देश में परती भूमि के फैलाव के कारण उत्पादक संसाधनों के आधार तथा जीवनदायी प्रणालियों के लिये भारी खतरा पैदा हो गया है। लेखक का कहना है कि उत्पादकता बढ़ाने, भूमि की उर्वरता बहाल करने तथा रोजगार के अवसर बढ़ाने के उद्देश्य से भूमि प्रबंध की समन्वित प्रणाली विकसित करके इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है।
भारत में भूमि, जल, सौर ऊर्जा व पर्यावरण सम्बन्धी संसाधनों अथवा मानव संसाधनों का कोई अभाव नहीं है। सच तो यह है कि प्रकृति के इन वरदानों की कृपा से ही हम अपनी इतनी अधिक जनसंख्या का बोझ उठा पा रहे हैं। हमारी समस्या संसाधनों की उपलब्धता की नहीं, बल्कि मानवीय सूझबूझ तथा ऊर्जा के माध्यम से उन्हें अनुशासित ढंग से संगठित और व्यवस्थित करने की है। अभी तक हम इस प्रयास में विफल रहे हैं या संभवतः हमने इस दिशा में गंभीरता से कोशिश ही नहीं की है।
अब समय आ गया है कि हम इस समस्या पर गम्भीरता से ध्यान दें। भारत में कुल लगभग 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि है और एक अनुमान के अनुसार इसका करीब एक तिहाई हिस्सा बंजर भूमि है। यदि वन भूमि के रूप में अधिसूचित 3 करोड़ हेक्टेयर जमीन को छोड़ भी दें तो 10 करोड़ हेक्टेयर भूमि गैर वन बंजर भूमि है। इस समस्या की विकरालता को समझने के लिये उन रोचक तथ्यों के बारे में जानना आवश्यक है जिनके कारण देश के प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिये तत्काल उपाय करना जरूरी हो गया है।
बढ़ती जनसंख्या
स्वतंत्रता के बाद भारत में पशु-धन तथा जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है। साथ ही इतनी बड़ी आबादी के आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये अधिक से अधिक भूमि में खेती-बाड़ी होने लगी है तथा वन भूमि में लगातार कमी हुई है। यह तथ्य तालिका-1 से स्पष्ट हो जाता है:
ईंधन और चारा
बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये कृषि तथा पशु पालन का पोषण करने वाले तथा अनाज, पेयजल एवं ईंधन जैसी बुनियादी वस्तुएँ प्रदान करने वाले भूमि, जल एवं जैविक संसाधनों पर भारी दबाव पड़ा है। गाँवों में बढ़ती देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी घरेलू इस्तेमाल, मुख्यतः खाना पकाने के लिये ऊर्जा के रूप में ईंधन लकड़ी पर निर्भर है। ईंधन लकड़ी तथा चारे की मांग एवं पूर्ति में कितना अंतर है, यह तालिका-2 में देखा जा सकता है।
चारागाह जैसी जिस सार्वजनिक गैर-वन भूमि से गाँवों के लोगों की ईंधन व चारे की आवश्यकताएँ पूरी की जानी थीं, वह बंजर और ऊसर हो गई है। या उस पर अनधिकृत कब्जा कर लिया गया है जिसके फलस्वरूप देश के कुल भू-क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से की उपजाऊ शक्ति कम हो चुकी है। परती भूमि के इस फैलाव से उत्पादक संसाधनों के आधार को गम्भीर क्षति पहुँच रही है और जीवन का पोषण करने वाली प्रणालियों के लिये खतरा पैदा हो रहा है।
भूमि की उपलब्धता
