आर्थिक विकास का ऐतिहासिक अनुभव और आर्थिक विकास की सैद्धांतिक व्याख्या यह स्पष्ट करते हैं कि आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में प्रत्येक अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के विकास अनुभव की पुष्टि करते हैं। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के राष्ट्रीय उत्पाद, रोजगार और निर्यात की संरचना में कृषि क्षेत्र का योगदान उद्योग और सेवा क्षेत्र की तुलना में अधिक होता है। ऐसी स्थिति में कृषि का पिछड़ापन सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को पिछड़ेपन में बनाये रखता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कमजोर वर्ग के लोग जिनमें लघु एवं अति लघु कृषक और कृषि श्रमिक सम्मिलित हैं, अधिकांशत: गरीबी के दुश्चक्र में फँसे रहते हैं और वे निम्नस्तरीय संतुलन में बने रहते हैं। इनकी जोत का आकार तो छोटा होता है साथ ही इनके पास स्थायी उत्पादक परिसंपत्ति की कमी बनी रहती है। इनकी गरीबी अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण होती है।
विभिन्न विकसित देशों का आर्थिक इतिहास यह स्पष्ट करता है कि कृषि विकास ने ही उनके औद्योगिक क्षेत्र के तीव्र विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आज के विकसित पूँजीवादी और समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के विकास के आरंभिक चरण में कृषि क्षेत्र ने वहाँ के गैर कृषि क्षेत्र के विकास हेतु श्रमशक्ति, कच्चा पदार्थ, भोज्य सामग्री और पूँजी की आपूर्ति की है। इंग्लैंड में सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में कृषकों ने तकनीकी परिवर्तन द्वारा कृषि विकास का मार्ग अपनाया और इसके आधिक्य को गैर कृषि क्षेत्र के विकास में प्रयोग किया गया।
यूएसएसआर ने 1927 से सामूहिक कृषि प्रणाली अपनाकर बड़े पैमाने पर यंत्रीकृत कृषि प्रणाली अपनाकर कृषि विकास किया। जापान ने भी कृषि अतिरेक का गैर कृषि कार्यों में प्रयोग किया। यह अनुमान किया गया है कि जापान ने 1890 से 1920 की अवधि में कृषि उत्पादन में लगभग 77 प्रतिशत वृद्धि की। इसमें 31 प्रतिशत उत्पादन में वृद्धि फसल के अंतर्गत क्षेत्र बढ़ने के कारण और 46 प्रतिशत उत्पादन कृषि उत्पादकता में वृद्धि के कारण बढ़ा। ताइवान और दक्षिणी कोरिया के आर्थिक विकास में भी कृषि क्षेत्र की भूमिका निर्णायक रही है।
विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के उपरोक्त अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास की पूर्वापेक्षा कृषि क्षेत्र का विकास है। कृषि क्षेत्र का विकास कृषि एवं संबद्ध क्रियाओं में लगे हुए लोगों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार करता ही है, साथ ही यह गैर कृषि क्षेत्र के लिये खाद्यान्न, कच्चा पदार्थ, बाजार और श्रम शक्ति की आपूर्ति करता है। इस प्रकार कृषि उत्पादन आर्थिक विकास में पाँच प्रकार से सहायक होता है।
1. आर्थिक विकास के साथ कृषि उत्पाद विशेषकर खाद्यान्नों की मांग बढ़ती है।
2. कृषि उत्पादों के निर्यात से विदेशी विनिमय की प्राप्ति होती है। आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में विदेशी विनिमय की प्राप्ति आवश्यक होती है।
3. नवीन औद्योगिक क्षेत्रों और इकाइयों को श्रमशक्ति की प्राप्ति कृषि क्षेत्र से ही होती है।
4. विकास के प्राथमिक चरण में परिवहन और औद्योगिक विकास के लिये संसाधन आपूर्ति कृषि क्षेत्र से ही होती है।
5. ग्रामीण जनसंख्या की आय में वृद्धि होने पर औद्योगिक उत्पादनों की मांग बढ़ती है। मांग में वृद्धि औद्योगिक क्रियाओं में प्रसार के लिये प्रमुख प्रेरक शक्ति होती है।
कृषि विकास किसी अर्थव्यवस्था के समग्र विकास में कई रूपों में सहायक है अत: कृषि क्षेत्र में विनियोग को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र समस्त आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित करता है। भारत में अनुकूल कृषि वर्ष अर्थव्यवस्था के लिये समृद्धि का वर्ष होता है प्रतिकूल कृषि वर्ष में अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है। इन अनुभवपरक तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत का आर्थिक ढाँचा आज भी कृषि पर ही निर्भर है। भारत जैसे विशाल भूभाग वाले देश में कृषि भूमि के समुचित उपयोग से ही राष्ट्रीय समृद्धि तथा व्यक्तिगत विकास संभव है, इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भूमि की क्षमता, उवर्रता तथा उसके समुचित उपयोग का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ऐसे अध्ययनों से ही कृषि उत्पादन संबंधी तथ्यों का ज्ञान प्राप्त होता है जिसके आधार पर कृषि संबंधी योजनायें बनाई जा सकती हैं। भारत में यद्यपि 1 अप्रैल 1951 से नियोजन प्रारंभ हुआ, परंतु प्रथम द्वितीय तथा तृतीय योजनायें कृषि भूमि उपयोग सर्वेक्षण तक सीमित रही और कृषि उत्पादन, उत्पादिता तथा कृषि क्षेत्र को सुदृढ़ करने हेतु सार्थक प्रयास चतुर्थ पंचवर्षीय योजना से प्रारंभ किये गये जिसमें 390 लाख एकड़ भूमि को खाद्यान्नों की अधिक उपजाऊ बीजों द्वारा बोने का तथा 250 लाख एकड़ भूमि को बहु फसली योजना के अंतर्गत लाने का लक्ष्य प्रस्तावित किया गया था, जिसमें इस लक्ष्य की पूर्ति हो गई।
1980 तक भूमि सुधार के रूप में लगभग 4.5 लाख हेक्टेयर भूमि की चकबंदी भी की गयी थी। पाँचवी योजना में 131 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि को सिंचाई के अधीन लाने का प्रस्ताव किया गया था इस लक्ष्य की भी पूर्ति की गयी। पाँचवी योजना की तुलना में छठी योजना में कृषि एवं संबंधित कार्यक्रमों में ढाई गुना तथा सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर लगभग साढ़े तीन गुना व्यय बढ़ाने का प्रस्ताव किया गया। छठी योजना के अंतर्गत सघन कृषि हेतु अधिक उपज देने वाले बीजों तथा नवीनतम उत्पादन तकनीक की जानकारी के लिये अनेक कार्यक्रम संचालित किये गये जिनमें मृदा संरक्षण की व्यवस्था, उर्वरकों की प्रचुरता, उत्तम बीजों की उपलब्धि, कृषक सेवा संस्थाओं में वृद्धि कृषि अनुसंधानशालाओं एवं शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना प्रमुख रहे।
सातवीं योजना में कृषि विकास के लिये अधिक तीव्र दर की लक्ष्य रखा गया ताकि बढ़े हुए उपभोग स्तर पर खाद्यान्नों तथा खाद्य तेलों की मांग पूरी की जा सके और इनमें आत्म निर्भरता प्राप्त की जा सके। अब कृषि नीति सामाजिक न्याय के साथ-साथ उत्पादन बढ़ाने के अतिरिक्त पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी सजग हो गयी है, क्योंकि भूमि और जल संसाधन को प्रदूषण से बचाना आवश्यक हो गया है। जुलाई 1991 में नई औद्योगिक नीति की घोषणा के बाद कृषि जैसे विशाल क्षेत्र के लिये कोई राष्ट्रीय नीति न हो तो अर्थ व्यवस्था में भारी शून्यता का अनुभव होता है क्योंकि कृषि राष्ट्र का गौरव ही नहीं बल्कि संपूर्ण अर्थ व्यवस्था की प्राण वायु भी है, इस महत्व को ध्यान में रखकर कृषि मंत्री डा. बलराम जाखड़ ने राष्ट्रीय कृषि नीति का मसौदा तैयार किया जिसे कुछ संसोधनों के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्वीकृति दे दी।
