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पर्यावरण विमर्श
मैं पर्यावरण पर चर्चा करने से पहले प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंद पंत की पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगी, जो आज के संदर्भ में बिल्कुल फिट बैठती है-
छोड़ द्रुभों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बालेवेर बाल जाल में
कैसे उलझा दूं लोचन
भूल अभी से इस जग को।
- सुमित्रानंदन पंत
हम आज प्रकृति से ज्यों-ज्यों दूर होते जा रहे हैं, अपने लिए मुसीबतें खड़ी करते जा रहे हैं। आज हम प्रगति की राह के राही हैं और प्रगति करते-करते इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं, जहां ‘द्रुमों की मृदु छाया और प्रकृति से माया’ तोड़ चुके हैं। अपने विकास के लिए हम लगातार प्रकृति का दोहन करते चले जा रहे हैं, जो हमारे लिए ही विनाशकारी साबित हो रहा है। हम अगर प्रकृति के साथ इसी प्रकार छेड़छाड़ करते रहेंगे तो वह भी हमसे प्रतिशोध लेगी ही।
सौर परिवार में केवल पृथ्वी पर ही पौधों और प्राणियों के विकास के लिए अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध है, इसलिए इसे ‘वसुंधरा’ कहा गया है। पृथ्वी पर व्याप्त पर्यावरण प्रकृति का श्रेष्ठ वरदहस्त है। भारत में पर्यावरण के प्रति जागरूकता आदिकाल से रही है, यही कारण है कि यहां पृथ्वी या धरातल को मां, पेड़ों को देवता, जीवों को ईश्वर का अंश एवं जल, वायु और मौसम को भी देवता माना गया है। अब हम वेदों पर नजर डाले तो यज्ञ के महत्व का पता चलता है, जिसमें सभी देवों का आह्वान किया जाता है ताकि वे प्रसन्न रहें और पर्यावरण मानव के अनुकूल रहे तथा मानव-जीवन स्वस्थ, सुखी और समृद्ध रहे। मानव आचरण और अनुभूति से जोड़ने के लिए पर्यावरण को धर्म से जोड़कर देखा गया है। प्राचीनकाल में धर्म ही एकमात्र ऐसा साधन था, जो जन-जन को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना सकता था। पीढ़ी -दर पीढ़ी यह प्रक्रिया चलती रही, जिस कारण पर्यावरण संबंधी संकट न्यूनतम थे। अपने हजार वर्ष के सभ्यता काल में पर्यावरण की कोई विकट समस्या नहीं झेलनी पड़ी, जो विगत कुछ सौ वर्षों के तीव्र प्रगतिकाल के दौरान झेलनी पड़ रही है। आज भी गांव का अनपढ़ व्यक्ति पेड़ के प्रति संवेदनशील है, जबकि शहरी आदमी यह संवेदना खो चुका है और कंक्रीट के घने जंगल बनाता जा रहा है। आधुनिक नगर निर्माण के लिए वनस्पतियों का सफाया आज आवश्यक समझा जा रहा है, जबकि प्राचीन भारत के वास्तुकार ‘वाटिका नगर’ (Garden City) की मान्यता पर नगर निर्माण कर पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने का प्रायस करते रहे।
आज का युग विज्ञान और तकनीक के विकास का युग है। इस तकनीक ने आर्थिक-सामाजिक प्रगति को नया आयाम दिया है। कृषि पशुपालन, उत्खनन, परिवहन, उद्योग और सामरिक महत्व के संसाधनों के लिए उच्च तकनीक आवश्यक है। तकनीकी विकास के बल पर आज मानव विकास की जिन ऊंचाइयों को छू रहा है उसकी कल्पना तक कुछ वर्ष पहले नहीं की जा सकती थी। कम्प्यूटर का विकास तकनीक का ऐसा करिश्मा है, जो जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित कर रहा है, लेकिन विज्ञान और तकनीकी विकास का यह युग भयावह