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योजना, अगस्त 2002
वनों और बर्फ के बीच काव्यात्मकता से ओतप्रोत वे पर्वत क्षेत्र होते हैं जहाँ ऊपर चढ़ते हुए आप सबसे पहले यह महसूस करते हैं कि आपके कंधों से दुनियावी चिन्ताओं का भार उतर गया है और आप अंततः अवसाद के दलदल के पार पहुँच गए हैं (बनयन)। आरम्भिक महीनों में आप वहाँ घुटनों तक आने वाले ऐसे फूलों के बीच से होकर गुजरते हैं जहाँ हर फूल एक साकार कविता का अंश प्रतीत होता है।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि सगे-सम्बन्धियों द्वारा खतरों के खिलाफ आगाह किए जाने के बावजूद ऐसी क्या बात है कि पर्वतारोही साल दर साल पर्वतों पर चढ़ने की कड़ी चुनौती स्वीकार कर लेता है जबकि वहाँ गिरने का, फिसलते हिमखंडों में फँस जाने का, चट्टानों से टकरा जाने का और रस्सी के खूंटे के ढीला हो जाने का जोखिम बना रहता है। ‘मुकुट पर्वत’ की चढ़ाई चढ़ते हुए अपने मन में उठे विचारों की मैं चर्चा करना चाहूँगा। दिन की रोशनी में अंतिम शिविर के नीचे तिरछी चढ़ाई चढ़ते समय टूटी चट्टानों और पत्थरों की वर्षा होती रही। ये सीटी की-सी आवाज में पास में तेजी से गुजरते। इस चढ़ाई के दौरान सवेरे ग्यारह बजे मुझे एक साथी मिला जो औरों से कुछ पीछे चल रहा था। चट्टानी पत्थरों को धड़ाधड़ गिरते देख मेरे साथी ने लौट चलने का विवेकपूर्ण सुझाव दिया। लेकिन मेरी अंतरात्मा ने मुझे आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया, शायद यह जानने-समझने के लिये कि चट्टानी वर्षा कैसी और कब-कब होती है। इधर-उधर कूदकर चट्टानी पत्थरों से बचते हुए मैंने यात्रा सुरक्षित रूप से पूरी की। लेकिन ऊपर के शिविर तक सामान ले जाने का काम पूरा किए बिना लौट आया क्योंकि दिन भी काफी ढल चुका था। उतराई में पत्थरों की बौछार झेलते हुए मैं निचले शिविर में अपने साथी से फिर मिला, शायद इस प्रक्रिया में बढ़े रक्तप्रवाह का आनंद महसूस करते हुए।यहाँ यह प्रश्न उठता है कि चढ़ाई के इस विवेकहीन जोखिम को मैंने क्यों गले लगाया। इस चढ़ाई से मुझे क्या मिला। प्रकट रूप से मुझे कुछ नहीं। यहाँ तक कि भावी उपयोग के लिये ऊपर शिविर में सामान तक नहीं ले जा सका। फिर भी मुझे संतोष है कि मैं प्रकृति के खतरनाक तत्वों के साथ पूरा तालमेल बैठा कर चला। इसे किसी विवेकशील व्यक्ति के लिये समझना कठिन होगा। फिर भी यह मानसिकता बहुत से पर्वतारोहियों में समान रूप से मिलती है। इस मानसिकता के साथ ही गम्भीर पर्वतारोही बार-बार पहाड़ पर चढ़ने का जबरदस्त जोखिम उठाता है, बावजूद इसके कि यह मनःस्थिति ही इस तरह के पर्वतारोहियों के लिये जानलेवा बन जाती है।
तपस्या: सर आर्नोल्ड लुन्न ने ‘एल्पाइन मिस्टिसिज्म एंड कोल्ड फिलोसफी’ में पर्वतीय रहस्यवाद और पर्वतारोहण के सम्बन्ध में लिखा था कि ‘‘पर्वतों की समझ बढ़ाने के लिये उसने तपस्या का मार्ग चुना है। पहाड़ों में और अन्यत्र भी ऊँचे प्रकार के रहस्यवादी अनुभव की कुँजी ‘तपस्या’ है। रस्किन द्वारा उन लोगों की आलोचना के खिलाफ उँगली उठाने की जरूरत नहीं है जिन्होंने पर्वतीय धर्मपीठों को खेलकूद के मैदानों में बदल डाला है लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि उसकी आलोचना की उग्रता का कारण यह हो सकता है कि पर्वतारोहण ने उसके अपने जीवन के सम्बन्ध में उस कठिन एवं अचिन्हित तथ्य को उजागर कर दिया होगा जो मूलतः गैर-तापसिक और आरामपसंद था।’’ अक्सर ऐसा होता है कि हिमालय की ऊँचाइयों पर कड़कड़ाती ठंड झेलने वाले बौद्धभिक्षु या साधु की कठिनाइयों की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। क्या इसका कारण यह है कि हमारे यहाँ तपस्वी जीवन बिताने वाले हजारों साधु और भिक्षु मिल जाते हैं? तपस्या भारतीय चरित्र का स्वाभाविक गुण है। किसी गम्भीर पर्वतारोही में यह गुण मूल रूप से अपेक्षित होता है। सम्भवतः इसीलिये भारतीय चरित्र मानसिक दृष्टि से पर्वतारोहण और तापसिक खेलों के अनुकूल होता है।