यह नीति सैद्धांतिक आदर्शों के बजाय वास्तविकताओं पर आधारित है इस नीति में कुल 144 सौदो रहे जिनमें कृषि संबंधित विभिन्न अवयव जैसे - भू स्वामित्व, विपणन, भंडारण, कृषि में निवेश, उत्पादन और उत्पादकता, उन्नत किस्म के बीज, सहकारी संस्थाओं को पुनर्जीवित करना, कृषि अनुसंधान, कृषि मशीनरी, फसल बीमा, खाद्यान्य उत्पादों का प्रसंस्करण, कृषि का औद्योगीकरण, जल संसाधन तथा कृषि का विविधीकरण आदि। जिन मसौदों से कृषक तथा कृषि अत्यधिक लाभान्वित होंगे उनमें दो मसौदे अति महत्त्वपूर्ण है- प्रथम मसौदे का संबंध फसल तथा पशुधन बीमा योजना से और दूसरे का संबंध कृषि को उद्योग का दर्जा देने से है इन मसौदों के अतिरिक्त नई कृषि नीति में दो बिंदुओं पर विशेष ध्यान दिया गया है। प्रथम बढ़ती हुई आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करना द्वितीय उन क्षेत्रों का विकास करना जिनकी क्षमता का दोहन अभी तक नहीं किया जा सका है।
स्वतंत्रता के बाद योजनाकाल में खाद्यान्नों के उत्पादन में सराहनीय प्रगति के बावजूद भी भारत में प्रति व्यक्ति दैनिक खाद्यान्न उपलब्धता 415 ग्राम ही है, यदि पिछले बीस वर्षों का औसत देखें तो प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता लगभग 497 ग्राम है। यदि हम हर भारतीय को औसत 500 ग्राम खाद्यान्य भी न दे तो कृषि क्षेत्र में हमारी उपलब्धि का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। राष्ट्रीय कृषि आयोजनों ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2000 तक खाद्यान्नों की मांग 22 करोड़ 50 लाख टन होगी, यदि खाद्यान्नों की उत्पादकता तेजी से न बढ़ाई गई और बीच में कभी सूखा या बाढ़ आ गयी तो देशवासियों की खाद्यान्न की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति कठिन हो जायेगी ऐसी स्थिति में न फसल बीमा योजना काम करेगी और न कृषि को उद्योग का दर्जा देने की नीति। हमें उन क्षेत्रों का विकास करना चाहिए जिनकी क्षमता का अभी तक दोहन नहीं हो सका है। अनुमान है कि भारत में कृषि क्षमता का 40 प्रतिशत से अधिक का उपयोग नहीं हो पाया है। लगभग 10 करोड़ हेक्टेयर भूमि गैर बंजर भूमि है जिसका प्रयोग अत्यावश्यक है। कृषि क्षेत्र को अधिक लाभप्रद बनाने के लिये शोधकर्ता के दृष्टिकोण से निम्निलिखित कार्यक्रमों को प्रोत्साहित ही नहीं करना है वास्तविकता का जामा पहनाना होगा।
1. मृदा सर्वेक्षण तथा मृदा संरक्षण।
2. अधिकतम कृषकों को कृषि की नवीनतम तकनीक का ज्ञान कराना
3. भूमिगत जल के वैज्ञानिक प्रयोग पर बल देना।
4. जल संसाधन के दुरुपयोग को रोकना।
5. कृषकों को समुचित प्रशिक्षण प्रदान करना।
6. मोटे अनाज के क्षेत्र में विस्तार करना।
7. दलहनी तथा तिलहनी फसलों का अधिक उत्पादन।
8. मुद्रा दायिनी फसलों का परंपरागत फसलों के साथ समायोजन।
9. नहरों की सुरक्षा एवं उनके उचित जल प्रबंध की व्यवस्था करना।
10. जैविक उर्वरकों के प्रयोग को प्रोत्साहन।
11. पशुओं की नश्लों में सुधार।
12. पशुओं के चारे वाली फसलों को प्रोत्साहन।
1. अध्ययन की आवश्यकता
भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्या आर्थिक विकास की है। आर्थिक विकास से अभिप्राय है कि सर्वजन को उनकी न्यूनतम आवश्यकता को पूरा करने के साधन उपलब्ध करवाना। इस स्वप्न को मूर्तरूप देने के लिये आवश्यक है कि उपलब्ध संसाधनों का कुशलतम उपयोग किया जाये। भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ पर जनसंख्या के एक बड़े भाग की आवश्यकताओं को पूरा करने का दायित्व भूमि संसाधन पर निर्भर है। जनसंख्या की वृद्धि के साथ प्रति व्यक्ति भू क्षेत्र में निरंतर ह्रास हो रहा है दूसरी तरफ निर्धनता व निम्न जीवन स्तर के फलस्वरूप जनसंख्या के एक बड़े भाग का पोषण सतर अति निम्न है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या भूख और कुपोषण जैसे समस्याओं का शिकार है तथा 30 प्रतिशत जनसंख्या के पास पर्याप्त भोजन नहीं है। कृषि भूमि भी भूसरंक्षण खारीपन बीहड़ों का निर्माण आदि अनेक समस्याओं से ग्रसित है। किसी देश की जनसंख्या तभी प्रगतिशील होती है जब उसका भरपूर पोषण होता है। अत: पोषण स्तर में सुधार लाने हेतु कृषि उत्पादन में वृद्धि करना आवश्यक हो जाता है जो दो ही विधियों द्वारा संभव है।
क. कृषिगत क्षेत्र में वृद्धि करके।
ख. वर्तमान कृषिगत क्षेत्र की उत्पादकता में वृद्धि करके।
कृषिगत क्षेत्र में वृद्धि करके उत्पादन बढ़ाने की संभावना भारत में अब लगभग समाप्त सी है अत: उत्पादकताओं में वृद्धि करके ही बढ़ती हुई भारतीय जनसंख्या की मांग को पूरा किया जा सकता है। अत: कृषि उत्पादन तथा जनसंख्या के सह संबंध के संदर्भ में भूमि संसाधन पर जनसंख्या भार का मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है, तभी कृषि विकास की ठोस योजना तैयार किया जाना संभव है।
सामान्यत: यह देखा गया है कि विकसित देशों में शहरी क्षेत्रों का प्रभुत्व रहता है जबकि आर्थिक दृष्टि से पिछड़े देशों में ग्रामीण क्षेत्र ही प्रधान होता है। भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था की बागडोर ग्रामीण क्षेत्र को ही संभालनी होती है। इसी क्षेत्र में उन सब परिस्थितियों का निर्माण होता है जो संपूर्ण अर्थ व्यवस्था को आगे बढ़ाने में समर्थ होती है। इस पृष्ठ भूमि में यदि देखा जाये तो अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्र की प्रधानता परिलक्षित होती है अध्ययन क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्र के प्रभुत्य का ज्ञान तालिका क्रमांक 01 में दिये गये तथ्यों से प्राप्त होता है।
तालिका क्रमांक 01 अध्ययन क्षेत्र में जनसंख्या का वर्गीकरण (प्रक्षेपित 1997) | |||||
संकेतक | कुल | ग्रामीण | शहरी | ग्रामीण क्षेत्र की भागेदारी प्रतिशत | |
1. | जनसंख्या | 2529041 | 2389438 | 139603 | 94.48 |
2. | कृषक | 450372 | 444351 | 6021 | 98.66 |
3. | कृषि श्रमिक | 158327 | 154936 | 3391 | 57.86 |
4. | पशुपालन, वृक्षारोपण | 3075 | 2462 | 613 | 80.07 |
5. | खान खोदना | 158 | 151 | 07 | 95.57 |
6. | पारिवारिक उद्योग | 14018 | 12872 | 1146 | 91.82 |
7. | गैर पारिवारिक | 16843 | 13538 | 3305 | 80.38 |
8. | निर्माण कार्य | 17591 | 11087 | 6504 | 63.03 |
9. | व्यापार एवं वाणिज्य | 33223 | 22454 | 10769 | 67.59 |