भूमि ऐसा संसाधन है जिसका बार-बार उपयोग नहीं हो सकता। उत्पादक भूमि निरंतर कम हो रही है। भूमि की प्रति-व्यक्ति उपलब्धता 1950 में 0.48 हेक्टेयर थी जो वर्ष 2000 तक घटकर 0.15 हेक्टेयर रह जाएगी।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद देश में कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्रों में अनुसंधान, शिक्षा और विस्तारण शिक्षा को प्रायोजित, समन्वित और प्रोत्साहित करने वाला शीर्षस्थ संगठन है। परिषद के अधीन देश में 43 केन्द्रीय संस्थान, 4 राष्ट्रीय ब्यूरो, 20 राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र, 9 परियोजना निदेशालय, 70 अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान/सुधार परियोजनाएँ और 109 कृषि विज्ञान केन्द्र हैं। परिषद कृषि शिक्षा और अनुसंधान में लगे 26 राज्य कृषि विश्वविद्यालयों और अन्य प्रमुख संस्थानों को भी सहायता प्रदान करती है।
भूमि का कटाव
जो भूमि उपलब्ध है, उसका भी हर साल 16.35 टन प्रति हेक्टेयर की दर से कटाव होता जा रहा है। यह दर भूमि कटाव की 12.5 टन प्रति हेक्टेयर की अधिकतम उचित दर से काफी ज्यादा है। भूमि प्रबंध की कुछ प्रणालियों में मिट्टी का कटाव बहुत अधिक होता है। इनमें गहरी ढलानों पर कृषि करने तथा ढलानों को बदलने की प्रणालियाँ शामिल हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि भूमि कटाव तथा भूमि उर्वरता में गिरावट के बीच निश्चित सम्बन्ध है।
भूमि के स्तर में गिरावट
अधिक मात्रा में लवण के जमाव, पानी जमा होने, औद्योगिक/खनन अवशिष्टों को पानी में छोड़ने, खड्ड नालों आदि के तटबंधों के कटाव आदि के कारण भूमि की उर्वरता में कमी आना गम्भीर चिन्ता का विषय है। वर्ष 2,000 तक खनन के कारण प्रतिवर्ष लगभग 1,400 हेक्टेयर भूमि का नुकसान होने लगेगा, जबकि इस समय अनुमानतः 500 हेक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष बेकार होती है। इसके अलावा लगभग 8,000 हेक्टेयर उत्पादक तथा वन भूमि बीहड़ों में बदल जाने के कारण बेकार हो जाती है। इस तरह कटाव का शिकार होने वाली भूमि में 53.7 लाख से 84 लाख टन तक प्रमुख पोषक तत्वों की हानि हो जाती है। सब प्रकार की भूमि में कुल मिलाकर प्रति वर्ष 3 करोड़ से 5 करोड़ टन मृदा का क्षरण होता है।
वनस्पति की क्षति
जिन क्षेत्रों में जगह बदल-बदल कर कृषि की जाती है, वहाँ वनस्पति तथा पेड़-पौधों की कई प्रजातियों के समाप्त होने से बहुत भारी क्षति हो रही है। शामिल भूमि, चरागाहों तथा घास के मैदानों पर पशुओं के चरने से वहाँ बहुत कम पेड़-पौधे उग पाते हैं और घटिया किस्म की प्रजातियों के उग आने से भूमि की उपजाऊ क्षमता नष्ट हो जाती है।
जल-स्रोतों को क्षति
नमी तथा अर्ध नमी वाले क्षेत्रों में भी कुएँ, झरने तथा मौसमी नालों के सूखने और लम्बे समय तक शुष्कता बने रहने की स्थिति पैदा होने लगी है। रेगिस्तान का फैलाव बेरोक-टोक जारी है तथा और अधिक क्षेत्रों में मरुस्थल जैसी परिस्थितियां बनने लगी हैं। जलाशयों की स्थिति भी चिंताजनक है, जिसके कारण काफी पूँजी लगातार की गई बिजली उत्पादन एवं सिंचाई की क्षमता में कमी आ रही है।
पानी की कमी
भूमि की तरह जल भी ऐसा संसाधन है जो घटता चला जाता है। वर्ष 2000 तक पानी की उपलब्धता में 21 प्रतिशत कमी हो जाएगी। वर्ष भर में मात्रा तथा स्तर की दृष्टि से जल की उपलबधता इस बात पर निर्भर करती है कि हम भूमि का प्रबंध कैसे करते हैं। अनुमानों से पता चलता है कि बहुत जल्दी ही सिंचाई और घरेलू इस्तेमाल दोनों दृष्टियों से पानी का अभाव हो जाएगा, इसलिये भूमि प्रबंध की भांति जल प्रबंधन भी अति महत्त्वपूर्ण हो गया है।
गंदगी का निपटान
