प्रशीतन

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 12:54
प्रशीतन और उसके उपयोग किसी स्थान, या पदार्थ, को उसके वातावरण के ताप के नीचे तक ठंढा करने की क्रिया को प्रशीतन कहते हैं। भारत एवं मिस्र देश में इसकी जानकारी अनादि काल से थी। मिट्टी के पात्रों में पानी ठंडा करने की रीति, इसका व्यावहारिक उपयोग कही जा सकती है। कालांतर में चीन, यूनान और रोम के लोगों ने प्राकृतिक हिम के द्वारा अपने खाद्य एवं पेय पदार्थो को ठंढा रखने की विधि अपनाई। इसके बाद कृत्रिम बर्फ बनाने के हेतु प्रशीतन की यांत्रिक विधियों का आविष्कार किया गया। विगत अर्धशती में इन यांत्रिक विधियों का विस्तार बर्फ बनाने से लेकर खाद्य एवं पेय पदार्थो को शीतल रखने तथा अधिक समय तक इन्हें संरक्षित (preserve) रखने के हेतु किया गया और अब तो इनका प्रयोग बहुत बड़े व्यावसायिक पैमाने पर किया जाने लगा है।

प्रशीतन व्यवस्था निम्नलिखित उपायों द्वारा प्राप्त की जा सकती है :

1. पानी या बर्फ में नमक के संयोग से,
2. कम दाब पर द्रव को उबाल कर,
3. बाह्य कार्य करनेवाली किसी गैस के रुद्धोष्म (adiabatic) प्रसार द्वारा,
4. जूल-टामसन प्रभाव के प्रयोग से
5. पेल्टियर प्रभाव से उत्पन्न शीतलीभव की क्रिया द्वारा,
6. अधिशोषण की ऊष्मा (heat of absorption) का उपयोग करके।

अथवा (7) रुद्धोष्म विचुंबकन (demagnetisation) की प्रक्रिया द्वारा।

1. पानी या बर्फ में नमक के संयोग से प्राप्त प्रशीतन व्यवस्था बर्फ के टुकड़ों से सामान्यतया पानी चिपका रहता है। जब उनके साथ नमक मिलाया जाता है तब वह उस पानी में गल जाता है और बर्फ पिघलती है। विलयन ऊष्मा (heat of solution) और बर्फ गलने की गुप्त ऊष्मा उसी मिश्रण से प्राप्त होती हैं तथा फलस्वरूप मिश्रण का ताप का यह पतन एक निश्चित सीमा से अधिक नहीं हो सकता। जब मिश्रण का ताप लगभग -21.20 सें. तक पहुँच जाता है, तब उसका पतन रुक जाता है और अधिक नमक उस विलयन में डालने से कोई परिवर्तन नहीं होता। इस ताप को गलनक्रांतिक ताप (Eutectic temperature) कहते हैं। इस ताप पर विलयन के आ जाने के बाद उसमें अधिक नमक नहीं घुल सकता। नीचे कुछ लवणों के, जो पानी में घुल सकते हैं, नाम और उनके संगत गलन क्रांतिक ताप के मान दिए जा रहे हैं :

लवण

मिश्रण के 100 ग्राम में  मिश्रित अजल लवण की मात्रा

गलन क्रांतिक ताप डिग्री सेंटिग्रेड

मैग्नीशियम सल्फेट

19.0

-39

जिंक सल्फेट

27.2

-6.5

पोटासियम क्लोराइड

19.7

-11.1

अमोनियम क्लोराइड

18.6

15.8

अमोनियम नाइट्रेट

41.2

-17.4

सोडियम नाइट्रेट

37.0

-18.5

सोडियम क्लोराइड

22.4

-21.2

मैग्नीशियम क्लोराइड

21.6

-33.6

कैल्सियम क्लोराइड

29.8

-55

पोटासियम हाइड्रॉक्साइड

31.5

-65



2. कम दाब पर द्रव के क्वथन द्वारा प्रशीतन  जब कोई द्रव उबलता है तब उसके वाष्पीकरण, अर्थात्‌ द्रव से वाष्प में परिवर्तन के लिये, ऊष्मा की आवश्यकता पड़ती है, जिसे वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्मा कहते हैं। यदि कोई द्रव किसी विधि से अत्यंत द्रुत गति से वाष्पित कराया जाय और उसे अन्य किसी स्रोत से ऊष्मा न मिल सके तो वह अपने अंदर की ऊष्मा के व्यय से ही वाष्पित होता है। फलत: वह शीतल होने लगता है।