10. | यातायात एवं संचार | 10528 | 8377 | 2151 | 79.57 |
11. | अन्य कर्मकार | 45333 | 37696 | 7637 | 83.15 |
12. | कुल मुख्य कर्मकार | 749468 | 707924 | 41544 | 94.46 |
13. | सीमांत कर्मकार | 70683 | 69633 | 1050 | 98.51 |
| योग (12+13) | 820151 | 777557 | 42594 | 94.81 |
ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का स्वरूप :
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दो उपक्षेत्रों में बाटा जा सकता है।
1. कृषि क्षेत्र तथा
2. गैर कृषि क्षेत्र
कृषि क्षेत्र में वे सभी लोग शामिल किये जाते हैं जिनके निर्वाह का साधन केवल खेती-बाड़ी है। गैर कृषि क्षेत्र में खेती बाड़ी में लगे हुए लोगों के अतिरिक्त अन्य ग्रामीण समुदाय को शामिल किया जाता है।
तालिका 0.2 ग्रामीण समाज का स्वरूप और उनकी साधन उपलब्धि | |||
(अ) | कृषि क्षेत्र | भूमि श्रम अनुपात | रोजगार का स्वरूप |
| बड़े कृषक | भूमि > श्रम | प्रमुखत: नियोजक |
| माध्यम कृषक | भूमि > श्रम | अनियमित नियोजक |
| छोटे कृषक | भूमि < श्रम | अनियमित श्रमिक |
| सीमांत कृषक | भूमि < श्रम | प्रमुखत: श्रमिक |
| भूमिहीन | पात्र श्रम | पूर्णत: श्रमिक |
(ब) गैर कृषि क्षेत्र
क. सामान्य वस्तुओं का व्यापार करने वाले
ख. कृषि आदानों का व्यापार करने वाले।
(स) दस्तकार
क. सामान्य सेवायें उपलब्ध कराने वाले
ख. कृषि क्षेत्र की आवश्यकताएँ को पूरी करने वाले।
परंपरागत ग्रामीण समुदाय आत्म संपन्न और आत्म निर्भर रहे हैं। एक गाँव या आस-पास बसे कुछ गाँव एक आर्थिक इकाई के रूप में रहते थे जिनका उस इकाई के बाहर किसी तरह का लेन-देन नहीं होता था। पंचवर्षीय योजनाओं में इस स्थिति को बदलने के प्रयास किये गये। इन प्रयासों के फलस्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनेक तरह के परिवर्तन प्रकाश में आये हैं, ये परिवर्तन ग्रामीण जीवन के अनेक पहलुओं से संबंधित है जैसे भू सुधार, पशुपालन, वित्त, कृषि, विपणन सेवायें ग्रामीण उद्योग, कल्याणकारी सेवायें ग्रामीण नेतृत्व तथा ग्रामीण प्रशासन आदि। अनेक नये स्कूलों का खोला जाना, प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की स्थापना, परिवार कल्याण एवं नियोजन सेवाओं का विस्तार परिवहन एवं संचार, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन का विस्तार आदि अनेक ऐसी बातें हैं जिनसे ग्रामीण जीवन में भी क्रांतिकारी परिवर्तन आये हैं। इन सबके प्रभाव से ग्रामीण समुदाय का जो चित्र उभर कर सामने आया है उसकी प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं।
(1) कृषि का व्यवसायीकरण :-
कृषि जो ग्रामीण समुदाय का प्रमुख व्यवसाय है अब मात्र जीवन निर्वाह का साधन नहीं रह गई बल्कि इसे लाभ कमाने के साधन के रूप में देखा जा रहा है। इस क्रम को व्यवसायीकरण का नाम दिया गया है। व्यवसायीकरण के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारण निम्नलिखित है।
(1) पिछले पचास वर्षों से कृषि के उत्पादन के तरीकों में महत्त्वपूर्ण सुधार हुए हैं, परिणाम स्वरूप कृषि उत्पादकता पहले की तुलना में बहुत अधिक बढ़ गयी है।
(2) कृषि उत्पादन में सुधार के लिये उन्नत किस्म के बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक दवाइयाँ, सिंचाई सुविधा का विकास उत्तरदायी है जिससे न केवल उत्पादन बढ़ा है बल्कि फसल पकने की अवधि भी कम हो गई है।
(3) सड़क और परिवहन के साधनों के विकास के कारण उपज को मंडी तक ले जाना सरल हो गया है।
(4) नियंत्रित मंडियों, सहकारिता तथा वाणिज्य बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं के विकास के कारण अब कृषक साहूकारों के चंगुल से मुक्त हो रहे हैं, इस मुक्त वातावरण के कारण वह बाजार के लिये अतिरिक्त उत्पादन को प्रेरित हुआ है।
(5) कृषि के व्यवसायीकरण से बैंकिंग व्यवसाय का भी विस्तार हुआ है।
(2) ग्रामीण शहरीवाद :-
पिछले पाँच दशकों से ग्रामीण जीवन में शहरी जीवन शैली के तौर तरीकों की घुसपैठ होती रही है जिससे ग्रामीण जीवन प्रभावित हुआ है। विजातीयता, व्यक्तित्वहीन संबंध, व्यक्तिगत स्वार्थ, अव्यवहारपूर्ण व्यवहारिकता आदि गुणों से ग्रामीण जीवन कुछ समय पहले तक अलग और दूर था किन्तु इसका रंग ग्रामीण जीवन पर धीरे-धीरे चढ़ता जा रहा है। इस नये मिश्रण को हम शहरीवाद का नाम दे सकते हैं। शहरीवाद से जुड़ी आधुनिकता ने ग्रामीण समुदाय के सामाजिक व्यवहार, जीवन दर्शन और उनकी इच्छाओं तथा मांग के स्वरूप में आमूल चूल परिवर्तन कर दिया है। ग्रामीण शहरीवाद से जाति प्रथा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है जिससे श्रम की गतिशीलता बढ़ी है और पैतृक धंधों का स्वरूप बदला है। आधुनिकीकरण के एक दूसरा परम्परागत ग्रामीण जीवन स्थानीय निर्मित वस्तुओं से ही जुड़ा रहता था, परंतु पिछले चार पाँच दशकों से स्थिति पूर्णतया परिवर्तित होने लगी है। आकाशवाणी और दूरदर्शन ने उद्योगों द्वारा निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं का ज्ञान अब दूर दराज ग्रामीण क्षेत्रों को भ करा दिया है, परिणाम स्वरूप औद्योगिक उपभोक्ता वस्तुएँ अब ग्रामीण जीवन का अंग बनती जा रही है जिसके कारण उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माताओं में ग्रामीण बाजारों में अपना सामान बेचने की होड़ सी लग गई है। सरकार ने भी स्वतंत्रता के बाद से ही गाँवों के पुनर्निमाण और विकास की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है जिसके लिये सरकार ने ग्रामीण उत्थान के कई कार्यक्रम संचालित किये हैं। इन विभिन्न विकास कार्यक्रमों का ही परिणाम है कि ग्रामीण जीवन में आधुनिकता का बोलबाला होता जा रहा है।
संक्षेप में पिछले पाँच दशकों के दौरान भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनेक परिवर्तन देखने में आये हैं। निःसंदेह ये परिवर्तन विकास के परिचायक हैं अत: इनका स्वागत है, परंतु इनके पीछे छिपी हुई कुछ गंभीर समस्याओं की ओर भी हमें अपना ध्यान आकर्षित करना होगा अन्यथा भविष्य में ये विकास के मार्ग में गंभीर बाधा सिद्ध हो सकती है। ये समस्याएँ है -
1. बढ़ती हुई जनसंख्या के परिणामस्वरूप भूमि पर दबाव बढ़ा है। संयुक्त परिवार प्रणाली का ह्रास हुआ है जिसके कारण भूमि का उप-विभाजन और अपखंडन बढ़ा है जिससे जोतों का आकार छोटा होता जा रहा है यह उन्नत कृषि के अनुकूल नहीं है।
2. कृषक की बाजार शक्तियों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है, अनुभव यह बताता है पर निर्भरता अत्यधिक जोखिम पूर्ण होती है। पर निर्भरता के कारण ही बाजार की शक्तियाँ उसके शोषण का माध्यम बनती जा रही है।