पर्वत-पूजा: शायद ही कोई पर्वतारोही पर्वत-पूजा और पर्वत-प्रेरित पूजा में भेद करता हो। क्या वे पर्वतों द्वारा प्रेरित पूजापाठ करते हैं? सर आर्नोल्ड लुन्न की दृष्टि में परवर्ती पूजा में तुक है लेकिन पूर्ववर्ती पूजा बेतुकी है। हिमालय देवताओं के नाम वाले पहाड़ों से भरा हुआ है, जैसे गौरीशंकर, स्वार्गारोहिणी, कैलाश, पार्वती पर्वत, और शिवलिंग आदि। इनसे धार्मिक लोकगाथाएँ भी गहरी जुड़ी हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं कि पहाड़ों के देवी-देवता हिमालय में बसे सीधे-सादे लोगों के जीवन में रच-बस गए हैं। इसलिये मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या अधिकतर भारतीय पर्वतारोही भी इन्हीं लोगों की तरह जीवन बसर करते हैं और पर्वतों को पूजते हैं? यह बात निश्चित है कि हिमालय क्षेत्र धार्मिक पूजा-अर्चना में इतना डूबा रहता है कि बहुत से पर्वतारोही भी यहाँ के कर्मकांड और धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने लगे हैं। अज्ञात का डर पर्वतारोही के अपनी क्षमता में विश्वास की कमी और पर्वतोें के साथ सामंजस्य से काम करने की योग्यता के अभाव के कारण वह इन तिनकों का सहारा ले बैठता है।
असल में पर्वतारोहण ही एकमात्र ऐसा खेल है जिसमें इसके शैकीनों न धर्म का विकल्प ढूँढने का प्रयास किया है। सर लेसली स्टीफन ‘एन एगनास्टिक्स अपोलोजी’ लिखने से पहले एक एंग्लिकन पादरी थे। वे एकमात्र ऐसे पर्वतारोही नहीं थे जिसमें पर्वतों ने पूजा का वैसा हल्का भाव उत्पन्न कर दिया, जैसा धार्मिक पूजा-भाव से पैदा होता है, और जिस पर उन्होंने विश्वास करना छोड़ दिया था। पर्वतों में उन्होंने पाया कि पर्वतों की आवाज रहस्यमय है और सम्भव है कुछ व्याख्याता इससे असहमत हों। लेकिन कम से कम मुझसे तो ये पर्वत इतनी कोमल और अचम्भित करने वाली भाषा में बातें करते हैं जो किसी भी मानव शिक्षक के लिये सम्भव नहीं है। लेसली स्टीफन के प्रभाव में आकर आर्नोल्डि लुन्न ने स्कूली दिनों में ईसाई धर्म नकार दिया और भौतिकवाद को अंगीकार किया। उन्होंने घोषणा की कि वे एक बुद्धिवादी बन गए थे और 19 वर्ष का होते-होते वे नास्तिक नहीं तो अज्ञेयवादी जरूर बन गए थे। परन्तु पर्वतों की मनमोहक दृश्यावली ने उन्हें यकीन दिला दिया कि चार्ल्स डारविन जैसे उत्पत्ति के विशुद्ध भौतिकवादी सिद्धान्त से हमारे सौन्दर्य-बोध के मूल का हल्का भी सम्बन्ध नहीं था।
फाइलो का कहना है कि समग्र प्रकृति अपने में एक ऐसी भाषा है जिसके जरिए ईश्वर अपने विचार प्रकट करते हैं, लेकिन विचार भाषा से अधिक महत्व रखते हैं।
इस तरह पर्वत किसी अन्य यथार्थ का प्रतीक या चित्र हो सकते हैं। लेकिन अगर चित्रों की इस तरह पूजा की जाए कि उन्हें ही यथार्थ मान लिया जाए तो यह सही माने में मूर्ति-पूजा ही होगी। पर्वतों के धर्म में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को पर्वत-पूजा के इस आरोप से अपने को बचाने के लिये तैयार रहना होगा। क्या हम विश्वास करते हैं कि नंदादेवी-पर्वत एक देवी है या प्रभु की रचना है?