इस सिद्धांत का प्रयोग विशाल पैमाने पर आधुनिक यांत्रिक प्रशीतन उपकरणों में किया जाता है। इसमें पानी का प्रयोग नहीं किया जाता, क्योंकि यद्यपि इसके वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्मा का मान काफी ऊँचा होता है, फिर भी निम्न तापों पर उसकी वाष्प दाब अल्प होती है। इस कार्य के लिये अमोनिया, सल्फर डाइऑक्साइड इत्यादि का प्रयोग होता है।

यांत्रिक प्रशीतन व्यवस्था ऊष्मागतिकी (thermodynamics) का एक व्यावहारिक प्रयोग है, जिसमें प्रशीतक द्रव्य (refrigerant) को एक उत्क्रमिक ऊष्माचक्र (reverse heat cycle) में होकर गुजरना पड़ता है। यह चक्र एक इंजन या विद्युत मोटर द्वारा चलता है और इस चक्र में निम्न ताप पर ऊष्मा का निस्सरण होता है। इस उद्देश्य से उत्क्रम कानों-चक्र (reversed Carnot's cycle) उपादेय हो सकता है, किंतु कुछ दृष्टियों से प्रचलित प्रशीतन चक्र कानों चक्र से भिन्न होते हैं, जिसका मुख्य कारण वाष्पीकरण कुंडलों में घुसने के पूर्व वाष्परोधी कपाट (throttle valve) द्वारा द्रव का दाब घटा देने की क्रिया है। इससे कानों के चक्र के लिये अभीष्ट स्थिरोष्म प्रसार की क्रिया होना संभव नहीं रह जाता। साधारणतया व्यवहृत होनेवाले प्रशीतन चक्रों में वाष्प संपीडन (vapour compresssion), अवशोषण, भाप-जेट एवं वायुचक्र उल्लेखनीय हैं। इन चक्रों को समझने से पूर्व ऊष्मा चक्र समझ लेना आवश्यक है।

ऊष्मा-इंजन चक्रों को कई प्रकार से चित्रित किया जा सकता है। इनमें p-h [दाब-पूर्ण ऊष्मा (enthalpy)] लेखाचित्र प्रशीतन चक्र समझने के हेतु अत्यंत उपयोगी एवं सरल है। विशिष्ट पूर्ण ऊष्मा (enthalpy), h, का मान ऊष्मागतिकी में निम्न सूत्र द्वारा व्यक्त किया जाता है :

h = U + Apv, जहाँ U प्रशीतन द्रव की आंतरिक ऊर्जा (internal energy), p उसकी दाब तथा v आयतन है। A एक स्थिरांक है, जिसका मान के बराबर होता है। अत: पूर्ण ऊष्मा में परिवर्तन

dh = dU + Ap. dv + Av. dp,

Êकिंतु dU + Ap. dv = dq (ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम से)

अत: dh = dq + Av. dp,

जहाँ dq ऊष्मा की मात्रा में परिवर्तन व्यक्त करता है। यदि इस प्रक्रिया में दाब स्थिर हो तो

dp = 0

 dh = dq या hx - hy= xQy

इससे यह स्पष्ट है कि किसी स्थिरदाबीय प्रक्रिया में शोषित ऊष्मा की मात्रा (xQy) उस प्रक्रिया में h के प्रारंभिक एवं अंतिम मानों के बराबर होती है।

इसके अतिरिक्त प्रशीतन चक्रों की ताप-एंट्रापी (entropy) लेखाचित्र की सहायता से भी समझा जा सकता है। एंट्रापी का मान किसी परिवर्तन क्रम में, प्रवाहित ऊष्मा की मात्रा में उस अवधि के माध्य परम ताप का भाग देने पर ज्ञात होता है। पूर्ण ऊष्मा को, ब्रिटिश थरमल यूनिट प्रति पाउंड में तथा एंट्रापी को ब्रि. थ. यू. प्रति पाउंड प्रति अंश रैनिकिन (Btu/lb/0 Rankine, जहाँ 0R = 0F + 460) द्वारा व्यक्त किया जाता है।