दृश्य भी उपस्थित कर रहा है। अधिक ऊर्जा उपभोग से पर्यावरण अवक्रमण जैव-जगत के लिए संकट बनता जा रहा है। आज परिवहन, उद्योग-धंधों के विकास आदि के कारण ध्वनि-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, वायु-प्रदुषण जैसी समस्याएं जन-जीवन को संकटमय बना रही हैं। नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त कर चुके पर्यावरणविद डॉ. आर. के. पचौरी का कहना है कि ‘अगर आम आदमी भी ऊर्जा की बचत को अपनी आदत में शुमार कर ले तो काफी हद तक धरती का उद्धार हो सकता है। इसका आसान तरीका यह है कि हर इंसान कुछ संकल्प लेकर आज से ही उन पर अमल शुरू कर दे। इस दिशा में दूसरा जरूरी कदम इंडस्ट्रियल सेक्टर को उठाना है, वह है फ़ैक्टरियों में कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाना। हालांकि कुछ बदलने का इरादा है, लेकिन ज्यादातर उद्योग अभी नींद से नहीं जाग पाए हैं। जाहिर है कि आने वाली पीढ़ियों और हमारी पृथ्वी की सेहत के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है।’
आज पर्यावरण से उत्पन्न खतरे इतने भयावह होते जा रहे हैं कि विश्व समुदाय इससे चिंतित हो उठा है और पर्यावरण संतुलन के प्रति लोगों को जागरूक करने के उपाय किए जा रहे हैं। आज पर्यावरण संबंधी जो समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं, वे मानव-जनित हैं। अगर हम आज नहीं चेते तो स्थिति कितनी भयावह होगी, यह पी सुधीर के शब्दों में, पिछले सौ वर्षों में वातावरण में तापमान करीब 1 डिग्री से अधिक बढ़ गया है और तापमान प्रतिवर्ष तीन प्रतिशत की दर से बढ़ता जा रहा है। अगर तापमान बढ़ने की यही गति जारी रही, तो अगले तीस साल में वातावरण का तापमान 2 डिग्री से भी अधिक बढ़ जाएगा। यह होने से पूर्व ही वातावरण पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। गंगा, यमुना आदि नदियां सूख जाएंगी। वहीं दूसरी ओर तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पर जमा बर्फ पिघलकर समुद्र में पहुंचेगा जिससे समुद्र का जल-स्तर बढ़ेगा और तटीय एवं समुद्र तल से नीचे अवस्थित देश-प्रदेश जलमग्न हो जाएंगे।
आज विश्व के अनेक औद्योगिक विकसित देश अपने प्राकृतिक अपने संसाधनों का संरक्षण आरंभ कर चुके हैं। विकसित देश अपने संसाधनों का संरक्षण कर अन्य विकासशील देशों से संसाधनों का आयात कर रहे हैं। पश्चिमी जर्मनी, फ्रांस, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका इस दिशा में अग्रणी देश हैं। बीसवीं शताब्दी जहां एक ओर आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए गौरवान्वित रही, वहीं अनेक पर्यावरणीय समस्याओं के कारण संकट की शताब्दी भी बन गई। वर्तमान में हम देख रहे हैं कि मौसम का संतुलन गड़बड़ा गया है। हाल के वर्षों में जाड़े का आरंभ देर से हो रहा है और अवधि भी सीमित हो गई है। इसी तरह ग्रीष्म ऋतु में भी इस वर्ष (2009) अप्रैल के महीने में तापमान 45-46 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। तापमान में हुए परिवर्तन के कारण आज सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि चक्रवात इत्यादि समस्याओं से जन-जीवन तबाह हो रहा है। जान-माल की क्षति हो रही है। 