इसी दलील को आगे बढ़ाते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पर्वत-सौन्दर्य की अभिव्यक्ति पर धर्म का रंग नहीं चढ़ाना चाहिए। सच्चा पर्वतारोही पर्वत-सौन्दर्य को विशुद्ध रहस्यवाद मानता है।
उपस्थिति
कितने पर्वतारोही होंगे जो आर.एल.जी. इरविग के इस कथन से सहमत होंगे कि ‘‘वर्ष दर वर्ष उनका यह विश्वास बढ़ता जाता है कि वे स्वयं और उनका परिवेश किसी अदृश्य शक्ति की कृपा पर निर्भर है।’’ क्या यही रहस्योद्घाटन विली अनसोइल्ड को उस समय हुआ जब 1963 में एवरेस्ट की चढ़ाई से पहले उन्होंने पहली बार नंदा देवी पर नजर डाली? कई वर्ष बाद वे अपनी पुत्री के साथ नंदा देवी की चढ़ाई के लिये फिर लौटे और उन्होंने अपनी पुत्री का नाम उस पर्वत के नाम पर ही रखा।
ऊँचाई पर तनाव-दबाव में आकर बहुत से पर्वतारोही यह महसूस करते हैं कि उनका कोई साथी-संगी है जबकि ऐसा कोई साथी वहाँ नहीं होता। एवरेस्ट के ऊँचे ढलानों पर दर्ज किए गए ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। 18 वर्ष पहले 6,150 मीटर ऊँचे भागीरथी-शिखर पर चढ़ाई के बाद हुई दुर्घटना का अनुभव मुझे याद आता है। शिखर से उतरते समय मेरा एक साथी रस्सी पर फिसल गया। उसने मुझे और मेरे एक अन्य साथी को भी नीचे घसीट लिया और इस गिरने को हम रोक नहीं पाए। परिणाम यह हुआ कि मुझे पूरी रात खुले में 20,000 फुट की ऊँचाई पर बैठ कर बितानी पड़ी मुझे भयंकर चोट लगी थी, मेरे पास न कुल्हाड़ी थी, न कांटा, और न कपड़े। मेरा एक साथी मर गया था और दूसरा मर रहा था। ठिठुरते हुए और पैर पटकते हुए मैंने सहायता दल को ऊँची आवाज में बुलाया लेकिन वह मेरे पास नहीं पहुँच सका। तब मैंने अपने जीवित साथी के मनोबल को बनाए रखने की कोशिश की। रात भर और बचाव दल द्वारा अगले सवेरे ढूँढ निकाले जाने तक मुझे लगा कि कोई प्राणी मेरे साथ है।
मैं उससे बातें करता रहा और वह मुझसे जीवित रहने की कोशिशों पर ध्यान केन्द्रित करने का आग्रह करता रहा जो कि मैं बराबर कर रहा था। वह कोई भूत जैसा नहीं बल्कि साथी जैसा दिखाई दे रहा था। मुझे उसकी मौजूदगी का एहसास हो रहा था। यह एहसास तब समाप्त हो गया जब मेरी- नजर बचाव दल पर पड़ी। मुझे निश्चित रूप से मालूम नहीं कि यह चीज या घटना क्या थी। क्या यह मेरे थके मन की भ्रांति थी? अगर ऐसा था भी तो इसने मुझ पर सकारात्मक प्रभाव डाला। या यह उससे अधिक कुछ था? शायद तनाव-दबाव में मेरे साथ एक लोकोत्तर आयाम जुड़ गया था।
काले शिखर पर चढ़ाई
जब पुलिस बल में मेरे साथियों को पता चला कि मैं पंजाब पुलिस एडवेंचर स्पोर्ट्स क्लब के पहले पर्वतारोहण अभियान की शुरुआत कर रहा हूँ तो कुछ लोगों ने चिन्तित स्वर में पूछा कि क्या दल में आप अकेले पर्वतारोही होंगे। यह क्लब एक वर्ष पहले स्थापित किया गया था। और मैं इसका संस्थापक अध्यक्ष था। उनकी यह पूछताछ उचित ही थी क्योंकि भारतीय पुलिस बल में पर्वतारोहण खेल जोर नहीं पकड़ पाया था। उनका शंका-निवारण करते हुए मैंने उन्हें बताया कि मैंने कुछ सिपाहियों को मूल और उन्नत पाठ्यक्रम के लिये प्रोत्साहित किया था।