3. कृषि में नई तकनीकी के प्रयोग से कृषि आय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है किंतु इस आय का एक बड़ा भाग ग्रामीण समुदाय के उन्नत और समृद्ध वर्ग हाथों में केंद्रित होता जा रहा है। निर्बल और कमजोर वर्ग को इस नई तकनीकी का कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाया है परिणाम स्वरूप आर्थिक विषमतायें बढ़ती जा रही है।
4. शहरीवाद ग्रामीण जीवन पर पूरी तरह छाया हुआ है परिणामस्वरूप व्यवहार और आचरणों में परम्परागत सरलता का लोप होता जा रहा है। यह स्थिति निर्बल वर्ग के अनुकूल नहीं है।
5. ग्रामीण रोजगार की स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही है परिणाम स्वरूप भूमिहीन तथा सीमांत कृषक गरीबी में और अधिक धँसते जा रहे हैं।
स्पष्ट है कि पिछले पाँच दशकों में कृषि उत्पादन की मात्रा और प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ी है परंतु इसका अधिकांश लाभ संपन्न वर्ग को ही प्राप्त हुए। साधनहीन और निर्बल वर्ग की दशा निरंतर सोचनीय होती जा रही है, बिना इस वर्ग की स्थिति में सुधार किये सारा विकास आधा अधूरा ही रहेगा और सर्वांगीण विकास की संकल्पना केवल कल्पना तक सीमित रह जायेगी।
ऐसी स्थिति में जनपद प्रतापगढ़ जो उत्तर प्रदेश के मध्य में स्थित है जिसका कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 362423 हे. है जिसमें से कृषि के लिये उपलब्ध शुद्ध भूमि केवल 61.28 प्रतिशत है और प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.09 हे. है। यह आवश्यक होता जा रहा है कि कृषि भूमि का सर्वोत्तम विधि से उपयोग करते हुए बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण-पोषण के लिये खाद्यान्य मांग की आपूर्ति संभव बनायी जा सके। जब आवश्यकता इस बात की अनुभव की गयी कि संबंधित अध्ययन क्षेत्र का व्यापक सर्वेक्षण करके कृषि भूमि की उपलब्धता उसकी उर्वरा शक्ति प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता तथा प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा आदि तथ्यों का ज्ञान प्राप्त किया जाये, बिना इन तथ्यों का ज्ञान प्राप्त किये कृषि नियोजन संबंधी योजनायें बना भले ही ली जायें परंतु उसकी सफलता संदिग्ध रहेगी। वर्तमान समय में इस ग्रामीण क्षेत्र की जनसंख्या तथा कृषि संबंधी समस्याओं के अध्ययन की नितांत आवश्यकता है जिससे इन समस्याओं के समाधान तथा मानव संसाधन के विकास की योजनायें बनायी जा सके। प्रस्तावित अध्ययन में जनपद प्रतापगढ़ की जनसंख्या का पोषण स्तर तथा कुपोषण जनित बीमारियों की समस्याओं का विश्लेषण किया जायेगा।
2. अध्ययन का महत्त्व -
किसी देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल उस सीमा को निर्धारित करता है जहाँ तक विकास प्रक्रिया के दौरान उत्पत्ति के साधन के रूप में भूमि का समतल विस्तार संभव होता है। जैसे-जैसे विकास प्रक्रिया आगे बढ़ती है और नये मोड़ लेती है समतल भूमि की मांग बढ़ती है। नये कार्यों और उद्योगों के लिये भूमि की आवश्यकता होती है व परम्परागत उद्योगों के लिये भूमि की आवश्यकता होती है व परम्परागत उपयोगों में अधिक मात्रा में भूमि की मांग की जाती है सामान्यत: इन नये उपयोगों तथा परम्परागत उपयोगों में बढ़ती हुई भूमि की मांग की जाती है जिसकी आपूर्ति के लिये कृषि के अंतर्गत भूमि को काटना पड़ता है और इस प्रकार से भूमि कृषि उपयोगों से गैर कृषि उपयोगों में प्रयुक्त होने लगती है। एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिये जिसकी मुख्य विशेषतायें श्रम अतिरेक व कृषि उत्पादकों के अभावों की स्थिति का बना रहता हो वहाँ कृषि उपयोग से गैर कृषि उपयोगों भूमि का चला जाना गंभीर समस्या का रूप धारण कर सकता है जहाँ इस प्रक्रिया से एक ओर सामान्य कृषक के निर्वाह स्रोत का विनाश होता है दूसरी ओर समग्र अर्थव्यवस्था की दृष्टि से कृषि पदार्थों की मांग पूर्ति में गंभीर असंतुलन उत्पन्न हो सकते हैं। कृषि पदार्थों की आपूर्ति में कमी अर्थव्यवस्था में अन्य अनेक समस्याओं को जन्म दे सकती है। इसलिये यह आवश्यक समझा जाता है कि विकास प्रक्रिया के दौरान जैसे-जैसे समतल भूमि की मांग बढ़ती है उसी के साथ बंजर, परती तथा बेकार पड़ी भूमि को कृषि अथवा गैर कृषि कार्यों के योग बनाने के प्रयास करने चाहिए। प्रयास यह भी करना चाहिए कि कृषि के लिये उपलब्ध भूमि के क्षेत्र में किसी प्रकार की कमी न आये, वरन जहाँ तक संभव हो कृषि योग्य परती भूमि में सुधार करें। कृषि क्षेत्र के लिये उपलब्ध भूमि में वृद्धि ही की जानी चाहिए।
भारत में किसानों ने फसलों का चयन करते समय सदैव अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखा है। इसलिये वह व्यापारिक फसलों की तुलना में खाद्य फसलों को प्राथमिकता देता है। गैर खाद्य फसलों का योगदान कुल फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल द्वारा ज्ञात किया जा सकता है, देश की कुल बोई गयी भूमि के क्षेत्रफल में तीन चौथाई भाग खाद्य फसलों के अंतर्गत आता है। इसका प्रमुख कारण गेहूँ और चावल का न्यूनतम सुरक्षित मुल्यों की घोषणा तथा हरितक्रांति का प्रभाव केवल गेहूँ और चावल की फसलों पर विशेष रूप से पड़ा। इसका प्रभाव यह हुआ कि देश में खाद्यान्नों की मांग पूरी करने के लिये पर्याप्त भूमि उपलब्ध है, परंतु देश के समक्ष व्यापारिक फसलों के उत्पादन की समस्या उठ खड़ी हुई है विशेष रूप से तिलहन का उत्पादन इसकी औद्योगिक माँग की तुलना में बहुत कम हो गया है। अनाज के उत्पादन को अधिक महत्त्व देने का परिणाम यह हुआ है कि दालों का उत्पादन भी अत्यंत कम हो गया है जिनको आयात द्वारा भी पूरा नहीं किया जा सकता है क्योंकि विश्व के अन्य देशों में भी दालों का उत्पादन बहुत कम होता है, इसलिये अब सरकार ने दालों के उत्पादन को बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन देने हेतु अनेक योजनाओं को संचालित किया है। अनाज में यद्यपि गेहूँ और चावल का प्रमुख स्थान है परंतु भारतीय कृषि में मोटे अनाजों, बाजरा, ज्वार, मक्का तथा जौ का परम्परागत खाद्यान्नों में काफी महत्त्व रहा है क्योंकि इन फसलों का उत्पादन सूखी भूमि पर किया जाता है यद्यपि इन फसलों का उत्पादन कम है परंतु मानसून का इनके उत्पादन पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, इसलिये मौसम की अनिश्चितता से बचने के लिये किसान मोटे अनाजों का उत्पादन करते रहे हैं।
अध्ययन क्षेत्र एक ग्रामीण प्रधान क्षेत्र है जहाँ आज भी अधिकांश जनसंख्या भूमि संसाधन से अपने जीवन-यापन के लिये संसाधन जुटाती है।