अब प्रशीतन चक्र को समझने का प्रयत्न करेंगे। एक वाष्पशील द्रव को समानीत (reduced) दाब के अंतर्गत वाष्पीकारक कुंडलों (evaporating coils) में प्रवाहित किया जाता है, जहाँ वह प्रशीतेय पदार्थो से ऊष्मा शोषित करके उबलने लगता है। मान लिया, संघनित्र (condenser) में द्रव की उच्च दाब अ द्वारा व्यक्त की गई है (देखें चित्र 1.)। प्रसार कपाट (expansion valve) द्वारा स्थिरोष्म विधि से उसकी दाब घट कर व तक पहुँच जाती है। इसके उपरांत प्रशीतक (रेफ्रजरेटर) में स्थिर दाब पर उसका वाष्पीकरण होता है, जिससे उसकी पूर्ण-ऊष्मा बढ़कर स से स तक की लंबाई स्थिर दाब पर द्रव का (जो अब गैस के रूप में परिणत हो चुका है) चूषण अतितापन (suction superheating) व्यक्त करती है। वस्तुत: लाभप्रद प्रशीतन रेखा बस द्वारा व्यक्त होती है। इस अवधि में द्रव प्रशीतेय पदार्थो से प्रति पाउंड (hस - hब) = (hस - hअ) ब्रि. थ. यू. ऊष्मा शोषित कर चुकता है। इसके अनंतर यह गैस संपीडक (कंप्रेसर, compressor) में प्रविष्ट होती है। यहाँ उसका स्थिर पूर्ण-ऊष्मा पर संपीडन होता है और गैस की दाब स से बढ़कर द हो जाती है। प्रशीतक द्रव (refrigerant) पर प्रति पाउंड किया जानेवाला संपीडन कार्य (hद - hस) के बराबर होता है। द से द से अ तक संपीडित गैस से संघनन की गुप्त ऊष्मा का (स्थिर दाब पर) क्षय होता है और द्रव पुन: अपने प्रारंभिक रूप में प्रारंभ बिंदु अ तक पहुँच जाता है। संघनशील जल के प्रति पाउंड द्वारा अवशोषित होनेवाली ऊष्मा (hद - hअ) होगी। इस प्रकार प्रशीतन द्रव से प्राप्त होनेवाला प्रशीतन (hस - hअ) ब्रि. थ. यू. प्रति पाउंड होगा।

वाष्प संपीडक मशीन 


इस मशीन के तीन मुख्य भाग होते हैं : संपीडक, संघनित्र और प्रशीतक या वाष्पित्र। संपीडक में, अंतर्गत कपाट (inlet valve) से होकर, वाष्पित्र से निम्न दाब पर वाष्प आता है और संपीडित वाष्प निर्गम कपाट (outlet valve) से होकर संघनित्र में पहुँचता है। संघनित्र ठंडे पानी की नलिकाओं द्वारा ठंडा किया जाता है और उसमें प्रविष्ट होनेवाला वाष्प, ठंडा होकर तथा उच्च दाब के प्रभाव में द्रवीभूत हो जाता है। यह द्रव एक ----- (throttle valve) से होकर गुजरता है। यह कपाट द्रव की दाब को कम करके संघनित्र की उच्च दाब से वाष्पित्र के निम्नदाब तक पहुँचा देते है। निम्नदाब के कारण द्रव वाष्पित्र में उबलने लगता है और वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्मा को वह वाष्पित्र में रखे हुए प्रशीतेय पदार्थो से प्राप्त करता है। इससे वाष्पित्र का प्रकोष्ठ शीतन रहता है। वाष्पित्र से यह द्रव पुन: संपीड़क द्वारा खिंच जाता है और यह चक्र अनवरत चला करता है। कभी कभी वाष्पित्र लवणजलवाहिनी अनेक नलिकाओं से आवृत्त रहता है। यह जल शीतल हो जाने पर प्रशीतन प्रयोजनों के हेतु अन्यत्र ले जाया जाता है।