इन्होंने ही अनुनय-विनय कर मुझे यह हल्का प्रयास करने को कहा ताकि पर्वतारोहण-शिक्षा के कुछ अवसर उन्हें उपलब्ध हो सकें। चढ़ाई के लिये मैंने टांस घाटी में ‘कालानाग’ को चुना। वहाँ पंजाब से, जहाँ मैं तैनात हूँ, आसानी से पहुँचा जा सकता था। साथ ही 30 वर्ष पहले शिखर की ढलानों को देखने के बाद से उस पर चढ़ने की कसमसाहट बनी हुई थी। 1955 में जैक गिब्सन की पहली चढ़ाई के बाद इस शिखर को कई बार सर किया जा चुका था। तो भी यह सोचा गया कि नए पर्वतारोहियों को इससे काफी कुछ सीखने को मिलेगा। हालाँकि यह पर्वत अनेक खाइयों और दरारों के लिये ख्यातिप्राप्त था ओर इसका मुझे बाद में अनुभव भी हुआ फिर भी इसके लिये यह प्रियोक्ति प्रचलित थी कि इस शिखर पर चढ़ना सुरक्षित है।
सिपाहियों का विनम्र निवेदन मान लेने के बाद समयाभाव और कचहरियों में पेशियों की तारीखें बदलवाकर मैं चंडीगढ़ से दो सप्ताह के भीतर एक टोली रवाना करने की तैयारी में पूरे मनोयोग से जुट गया। पर्वतारोहण के लिये ऐसे समय जमकर तैयारी करना हमेशा ही आवश्यक रहता है। जाॅन बनयन ने अपनी प्रतीक कथा ‘पिल्ग्रिम्स प्रोगेस’ में जिन मनःस्थिति को ‘अवसाद के दलदल’ का नाम दिया है, उसे पार करने के बाद पाँच जून 2001 को हमारी टोली संकरी में सड़क के सिरे पर पहुँच गई थी। मैंने अनुभवी कुली-एजेंट को तथा टोली के प्रबंधक और उपनेता विनोद से पहले ही कह दिया था कि वे मुझे परिवहन समस्याओं को लेकर परेशान न करें, और मुझे और मेरे पाँच सिपाहियों की पर्वतारोही टोली को चढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने दें और आस-पास की अनेक घाटियों पर चढ़ कर जाने में सहयोग दें।
जैक गिब्सन के परिदृश्य में बंदरपुंच हिम नदी के दक्षिण में विभिन्न स्की घाटियों और ‘टूथेक’ (दांत-दर्द) घाटी, उत्तर में यमनोत्री दर्रे का पारपथ और ‘हरकीदून’ में स्वर्गरोहिणी के प्रक्षिप्त भाग का पारपथ शामिल था। इससे पहले भी कुछ अवसरों पर मैंने इन दो पारपथों को तय किया था। इसके अलावा वहाँ हरसिल को जाने वाले धूमदार कंडी दर्रे सहित ‘स्वर्गरोहिणी’ के शिखरों और दर्रो की एक बड़ी महराब, पश्चिमी बंदरपुंच हिमनदी की निमंत्रणकारी खोज तथा 6102 मीटर ऊँचे सफेद शिखर या बंदरपुंच की चढ़ाई भी मौजूद थी।
1978 में उत्तर-पश्चिम में 6316 मीटर ऊँचे बंदरपुंच पर चढ़ते हुए मैंने इस सफेद शिखर को देखा था। 5,984 मीटर यानी 19,633 फुट ऊँची और पहले सर न की हुई चोटी स्वर्गरोहिणी-V और 5845 मीटर यानी 19,177 फुट ऊँची चोटी स्वर्गरोहिणी-VI पर भविष्य में चढ़ने के लिये रुइनसरा गाद के उत्तर में स्वर्गरोहिणी शिखरों को देखने के आकर्षण के कारण भी मेरा मन मचल उठा। लेकिन जिसे मैं जरूरी समझता था, उसे मैंने यूँ ही छोड़ दिया। छोड़ा भी उस क्षेत्र में जिसका सर्वोत्तम उल्लेख सर लेसली स्टीफन ने ‘द प्लेग्राउंड ऑफ यूरोप-1870’ में इन शब्दों में किया था: ‘‘वन-क्षेत्र और बर्फ-क्षेत्र के बीच काव्यात्मकता से परिपूर्ण पर्वत क्षेत्र हैं। वहाँ ऊपर चढ़ते हुए आप महसूस करते हैं कि दुनिया की चिन्ताओं का गट्ठर आपके कंधों से उतर गया है और आप अंततः विषाद के दलदल को पार कर गए हैं (बनयन)। वहाँ आरम्भिक महीनों में आप घुटनों तक फूलों के बीच होकर गुजरते हैं, और इनमें से प्रत्येक फूल एक साकार कविता का अंग प्रतीत होता है।’’
