरबाइन ट में पहुँच जाती है। इंग्लैंड, अमरीका और रूस में इस प्रकार के कारखाने बन गए है जिनसे सहस्त्रों यूनिट बिजली उत्पन्न की जाती है। जहाजों में भी ऐसी भट्ठियाँ लगाई गई हैं। भार में भी शीघ्र ही ऐसा कारखाना बननेवाला है।
इतिहास -
सन् 1895, रेडियोऐक्टिवता का आविष्कार (बेकरेल - फ्रांस);
सन् 1905, जर्मनी में आइन्स्टाइन का सूत्र :
ऊर्जाउ द्रव्यमानव् (प्रकाशवेग);2
सन् 1911, परमाणु के नाभिक का आविष्कार (रदरफर्ड - इंग्लैंड);
सन् 1932, न्यूट्रॉन का आविष्कार (चैडविक - इंग्लैंड);
सन् 1939, यू235 का विखंडन (हान और स्ट्रॉसमान - जर्मनी);
सन् 1942, शृंखलित क्रिया तथा प्रथम रिऐक्टर (इटलीनिवासी फर्मी - अमरीका);
सं.ग्रं.- हेनरी सिरेट : इंट्रोडक्शन टु ऐटोमिक फ़िजिक्स (1939); टर्नर : न्यूक्लियर फ़िशन (रिव्यू ऑव मॉडर्न फ़िजिक्स, 1940); पॉलर्ड और डेविडसन : ऐप्लायड न्यूक्लियर फ़िज़िक्स, 1942; एच.डी. स्मिथ : ऐटोमिक एनर्जी इन दि कॉस्मिक एरा (1945); स्लेटर : मॉडर्न फ़िज़िक्स; शरवुड तथा पावर फार टुडे ऐंड टुमॉरो।(निहालकरण सेठी)
आण्विक ऊर्जा की अपेक्षा परमाण्वीय ऊर्जा की मात्रा बहुत अधिक होती है। केवल एक ग्राम यूरेनियम के परमाणुओं के टूटने से जितनी ऊर्जा प्राप्त हो सकती है उतनी ही प्राय: 45 लाख ग्राम (लगभग 120 मन) कोयला, अथवा 9 लाख गैलन तेल, जलाने से प्राप्त होती है। अत: कल कारखाने चलाने के लिये कोयले के स्थान में यूरेनियम, अथवा थोरियम, अथवा थोरियम, का उपयोग ईधन के रूप में किया जाय तो स्पष्ट है कि ईधन की मात्रा बहुत कम खर्च होगी। जहाँ कोयला या तेल बहुत दूर से लाना पडता है वहाँ इस प्रकार ऊर्जा बहुत सस्ती उत्पन्न हो सकती है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी में तेल और कोयला इतनी सीमित मात्रा में है कि उससे बहुत अधिक वर्षो तक काम नहीं चल सकेगा, किंतु विखंडन योग्य पदार्थो की बहुतायत है। भारत में भी थोरियम और यूरेनियम प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। अत: परमाण्वीय ऊर्जा का उपयोग बहुत लाभदायक है। अभी तो हमने इन भारी परमाणुओं का तोड़ना ही सीखा है, किंतु जब हम हलके हाइड्रोजन के परमाणुओं को मिलाकर हीलियम परमाणु बनाने की क्रिया को नियंत्रित करना सीख लेंगे तब समुद्रों की विशाल जलराशि से भी परमाण्वीय ऊर्जा प्राप्त हो सकेगी और ईधंन की कमी का डर बिलकुल ही न रहेगा।
परमाणु की रचना -
परमाण्वीय ऊर्जा इतनी अधिक क्यों होती है, इसे समझने के लिये परमाणु की संरचना का ज्ञान अवश्यक है (देखें परमाणु)। परमाणु का केंद्रीय भाग नाभिक कहलाता है। इस अत्यंत छोटे, धन विद्युत् से आविष्ट, नाभिक का व्यास परमाणु से प्राय: एक लाख गुना छोटा (10- 13 सेंमी.) होता है: किंतु परमाणु का समस्त भार इसी नाभिक में होता है। नाभिक दो प्रकार की कणिकाओं से बना होता है, जिन्हें प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन कहते हैं। दोनों के भार लगभग हाइड्रोजन परमाणु के भार के बराबर होते हैं। प्रोटॉन धन विद्युत् से आविष्ट होता है, किंतु न्यूट्रॉन अनाविष्ट होता है। परमाणु के रासायनिक गुण नाभिकीय प्रोटॉनों की संख्या पर अवलंबित होते हैं और परमाणु भार प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों की संख्या पर अवलंबित होते है और परमाणु भार प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों की संमिलित संख्या के बराबर होता है। नाभिक में इन कणिकाओं का पारस्परिक बंधन इतना प्रबल होता है कि साधारण तापीय अथवा वैद्युत् बल से नाभिक टूट नहीं सकता। इसी कारण परमाणु अखडं समझा जाता था।
इस नाभिक के चारों ओर कुछ थोड़े से, अत्यंत हलके ऋणाविष्ट इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते रहते हैं। वैद्युत् आकर्षण ही इन्हें नाभिक से, बाँध रखता है। किंतु यह बंधन कमजोर होता है। रासायनिक क्रिया में केवल इन्हीं इलेक्ट्रॉनों में थोड़ा हेर फेर होता है। अत: अधिक ऊर्जा की उत्पत्ति नहीं होती।
समस्थानिक (Isotope) -
जिन परमाणुओं के रासायनिक गुणों में तो अंतर नहीं होता, किंतु भार विभिन्न होते हैं, वे एक ही तत्व के समस्थानिक कहलाते हैं; यथा यूरेनियम के कई समस्थानिक होते हैं, जिनके परमाणुभार 233 से 239 तक विभिन्न मानों के होते हैं। इन्हें यू (छ) 233, यू (छ) 235, यू (छ) 238 आदि संकेतों से व्यक्त करते हैं। इन सबके नाभिकों में प्रोटॉनों की संख्या तो बराबर (92) होती है, किंतु न्यूट्रॉनों की संख्या 147 तक हो सकती है। इसी तरह हाइड्रोजन के तीन समस्थानिक होते हैं; साधारण हाइड्रोजन हा (क्त) 1, भारी हाइड्रोजन या ड्यूटरान (ड्यूट 2) और ट्राइटॉन (ट्राइ 3)।
विखंडन (Fission) -
यूरेनियम, थोरियम आदि भारी परमाणुओं के नाभिकों में प्रोटॉनों की संख्या अधिक होने के कारण वे अस्थायी हाते हैं। वे स्वत: ही टूटते रहते हैं। इस घटना का नाम रेडियोऐक्टिवता (radioactivity) है (देखें रेडियोऐक्टिवता), किंतु इससे लाभदायक ऊर्जा नहीं प्राप्त हो सकती। कभी कभी नाभि के दो लगभग बराबर टुकड़े भी हो जाते हैं। इसे विखंडन कहते हैं।
कृत्रिम रीति से विखंडन करने के लिये नाभिक पर ऐल्फा कण या प्रोटॉन जैसे क्षिप्रगामी लघु कणों की चोट लगाई जाती है और इनका वेग अधिक बढ़ाने के लिए अनेक यंत्र भी बना लिए गए हैं। किंतु सबसे अधिक सफलता मिली है न्यूट्रॉनों की चोट से, विशेषकर जब उनका वेग कम हो। अनाविष्ट होने के कारण इन्हें नाभिक का धन आवेश प्रतिकिर्षित नहीं करता और ये बिना बाधा के नाभिक में प्रवेश कर जाते हैं और उसे विक्षुब्ध कर देते हैं। कभी कभी तो इससे नाभिक रेडियोऐक्टिव हो जाता है और ऐल्फा या बीटा कण मात्र उत्सर्जित करता है। यथा यू (छ) 235 के विखंडन से बेरियम और क्रिप्टॉन के, अथवा स्ट्रौशियम और ज़ीनान के, नाभिक बन जाते हैं।
यूरेनियम 235उ बेरियम 137अ क्रिप्टॉन 83