कृषि पर अत्यधिक निर्भरता के कारण लोगों की आय का स्तर अत्यंत नीचा है। यद्यपि पिछले पाँच दशकों से कृषि उत्पादन बढ़ा है परन्तु फिर भी उपलब्ध कृषि क्षेत्र पर परम्परागत खाद्यान्न फसलों का उत्पादन, नगदी फसलों का नगण्य क्षेत्र, परम्परागत कृषि प्रणाली, कृषि में अपेक्षित पूँजी निवेश का अभाव के कारण कृषि उत्पादन अपेक्षित गति से नहीं बढ़ा है। उत्पादन वृद्धि का अधिकांश लाभ धनी वर्ग को ही प्राप्त हुआ है जिससे आर्थिक विषमतायें भी बढ़ी है, जबकि आर्थिक विकास की परिधि में समृद्धि और वितरण की प्रक्रियायें निहित होती है, समृद्धि क्रिया किसी भी क्षेत्र में कुल वस्तुओं और सेवाओं की उत्पादन वृद्धि में योदान करती है जबकि वितरण प्रक्रिया यह निर्धारित करती है कि उपलब्ध वस्तुओं और सेवाओं या उनकी वृद्धि का कितना अंश किस वर्ग को मिलता है। समृद्धिगत आर्थिक नीति का लक्ष्य यह होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था के समस्त क्षेत्र सामान्य रूप से विकसित और परिवर्तित हों तथा वितरणात्मक न्याय यह निर्देश देता है कि समृद्धिगत लाभों का अधिकांश भाग उन लोगों या उन क्षेत्रों को मिलना चाहिए जो अपेक्षाकृत अधिक गरीब और पिछड़े हों समृद्धि और वितरणात्मक न्याय का पारस्परिक समन्वय किसी भी क्षेत्र के आय वर्ग के लोगों को खुशहाल बना सकता है। इसलिये प्रत्येक कल्याणकारी राज्य का मुख्य उद्देश्य आर्थिक विकास की ऐसी प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे सभी कमजोर क्षेत्रों और वर्गों के लोग अपेक्षाकृत अधिक लाभान्वित हो सकें। जिससे समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता कम की जा सके। परंतु ग्रामीण विकास की अनेक योजनायें संचालित करने के बावजूद भी योजनाकाल में आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है। अमीर और गरीब के मध्य असमानता की खायी और चौड़ी होती जा रही है। एक ओर चंद लोग विलासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो दूसरी ओर बहुसंख्यक जनसंख्या अल्प पोषण और कुपोषण से त्रस्त है। कुछ लोग आराम और वैभव के साम्राज्य में हैं तो बहुसंख्यक समुदाय के विकासजन्य औद्योगिक उत्पादन अचंभे और मात्र देखने सुनने की चीजें बनी हुई है न कि प्रयोग कर सकने की समाज की आर्थिक विषमता मापने के लिये विभिन्न वर्गों के मध्य आय, संपत्ति व उपयोग स्तरों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।
आर्थिक विषमताओं का एक महत्त्वपूर्ण पहलू समष्टि रूप से ग्रामीण और नगरीय क्षेत्र के मध्य व्याप्त आर्थिक विषमता है। अब तक की विकास प्रक्रिया में ग्रामीण और नगरीय क्षेत्र के मध्य आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों का विकास शहरों के सामान नहीं हुआ है। देश ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों के मध्य विभक्त हो गया है। ग्रामीण और नगरीय क्षेत्र के मध्य आर्थिक विषमता की जानकारी नेशनल काउन्सिल ऑफ सप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के एक नवीनतम अध्ययन से होती है जिसमें विवरण दिया गया है कि यदि दोनों क्षेत्रों के मध्य आय संपत्ति एवं उपयोग स्तरों की तुलना की जाये तो इनमें व्याप्त आर्थिक विषमता का बोध होता है। इस अध्ययन के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र के केवल 4.90 प्रतिशत परिवारों की वार्षिक आय 10000.00 रुपये या इससे अधिक है जबकि नगरीय क्षेत्र के 17.61 प्रतिशत परिवारों की औसत वार्षिक आय 10 हजार रुपये या उससे अधिक है। समस्त नगरीय परिवारों की औसत वार्षिक आय 7040 रुपये है जबकि ग्रामीण परिवारों की औसत आय मात्र 3930 रुपये है। नगरीय क्षेत्र के उच्चतम 1.5 प्रतिशत परिवारों का औसत वार्षिक आय 30 हजार रुपये या उससे अधिक है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के मात्र 0.62 प्रतिशत परिवारों की आय 30 हजार रुपये या उससे अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति औसत बचत मात्र 106 रुपये है जबकि नगरीय क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति औसत बचत 272 रुपये है जो ग्रामीण क्षेत्र की बचत से ढाई गुना अधिक है।
आवश्यक सामाजिक सेवाओं की जो अवस्थापना गाँव में उससे कई गुना शहरों में है शहर में बहूखंडीय प्रासाद बने किन्तु गाँवों के कच्चे मकानों का आकार एवं आयतन कम होता गया है। शहरों में आधुनिक उद्योगजन्य सुख सुविधायें लेने की होड़ लगी है। किन्तु बहुसंख्यक गाँव के लोग कड़ी मेहनत के बाद भी बेहद जरूरी चीजों से वंचित रहे हैं। इसी क्षेत्रीय असमानता के कारण शहर के वैभव की चकाचौंध से आकृष्ट तथा बेरोजगारी के मारे गाँव के लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं जहाँ उन्हे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद जो क्रयशक्ति प्राप्त होती है वह उनकी जरूरतों को पूरा करने में अपर्याप्त होती है। आज नगरों के मुखापेशी होते जा रहे हैं। खाद्यान्न उत्पादन के अतिरिक्त अन्य अधिकांश उत्पादन क्रियायें नगरों और बड़े औद्योगि घरानों में केंद्रित होती जा रही हैं जो वस्तुयें पहले गाँव में सुगमतापूर्वक बनायी जा सकती थी वे अवयान्त्रिक और अन्य अवस्थापनागत सुविधाओं के कारण शहरों में बनने लगी परिणाम स्वरूप गाँव के कारीगर और दस्तकार बेकार होते जा रहे है। इससे गाँव और नगरों के मध्य विषमता होना स्वाभाविक है। आय एवं संपत्ति वितरण की भांति ग्रामीण क्षेत्र में उपभोग स्तर में भी विषमतायें व्याप्त है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 32वीं आवृत्ति के आंकड़ों के आधार पर इस तथ्य को जाना जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्र के निम्नतम 10 प्रतिशत परिवारों का औसत वार्षिक उपभोग व्यय केवल 634 रुपये है जबकि उच्चतम 10 प्रतिशत परिवारों में औसत वार्षिक उपभोग 5895 रुपये है। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि संपन्न और विपन्न वर्ग के मध्य अत्यंत चौड़ी खायी है।
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि योजनाकाल में संचालित विकास योजनाओं से ग्रामीण क्षेत्र अपेक्षित लाभ प्राप्त नहीं कर सके हैं। अध्ययन क्षेत्र भी पूर्णतया ग्रामीण क्षेत्र है जहाँ कि 94 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या आज भी गाँव में निवास करती है। मूलत: कृषि से ही जीवन-यापन के संसाधन प्राप्त करने वाली अधिकांश जनसंख्या अपनी आय का एक बड़ा भाग परिवार के भरण-पोषण पर व्यय करने के लिये बाध्य है। कृषि की न्यून उत्पादकता सिंचाई सुविधाओं की अपर्याप्तता, नवीन तकनीकी का कृषि क्षेत्र में अत्यल्प प्रयोग, बेरोजगारी का बड़ा आकार जैसी समस्याओं के कारण लोगों का जीवनस्तर केवल अपने भरण-पोषण तक सीमित है। इसी कारण पोषण स्तर भी निम्न बना हुआ है। जनपद का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 362423 हे. है जिसमें कृषि के लिये उपलब्ध शुद्ध कृषि भूमि केवल 61.28 प्रतिशत है और प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.09 हे. है, इसी स्थिति में यह नितांत आवश्यक प्रतीत होता है कि कृषि भूमि का उपयोग सर्वोत्तम विधि से सम्पन्न किया जाये जिससे क्षेत्र की जनसंख्या न केवल उदरपूर्ति ही की जा सके अपितु वर्तमान आर्थिक युग में व्यक्तियों के अधिक से उपभोग संबंधी आवश्यकताओं को संतुष्ट किया जा सके। इसलिये वर्तमान समय में इस लघु ग्रामीण क्षेत्र की कृषि एवं जनसंख्या संबंधी समस्याओं के अध्ययन की नितांत आवश्यकता है।