बिना साफ किया गया मल, जल, उद्योगों से निकले हानिकारक पदार्थ तथा शहरों का कूड़ा-करकट, नदियों व झीलों में फेंकने से अच्छी उत्पादक भूमि की उर्वरता भी नष्ट हो रही है। अध्ययनों से यह भी मालूम हुआ है कि देश में प्रथम श्रेणी के 142 नगरों में से 44 शहरों में गंदा पानी नदियों व नालों में 42 में कृषि भूमि पर तथा अन्य 32 नगरों में कृषि और शहरी भूमि व नदियों दोनों में छोड़ा जाता है। शेष 24 नगरों का गंदा पानी समुद्र में छोड़ा जाता है। इन सभी मामलों में प्राकृतिक प्रणालियों की उर्वरा क्षमता पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
कूड़े तथा गंदगी को ठिकाने लगाना शहरों की बहुत बड़ी समस्या है। यही बात उद्योगों से निकलने वाले हानिकारक अवशिष्टों व राख के बारे में लागू होती है। कूड़ा जमा होने से धीरे-धीरे प्राकृतिक सुन्दरता नष्ट हो रही है। जल की स्वाभाविक निकासी में बाधाएं आ रही हैं और बहुत बड़े क्षेत्रों में पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। इस गम्भीर स्थिति को देखते हुए गैर वन क्षेत्र में बंजर भूमि का ईंधन व चारे जैसी आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि बढ़ाने के उद्देश्य से उपयोगी इस्तेमाल करना सचमुच चुनौती-पूर्ण कार्य है। इस प्रकार की लगभग 80 प्रतिशत भूमि पर निजी स्वामित्व है तथा बाकी 20 प्रतिशत भूमि सरकार, समुदाय, संस्थानों आदि के कब्जे में है, इसलिये इन वर्गों के लिये अलग-अलग दृष्टिकोण व कार्य नीति अपनाई जानी चाहिए। किन्तु इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि इस दृष्टिकोण से देश की भूमि के प्रबंध का वह मूल लक्ष्य पूरा होता हो, जिससे निम्नलिखित पहलुओं में सुधार लाया जा सके:
1. उत्पादन/उपभोग/उपयोग प्रक्रियाएं
2. समाज के लोगों, विशेषकर गाँवों के निर्धन व्यक्तियों के लिये निश्चित एवं लाभकारी आजीविका की व्यवस्था, तथा
3. और अधिक रोजगार तथा आय बढ़ाने की गतिविधियाँ शुरू करने के लिये भौतिक सुविधाएँ जुटाना।
दृष्टिकोण ऐसा होना चाहिए जिससे बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताएँ पूरी करने की क्षमता तथा भूमि की उत्पादकता को कायम रखा जा सके और उनमें वृद्धि की जा सके।
कार्य नीति
देशभर में भूमि के स्तर में गिरावट से जुड़ी समस्याओं तथा समाज के सामाजिक व आर्थिक विकास के साथ उनके सम्बन्ध पर विचार करने से पता चलता है कि राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड को जो दायित्व सौंपे गए हैं, वे ऐसे समन्वित एवं परस्पर निर्भर भूमि प्रबंध के माध्यम से ही पूरे हो सकते हैं, जिसमें निम्नलिखित लक्ष्यों पर ध्यान दिया जाएगा:
1. भू-संसाधनों के आधार में पौष्टिक तत्वों एवं नमी की उपलब्धता की दृष्टि से उर्वरा शक्ति फिर से पैदा करना;
2. बायोमास की प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि करना, और
3. रोजगार के अधिक अवसर जुटाकर सम्बन्धित लाभार्थी लोगों के लिये अधिक आय पैदा करना।
एक बहुत बड़ी कमी यह प्रतीत होती है कि किसी खास परती क्षेत्र की समस्याओं का पता लगाने के लिये वहाँ के लोगों की आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं और आने वाले वर्षों में अपेक्षित उत्पादन के अनुरूप संसाधनों का स्तर बनाए रखने की जरूरत को ध्यान में रखते हुए गहराई से विश्लेषण नहीं किया जाता है, इसलिये परती भूमि विकास कार्यक्रम के अंतर्गत निम्नलिखित गतिविधियाँ चलाई जा सकती हैं।
1. समस्या का पता लगाने के लिये व्यापक स्तर पर गहराई से अध्ययन करना।