अथवा यूरेनियम 235उ स्ट्रौशियम 88अ जीनान 131
साथ ही एक, दो या तीन न्यूट्रॉन भी तीव्र वेग से उत्सर्जित होते हैं (देखें चित्र 1), किंतु यू 238 का विखंडन नहीं होता। वह एक नयूट्रान को अवशोषित करके पहले यू 239 बन जात है और तब प्लूटोनिय प्लू 239 के रूप में तत्वांतरित हो जाता है। प्लू 239 का विखंडन हो सकता है।
संलयन (Fusion) - विखंडन के अतिरिक्त परमाण्वीक ऊर्जा प्राप्त करने का एक और भी उपाय है। इसमें हलके नाभिकों के संमेलन या संलयन से एक भारी नाभिक बनता है, यथा हाइड्रोजन के समस्थानिकों के संलयन से हीलियम नाभिक बन जाता है :
ड्यूटेरियम 2+ ड्यूटेरियम 2उ ही3अ न
ट्राइटियम 3अ ड्यूटेरियम 2उ ही4अ न
इस क्रिया के लिये लाखों डिगरी ऊँचे ताप की आवश्यकता होती है। इसी से ऐसे संलयन को ताप-नाभिकीय (thermo-nuclear) प्रतिक्रिया कहते हैं। इससे भी प्रचुर मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न हो सकती है; किंतु कठिनाई है उच्च ताप प्राप्त करने की। यह संभवत: यूरेनियम के विखंडन से प्राप्त किया जाता है। अनुमान है कि सूर्य की ऊर्जा ऐसी ही क्रिया स उत्पन्न होती है।
परमाणवीय ऊर्जा का उद्गम - सन् 1905 में आइन्स्टाइन ने अपने आपेक्षिता सिद्धांत से (देखें आपेक्षितावाद) यह प्रमाणित किया था कि ऊर्जा भी द्रव्य का ही रूपांतर है। वह कोई भिन्न वस्तु नहीं है। उन्होंने इस रूपांतर का सूत्र, ऊर्जाउ द्रव्यमानव् (प्रकाश का वेग)2, बताया था (प्रकाश का वेगउ 3व् 1010 सेंटीमीटर प्रति सेकंड)। इसके अनुसार यदि एक ग्राम द्रव्य को विलुप्त कर दिया जाय तो 9व् 1020 अर्ग ऊर्जा प्राप्त हो जायगी। यह ऊर्जा इतनी अधिक होगी कि इससे 10 लाख अश्वशक्ति के इंजन 33 घंटे तक चल सकेंगे। केवल 20 ग्राम द्रव्य प्रतिदिन विलुप्त होने से अमरीका के समस्त कारखाने चलाए जा सकते हैं।
यूरेनियम 245 के विखंडन से प्राप्त वेरिय 137 ओर क्रिस्टॉन 83 का संमिलित भार केवल 220 है। इसमें दो, तीन उत्सर्जित न्यूट्रॉनों का भार जोड़ देने पर भी प्राय: 12-13 मात्रक भार के द्रव्य का विलोप हो जाता है। यही विलुप्त द्रव्य ऊर्जा के रूप में प्रकट होता है। हाइड्रोजन के समंजन में भी द्रव्य विलुप्त होता है।
श्रृंखलित क्रिया (Chain Reaction) - एक नाभिक के विखंडन से तो बहुत ही थोड़ी ऊर्जा प्राप्त होती है। करोड़ों अरबों नाभिकां के विखंडन से ही लाभदाकय ऊर्जा मिल सकती है। अत: यह आवश्यक है कि विखंडन की क्रिया इस प्रकार हो कि एक बार आरंभ हो जाने पर वह श्रृंखलित रूप से चलती ही रहे। दिए का जलना ऐसी ही श्रृंखलित क्रिया है। प्रारंभ में तो दियासलाई से बत्ती के तेल को इतना गरम करना पड़ता है कि वह जलने लगे। फिर तो इस जलने की गरमी से ही अधिकाधिक तेल जलने लगता है। इस प्रकार एक नाभिक के विखंडन से जो न्यूट्रॉन प्राप्त होते हैं, यदि वे ही अन्य नाभिकों का विखंडन कर सकें तो क्रिया श्रृंखलित हो जायगी और विखंडित नाभिकों की संख्या बहुत बढ़ जायगी। चित्र 2. में इस क्रिया का सरलतम रूप दिखाया गया है। प्रथम नाभिक तो स्वत: ही विखंडित होता है। उसमें से निकले दो न्यूट्रॉन दो अन्य नाभिकों की विखंडित करते हैं और अब चार विखंडक न्यूट्रॉन प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर विखंडित नाभिकों की संख्या बढ़ती जाती है।
