प्रशीतन, घेरलू

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 14:49
प्रशीतन, घेरलू ( Refrigeration, Domestic) घरेलू उपयोग के लिये थोड़ी मात्रा में खाद्य पदार्थो को ठंड़ा रखने के निमित्त 1917 ई. से ही प्रशीतकों का व्यावसायिक रीति से निर्माण आरंभ हुआ और 1925 ई. से तो वे सर्वसाधारण के लिये भी सुलभ हो गए। आरंभ में तो गैसचालित यंत्र ही बनाए गए, लेकिन अब कुछ वर्षो से विद्युतशक्ति चालित प्रशीतित्र (refrigerators) सर्वप्रिय होते जा रहे हैं। एक ऐसे यंत्र का भी आविष्कार हो चुका जो तेल के साधारण लैंप की गरमी से ही कार्य करता है। इसमें ठंडा करने का माध्यम जल ही होता है। आजकल सभी प्रशीतक प्रयुक्तियाँ स्वचालित तथा स्वपरिपूर्ण होती हैं। इस प्रकार के यंत्र भी बनाए जाते हैं जिनका शक्ति उत्पादक तथा चालक यंत्र तो एक बड़ी इमारत के लिये एक ही होता है, पर उससे अलग अलग आवास कक्षों में बिजली की वितरण-व्यवस्था के समान, कई प्रशीतित्र चलाए जाते हैं।

आजकल सब प्रकार के प्रशीतित्रों की अलमारियाँ देखने में एक सी ही लगती हैं। इनके भीतर पोर्सिलेन की परत और बाहर की तरफ गाढ़ा प्रलाक्षारस लेप लगा होता है। भिन्न भिन्न माडलों की कीमत के अनुसार प्रशीतित्र की दीवारों में लगा ऊष्मारोधक (heat insulaor) 2 से 4 इंच तक मोटा होता है। ऊष्मारोधक जितना ही अधिक मोटा होगा उतना ही अधिक प्रभावकारी रहेगा, क्योंकि अधिकतर वायुमंडल की गरमी, दीवारों में से होकर ही भोजनपात्रों में, प्रविष्ट होती है।

प्रत्येक प्रशीतित्र में रखे खाद्यपदार्थो को ठंडा रखने का काम किसी प्रशीतक माध्यम की भौतिक दशा में परिवर्तन के द्वारा होता है। अत: एक अच्छे प्रशीतक-माध्यम में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है : (1) माध्यम की भौतिक दशा में बार बार परिवर्तन होते रहने पर भी प्रशीतक-माध्यम का परिमाण स्थायी रहना चाहिए, अर्थात्‌ उसमें छीजन नहीं होनी चाहिए, तथा (2) उच्च गुप्त ऊष्मा, (3) निम्नतम क्व्थनांक, (4) निम्नतम संघनन दाब, (5) अज्वलनशीलता, (6) अविस्फोटकता, (7) धातुओं पर असंरक्षारी प्रभाव (8) दुर्गंध तथा विषीहीनता, (9) स्वल्प मात्रा में जिसकी पहिचान हो सके, और (10) सस्तापन आदि गुण भी उसमें होने चाहिए।

अमोनिया गैस, सल्फर डॉइआक्साइड, कार्बन डाआक्साइड, डाइक्लोर-डाइफ्लोर-मिथेन प्रमुख गैसें हैं, जिनका उपयोग प्रशीतन में होता है। (देखें प्रशीतन और उसके उपयोग) 

प्रशीतित्रों की संक्षिप्त कार्यप्रणाली  केवल बर्फ द्वारा तथा यंत्र द्वारा चलनेवाले प्रशीतित्रों का सिद्धांत वस्तुत: एक ही है, क्योंकि दोनों में ही भोजनपात्रों की गरमी का आवशोषण माध्यम के भौतिक परिवर्तन द्वारा ही होता है। पहले में तो बर्फ पिघलकर पानी बन जाता है, और दूसरे में प्रशीतक द्रव, यंत्र के द्वारा गैस से परिणत हो जाता है। बहुचालित प्रशीतक इस प्रकार से बनाए जाते हैं कि उनमें हवा का परिवहन बर्फ की सिल्ली के नीचे की तरफ से ही होता है और बर्फ वहीं गलती रहती है। अत: जब तक खाद्य कक्ष बंद रहता है उसका ताप 60 से 80 के बीच रहता है, चाहे बर्फ की सिल्ली कितनी ही पतली हो जाए। इस प्रकार एक सिल्ली 4-5 दिनों तक चल जाती है।