3. अध्ययन के उद्देश्य
पर्याप्त खाद्य पदार्थ जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। विकास प्रक्रिया का प्रथम लक्ष्य खाद्य पदार्थों का पर्याप्त उत्पादन तथा उचित वितरण है। वर्तमान आर्थिक विचारधारा इस निष्कर्ष पर सहमत है कि गरीबी कम करने के लिये ऊँची वृद्धि दर आवश्यक तो है परंतु पर्याप्त नहीं। विकास का मूल तत्व सामाजिक न्याय की प्राप्ति में निहित है। विकास प्रक्रिया में आय वितरण को उत्पादन से पृथक नहीं किया जा सकता है। इस कारण आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय में कोई अंतर्विरोध नहीं है विकास की यह विधि गरीबी समस्या के समाधान हेतु कुछ प्रत्यक्ष उपायों की पुष्टि करती है तथा ऐसे कार्यक्रमों व नीतियों का निर्देश करती है जो गरीब जनसंख्या के रहन-सहन स्तर में सुधार कर सकें। यह विधि उन वस्तुओं के बड़े पैमाने पर उत्पादन को प्रोत्साहित करती है जिनका उपयोग व्यापक जनसमूह करता है और जिनके उत्पादन में बहुत से हाथों को काम मिलता है न कि चंद हाथों और स्वचालित मशीनों को। आज देश की विकास प्रक्रिया में प्रभावी रूप से इस विकास युक्ति के अनुकरण की आवश्यकता है।
मानवीय संशाधन आर्थिक विकास में दोहरी भूमिका का निर्वाह करते हैं। साधन के रूप में श्रमशक्ति एवं उद्यमियों को सेवायें प्रदान करते हैं, मानवीय संसाधन की इस भूमिका पर देश का न केवल कुल उत्पादन का स्तर निर्भर करता है बल्कि अन्य साधनों का प्रयोग भी संभव होता है। यदि मानवीय साधन उत्कृष्ट कोटि के हैं तो आर्थिक विकास की गति तेज हो जाती है। अत:आर्थिक विकास की दर के निर्धारण में मानवीय संसाधनों की गुणात्मक श्रेष्ठता का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है इसलिये यह कहा जा सकता है कि भौतिक पूँजी निर्माण और मानवीय पूँजी निर्माण सम्मिलित रूप से आर्थिक विकास को गति को तीव्रता प्रदान करते हैं। उपभोग इकाई के रूप में मानवीय संसाधन राष्ट्रीय उत्पाद के लिये मांग का निर्माण करते हैं, यदि मनुष्यों की संख्या राष्ट्रीय उत्पादन की तुलना में अधिक है तो सामान्यतया खाद्यान्नों की पूर्ति मांग की तुलना में कम पड़ जाती है इससे खाद्यान्नों की स्वल्पता की समस्या उत्पन्न होती है। साथ ही राष्ट्रीय उत्पादन का एक बहुत बड़ा भाग केवल उपभोग कार्यों के लिये ही उपयोग कर लिया जाता है, निवेश कार्यों के लिये बहुत कम अतिरेक बचता है जिससे पूँजी निर्माण की गति धीमी हो जाती है। जब किसी देश की जनसंख्या तेज गति से बढ़ती है तो खाद्यान्नों की भी मांग तेज गति से बढ़ती है, यदि खाद्यान्नों का उत्पादन जनसंख्या वृद्धि दर के अनुपात में नहीं बढ़ पाता है तब कुपोषण तथा अलपपोषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है और यदि देश की जनशक्ति का उचित पोषण नहीं होता है तो उनकी कार्य-क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और देश का कुल उत्पादन कम होने लगता है अत: देश अथवा क्षेत्र के भूमि संसाधन पर यह भार आ जाता है कि वह क्षेत्र विशेष इतना खाद्यान्न उत्पादन करने में सक्षम हो कि वहाँ के निवासियों का उचित पोषण संभव हो सके। इसी समस्या को दृष्टिगत रखते हुए जनपद प्रतापगढ़ में ‘‘कृषि उत्पादन पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियों में’’ शीर्षक पर शोध कार्य के लिये निम्नलिखित उद्देश्यों का निर्धारण किया गया है।
1. सामान्य भूमि उपयोग तथा कृषि भूमि उपयोग का अध्ययन करना।
2. कृषि भूमि का प्रचलित सस्य प्रतिरूप तथा प्रचलित कृषि तकनीक का अध्ययन करना।
3. कृषि भूमि पर जनसंख्या के भार का मापन करना।
4. जनसंख्या के पोषण स्तर का मापन तथा उनके स्वास्थ्य का ज्ञान प्राप्त करना।
5. कुपोषण तथा अल्पपोषण से संबंधित बीमारियों का विश्लेषण करना।
6. पोषण संबंधी समस्याओं के समाधान के लिये योजनाकाल में सरकार द्वारा किये गये प्रयासों का विश्लेषण करना।
7. कृषि उत्पादन में वृद्धि तथा पोषण संबंधी समस्याओं के समाधान के सुझाव देना।
8. उपर्युक्त लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु शोध कार्य हेतु निम्न परिकल्पनाओं को आधार बनाया गया है।
1. अध्ययन क्षेत्र में कृषि भूमि उपयोग में खाद्यान्न फसलों की प्रधानता है और व्यावसायिक फसलों का नितांत अभाव है।
2. खाद्यान्न फसलों में भी वैज्ञानिक कृषि पद्धति, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक तथा उन्नतिशील बीजों का प्रयोग अत्यंत सीमित क्षेत्र में किया जाता है।
3. अध्ययन क्षेत्र में कृषि भूमि उपयोग में आवश्यक सुधार कर प्रति हेक्टेयर उत्पादन में वृद्धि करके क्षेत्रवासियों के आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाया जा सकता है।
4. अध्ययन क्षेत्र में प्रचलित सामान्य आहार प्रतिरूप में खाद्यान्नों की प्रधानता पाई जाती है जिसके कारण अधिकांश लोगों को भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों का अभाव रहता है।
5. यदि लोगों को संतुलित भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों का ज्ञान तथा ग्रामीण क्षेत्रों में सरलता से सुलभ विभिन्न खाद्य पदार्थों से प्राप्त होने वाले पोषक तत्वों का ज्ञान कराया जाय तो कम व्यय में ही भोजन में मात्रात्मक एवं गुणात्मक समन्वय स्थापित करने के लिये प्रेरित किया जा सकता है।
6. प्रचलित आहार प्रतिरूप में मात्रात्मक एवं गुणात्मक संतुलन स्थापित करके कुपोषण जनित रोगों से बचा जा सकता है।
1. कुपोषण जनित रोगों के लिये निर्धनता और अज्ञानता प्रमुख रूप से उत्तरदायी है।
शोध विधि
प्रस्तुत शोध अध्ययन में प्राथमिक और द्वितीयक दोनों प्रकार के समंको का प्रयोग किया गया है। प्राथमिक समंको के लिये दैव निर्दशन पद्धति का प्रयोग किया गया है। संपूर्ण प्रतापगढ़ जनपद प्रशासनिक दृष्टि से 15 विकासखंडों में विभक्त है। शोधकर्ता ने प्रत्येक विकासखंड को प्रतिनिधित्व दिया है। प्रत्येक विकासखंड में 2-2 गाँवों का चयन दैव निर्दशन पद्धति से किया गया है तथा प्रत्येक गाँव से इसी पद्धति के आधार पर 10-10 कृषकों को प्रतिनिधित्व दिया गया है और इस प्रकार कुल 300 कृषकों को सर्वेक्षण का आधार बनाया गया है। सर्वेक्षण के लिये एक प्रश्नावली सहित अनुसूची तैयार करके चयनित कृषकों से व्यक्तिगत संपर्क पद्धति से आवश्यक सूचनायें प्राप्त की गई है। आवश्यक सूचनाओं में परिवार के सदस्यों की संख्या, सदस्यों की उम्र, जाति तथा शिक्षा, भूमि का आकार, फसल प्रतिरूप, सिंचाई के साधन सिंचित क्षेत्र, विभिन्न आगतों की मात्रा, प्रति हेक्टेयर विभिन्न फसलों का उत्पादन उपभोग का स्तर तथा सदस्यों के स्वास्थ्य से संबंधित सूचनायें प्राप्त की गई है।