इस श्रृंखलित क्रिया के लिये निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं :
1. यूरेनियम पिंड शुद्ध यू235 का होना चाहिए। प्राकृतिक यूरेनियम में केवल 0.7 प्रतिशत यू235 होता है। शेष 99.3ऽ अविखंडनीय यू238 होता है। अत: अनेक न्यूट्रॉन यूरेनियम के परमाणुओं से टकराकर व्यर्थ हो जाते हैं। शुद्ध यू235 को पृथक् करना कठिन काम है, किंतु इसके बिना काम भी नहीं चल सकता। कम से कम यूरेनियम पिंड में यू235 का अनुपात तो बढ़ाना ही चाहिए। ऐसे यूरेनियम को समृद्ध (enriched) यूरेनियम कहते हैं।
2. यूरेनियम पिंड इतना छोटा न हो कि अनेक न्यूट्रॉन बिना विखंडन के ही बाहर निकल जाएँ। पिंड के जिस न्यूनतम भार में शृंखलित क्रिया हो सकती है उसे क्रांतिक द्रव्यमान (Critical Mass) कहते हैं। इसका मान यूरेनियम की समृद्धि पर, पिंड की आकृति पर तथा उसमें अन्य पदार्थो की उपस्थिति पर निर्भर होता है। शुद्ध यू235 का क्रांतिक द्रव्यमान 11-12 किलोग्राम के लगभग है।
परमाणु बम (Atomic Bomb) - यू235 के क्रांतिक द्रव्य मान वाले न पिंड में श्रृंखलित क्रिया अनियमित होती है और इतने वेग से प्रगति करती है कि क्षणमात्र में पिंड के सब नाभिकों का विस्फोट हो जाता है। यही परमाणु बम है। ऐसे बम की परीक्षा सबसे पहले 16 जुलाई, 1945, को मेक्सिको में हुई थी और युद्ध में अमरीका ने पहला बम जापान के हिरोशिमा नगर पर 6 अगस्त, 1945, को तथा दूसरा नागासाकी पर तीन दिन बाद गिराया था। इस विस्फोट में 5 करोड़ टी.एन.टी. से भी अधिक भयंकर शक्ति थी और एक ही बम से प्राय: 60,000 व्यक्ति मर गए थे और प्राय: पूरा नगर ध्वस्त हो गया था। इस बम बनाने के अनुसंधान कार्य में अमरीका के लगभग 200 करोड़ डॉलर खर्च हुए थे।
परमाणु भट्ठी अथवा रिऐक्टर - उपर्युक्त अनियंत्रित विस्फोट की ऊर्जा कल कारखाने चलाने के लिये उपयुक्त नहीं है। परमाण्वीय ऊर्जा को नियंत्रित मात्रा में उत्पन्न करने के लिये जो कई प्रकार की भट्ठियाँ बनाई गई हैं उन्हें रिऐक्टर कहते हैं।
भट्ठी के मुख्य अवयव ये हैं :
(क) ईधंन (Fuel) - शुद्ध यू235 या समृद्ध प्राकृतिक यूरेनियम की कई पतली छड़। इनकी संख्या घटा-बढ़ाकर इच्छानुसार मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।
(ख) मंदक पदार्थ (Moderator) - ये ऐसे पदार्थ होते हैं जो न्यूट्रॉनों का अवशोषण तो नहीं करते, किंतु इनके परमाणुओं से टकराने पर न्यूट्रॉनों का वेग घटकर विखंडन के लिये उपयुक्त हो जाता है। ग्रैफ़ाइट, पानी या भारी जल ऐसे ही पदार्थ हैं। यूरेनियम की छड़ों के चारों ओर ये ही भरे रहते हैं।