2. परिप्रेक्ष्य योजनाएं तैयार करना, जिनमें टेक्नोलॉजी, आवश्यक संस्थागत आधार तथा नीतिगत समर्थन से सम्बन्धित कमियों को पूरा करने के उपायों की विस्तृत जानकारी शामिल हो।
3. विकास के ऐसे मॉडलों का पता लगाना या विकास करना, जिनमें भूमि की उर्वरा शक्ति तथा उत्पादकता को उसकी अंतर्निहित क्षमताओं का इस्तेमाल करके कम से कम पूँजी की लागत वाले उपायों के जरिए बहाल किया जा सके।
4. तात्कालिक तथा लम्बी अवधि की आवश्यकताओं में सुधार लाने के लिये समन्वित भूमि प्रबंध प्रणालियों की जरूरत और ऐसी प्रबंध प्रणालियों के माध्यम से रोजगार तथा आय में वृद्धि होने के बारे में चेतना पैदा करना।
5. समस्याओं का पता लगाने, परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार करने और उन्हें लागू करने तथा सहकारी प्रयासों से प्रबंध योजनाओं को चालू रखने के कर्तव्य पूरे करने और लाभों को प्राप्त करने की जिम्मेदारी निभाने में लोगों की पहल को बढ़ावा देना।
6. कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में गति लाने के लिये विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी के अधिक इस्तेमाल और राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं से अधिक वित्तीय सहायता प्राप्त करने में सहयोग देना।
7. संचार तथा विस्तार की कार्यनीति तैयार करना और उपलब्ध संचार माध्यमों से उसकी जानकारी सम्बन्धित लोगों तक पहुँचाना।
योजनाएँ
इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये परती भूमि विकास विभाग निम्नलिखित योजनाएँ चला रहा है:
कृषि क्षेत्रक में आवधिक ऋणों की माँग को कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंकों की बाधारहित तथा कुशल कार्य को बनाए रखकर प्रयास से पूरा किया जाएगा। राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक ने शिल्पकारों, कृषि श्रमिकों, कुटीर उद्यमों तथा लघु ग्रामीण उद्यमों को शामिल करते हुए गैर कृषि क्षेत्रक का वित्त पोषण भी आरम्भ किया है। आठवीं योजना में इस गतिविधि में तेजी लाई जाएगी ताकि ग्रामीण लोग विशेष रूप से महिला तथा युवक पारम्परिक कृषि के अलावा लाभदायी रोजगार प्राप्त कर सकें।
1. समन्वित बंजर भूमि विकास परियोजना:
1989-90 में प्रारम्भ की गई यह योजना पूर्णतया केन्द्र प्रायोजित योजना है। इसके अंतर्गत राज्यों में क्षेत्र स्तर पर प्रायोगिक परियोजनाएं शुरू की जाती हैं। इसका उद्देश्य गाँव या सूक्ष्म जल विभाग योजनाओं के आधार पर समन्वित रूप से भूमि का प्रबंध तथा बंजर भूमि का विकास करना है। इसकी योजनाएं भूमि की क्षमताओं, स्थानीय परिस्थितियों और वहाँ के लोगों की आवश्यकताओं पर विचार करने के बाद तैयार की जाती हैं। सभी स्तरों पर बंजर भूमि विकास कार्यक्रमों में लोगों की सहभागिता को बढ़ाना भी इसका एक उद्देश्य है। इसके लिये इन योजनाओं के लाभों से न्यायसंगत वितरण के उपाय किए जाते हैं।
यह योजना-बहु-आयामी तथा अनेक विषयों को लेकर चलने वाली है, इसलिये इसमें चुने हुए जिलों में जल विभाजक के आधार पर स्थानीय स्तर पर समन्वित बंजर भूमि विकास योजनाएं तैयार की जाएँगी, जिसके लिये विस्तृत मानचित्र तैयार किए गए हैं। इसके अलावा अन्य जिलों में उपलब्ध जानकारी का भी इस्तेमाल किय जाएगा। इस योजना के अंतर्गत चलाई जाने वाली मुख्य गतिविधियाँ इस प्रकार हैं:
- मृदा तथा नमी संरक्षण, गली-प्लगिंग चेक डैम, जल उपयोग ढाँचे जैसे छोटे इंजीनियरी यंत्र तैयार करना।