स्वचलित प्रकार के यांत्रिक प्रशीतित्र दो प्रकार के होते हैं, एक तो संपीडन (compression) के सिद्धांत पर ओर दूसरे अवशोषण (absorption) के सिद्धांत पर चलनेवाले। इन दोनों की ही संवृत्त प्रणालियों में प्रशीतक-माध्यम परिवहन करता रहता है। इनके भीतर वाष्पित्र भाग में भरा प्रशीतक-द्रव गैस रूप में परिणत होते समय खाद्यकक्ष की गरमी का अवशोषण कर उसके ऊपर लगी संघनक कुंडलियों में, जो सदैव हवा के संपर्क में रहती हैं, जाकर, संघनित होकर दुबारा द्रव बन जाता है। इनमें एक तापस्थापी (thermostat) नामे उपकरण भी लगा रहता है, जिसके द्वारा खाद्यकक्ष के ताप पर नियंत्रण रखा जा सकता है।

संपीडन के सिद्धांत पर चलनेवाले प्रशीतक यंत्रों में अथवा अश्वशक्ति की मोटर, यंत्र के क्रियाचक्र का आरंभ करने के लिये लगाई जाती है, जिसके द्वारा सल्फर डाइऑक्साइड अथवा डाक्लोरडाइफ्लोर मिथेन के जैसे गैसीय प्रशीतक-माध्यम वाष्पित्र में से संघनन कुंडलियों में प्रेरित किए जाते हैं। फिर इनमें से एक विशेष कपाट में से गुजरकर उद्वाष्पक में वापस आ जाते हैं। ये कपाट भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो प्रसारक कपाट, जिसके द्वारा संघनित प्रशीतक एक बारीक फुहारे के रूप में बिखरकर वाष्पित्र में प्रविष्ट होता है और जिससे उसका एकदम ही, आंशिक रूप में, वाष्प बन जाता है। दूसरे प्रकार का प्लव (float) कपाट है, जो वाष्पित्र के भीतर काफी मात्रा में प्रशीतक-द्रव इकट्ठा होने पर अपना काम करता है और तभी क्रियाचक्र का पुनरावर्तन होता है।

अवशोषण के सिद्धांत पर चलनेवाले प्रशीतित्रों में अमोनिया गैस ठंडे पानी में सरलता से घुल जाती है और पानी के गरम होने पर सरलता से निकल भी जाती है। अत: पानी को गरम करने के लिये तेल या गैस की ज्वाला का प्रयोग किया जाता है। पानी से अलग होने पर अमोनिया गैस सघनन कुंडलियों में जाकर द्रवित हो वाष्पित्र में बह आती है, जहाँ हाइड्रोजन के माध्यम से संघनित्र की दाब इतनी कम हो जाती है कि वह द्रव फिर से वाष्पित होने लगता है। फिर, वाष्पित्र से हाइड्रोजन और अमोनिया गैस का मिश्रण अवशोषक प्रकोष्ठ में ज्योंही पहुँचता है, उसमें पानी की एक बारीक फुहार मिलती है। इससे अमोनिया गैस तो पानी में घुल जाती है तथा पानी में अविलेय हाइड्रोजन वाष्पित्र में वापस लौट जाता है। इधर अमोनियम हाइड्रॉक्साइड वाष्पजनित्र में आकर क्रियाचक्र को पुन: चालू कर देता है। इस प्रकार के यंत्र में गरमी और ठंडक का आदान प्रदान निरंतर होते रहने के कारण इसकी बनावट तो बड़ी ही पेचीदा हो जाती है, लेकिन यंत्र की कार्यक्षमता अच्छी रहती है। (देखें प्रशीतन और उसके उपयोग)।

(ओंकारनाथ शर्मा)

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