22 अप्रैल, 2009 को भारत मौसम विज्ञान केंद्र, रांची द्वारा जारी किए गए आंकड़े दर्शाते हैं कि पिछले दस वर्षों में पहली बार अधिकतम तापमान 42 डिग्री सेल्सियस को छू गया है। 1999 में 30 अप्रैल को रांची का अधिकतम तापमान 42.6 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। 21 अप्रैल 2009 को जमशेदपुर का तामपान 45.6 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। इसी प्रकार तापमान के कारण फसलों का उत्पादन घट जाएगा, जबकि बढ़ती आबादी की क्षुधा- निवारण के लिए अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। वर्तमान में भारत की खाद्यान्न उत्पादकता चीन से आधी है। लगातार यह प्रयास किया जा रहा है कि यह उत्पादकता चीन के बराबर की जाए, लेकिन तापमान वृद्धि के कारण यह बढ़ने की बजाए घटती ही जाएगी। पी. सुधीर की माने तो तापमान बढ़ने से बिना मौसम बरसात लगभग हर भाग में होगी। बिन मौसम बरसात के साथ पानी की अधिकता हो जाएगी, सूखा भी भयंकर बढ़ेगा। मौसम में विनाशकारी परिवर्तन होगा। नदियों में विनाशकारी बाढ़ आएगी। यदि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पर नियंत्रण अगले 10 साल में नहीं लाया गया तो वर्तमान पीढ़ी अपने जीवन काल में ही अपनी विनाशलीला स्वयं देखेगी। जलवायु परिवर्तन के विषय में डॉ. आर.के. पचौरी कहते हैं, ‘यह साबित हो चुका है कि मानवीय गतिविधियों के कारण ही आज जलवायु परिवर्तन की समस्या पैदा हुई है। इतिहास पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि माया सभ्यता सिंधु घाटी और मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताओं के लुप्त होने के पीछे भी ऐसे ही कारण रहे हैं। ताजा उदाहरण देखना चाहें तो दक्षिण-पूर्व एशिया के खमेर साम्राज्य का जिक्र किया जा सकता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन मनुष्यजनित है तथा मानव ही अपना व्यवहार बदलकर इस खतरे को कम कर सकता है।”
मौसमविदों का कहना है कि समुद्र और जमीन लगातार गर्म होते जा रहे हैं। समुद्री जल के गर्म होने से लहरों का तूफान उठ रहा है और बाढ़ जैसी विभीषिका देखने को मिल रही है। अभी हाल में ‘आयला’ से आधिकारिक तौर पर सवा सौ जानें गई हैं और लाखों लोग बेघर हो गए। लाखों पेड़ तूफान से धराशायी हो गए। पर्यावरण में पेड़ों के महत्व से सभी वाकिफ हैं। वैसे भी बढ़ती जनसंख्या के कारण लगातार पेड़ों की कटाई हो रही है। वैसे तो लाखों पेड़ों का नष्ट हो जाना चिंताजनक हैं। सन् 1995 के बाद लगातार चक्रवात का सिलसिला चल पड़ा है। विश्व भर में चक्रवातों की बारंबारता में वृद्धि हुई है। अमेरिका में वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर चक्रवाती तूफान का बढ़ना इसी तरह जारी रहा तो वर्षा का चक्र गड़बड़ा जाएगा, जिस कारण सूखा और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होगी। इन सबके मूल में हैं, पर्यावरण की उपेक्षा।