काले शिखर पर चढ़ने के बाद झील में रुइनसर ताल गया, जिसे विक्रम सेठ ने स्वर्गिक झील से उतरा बताया है। वहाँ चारों तरफ कई एकड़ इलाके में सफेद, बैंगनी और पीले एनेमोन फूलों की छटा बिखरी थी। वहाँ और भी फूल थे जिनकी पहचान मैंने नरी धामी के सहयोग से की और जिनका उल्लेख मैं यहाँ करना चाहूँगा। ये फूल थे: बिस्टोर्टा, हेकेलिया यूनीकाटा, प्राइमुला इन्वोलूक्राटा, प्राइमुला मैक्रोफिला, म्योरोटिस, अल्पेस्टस (अल्पाइन मुझे-भूलो-नहीं), एलियम ह्यूमिब (बासंती प्याज), जेरेनियम, काटन ईस्टर थाइमस, बटरकप रनुकुलस, पेडुकुलारिस (लाउसवोर्ट), लिलियम नानुम, डक्टाइलोरिजा, हटजिविया, लिलियम पेंटुलम, ब्लैक पी, थर्मोप्सिस बरबाटा, एनेमोन, हिमालयी पीओनी-पाइनीया, इमोडी (बैंगनी और सफेद) और ब्रायर थेच’। इनके रंगों की छटा मेरे वाकमैन के बीथोवन संगीत से पुलकायमान हो उठी। मैं वहाँ एक दिन और एक रात ठहरा। बीच में चाय के समय बंबई से आई हुई उन दो नाटी युवतियों की मेजबानी की जो बाली दर्रे के लिये जाती हुई झील के दूसरी तरफ ठहरी हुई थीं।
अब पर्वतारोहण की बात पर लौटें। टांस का मार्ग मैपिल, बलून, स्प्रूस के पनझड़ी शंक्रधारी जंगलों के बीच से होकर जाता था और तालुक के पास खूबानी वृक्षों के नीचे के क्षण आनंददायक थे। पकड़ में न आने वाले पर्वतीय पक्षियों के आह्लादकारी स्वरों से तन की सुस्ती उड़नछू हो जाती और हिमालयी पाई, कठफोड़वा और रेडस्टार्ट पक्षियों को देखने का सौभाग्य मिलता। अगला पड़ाव ओशला था। इसके बाद हम शादूलों और देवदार वृक्षों के वन से गुजरे। वहाँ भी पक्षियों की आंखमिचैनी का खेल चलता रहा। हमने नदी के किनारे सफेद टोपीधारी और सीसे के रंग के रेडस्टार्ट पक्षी तथा कस्तूरिकाएं देखीं। देवसू बुगियाल में टांस और रुइनसर नदियों का संगम है। वहाँ हमें काले शिखर की पहली झलक मिली। शिखर शंकु सांप के सिर से मिलता-जुलता होने के कारण ‘कालानाग’ कहलाता था। यह स्थान स्वर्गिक रुइनसर ताल में हमारे शिविर से 18 किलोमीटर दूर था। इसके कुछ ऊपर कुलियों की इतनी भीड़ थी कि आप एकांत का मजा नहीं ले सकते थे। लेकिन मैं लौटते हुए इन लोगों के बिना यहाँ पड़ाव डाल सका था। इसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ।
आधार-शिविर कियारकोटी में 4,415 मीटर ऊँचाई पर घास के बड़े मैदान में 8 जून तक बनाया जा चुका था। इस मैदान में स्वर्गरोहिणी-I के ढालों से पानी निरन्तर आता रहता है। यहाँ से कुली लौट गए और हम कालानाग, स्वर्गरोहिणी, बंदरपुंच हिमनदी और धूमधार कांडी दर्रे का नजारा देखने में सफल हुए। हालाँकि वर्ष के इस कालखंड में गढ़वाल का मौसम सामान्य रहता है तो भी शाम को वहाँ बौछारें पड़ी और ऊपरी इलाकों में हल्की बर्फ भी गिरी। इस आधार शिविर का रास्ता इसलिये भी याद रहेगा कि वहाँ तरह-तरह के मनभावन फूलों का रंग बिखरा हुआ था।