(ग) नियंत्रक छड़ें (Control Rods) - ये कैडमियम या बोरन मिले हुए इस्पात की छड़ होती हैं। ये अवशोषण के द्वारा न्यूट्रॉनों की संख्या घटा देती है। इनकी संख्या को घटा बढ़ाकर ऊर्जा की मात्रा का नियंत्रण किया जाता है।
(घ) शीतक (Coolant) - जल या अन्य कोई पदार्थ भट्ठी में प्रवाहित होता रहता है, जिससे भट्टी का ताप बहुत बढ़ न जाय।
(ङ) परिरक्षक (Shield) - विखंडन के कारण जो रेडियो ऐक्टिव विकिरण भट्ठी में से निकलता है, उससे कर्मचारियों की तथा वातावरण की रक्षा करने के लिये भट्ठी को बहुत मोटी सीमेंट कंक्रीट की दीवारों से घेर दिया जाता है।
बंबई में ऐसी ही एक छोटी सी भट्ठी लगाई गई है। इसमें 50ऽ समृद्ध यूरेनियम का उपयोग होता है, मंदक, शीतक और परिरक्षक का काम जल से लिया जाता है। वास्तव में यूरेनियम की छड़ें और नियंत्रक छड़ें जल के कुंड में ही डूबी रहती हैं। इस कारण इसे संतरण कुंड भट्ठी (Swimming Pool Reactor) कहते हैं। इसका उद्देश्य अनुसंधान कार्य है, ऊर्जा की प्राप्ति नहीं। मुख्य काम है विभिन्न तत्वों के रेडियों ऐक्टिव समस्थानिकों की प्राप्ति। न्यूट्रॉनों की बौछार से इनकी सृष्टि होती है।
जब उद्देश्य ऊर्जाप्राप्ति होती है तो चित्र 3. के समान व्यवस्था की जाती है। क. परमाणु भट्ठी है। ख. एक नली है, जिसमें द्रव सोडियम प्रवाहित होता है। यह न्यूट्रॉनों का अवशोषण नहीं करता, किंतु भट्ठी की ऊष्मा को बायलर ग के जल में पहुँचा देता है। इससे भाप बनकर नली ध के द्वारा टरबाइन ट में पहुँच जाती है। इंग्लैंड, अमरीका और रूस में इस प्रकार के कारखाने बन गए है जिनसे सहस्त्रों यूनिट बिजली उत्पन्न की जाती है। जहाजों में भी ऐसी भट्ठियाँ लगाई गई हैं। भार में भी शीघ्र ही ऐसा कारखाना बननेवाला है।
इतिहास -
सन् 1895, रेडियोऐक्टिवता का आविष्कार (बेकरेल - फ्रांस);
सन् 1905, जर्मनी में आइन्स्टाइन का सूत्र :
ऊर्जाउ द्रव्यमानव् (प्रकाशवेग);2
सन् 1911, परमाणु के नाभिक का आविष्कार (रदरफर्ड - इंग्लैंड);
सन् 1932, न्यूट्रॉन का आविष्कार (चैडविक - इंग्लैंड);
सन् 1939, यू235 का विखंडन (हान और स्ट्रॉसमान - जर्मनी);
सन् 1942, शृंखलित क्रिया तथा प्रथम रिऐक्टर (इटलीनिवासी फर्मी - अमरीका);
सं.ग्रं.- हेनरी सिरेट : इंट्रोडक्शन टु ऐटोमिक फ़िजिक्स (1939); टर्नर : न्यूक्लियर फ़िशन (रिव्यू ऑव मॉडर्न फ़िजिक्स, 1940); पॉलर्ड और डेविडसन : ऐप्लायड न्यूक्लियर फ़िज़िक्स, 1942; एच.डी. स्मिथ : ऐटोमिक एनर्जी इन दि कॉस्मिक एरा (1945); स्लेटर : मॉडर्न फ़िज़िक्स; शरवुड तथा पावर फार टुडे ऐंड टुमॉरो।(निहालकरण सेठी)
Hindi Title
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
अन्य स्रोतों से
संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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