विदेशों में पर्यावरण को लेकर योजनाबद्ध तरीके से इसके निदान के लिए नीतियां बनाई जा रही हैं, कार्यक्रम तय हो रहे हैं और ग्लोबल सेमिनार हो रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसी गंभीरता दिख नहीं रही है। पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान कार्बन डाइऑक्साइड से होता है। कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन पेड़ों से ही बनता है और हम अंधाधुंध पेड़ों की कटाई करते जा रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में वनाच्छादित दायरा कुल भूमि का 19.27 प्रतिशत है। यह कम-से-कम एक तिहाई हो तो सामान्य स्थिति मानी जाती है। जिन वनों पर देश की लगभग 95 करोड़ मानव और 45 करोड़ पशु आबादी निर्भर हैं, हम लगातार उनका सफाया करते जा रहे हैं। सरकारी प्रतिबंध के बावजूद गैर-कानूनी तरीके से वनों की कटाई हो रही है। वन-संरक्षण और चिपको जैसे आंदोलन चलाकर नए पौधों को लगाएं और उनका संरक्षण करें तो कुछ हद तक हम सफलता पा सकते हैं।
पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ाने वाले कारकों में मुख्य रूप से सड़कों पर दौड़ने वाले वाहन, फ़ैक्टरियों की बढ़ती तादाद, एयरकंडीशनर आदि है। बिजली उत्पादन में कोयले का इस्तेमाल होता है और इनसे निकलने वाली गैस मौसम को प्रभावित करती है। हमें ऊर्जा की बचत की आदत डालनी होगी। बिजली उत्पादन में कोयले का इस्तेमाल होता है, हमें इस तकनीक में परिवर्तन लाकर वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। कम कोयले से ज्यादा बिजली उत्पादन करने में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। विकास कार्यक्रमों की योजना बनाते समय तथा बहुमंजिली इमारतों को बनाते समय हरीतिमा यानी पेड़-पौधों और वर्षा जल-संरक्षण की व्यवस्था पर बल देना होगा।
आज विश्व के अनेक औद्योगिक विकसित देश अपने प्राकृतिक अपने संसाधनों का संरक्षण आरंभ कर चुके हैं। विकसित देश अपने संसाधनों का संरक्षण कर अन्य विकासशील देशों से संसाधनों का आयात कर रहे हैं। पश्चिमी जर्मनी, फ्रांस, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका इस दिशा में अग्रणी देश हैं। बीसवीं शताब्दी जहां एक ओर आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए गौरवान्वित रही, वहीं अनेक पर्यावरणीय समस्याओं के कारण संकट की शताब्दी भी बन गई। इस संकट का प्रमुख कारण मानव-प्रकृति का बिगड़ता संतुलन है। अतः यह आवश्यक है कि पर्यावरण के अवनयन के प्रमुख कारकों को समझा जाए और इनके संरक्षण के उपाय किए जाएं तथा विकास के रथ को गतिमान रखने के लिए वैकल्पिक उपायों की खोज की जाए। आज पर्यावरण अवनयन से उपजे भय के कारण समस्त विश्व उद्वेलित है। वर्तमान समय में विश्व समुदाय में जो भय देखने को मिल रहा है, वह आज की भयावह स्थिति का आईना दिखलाता नजर आता है। हाल के वर्षों में तापमान असंतुलन, बाढ़ सूखा, हिमपात, आंधी, बवंडर की वृद्धि के लिए वायुमंडल की गुणवत्ता का ह्रास प्रमुख कारण बताया जा रहा है।
उपलब्धियों के साथ संलग्न पर्यावरणीय संकट संपूर्ण मानवता के लिए प्रश्नचिन्ह बनता जा रहा है। यदि यही ढंग रहा तो पृथ्वी जीवनविहीन हो सकती है। ओजोन गैस के आवरण को जहरीली गैस से क्षति इसका एक उदाहरण है। मौसम और जलवायु के स्वभाव में इतना परिवर्तन आ सकता है कि बाढ़ और सूखे के प्रकोप से जन-धन की अपार क्षति हो सकती है। अतः आवश्यक है कि पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वैकल्पिक व्यवस्था के उपाय किए जाएं। हर व्यक्ति अगर जागरुक हो जाए और संकल्प कर ले कि कम-से-कम ऊर्जा खपत करेगा, पर्यावरण को सुंदर और संतुलित बनाने में अपना योगदान देगा तो इस खतरे को कुछ तो कम किया ही जा सकता है, क्योंकि मानवीय गतिविधियां जलवायु को प्रभावित कर रही हैं।