रेडियो द्वारा मानसून के एक सप्ताह पहले ही आ जाने की भविष्यवाणी किए जाने पर ऊँचाई पर गए गाइड ने मुझ पर दबाव डाला कि मैं जलवायु के अनुकूल अपने को ढालने का कार्यक्रम छोड़कर जल्द से जल्द अपने मुख्य उद्देश्य के लिये काम करूँ। मुझे लगता है कि इस दबाव के पीछे चढ़ाई चढ़ने वाले दल में घर लौटने की ललक थी।
अगले दिन हमने घास वाली ढलानों, दो नालों और कंकरियों की फिसलन-भरी ढलान पर से सामान ले जाकर 5,050 मीटर यानी 16,534 फुट की ऊँचाई पर ‘धारोधारी चरागाह’ में आगे का आधार-शिविर स्थापित किया। वह दिन इसलिये अच्छा रहा कि हमें कम-से-कम पन्द्रह-पन्द्रह के झुंड में भरल दिखाई दिए। इन्हें हिमालय की ‘नीली भेड़’ भी कहा जाता है लेकिन अफसोस यह रहा कि मैं अपना कैमरा पीछे छोड़ आया था। खलल पड़ने पर आराम कर रहे मोनल ने शोर मचाते हुए विरोध प्रकट किया। उसने बुरा न माना होता अगर उसने यह समझ लिया होता कि हम तो धातु जैसे चमकते हरे सिर और कलाठी वाली साथिन की झलक पाना चाहते हैं। तभी हमने उसे पहाड़ के पार्श्व से उड़कर जाते देखा।
10 जून को पर्वतारोही टोली साफ मौसम में ऊपर चढ़ते हुए एबीसी पर पहुँच गई। वहाँ जोर का शोर मचाते हुए मोनल का फिर सामना हुआ। घोंसले में अपने आराम में खलल पड़ने का उसने बहुत विरोध किया। हमारे कुछ पर्वतारोहियों ने शिविर से पहले भरल के दो बड़े झुंडों में से एक झुंड को देखा। शिविर से हम पर्वतशृंखला की सभी चोटियों का और दाईं तरफ नीचे बहती हिमनदी देखने का भरपूर आनंद ले सके।
अगले दो दिन हमने शिखर के ऊपर की ऊँचाइयों के मौसम के अनुकूल अपने को ढालने, नीचे लुढकने फिसलने, समान को कालानाग हिमनदी तक ले जाने और उसे 5,500 मीटर की ऊँचाई पर बर्फ से ढके मैदान पर उतार फेंकने में लगाए। वहाँ से बरसुखा, पीतदंत और छोटानाग तथा स्वर्गरोहिणी की कुछ चोटियाँ देखी जा सकती थीं। मौसम अनिश्चित था और हिमपात अधिक समय तक होता रहा। इससे पर्वत पर चढ़ना काफी कठिन हो गया।
5,700 मीटर यानी 18,500 फुट की ऊँचाई पर शिविर-एक (चढ़ाई शिविर-एक) पर हम अंततः 13 जून को पहुँचे। यह शिविर कालानाग प्रपात के पास बर्फीले टीले पर स्थापित था। इसके बाद मौसम खराब हो गया और तीन रात हमें इसे झेलते रहने को मजबूर होना पड़ा। इस दौरान खाद्य सामग्री और आहार कम होता जा रहा था। इस अवधि में मैंने पढ़ा कि कैसे कुत्तों और बिल्लियों सान्निध्य से दमा हो जाता है। एल्डस हक्सले की पुस्तक ‘द ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ और नायिका लेनिना के बारे में पढ़ा। इस दौरान पत्र भी लिखे, डायरी में भी अपने विचार लिखे आस-पास के दृश्यों के चित्र बनाए और हल्के से दस्तों का इलाज भी किया। सबको लगा कि हमारा विश्राम पूर्वनिश्चित था।