- ढलानदार खेत बनाने, तटबंध बनाने, क्यारियाँ बनाने, पेड़-पौधों से हदबंदी करने जैसी उपाय करके मृदा तथा नमी की रक्षा करना।
- बहु-उद्देश्यीय पेड़, झाड़ियाँ, घास, फलियाँ आदि उगाना तथा चरागाह विकसित करना।
- प्राकृतिक रूप से भूमि उपजाऊ बनाने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना।
- कृषि वानिकी, बागवानी और वैज्ञानिक ढंग से पशु-पालन को बढ़ावा देना।
- लकड़ी के स्थान पर अन्य वस्तुओं के उपयोग तथा ईंधन लकड़ी के संरक्षण के उपाय करना।
- टेक्नोलॉजी के प्रसार के उपाय करना।
2. क्षेत्रोन्मुखी ईंधन लकड़ी एवं चारा परियोजना
यह 50 प्रतिशत केन्द्र प्रायोजित योजना है। इसके अंतर्गत वृक्षारोपण, कृषि वानिकी, वन चरागाह विकास, बागवानी तथा मृदा एवं नमी संरक्षण जैसी गतिविधियों में तालमेल लाकर जल विभाजकों के समन्वित विकास को बढ़ावा दिया जाता है। इससे निम्नलिखित उद्देश्य पूरे होते हैं:
1. भूमि के स्तर में गिरावट पर नियंत्रण और खराब भूमि को फिर से उपजाऊ बनाना।
2. शाममलात तथा बंजर वन भूमि में ईंधन लकड़ी, चारा और वन उत्पादों की पैदावार बढ़ाना तथा ईंधन लकड़ी के संरक्षण व उसके स्थान पर अन्य वस्तुओं के उपयोग को बढ़ावा देना।
3. कार्यक्रम में स्थानीय लोगों तथा समाज की सहभागिता बढ़ाना।
इस योजना के अंतर्गत शामिल किए जाने वाले जल विभाजकों का पता लगाने का काम राज्यों के वन विभाग तथा राज्य सरकारों की दूसरी संस्थाएं करेंगी। पता लगाने के इस कार्य में ग्राम पंचायतें व ग्राम स्तर की अन्य संस्थाओं का सक्रिय सहयोग लिया जायेगा।
प्रत्येक परियोजना में 200 हेक्टेयर भूमि ली जा सकती है और जिस स्थान विशेष को सुधार के लिये चुना जाएगा वह 10 हेक्टेयर से छोटा नहीं होना चाहिए।
वन विभाग इस परियोजना के लिये केन्द्रीय एजेंसी होगी, किन्तु परियोजना तैयार करने में वह कृषि, ग्रामीण विकास, पशु पालन, बागवानी, मृदा संरक्षण, राजस्व आदि अन्य संबंधित विभागों से भी परामर्श करेगा, ताकि जल विभाजकों के चयन में कोई गड़बड़ी न हो।
1. अनुदान सहायता योजना
यह योजना पूरी तरह केन्द्र प्रायोजित है। इसके अंतर्गत प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से वृक्षारोपण एवं बंजर भूमि विकास से जुड़ी गतिविधियाँ चलाने के लिये पंजीकृत स्वयंसेवी संस्थाओं, सहकारी समितियों, महिला मंडलों, युवा मंडलों तथा इसी प्रकार के अन्य संगठनों को अनुदान सहायता दी जाती है। इनमें छोटे कार्यक्रमों का क्रियान्वयन, जागरुकता लाना, प्रशिक्षण या जानकारी का प्रसार, भूमि को फिर से उपजाऊ बनाने के लिये लोगों को संगठित करना आदि कार्य शामिल हो सकते हैं। ये परियोजनाएं सार्वजनिक या निजी भूमि पर चलाई जा सकती हैं। जिन योजनाओं में स्वयंसेवी योगदान तथा जन सहयोग अधिक होगा, उन्हें वरीयता दी जाती है। संबंधित राज्य सरकार के परामर्श से परियोजना की समीक्षा के बाद राशि सीधे स्वयंसेवी संगठन को दी जाती है। इनके क्रियान्वयन पर नजर रखने के उद्देश्य से विभिन्न स्तरों पर इनका मूल्यांकन विभागीय अधिकारियों तथा बाहरी विशेषज्ञों द्वारा कराया जाता है।
4. जन पौधशाला योजना
यह योजना सातवीं योजना में लागू की गई। इसके उद्देश्य इस प्रकार थे:
क. ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से ग्रामीण निर्धनों, महिलाओं तथा उपेक्षित वर्गों को व्यक्तिगत स्तर पर या स्कूल, सहकारी समिति जैसे संगठनों के माध्यम से स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लिये पौधशालाएं विकसित करने का कार्य आम लोगों तक लाना।