शोधकर्ता द्वारा लेखपालों, विकासखंड अधिकारियों, ग्राम विकास अधिकारियों तथा संबंधित गाँव के आस-पास के चिकित्सकों से भी व्यक्तिगत संपर्क करके कृषकों से संबंधित समस्याओं, कुपोषण जनित बीमारियों तथा कृषि विकास के लिये किये गये सरकारी प्रयासों तथा गैर सरकारी उपायों की भी जानकारी प्राप्त की गई है। कृषि उत्पादन में वृद्धि तथा कृषकों की समस्याओं के समाधान हेतु उनके व्यक्तिगत विचारों से परिचय प्राप्त किया गया है। प्रतिचयनित कृषकों से प्राप्त सूचनाओं का सावधानी पूर्वक वर्गीकरण तथा सारणीय किया गया है। यथा स्थान सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग करके निष्कर्ष प्राप्त किये गये हैं। अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों को आवश्यक चित्रों, ग्राफों द्वारा शोधकार्य को सजाया गया है। प्रस्तुत शोध में निष्कार्षों की शुद्धता के लिये कुछ निम्न तकनीक का प्रयोग किया गया है-
1. खाद्य पदार्थों में खाद्य योग भाग -
विभिन्न खाद्यान्न फसलों के कुल उत्पादन में खाने योग्य भाग की गणना विभिन्न विद्वानों द्वारा की गई है। सिंह जसबीर (1971-78) ने 16.80 प्रतिशत तथा तिवारी पीडी (1988:2) ने 15 प्रतिशत कुछ अन्य विद्वानों ने 20 प्रतिशत तक घटाकर कैलोरिक ऊर्जा प्राप्ति की गणना की है। वास्तव में खाद्यान्नों को सर्वप्रथम खाद्य योग्य बनाया जाता है तत्पश्चात उपभोग किया जाता है। उपभोग योग्य बनाने में विभिन्न खाद्यान्नों का एक हिस्सा क्षय हो जाता है। अत: शोधकर्ता ने क्षय भाग निकालकर खाद्य योग्य हिस्से की गणना है जिसे निम्न सारणी में प्रस्तुत किया गया है।
तालिका 0.3 खाद्यान्नों में खाने योग्य भाग | |||||
क्र. | खाद्य फसलें | बीज एवं भंडारण क्षय (प्रतिशत) | शुद्ध उत्पादन (प्रतिशत) | खाने योग्य भाग (प्रतिशत) | क्षीजन (प्रतिशत) |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. | धान ज्वार बाजरा मक्का गेहूँ जौ अरहर चना मटर उरद/मूंग लाही गन्ना आलू | 10 10 10 10 10 10 10 10 10 10 02 10 10 | 90 90 90 90 90 90 90 90 90 90 98 90 90 | 60 90 90 90 95 90 65 70 70 70 36 12 75 | 40 10 10 10 05 10 35 30 30 30 64 88 25 |
स्रोत : सिंह, एसपी ‘‘पावर्टी फूड एंड न्यूट्रीशन इन इंडिया 1991 पी. 68. |
2. पोषण स्तर की गणना :
अध्ययन क्षेत्र में प्रति व्यक्ति न्यूनतम कैलोरिक आवश्यकता की गणना की गई है जिसमें पोषण विशेषज्ञ दल 1968 को आधार माना गया है जिसे स्वामीनाथन (1983-87) द्वारा प्रयोग किया गया।
तालिका 0.4 प्रतिदिन अनुमन्य न्यूनतम कैलोरी | ||
पुरुष | हल्का कार्य | 2400 |
| मध्यम कार्य | 2800 |
| भारी कार्य | 3900 |
महिला | हल्का कार्य | 1900 |
| मध्यम कार्य | 2200 |
| भारी कार्य | 3000 |
| गर्भवती | 3300 |
| स्तनपान कराने वाली | 3700 |
बच्चे | 1 से 3 वर्ष | 1200 |
| 4 से 6 वर्ष | 1500 |
| 7 से 9 वर्ष | 1800 |
| 10 से 12 वर्ष | 2100 |
| 13 से 15 लड़के | 2500 |
| 13 से 15 लड़कियाँ | 2200 |
| 16 से 18 लड़के | 3000 |
| 16 से 18 लड़कियाँ | 2200 |
| औसत | 2481.25 |
स्रोत : एम. स्वामीनाथन ‘ह्यूमेन न्यूट्रीशन डाइट’ 1983 पृ. 57 |
सारणी क्रमांक 0.4 में प्रतिदिन अनुमन्य न्यूनतम कैलोरिक आवश्यकता को विभिन्न लिंग एवं आयु वर्गानुसार प्रस्तुत किया गया है इसके साथ ही लोगों द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कार्यों के अनुसार भी आवश्यक ऊर्जा को सारिणी 0.5 में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारिणी क्रमांक 0.5 विभिन्न कार्यों के लिये प्रति घंटे प्रति किलोग्राम भार वाले शरीर को कैलोरिक आवश्यकता | ||
क्र. | कार्य का विवरण | प्रति घंटे प्रति किलोग्राम कैलोरिक आवश्यकता |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. | सोना विश्राम के लिये लेटने पर सोचने पर अध्ययन (शांति से) ताश खेलना कक्षा का कार्य अध्ययन (चिल्लाकर) लिखना बुनाई करना भोजन करना गीत गाना कार्यालय का कार्य टंकण फर्श पर झाड़ू लगाना कार चलाना टहलना (4 किमी प्रति घंटे) मोटर साइकिल चलाना वृक्षारोपण तथा लकड़ी काटना साइकिल चलाना (16 किमी प्रति घंटा) कपड़े धोना निराई-गुड़ाई गेंद फेंकना घोड़े पर चढ़ना हल चलाना तैरना दौड़ना (9 किमी प्रति घंटा) मिट्टी खोदना तेज गति से टहलना दैनिक सामान्य कार्य स्कटिंग | 0.9 1.1 1.25 1.22 1.26 1.47 1.50 1.60 1.6 1.4 1.74 1.74 1.93 2.40 2.63 2.86 3.20 4.20 4.40 4.90 5.17 5.80 5.30 5.88 7.10 8.17 8.20 9.80 2.5 4.5 |
स्रोत : आरएस थापर ‘अवर फूट’ पृ. – 8 |
गणना विधि : एक व्यक्ति जिसका शारीरिक भार 60 किलोग्राम है
1. एक कृषक जो हल चलाने का कार्य करता है-
अ. | प्रात: 5 बजे से 8 बजे तक |
|
|
|
| दैनिक कार्य तथा पशुओं को चारापानी | (2.5X3X60) | = | 450.0 |
ब. | प्रात: 8 बजे से 12 बजे तक हल चलाना | (5.88X4X60) | = | 1411.2 |
स. | अपराह्न 12 से 3 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X3X60) | = | 450.0 |
द. | अपराह्न 3 से 6 बजे तक हल चलाना | (5.88X3X60) | = | 1058.4 |
य. | शायं 6 से 10 बजे तक |
|
|
|
| दैनिक कार्य तथा पशुओं को चारा पानी | (2.5X4X60) | = | 600.0 |
र. | रात्रि 10 बजे से प्रात: 5 बजे तक सोना | (0.9X7X60) | = | 378.0 |
|
| योग | = | 4347.6 |
अ. | प्रात: 5 से 7 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X2X60) | = | 300.0 |
ब. | प्रात: 7 से 8 बजे तक सड़क तक पहुँचना। | (2.86X1X60) | = | 171.6 |
स. | प्रात: 8 से 12 बजे तक मिट्टी खोदना। | (8.2X4X60) | = | 1968.0 |
द. | 12 बजे से 12.30 तक भोजन करना। | (1.4X5X60) | = | 42.0 |
य. | 12.30 से 2 बजे तक विश्राम | (1.1X1.5X60) | = | 99.0 |
र. | 2 से 6 बजे तक पुन: मिट्टी खोदना | (8.2X4X60) | = | 1968.0 |
ल. | 6 से 7 बजे तक घर वापसी | (2.86X1X60) | = | 171.6 |
व. | 7 से 9 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X2X60) | = | 300.0 |
स. | 9 से प्रात: 5 बजे तक सोना | (.9X8X60) | = | 432.0 |
|
| योग |
| 5452.2 |
अ. | प्रात: 5 से 9.30 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X3X60) | = | 525.0 |
ब. | प्रात: 9.30 बजे से 10 बजे तक स्कूल पहुँचना (साइकिल से) | (4.4X5X60) | = | 132.0 |
स. | 10 बजे से 4 बजे तक अध्यापन कार्य | (1.5X6X60) | = | 547.2 |
| 4 से 4.30 बजे तक घर वापसी | (4.4X5X60) | = | 132.0 |