15 जून को सारी रसद समाप्त हो गई और अगर अगले दिन मौसम खराब रहता तो हमें नीचे उतरना पड़ता क्योंकि एक और चढ़ाई के लिये पर्याप्त खाद्य सामग्री मिलना अनिश्चित था। निर्णय करने में देरी का लाभ हुआ क्योंकि शाम तक मौसम सुधर गया और बाहर झांकने/निकलने का अवसर मिल गया। बर्फ भी इतनी पड़ी कि शिखर पर चढ़ने की परिस्थिति अनुकूल जान पड़ी।
शिखर-दिवस (16 जून)
जल्दी रवाना होने से पहले की तैयारी हमने शेष बचे चावल, दाल, कुछ पोषक और गरमागरम चीजों के खान-पान से आरम्भ की। चढ़ाई करने वाले छह सदस्य अर्थात स्वयं मैं, कसी कदकाठी वाली उत्तरांचली लड़की नारी धामी, कुलविंदर कुमार, मोहन लाल, गुरबचन सिंह, दौलत नेगी और ऊँची चढ़ाई के दो सहायक भगत सिंह रावत और चंदन सिंह आधी रात के कुछ ही बाद रवाना हुए। मुझे याद है तब बहुत ठंड नहीं थी। हवा भी ठहरी हुई थी। जैसे ही हम ऊपर चढ़ने लगे, हल्की बर्फ पड़ने लगी। तभी ओर्चों से मार्ग जगमगा उठा। हम गेरूर और कालानाग के बीच घाटी की ओर हिमदरारों के बीच से रास्ता निकालते हुए आगे बढ़ते गए। नारी, कुलविंदर, भगत सिंह और चंदन एक रस्सी पर थे जबकि मोहनलाल, गुरुबचन, दौलत और मैं दूसरी रस्सी पर थे। नारी अपनी रस्सी से बढ़ रही थी। इस महिला ने चोटी तक का सारा मार्ग बर्फ की नरम परत से लांघते हुए तय किया था जो अविश्वसनीय लगता है। जहाँ तक मेरी रस्सी का सम्बन्ध है, मोहन और मैं बारी-बारी से अगुवाई करते। मेरा आग्रह था कि सारी चढ़ाई तक सभी पर्वतारोही रस्सी से बंधे रहें।
जब हम ऊपर चढ़ रहे थे, हममें उदासीनता की भावना व्याप्त थी। मेरी सलाह में इसका कारण वायु का न होना और बर्फ गिरने में कमी थी। सूर्योदय के समय मेरी रस्सी लगभग घाटी के ऊपर थी जबकि नारी और अन्य लोग आगे निकल गए थे। तब तक हिमपात समाप्त हो गया था। हालाँकि हमारे चारों ओर बादल ही बादल थे, फिर भी बाकी चढ़ाई में कोई बर्फ नहीं पड़ी क्योंकि वातावरण बर्फ के अनुकूल नहीं था, कांटों-कीलों के बाहर निकलने और माँस की गाँठ बन जाने के कारण चढ़ाई में कठिनाई हुई। यह दिक्कत तब तक चलती रही जब तक मैंने अपना काँटा निकाल नहीं लिया।
19,500 फुट की ऊँचाई पर हम कुछ विश्राम के लिये रुके। वहाँ से हम बंदरपुंच की उत्तरी ढलानों और इसकी छोटी पश्चिमी चोटी, स्वर्गरोहिणी, छोटानाग, और यहाँ तक कि अपने यिरकोटी आधार-शिविर को देख सकते थे। आधार-शिविर पर बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे लोगों से अक्सर वाकी-टाकी से बातचीत होती रहती थी। अब चढ़ाई कुल मिलाकर लंबी और 30 से 45 डिग्री की आसान ढाल पर थी लेकिन वह नरम बर्फ के कारण बहुत थकाने वाली थी। अंतिम शिखर की ढलानें बहुत लंबी दिखाई देती थीं। मेरी बेचैनी इसलिये और बढ़ गई कि शिखर पिरामिड के आधार-क्षेत्र में मैं प्रछन्न हिमदरार में गिर गया। बिना कील कांटों के मैं सब तरफ पड़ी बर्फ के बीच अंधेरे में भटकने लगा। मेरे लड़खड़ाते शरीर के साथ जरा भी स्पर्श होने से बर्फ टूटकर गिरने लगती।