अवशोषक मशीन 


वाष्प संपीडक मशीन में मोटर संपीडक का प्रयोग होता है। अवशोषक मशीनों में इसके स्थान पर निम्नदाबीय वाष्प को घुलाने के लिये, सामान्य तापों पर हलका जलीय विलयन प्रयुक्त किया जाता है और इस प्रकार सांद्र विलयन एक जनित्र में गरम किया जाता है जिससे उच्च दाब पर वह गैस उससे बाहर निकल जाय। इन मशीनों में अमोनिया को प्रशीतक द्रव के तथा जल को विलायक या अवशोषण के रूप में सामान्यतया प्रयुक्त किया जाता है। 130 सें. ताप पर जल अपने आयतन के सहस्र गुना आयतन के अमोनिया का यह विलयन 26.60 सें. तक गरम किया जाता है, तो अमोनिया गैस उसमें से सुगमतापूर्वक निकल जाती है। इस मशीन का विवरण नीचे दिए चित्र 4. से समझा जा सकता है। जनित्र में अमोनिया का सांद्र जलीय विलयन है, जिसे किसी ज्वालक या भापनलिका द्वारा गरम किया जाता है। अमोनिया गैस संघनित्र की एक सर्पिल नलिका में आती है और संघनित्र में भरे हुए ठंडे पानी से ठंडी होकर द्रव अमोनिया में परिणत हो जाती है। इससे इसकी दाब बढ़ जाती है। यह द्रव अमोनिया एक नियंत्रक कपाट से होकर धीरे धीरे वाष्पित्र में स्थित एक अन्य सर्पिल नलिका में प्रवेश करता है वाष्पित्र में लवणजल भरा रहता है। संघनित्र की उच्च दाब से वाष्पित्र की निम्न दाब में पहुँचकर द्रव अमोनिया पुन: उद्वाष्पित होकर गैस बन जाती है और इसके लिये अमोनिया आवश्यक गुप्त ऊष्मा लवणजल से लेकर उसे ठंढा कर देता है। यह शीतल लवणजल प्रशीतन कार्यो के लिये अन्यत्र ले जाया जाता है। वाष्पित्र से निकलकर अमोनिया गैस अवशोषक में पहुँचती हैं, जहाँ जल द्वारा उसका अवशोषण हो जाता है। अमोनिया का यह विलयन पुन: जनित्र को पंप किया जाता है। वहाँ वह सांद्र विलयन के रूप में पुन: आ जाता है और जो कुछ हलका विलयन बन जाता है, वह कपाट से होकर पुन: अवशोषक में आ जाता है। यह मशीन वाष्प संपीडन मशीन की अपेक्षा कम दक्ष है और इसका स्थापन व्यय काफी अधिक होता है। यह विधि संयुक्त राज्य, अमरीका, में अधिकतर व्यवहृत होती है।

प्रशीतक द्रव्य (refrigerants) 


वे द्रव्य, जो सुलभ यांत्रिक संपीडकों द्वारा उत्पन्न हो सकनेवाली दाबों के अंतर्गत समुचित निम्न तापों पर उबल सकते हैं, प्रशीतक द्रव्य के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं। अमोनिया सर्वाधिक प्रचलित प्रशीतक द्रव्य हैं और अब तो अनेकानेक उत्कृष्ट प्रशीतक द्रव्यों का आविष्कार किया जा चुका है।

अ. उच्च दाब, उष्ण तनुजल तथा ब. उच्च दाब, उष्ण सांद्रजल।

उपर्युक्त प्रशीतक द्रव्य का चयन करते समय निम्नलिखित बातें विचारणीय होती है :

1. प्रशीतक द्रव्य की गुप्त ऊष्मा पर्याप्त अधिक होनी चाहिए ताकि उसकी अल्प मात्रा के अवस्थापरिवर्तन से ही वांछित प्रशीतन उत्पन्न किया जा सके।
2. प्रशीतक द्रव्य सामान्य ताप और दाब पर वाष्प या गैस रूप में पाया जाय और वह संपीडित एवं शीतल करने पर सरलता से द्रवीभूत हो सके।
3. वाष्पित्र कुंडल में प्रशीतक द्रव्य के वाष्प की दाब वायुदाब से अधिक हो, ताकि वायुमंडलीय अशुद्धियाँ वाष्पित्र के प्रसार कपाट में घुस कर उसका मुँह न अवरुद्ध कर दें।
4. प्रशीतक द्रव्य के वाष्प का विशिष्ट आयतन अत्यधिक न होना चाहिए, अन्यथा बहुत बड़े एवं अत्यधिक सुदृढ़ संपीडक की आवश्यकता पड़ेगी।

आधुनिक प्रशीतक द्रव्यों में डाइक्लोरो-डाइफ्लोरोमेथेन (dichlorodifluoromethane, CCl2 F2), जिसका अन्य नाम फ्रऑन है तथा जो एफ-12 (F-12) के नाम से विख्यात है, विषहीनता एवं अज्वलनशीलता आदि गुणों के कारण प्रशीतकों में गिना जाता है। कुछ अन्य उत्तम प्रशीतकों में सल्फरडाऑक्साइड (SO2), कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और फेरोन-114 (डाईक्लोरो-टेट्राफ्लोरोईथेन, C2Cl2F4) हैं। अपकेंद्री संपीडकों में सामान्यता डाइक्लोरोएथिलीन (dichloroethylene, C2H2Cl2) तथा मेथिलीन क्लोराइड (CH2Cl2) का व्यवहार होता है।