ख. जन पौधशालाएं विकसित करने, अपेक्षित प्रजातियों की अच्छी किस्म की स्थानीय तौर पर मिलने वाली पौध लोगों को उनके आस-पास ही उपलब्ध कराना।
ग. बेकार हो गई कृषि भूमि पर लाभकारी गतिविधि के रूप में कृषि वानिकी को बढ़ावा देना और इस प्रकार रोजगार के अवसरों तथा आय में वृद्धि करना।
चालू वित्त वर्ष से यह योजना राज्यों को स्थानांतरित कर दी गई है।
1985 की खरीफ फसल के समय से एक विस्तृत फसल बीमा योजना लागू है। राज्य सरकारों के सहयोग से भारत सरकार की ओर से कार्य करने वाला सामान्य बीमा निगम धान, गेहूँ, ज्वार-बाजरा, तिलहन और दालों जैसी फसलों के लिये सहकारी ऋण संस्थाओं और बैंकों से ऋण लेने वाले किसानों को फसल बोने की सुविधाएँ प्रदान करता है। किसानों द्वारा चावल, गेहूँ और ज्वार-बाजरा की फसलों के लिये अदा किये जाने वाले प्रीमियम की दर 2 प्रतिशत और तिलहन तथा दालों के लिये प्रीमियम की दर एक प्रतिशत है।
5. मार्जिन मनी योजना
पूरी तरह केन्द्रीय क्षेत्र की इस योजना में कृषि वानिकी परियोजनाओं के लिये संस्थागत वित्तीय सहायता की उपलब्धता बढ़ाई जाती है। इसके लिये उन परियोजनाओं को केन्द्रीय सहायता दी जाती है जिन्हें राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक ‘नाबार्ड’ के आर्थिक सक्षमता मापदण्ड के अंतर्गत लाये जाने की आवश्यकता होती है।
इस योजना के अंतर्गत निम्नलिखित संगठन/संस्थाएं सहायता की पात्र हैं:
क. सरकारी तथा अर्धसरकारी (केन्द्र एवं राज्य) निगम, ख. शहरी विकास संस्थाएं, नगर निगम और सार्वजनिक स्वायत्त संस्थाएं, ग. बहुराज्य सहकारिता अधिनियम, 1984 के अंतर्गत पंजीकृत सहकारी समितियाँ और राज्य सहकारिता कानूनों के अंतर्गत पंजीकृत सहकारी समितियाँ, और घ. पंजीकृत संस्थाएं, कम्पनियाँ अथवा न्यास इस योजना के अंतर्गत परियोजना लागत की 25 प्रतिशत तक राशि केन्द्र द्वारा मार्जिनमनी के रूप में निम्नलिखित शर्तों पर दी जाती है:
1. अनुदान में मिलने वाले धन के समान राशि सहायता की पात्र संस्था/राज्य द्वारा दी जाए। किसी अन्य योजना के अंतर्गत गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम में व्यक्तियों को मिलने वाली सब्सिडी को समान राशि माना जा सकता है। विशेष परिस्थितियों में समान राशि जुटाने के प्रावधान में छूट दी जा सकती है।
2. परियोजना की पूरी लागत की कम-से-कम 50 प्रतिशत राशि किसी वित्तीय संस्था द्वारा दी जाए।
अनुदान की राशि किसी परियोजना को बैंक से सहायता लेने योग्य बनाने की आवश्यकता पर आधारित है।
परियोजना को सहायता के लिये हकदार बनाने के लिये ऋणदाता बैंक से उसका मूल्यांकन किया जाएगा और सिद्धांत रूप से उसे ऋण के लिये स्वीकार कर लिये जाने पर ही बोर्ड परियोजना को मार्जिन मनी देने पर विचार करता है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि परती भूमि, विशेष रूप से वन क्षेत्रों में बंजर भूमि के स्थायी उपयोग के उद्देश्य से उनका विकास करने के लिये समन्वित भूमि प्रबंध प्रणाली की फिर से रचना करना आवश्यक है। इस प्रणाली को बायोमास की उपलब्धता, रोजगार तथा आय की दृष्टि से अपनी सेवाएं निरंतर रूप से व्यक्तियों तथा समाज को उपलब्ध करानी होंगी। इसके लिये समस्या का पता लगाने के अपने प्रयासों से लाभ उठाने तथा विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल में वृद्धि करने की आवश्यकता है।