अपने सुरक्षा साजो-सामान और नीचे दरार में औरों द्वारा लटकाई गई रस्सी के सहारे तीसरे पहर साढ़े तीन बजे मैं अपने थके बदन को दरार के बाहर निकाल सका। वहाँ अन्य सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। यह लंबी चढ़ाई थी। कम बर्फ पड़ने के कारण हम सभी आठों व्यक्ति शिखर पर पहुँच गए। हालाँकि सब तरफ बादल ही बादल थे, हमारे चित्रों में शिखर-आधार और चोटी पर की छजली साफ दिखाई देती है। धार्मिक अनुष्ठानों की अध्यक्षता नारी ने की। हमने आधार-शिविर पर पैदल पहुँचें यात्रियों से बातचीत की और नीचे उतरने से पहले उनके धन्यवाद-ज्ञापन संदेशों को स्वीकार किया। मैंने शिविर में सबसे अंत में प्रवेश किया। मैं इस बात से संतुष्ट था कि एक ही दिन में 16 घंटे चलने के बावजूद सभी सुरक्षित वापस पहुँच गए हैं। एक बार तो नारी उस समय चिंतित दिखाई दी जब मुझे अपने सामने के मार्ग का मतिभ्रम हो गया और मैं कह उठा कि लोक निर्माण विभाग के सड़क बनाने वाले लोग हमारे यहाँ आ धमके हैं।
यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि चढ़ाई चढ़ने वाले सदस्यों की औसत आयु 31 वर्ष थी। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, अगर घुटनों को ही ध्यान में रखा जाए तो 48 वर्ष की आयु में पहाड़ से नीचे उतरने में मुझे अपना समय लेने का हक था। इसके अलावा शिखर पर चढ़ने में काफी समय लगा 2,260 फुट की सीधी ऊँचाई किसी महिला के लिये एक ही दिन में सामान्य रूप से पार कर लेना कोई आसान काम नहीं है। 17 जून को सभी पर्वतारोही थक कर चूर हो गए थे। उनके पास न तो कोई खाना और न कोई राशन था। इतना ही नहीं, चढ़ाई-शिविर पर गैस समाप्त हो गई थी। इसलिये जल्द से जल्द नीचे जाने के सिवाए कोई चारा नहीं था। शिविर खाली कर दिया गया और हम 39 घंटों में पहली बार ठीक से भोजन करने के लिये ए बी सी तक नीचे उतरे। यह शिविर भी तोड़ दिया गया और उसी शाम हम निचले आधार-शिविर के लिये रवाना हो गए। वहाँ हमने पाया कि विनोद, रमेश और प्रेम की पदयात्री टोली ‘हरकीदून’ के लिये पैदल जा चुकी हैं ताकि हम मौसमी सैर-सपाटे का वह कार्यक्रम पूरा कर सकें।
पीछे मुड़कर देखते हैं तो यह उल्लेख करना जरूरी लगता है कि यह क्षेत्र, विशेष रूप से बंदरपुंच हिमनदी और रुईसर के आस-पास का इलाका हिमालय के पर्वतारोहियों के लिये श्रेष्ठ स्थल हैं। प्राकृतिक इतिहास का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पाठ पढ़ाने के साथ-साथ रूईसर गाद के दोनों तरफ की घाटियाँ और बेहड़ स्कीइंग और चट्टानी चढ़ाई का अच्छा आधार प्रदान करते हैं। गौरव-गाथा बने जैक गिब्सन द्वारा अर्द्ध शताब्दि पहले आरम्भ किए गए अध्ययन और अभ्यासों के बाद इस क्षेत्र का उपयोग इन्हीं कामों के लिये किया जाता रहा है। मुझे भी भारतीय सैन्य अकादमी के उन कैडेटों को देखने का मौका मिला जो काले शिखर की चढ़ाई पूर्व परीक्षणों के दौर से गुजर रहे थे। आखिर हिमालय में इस तरह के क्षेत्र तो गिने-चुने ही हैं जहाँ युवा पर्वतारोही शिखरों को आसानी से सर कर सकते हैं।
(भारतीय पुलिस सेवा के डा. पी.एम. दास पटियाला (पंजाब) की इंडिया रिजर्व बटालियन में इंस्पेक्टर-जेनरल हैं।)