नीचे कुछ प्रशीतक द्रव्यों के बारे में विवरण दिए गए हैं :


प्रशीतक

क्वथनांक (B.P.) डिग्री फारेनहाइड (वायुमंडलीय दाब पर)

वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्मा 50 फा. पर बी. टी. यू. प्रति पाउंड)

वाष्प दाब प्रति वर्ग इंच

प्रशीतन प्रभाव बी. टी. यू. प्रति पाउंड में

वाष्पित्र में वाष्पका विशिष्ट आयतन (घन फुट प्रति पाउंड में)

50 फा. पर

860 फा. पर

अमोनिया

-28.0

565.0

34.27

169.2

474.45

8.150

सल्फर डाइऑ.

14.0

175.0

11.81

66.45

141.37

6.421

कार्बन डाई ऑ.

-108.4

114.7

334.4

1039.0

56.69

 

0.267

एथिल क्लोराइड

-10.6

178.5

20.89

95.53

148.7

4529

कवॉन

-21.7

69.5

26.51

107.9

51.07

1.485



गैसों के स्थिरोष्म प्रसार द्वारा प्रशीतन 


जब किसी संपीडित का अचानक स्थिरोष्म विधि से प्रसरित होने का अवसर दिया जाता हैं तब वह ठंडी हो जाती है, क्योंकि प्रसरण में किए गए कार्य हेतु आवश्यक ऊर्जा वह बाहरी वातावरण से नहीं ले पाती अपितु से ही अंदर से प्राप्त करती है। इससे उसका ताप इस सीमा तक हो सकता हैं कि वह ठोस के रूप में जम जाय। इसी सिद्धांत पर कुछ संपीडन प्रशीताकें का निर्माण किया गया है, जिनमें प्रशीतक गैस के रूप में वायु का प्रयोग होता है। इसमें वायु को पहले खूब किया जाता है और इस क्रिया में उत्पन्न ऊष्मा से गैस को निवृत्त होने के हेतु वायु का प्रयोग होता है। इसमें वायु को पहले खूब - जाता है और इस क्रिया और इस क्रिया में उत्पन्न ऊष्मा से गैस को निवृत्त होने के हेतु वायु का प्रयोग होता है। इसमें वायु को प्रसारबेलन के स्थिरोष्म ढंग से प्रसरित कराया जाता है, जिससे बेलन तथा वायु को ही ठंडे हो जाते हैं। यह ठंडे वायु और संपीडित वायु प्रसार खबर में प्रवेश करती है, जहाँ इसका स्थिरोष्म प्रसार होता है। यह पर्याप्त ठंडी हो जाती है और प्रशीतक के शीत संचायक कोष्ठ या शीतागार (Cold Storage) में पहुँचकर उसे शीतल करती है। इससे यह पुन: गरम होकर संपीडक में पहुँचती है और यह पुन: आरंभ होता है। इस प्रकार के संपीडक में पहुँचती है और यह पुन: आरंभ होता है। इस प्रकार के संपीडक का व्यावहारिक रूप कीलमैन प्रशीतित्र (Bell-Coleman Retrigerator) है, जो घरों के शीत संचायक प्रकोष्ठों में व्यवहृत होता है।

जूल-टॉमसन विधि द्वारा प्रशीतन  जूल-टामसन-शीतलन का, जिसका विवरण अन्यत्र दिया गया है, मात्रा बहुत कम होती है, किंतु पुनरुत्पादन प्रक्रिया द्वारा उसे बढ़ाया जा सकता है। जूल-टामसन-विधि द्वारा शीतल हुए गैस का एक भाग आगत गैस की टोंटी (nozzle) तक पहुँचने से पूर्व शीतल करने के हेतु प्रयुक्त किया जाता है। इससे आगत गैस टोंटी पार करने के बाद और भी ठंडी हो जाती है। इस क्रिया को कई बार दुहराने से गैस काफी ठंडी हो जाती है। इस विधि का उपयोग गैसों के द्रवीकरण के लिये विशेष रूप से किया जाता है।(सुरेशचंद्र गौड़)

Hindi Title


विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)




अन्य स्रोतों से




संदर्भ
1 -

2 -

बाहरी कड़ियाँ
1 -
2 -
3 -