| 4.30 से 10 बजे तक दैनिक कार्य | (1.43X5.50X60) | = | 471.90 |
| 10 से प्रात: 6 बजे तक सोना | (.9X8X60) | = | 432.0 |
|
| योग |
| 2239.90 |
3. भूमि की अनुकूलतम भारवहन क्षमता का निर्धारण :-
किसी क्षेत्र की अनुकूलतम भूमि भार वहन क्षमता उस क्षेत्र की जनसंख्या की पोषण क्षमता को प्रदर्शित करती है अर्थात कृषि भूमि के किसी निश्चित क्षेत्रफल से प्राप्त उत्पादन द्वारा कितनी जनसंख्या के आवश्यक पोषण स्तर को बनाये रखा जा सकता है।
अनुकूलतम भूमि भार वहन क्षमता को ज्ञात करने के लिये अध्ययन क्षेत्र की तेरह प्रमुख फसलों की विकासखंड स्तर पर औसत उत्पादकता ज्ञात की गयी है। औसत कुल उत्पादन से बीज तथा भंडारण क्षय घटाने के बाद विभिन्न फसलों का कुल शुद्ध उत्पादन प्राप्त किया गया है। प्रत्येक फसल के शुद्ध उत्पादन में से खाद्य योग्य हिस्से की गणना की गयी है तत्पश्चात प्राप्त उत्पादन को कैलोरी ऊर्जा में परिवर्तित किया गया है। प्रतिवर्ग किलोमीटर कृषि क्षेत्र में कुल कैलोरिक उपलब्धता की गणना निम्न सूत्र द्वारा की गयी है।
5. सस्य संयोजन - सस्य संयोजन के लिये दोई थामस तथा रफीउल्लाह की विधियों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।
6. कार्य संगठन - प्रस्तुत शोध अध्ययन को सरल बनाने के लिये 10 भागों में विभाजित किया गया है जिसकी प्रस्तावना में अध्ययन की आवश्यकता, अध्ययन का महत्त्व, अध्ययन के उद्देश्य, शोध विधि आदि का विवरण प्रस्तुत किया गया है। अध्याय प्रथम अध्ययन क्षेत्र की वर्तमान भौगोलिक तथा सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंधित है। जिसमें अध्ययन क्षेत्र की अवस्थिति प्रशासनिक संगठन, उच्चावच, प्रवाह-प्रणाली, मिट्टी, जलवायु प्राकृतिक वनस्पति आदि भौगोलिक जानकारियों के साथ-साथ जनसंख्या का वितरण, पैकिंग तथा भंडारण सुविधायें, औद्योगिक स्थिति से संबंधित वर्तमान स्थिति को प्रस्तुत किया गया है। अध्याय द्वितीय सामान्य भूमि उपयोग तथा कृषि भूमि उपयोग से संबंधित है। जिसमें अध्ययन क्षेत्र में विकासखंड स्तर पर सामान्य भूमि उपयोग वन, कृषि के लिये अनुपलब्ध भूमि, परती के अतिरिक्त अन्य आकर्षित भूमि, परती भूमि कृषि योग्य बंजर भूमि तथा कृषि भूमि उपयोग से संबंधित तथ्यों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, साथ ही साथ कृषि भूमि उपयोग को प्रमाणित करने वाले कारणों की व्यवस्था की गई है।
अध्याय तृतीय कृषि भूमि उपयोग में प्रयुक्त होने वाले तकनीकी स्तर से संबंधित है क्योंकि भूमि एक स्थिर संसाधन है जिसे समाज के प्रयोग की दृष्टि से घटाया बढ़ाया नहीं जा सकता है अत: भूमि के आकार को बढ़ाकर उत्पादन वृद्धि की संभावनायें अब अत्यंत सीमित है तब फिर बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति का एक मात्र उपाय गहरी खेती ही शेष बचता है। जिसके लिये कृषि के आधुनिकीकरण का सुझाव दिया जाता है। कृषि के आधुनिकीकरण में उन्नतिशील (अधिक उपज देने वाले) वीजों का अधिकाधिक प्रयोग सिंचन सुविधाओं में वृद्धि, रासायनिक उर्वरकों का विस्तृत प्रयोग, कृषि कार्यों में आधुनिक यंत्रों का प्रयोग, फसल को खर पतवार, कीड़े मकौड़े तथा विभिन्न रोगों से बचाने हेतु कीटनाशकों तथा रोग निवारक औषधियों का प्रयोग सम्मिलित है। इन तथ्यों के संदर्भ में अध्ययन क्षेत्र के अंतर्गत गहरी खेती की वर्तमान स्थिति तथा भावी संभावनाओं पर विचार किया गया है। चतुर्थ अध्याय फसल प्रतिरूप से संबंधित है। जिसमें अध्ययन क्षेत्र में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों के क्षेत्रफल का विवरण प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न खाद्यान्न फसलों, व्यावसायिक फसलों की वर्तमान स्थिति तथा भावी संभावनाओं को खोजने का प्रयास किया गया है, साथ ही सस्य संयोजन और सस्य विभेदीकरण की स्थिति भी विकासखंड स्तर पर जानकारी प्राप्त की गई है।
पंचम अध्याय में कृषि उत्पादकता तथा जनसंख्या संतुलन का विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसमें विभिन्न विद्धानों द्वारा प्रस्तुत कृषि उत्पादन मापन विधियों का उल्लेख करते हुए अध्ययन क्षेत्र में कृषि उत्पादकता के वर्तमान स्तर को ज्ञात करने का प्रयास सम्मिलित है साथ ही साथ उपलब्ध कृषि उत्पादन तथा जनसंख्या के भरण पोषण की स्थिति का भी तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। अध्याय षष्टम में प्रति चयनित 300 कृषक परिवारों के कृषि प्रारूप, कृषि उत्पादकता तथा वर्तमान खाद्यान्न उपलब्धता की स्थिति को दर्शाया गया है जिसमें विभिन्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल, फसलोत्पादकता तथा प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता का मापन किया गया है। अध्याय सप्तम प्रतिचयित कृषकों के भोजन में पोषक तत्व तथा उनका पोषण स्तर का चित्र प्रस्तुत करता है जिसमें भोजन की रासायनिक रचना के अंतर्गत शरीर के लिये आवश्यक पोषक तत्व प्रतिचयित कृषकों के प्रचलित आहार प्रतिरूप तथा विभिन्न खाद्य पदार्थों में प्राप्त होने वाले विभिन्न पोषक तत्वों का विवरण दिया गया है।
अध्याय अष्ठम में प्रतिचयित कृषक परिवारों के स्वास्थ्य स्तर का मापन किया गया है जिसमें प्रतिचयित परिवारों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भोजन में प्राप्त पोषक तत्वों का स्तर उनकी मात्रात्मक एवं गुणात्मक स्तर तथा अनुमन्य मानक स्तर से न्यूनता अथवा अधिकता का आकलन करके अति पोषण तथा अल्प पोषण अथवा कुपोषण की गणना की गयी है। साथ ही कुपोषण तथा अति पोषण से उत्पन्न रोगों का वर्गीकरण करते हुए प्रति चयित कृषक परिवारों में पोषण संबंधी रोगों से प्रभावित सदस्यों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। अध्याय नवम में कृषि उत्पादकता में वृद्धि के प्रयासों का समावेश किया गया है। जिसमें पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार द्वारा कृषि उत्पादकता में वृद्धि पोषण स्तर में वृद्धि तथा भावी व्यूह की रचना संबंधी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। अध्याय दशम निष्कर्ष और सुझावों से संबंधित है जिसमें संपूर्ण क्षेत्र के शोध विषय से संबंधित निष्कर्षों सहित कुछ सामयिक सुझाव भी प्रस्तुत किये गये हैं जिसको ध्यान में रखकर यदि विकास योजनाओं का संचालन किया जाता है तो अध्ययन क्षेत्र में निवास करने वाली जनसंख्या का गुणात्मक एवं मात्रात्मक संतुलित पोषण संभव बनाया जा सकता है।
कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ |
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7 | कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति |
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11 | कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव |