प्रवासन (Migration)

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 15:06
प्रवासन (Migration) प्राणिसमुदायों का दिन और रात तथा गरमी सर्दी, बरसात, सूखा आदि ऋतुओं की पर्यावरण आवर्तिता (periodicity) की अथवा किसी आंतरिक लय (rhythm) के प्रतिक्रियास्वरूप, अक्षांश, देशांतर या उन्नतांशों (altitudes) में निर्गमन और प्रत्यागमन है। प्रवासन अनिवार्यत: दोतरफा होता है, अर्थात्‌ किसी स्थानविशेष से आवर्ती प्रस्थान और उसी स्थान को पुन: प्रत्यागमन। प्रस्थान और प्रत्यागमन की दिशाएँ बारी बारी से बदलती रहती हैं। यद्यपि प्रवासन अनेक प्राणियों का स्वभाव है तथापि इस संबंध में आज तक की लगभग सारी जानकारी मछलियों और पक्षियों के प्रवासन के अध्ययन से ही उपलब्ध है। प्रवासन के तीन प्रकार है : दैनिक, वार्षिक और दीर्घकालिक। दैनिक प्रवासन में गमन और प्रत्यागमन 24 घंटों के भीतर हो जाते हैं। वार्षिक प्रवासन में एक वर्ष तथा दीर्घकालिक प्रवासन में अनेक वर्षों में जाना और वापस लौटना हो पाता है।

दैनिक प्रवासन का उत्तम दृष्टांत प्लवक (plankton) नामक सूक्ष्म तैरते प्राणी तथा वनस्पतियाँ प्रस्तुत करती हैं, जो दिन के समय समुद्र की गहराई में रहती हैं, क्योंकि दिन में सतह का ताप तथा प्रकाश उनके प्रतिकूल पड़ता है; परंतु जब रात में सतह का ताप और प्रकाश घट जाता है तब ये ऊपर सतह की ओर प्रवासन करती हैं। दिन के समय प्रकाश के तेज होने के साथ साथ प्लवक पानी में नीचे उतरते जाते हैं, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका यह व्यवहार प्रकाश और उससे उत्पन्न के कारण है।

वार्षिक प्रवासन अनेक प्राणियों द्वारा होता है, जैसे भक्ष्य केकड़े (Cancer pagurus) द्वारा। गरमियों में समुद्र की सतह की ऊपरी परतें निचली परतों की अपेक्षा गरम रहती हैं। ये इस समुद्री केकड़े के अनुकूल होती हैं। अत: गरमियों में यह समुद्र के ज्वारीय क्षेत्र (tidal zone) में रहना पसंद करता है। जाड़ों में सतही परतें बाकी निचली परतों की अपेक्षा ठंढी रहती हैं। ये इस केकड़े के अनुकूल नहीं होतीं, अत: यह केकड़ा 20 से 30 फ़ैदम (fathom) तक नीचे प्रवासन कर जाता है और वहीं अंडजनन करता है। गहराई की ओर का प्रवासन सितंबर में और ज्वारीय क्षेत्र की ओर वापसी प्रवासन फरवरी मार्च में होता है।

ऋतु परिवर्तन के कारण पक्षियों का प्रवासन वार्षिक प्रवासन का सबसे विलक्षण उदाहरण है। अनेक पक्षी प्रवासन करते हैं और इस प्रकार वे भिन्न ऋतुओं में अपने लिये अनुकूल स्थानों पर रह सकते हैं। ये प्रवास पक्षी शीतोष्ण कटिबंध में या अधिक ऊँचाई पर रहते हैं। गरमियों में शीतोष्ण कटिबंध, या ऊँचे स्थान की मौसमी स्थिति, इनके अनुकूल होती है। यहाँ ताप सुसह्य होता है तथा दिन बड़े होते हैं, जिससे पक्षियों को अपने तथा संतानों के लिये आहार जुटाने को पर्याप्त समय मिल जाता है और गरमियों में इन प्रदेशों में हरियाली होने के कारण आहार भी प्रचुर होता है। इन प्रदेशों में पक्षियों को सभी आवश्यक सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं और ये उनका पूरा लाभ उठाकर फलते फूलते और प्रजनन करते हैं। शीत ऋतु के आने पर ताप गिरने लगता है, दिन छोटे होने लगते हैं और बर्फ पड़ने लगती है। यदि ये जाड़ों में अपना स्थान न छोड़ें तो इन्हें कड़ी सर्दी झेलनी पड़े और आहार भी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध न हों। यह स्थिति प्रौढ़ों तथा नवजातों दोनों के लिये समान रूप से असुविधाजनक होती है। इनके सामने दो ही रास्ते रह जाते हैं कि ये या तो शीत और आहार की दुर्लभता का सामना करते हुए नष्ट हो जाएँ, या किसी ऐसे स्थान पर चले जाएं जहाँ की स्थिति अच्छी हो। अत: शीत ऋतु में पक्षी निम्न ऊँचाई के उष्ण कटिबंधों को प्रवासन करते हैं, जहाँ दिन बड़े होते हैं तथा आहार प्रचुर होता है। इस प्रकार वे सर्दी के संकटों से बच निकलते हैं। इन उष्ण कटिबंधीय स्थानों को शीत-निवास-स्थल कहते हैं। पर सर्दी के बीत जाने और गरमी के प्रारंभ होते ही पक्षियों को पुन: असुविधाएँ होने लगती हैं। इनके सम्मुख दो ही मार्ग होते हैं, पलायन, या अतिशय गर्मी से मर जाना। अत: पक्षी पलायन का मार्ग चुनते हैं और अपने प्रजनन स्थान को लौट पड़ते हैं, जहाँ ऋतु परिवर्तन हो चुका होता है, बर्फ गल चुकी होती है और वनस्पतियाँ फलने लगती हैं। प्रजनन स्थान से शीत निवास को और वहाँ से वापसी यात्रा का यह चक्र प्रति वर्ष चलता है। प्रजनन स्थान पर सर्दी असह्य पड़ती है और शीत निवास स्थान में असह्य गरमी पड़ती है। प्र्व्रााजी पक्षी इस तथ्य को समझता है और प्रवासन द्वारा प्रजनन स्थान की सर्दी और शीत-निवास-स्थल की गरमी से बचता है।

पक्षियों के प्रवासन से इनकी समुद्री यात्रा की विलक्षण शक्ति पर प्रकाश पड़ता है। प्र्व्रााजी अपने गंतव्य स्थल का मार्ग कैसे जान लेते हैं और ठीक गंतव्य स्थल पर कैसे पहुँच जाते हें, यह मतभेद और विवाद का विषय रहा है। अब यह लगभग सिद्ध हो चुका है कि पक्षियों में सूर्य के चाप सिद्धांत पर काम करनेवाले कालमापी (chronometer) की तरह की कोई युक्ति होती है, जो आकाश में सूर्य की स्थिति के आधार पर प्र्व्रााजी को उसकी स्थिति का पता देती है।

प्राणियों में पक्षियों के प्रवासन का ही सर्वाधिक अध्ययन हुआ है (देखें 'पक्षि विज्ञान')। अध्ययन की अनेक विधियों में सबसे सफल और व्यापक छल्ला पहनाने की विधि (ringing method) रही है। जिन पक्षियों के प्रवासन का अध्ययन अपेक्षित होता है, उनके पैरों में धातु की पतली पट्टियों को मोड़कर छल्ले के रूप में पहना दिया जाता है और उसपर छल्ला पहनाने के स्थान का पूरा विवरण, तिथि, पहनानेवाले का नाम एवं पता अंकित कर दिया जाता है (देखें पक्षीपटबंधन)। पक्षियों के पंख या दुम को प्राय: रंजक (dyes) से चिह्नित कर दिया जाता है, ताकि ऐसे प्रेक्षक जिन्हें इस प्रकार के अध्ययन में रुचि हो इन्हें पहचान सकें। जब किसी दूसरे स्थान पर ये पक्षी देखे जाते हैं तब प्रेक्षक इन्हें पकड़कर स्थान पर पता और समय अंकित कर देता है। इन दो व्यक्तियों के अंकनों की तुलना से पक्षी के प्रवासन की अवधि और दूरी का अनुमान लगाया जाता है।

दीर्घकालिक प्रवासन कुछ विशेष मछलियों में देखा जाता है इनमें यूरोपीय और अमरीकी ईल (eel) मछलियों का, जो यूरोप और उत्तरी अमरीका की नदियों में रहती हैं, प्रवासन विलक्षण है (देखें सारणी 1. और चित्र)। यूरोपीय जाति ऐंग्विला (Anguilla anguilla) और अमरीकी जाति ऐंग्विला रोस्ट्रेटा (Anguilla rostrata) है। ये नदियों में रहती और खाती हैं। इनका अंडजनन और संवर्धन अन्यत्र होता है। इनकी प्रजनन स्थली मील दूर पश्चिमी द्वीपसमूह के पास सारगासी सागर (Sargassi) है। प्रजनन का आवेग तीव्र होने पर, ये मछलियाँ नदियों से अपनी-2

अमरीकी नदियाँ

यूरोपीय नदियाँ


वयस्क ¾ ऐं. रॉस्ट्रेटा (A. rostrata)

व्यस्क¾ ऐं. ऐ

विकास

विकास

(अनेक वर्षो में)

(अनेक वर्षो में)

प्रवासन

प्रवासन प्रवजन

(1.3 वर्ष)

(1-3 वर्ष) (1-3)

अंडजनन

अंडजनन

मु

अंडे से निकले नवजात शिशु

अंडे से निकले नवजात शिशु

द्री



स्थली वाले समुद्र की ओर प्रवासन करती हैं, जहाँ ये अनेक वर्ण पहुँचती हैं तथा प्रजनन करके मर जाती हैं। नवजात शिशु माता पिता के निवासस्थान को चल देते हैं। एक से तीन वर्ष की लगातार यात्रा के बाद ये यूरोप या अमरीका की नदियों में पहुँच पाते हैं। यहाँ इनका विकास होता है और ये समुद्र की ओर प्रवासन प्रारंभ करने के पूर्व कई वर्ष नदी में बिताते हैं। सैलामन (salmon) मछलियाँ भी दीर्घकालिक प्रवासन करती हैं। ये समुद्र में रहती हैं किंतु समुद्र त्याग और लंबी यात्रा करके नदियों में प्रजनन करती इनके बच्चे समुद्र को लौट पड़ते हैं, जहाँ वे विकसित होकर बनते हैं और कुछ नदियों को लौटकर प्रजनन के लिये तैयार हो जाते हैं। यह व्यवहार ईल के प्रजनन के ठीक विपरीत है। भारत की रोहू (लेबिओ, Labeo) मछली भी झीलों से नदियों नदियों से झीलों तक सीमित प्रवासन करती है।

मछलियों का प्रवासन निश्चय ही सहज व्यवहार है और पर्यावरण की आवर्तिकताओं से अधिक मछलियों की जीवनैतिहासिक अवस्थ और आबादी के दबाव पर आधारित है। प्रचलित विश्वासों के अनुसार पहले यूरोप और अमरीका महाद्वीप एक भूखंड से जुड़े थे और वर्तमान सारगासो सागर क्षेत्र ईलों की मूल अंडजनन स्थली थी। कालांतर में इस भूखंड के समुद्रमग्न होने पर ईलों और उनके प्रजनन स्थान के मध्य समुद्र का अस्तित्व हो गया। परंतु ईलों की पैतृक सहज प्रवृति उन्हें अपने प्रजनन स्थली की विकट यात्रा करने की प्ररेणा देती है। इस प्रक्रिया में कौन कौन से वास्तविक कारक क्रियाशील होते हैं, यह अनिश्चितता और विवाद का विषय है।

सारणी 2. सैल्मन (Salmon) का प्रवासन

अंडे से निकले नवजात शिशु

अंडजनन

प्रवासन प्रवासन

विकास

(एक से अनेक वर्ष तक

मु

द्री

''जनन क्षम्य वयस्क''



टिड्डियों का प्रवासन विशेष प्रकार का होता है, जिसका संबंध न मौसमी परिवर्तन से है और न प्रजनन से। टिड्डी एकांतप्रिय है, एकाकी रहती और खाती है, साधारण टिड्डों जैसा आचरण करती है और अपने पड़ोसियों में कोई रुचि नहीं लेती; परंतु किसी सीमित क्षेत्र में टिड्डियों की आबादी बढ़ने पर उनके व्यवहार और आकृति में भी अंतर आ जाता है। ये यूथी हो जाती हैं और झुंड में रहने की इनकी प्रवृत्ति अत्यंत तीव्र हो जाती है। ये अपार संख्या में प्रवासन करती हैं और मार्ग में दूर तक फैली हुई हरियाली को मिनटों में चट करती जाती हैं। टिड्डियों से होनेवाले सर्वनाश सर्वविदित हैं। टिड्डियों की प्र्व्राजी प्रवृत्ति प्रधानत: जनसंख्या के दबाव के कारण होती है। कुछ अनुसंधान करनेवालों का मत है कि एकल प्रावस्था में कीटों के आहार में पोटैशियम अयन की वृद्धि से प्रवासन करने की उत्तेजना होती है, परंतु प्रवासन का वास्तविक कारण अब तक निश्चित नहीं हो सका है।

प्रवासन के कारण विवाद का विषय हैं और इनका सर्वोत्तम विवेचन 'पक्षी प्रवासन' में हो चुका है। पक्षी प्रवासन जटिल व्यवहार है, जिसमें शक्ति का अपार व्यय और पक्षियों का प्राण संकट में होता है, क्योंकि प्रवासन में बहुत लंबी यात्रा की जाती है और गंतव्य तक पहुँचने के पूर्व अनेक बाधाओं और संकटों का सामना करना पड़ता है। यह बात और है कि प्रवासन से लाभ होते हैं, जिसका उपयोग प्र्व्रााजी करते हैं। प्रवासन का सबसे बड़ा लाभ, विशेषकर पक्षियों में, यह है कि प्रवासन से प्र्व्रााजियों को पर्यावरण की प्रतिकूल अवस्थाओं से बचने और विभिन्न स्थानों में रहने का अवसर मिलता है, जिससे उनकी अतिजीविता की संभावना बढ़ती है, और वंशवृद्धि के लिये प्रजनन भी सफलतापूर्वक हो पाता है। यहाँ अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। क्या प्रवासन के लाभ अपरिहार्य हैं ? असीम शक्ति का व्यय और भारी संकट उठाकर प्रवासन करने की अपेक्षा पर्यावरण की उग्रता सहना क्या सरल नहीं होगा ? क्या प्रवासन प्रकृति की उग्रता की अनुकूली अनुक्रिया (adaptive response) मात्र है ? इन महत्वपूर्ण प्रश्नों उत्तर के लिये सभी तथ्यों का तार्किक विश्लेषण और गंभीर अध्ययन आवश्यक है।

यदि पक्षी पर्यावरण की स्थितियों से बचने के लिये प्रवासन करते हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि प्रवासन व्यवहार सुचिंतित और योजनाबद्ध होता है, पक्षी अपना भला बुरा समझते हैं और भली बातों का उपयोग और बुरी बातों से बचने की विधि उन्हें स्पष्टतया ज्ञात होती है। इससे यह संकेत मितलता है कि प्र्व्रााजियों की बुद्धि और विवेक उच्च कोटि का होना चाहिए। विकासक्रम की निम्न अवस्था में स्थित पक्षी जैसे जीवों में बुद्धि और विवेक ऐसी शक्ति का होना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता। यदि प्रवासन द्वारा होनेवाले लाभ ही प्रवासन करना चाहिए, जिससे प्रतिकूल पर्यावरण की सीमा पीछे छूट जाय। उससे अधिक नहीं, क्योंकि यदि कुछ गज चले जाने से काम बनता हो तो मीलों की यात्रा करने का कोई अर्थ नहीं होता। परंतु तथ्य यह है कि अधिकांश प्र्व्राजी आवश्यकता से बहुत दूर चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक पक्षीगण पर्यावरण की स्थिति के बिगड़ने के पहले ही प्रवासन आरंभ कर देते हैं। इन सबका अर्थ यह है कि प्रवासन केवल इससे होनेवाले लाभों को प्राप्त करने के लिये नहीं किया जाता।

कुछ लोगों का सुझाव है कि प्रवासन एक सहज व्यवहार (instinctive behaviour) है, जिसकी क्षमता वंशागत होती है। इस धारणा की पुष्टि इससे होती है कि प्र्व्रााजियों को कैसे, कब और कहाँ जाना है, यह निश्चित रूप से ज्ञात होता है। यह सुनिश्चय की स्थिति केवल तभी संभव है, जब प्रवासन व्यवहार जन्मजात हो, अनुकूली नहीं, और प्र्व्रााजी को अपने अंदर से और पहले से ही यह ज्ञान होता है कि उसे प्रवासन के लिये क्या करना है।

प्रवासन में पर्यावरण का योगदान संभवत: उत्तेजना प्रदान करना है, पर यह इस आश्चर्यजनक घटना का कारण नहीं है। अनुमान है कि ऋतुपरिवर्तन के समय दिन की लंबाई के घटने बढ़ने के फलस्वरूप पक्षियों की कुछ वाहिनीहीन ग्रंथियों (ductless glands) उत्तेजित हो जाती है, जिससे जननपिंड उत्तेजित होकर प्रजनन की प्रेरणा जागृत करते हैं, फलत: पक्षी प्रजनन के लिये अपने मूल स्थान को प्रवासन करते हैं। संभवत: ये पक्षी प्राचीन समय में जहाँ रहते थे, वहाँ साल भर एक सी स्थिति रहती थी। धीरे धीरे वहाँ की जलवायु बिगड़ी, ताप गिरा, आहार कम हुआ और स्थान रहने योग्य नहीं रह गया। स्वभावत: पक्षी आसपास के स्थानों को चले गए, परंतु वहाँ से भी कुछ समय बाद हिमावरण ने उन्हें भगा दिया। यह व्यवहार, जिसका जन्म परिहारकारी प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, कालांतर में स्वभाव बन गया और प्राणियों के जन्मजात क्रियाकलापों का अंग ही बन गया। फलस्वरूप प्रत्येक नवजात पक्षी में ऐसा तत्व रहने लगा जिससे उसे प्रवासन करने की प्रवृत्ति होती है।

निष्कर्ष यह है कि प्राणियों के प्रवासन की समस्या बड़ी ही जटिल है और इसके समाधान के निकट तक हम बड़ी कठिनाई से पहुँच सके हैं। (अरुणांकर नारायण)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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