1. पर्यावरण और पारिस्थितिकी, डॉ. बी.पी.राव और डॉ. वी.के. श्रीवास्तव, पृ.14
2. हिंदुस्तान, 5 जून 2009
3. हिंदुस्तान, पी.सुधीर, 10 जून 2009
व्याख्याता हिंदी विभाग, रामगढ़ महाविद्यालय, रामगढ़ पिन-809122 (झारखंड)
छोड़ द्रुभों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बालेवेर बाल जाल में
कैसे उलझा दूं लोचन
भूल अभी से इस जग को।
- सुमित्रानंदन पंत
हम आज प्रकृति से ज्यों-ज्यों दूर होते जा रहे हैं, अपने लिए मुसीबतें खड़ी करते जा रहे हैं। आज हम प्रगति की राह के राही हैं और प्रगति करते-करते इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं, जहां ‘द्रुमों की मृदु छाया और प्रकृति से माया’ तोड़ चुके हैं। अपने विकास के लिए हम लगातार प्रकृति का दोहन करते चले जा रहे हैं, जो हमारे लिए ही विनाशकारी साबित हो रहा है। हम अगर प्रकृति के साथ इसी प्रकार छेड़छाड़ करते रहेंगे तो वह भी हमसे प्रतिशोध लेगी ही।
सौर परिवार में केवल पृथ्वी पर ही पौधों और प्राणियों के विकास के लिए अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध है, इसलिए इसे ‘वसुंधरा’ कहा गया है। पृथ्वी पर व्याप्त पर्यावरण प्रकृति का श्रेष्ठ वरदहस्त है। भारत में पर्यावरण के प्रति जागरूकता आदिकाल से रही है, यही कारण है कि यहां पृथ्वी या धरातल को मां, पेड़ों को देवता, जीवों को ईश्वर का अंश एवं जल, वायु और मौसम को भी देवता माना गया है। अब हम वेदों पर नजर डाले तो यज्ञ के महत्व का पता चलता है, जिसमें सभी देवों का आह्वान किया जाता है ताकि वे प्रसन्न रहें और पर्यावरण मानव के अनुकूल रहे तथा मानव-जीवन स्वस्थ, सुखी और समृद्ध रहे। मानव आचरण और अनुभूति से जोड़ने के लिए पर्यावरण को धर्म से जोड़कर देखा गया है। प्राचीनकाल में धर्म ही एकमात्र ऐसा साधन था, जो जन-जन को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना सकता था। पीढ़ी -दर पीढ़ी यह प्रक्रिया चलती रही, जिस कारण पर्यावरण संबंधी संकट न्यूनतम थे। अपने हजार वर्ष के सभ्यता काल में पर्यावरण की कोई विकट समस्या नहीं झेलनी पड़ी, जो विगत कुछ सौ वर्षों के तीव्र प्रगतिकाल के दौरान झेलनी पड़ रही है। आज भी गांव का अनपढ़ व्यक्ति पेड़ के प्रति संवेदनशील है, जबकि शहरी आदमी यह संवेदना खो चुका है और कंक्रीट के घने जंगल बनाता जा रहा है। आधुनिक नगर निर्माण के लिए वनस्पतियों का सफाया आज आवश्यक समझा जा रहा है, जबकि प्राचीन भारत के वास्तुकार ‘वाटिका नगर’ (Garden City) की मान्यता पर नगर निर्माण कर पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने का प्रायस करते रहे।
आज का युग विज्ञान और तकनीक के विकास का युग है। इस तकनीक ने आर्थिक-सामाजिक प्रगति को नया आयाम दिया है। कृषि पशुपालन, उत्खनन, परिवहन, उद्योग और सामरिक महत्व के संसाधनों के लिए उच्च तकनीक आवश्यक है। तकनीकी विकास के बल पर आज मानव विकास की जिन ऊंचाइयों को छू रहा है उसकी कल्पना तक कुछ वर्ष पहले नहीं की जा सकती थी। कम्प्यूटर का विकास तकनीक का ऐसा करिश्मा है, जो जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित कर रहा है, लेकिन विज्ञान और तकनीकी विकास का यह युग भयावह दृश्य भी उपस्थित कर रहा है। अधिक ऊर्जा उपभोग से पर्यावरण अवक्रमण जैव-जगत के लिए संकट बनता जा रहा है। आज परिवहन, उद्योग-धंधों के विकास आदि के कारण ध्वनि-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, वायु-प्रदुषण जैसी समस्याएं जन-जीवन को संकटमय बना रही हैं। नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त कर चुके पर्यावरणविद डॉ. आर. के. पचौरी का कहना है कि ‘अगर आम आदमी भी ऊर्जा की बचत को अपनी आदत में शुमार कर ले तो काफी हद तक धरती का उद्धार हो सकता है। इसका आसान तरीका यह है कि हर इंसान कुछ संकल्प लेकर आज से ही उन पर अमल शुरू कर दे। इस दिशा में दूसरा जरूरी कदम इंडस्ट्रियल सेक्टर को उठाना है, वह है फ़ैक्टरियों में कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाना। हालांकि कुछ बदलने का इरादा है, लेकिन ज्यादातर उद्योग अभी नींद से नहीं जाग पाए हैं। जाहिर है कि आने वाली पीढ़ियों और हमारी पृथ्वी की सेहत के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है।’
आज पर्यावरण से उत्पन्न खतरे इतने भयावह होते जा रहे हैं कि विश्व समुदाय इससे चिंतित हो उठा है और पर्यावरण संतुलन के प्रति लोगों को जागरूक करने के उपाय किए जा रहे हैं। आज पर्यावरण संबंधी जो समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं, वे मानव-जनित हैं। अगर हम आज नहीं चेते तो स्थिति कितनी भयावह होगी, यह पी सुधीर के शब्दों में, पिछले सौ वर्षों में वातावरण में तापमान करीब 1 डिग्री से अधिक बढ़ गया है और तापमान प्रतिवर्ष तीन प्रतिशत की दर से बढ़ता जा रहा है। अगर तापमान बढ़ने की यही गति जारी रही, तो अगले तीस साल में वातावरण का तापमान 2 डिग्री से भी अधिक बढ़ जाएगा। यह होने से पूर्व ही वातावरण पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। गंगा, यमुना आदि नदियां सूख जाएंगी। वहीं दूसरी ओर तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पर जमा बर्फ पिघलकर समुद्र में पहुंचेगा जिससे समुद्र का जल-स्तर बढ़ेगा और तटीय एवं समुद्र तल से नीचे अवस्थित देश-प्रदेश जलमग्न हो जाएंगे।
आज विश्व के अनेक औद्योगिक विकसित देश अपने प्राकृतिक अपने संसाधनों का संरक्षण आरंभ कर चुके हैं। विकसित देश अपने संसाधनों का संरक्षण कर अन्य विकासशील देशों से संसाधनों का आयात कर रहे हैं। पश्चिमी जर्मनी, फ्रांस, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका इस दिशा में अग्रणी देश हैं। बीसवीं शताब्दी जहां एक ओर आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए गौरवान्वित रही, वहीं अनेक पर्यावरणीय समस्याओं के कारण संकट की शताब्दी भी बन गई। वर्तमान में हम देख रहे हैं कि मौसम का संतुलन गड़बड़ा गया है। हाल के वर्षों में जाड़े का आरंभ देर से हो रहा है और अवधि भी सीमित हो गई है। इसी तरह ग्रीष्म ऋतु में भी इस वर्ष (2009) अप्रैल के महीने में तापमान 45-46 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। तापमान में हुए परिवर्तन के कारण आज सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि चक्रवात इत्यादि समस्याओं से जन-जीवन तबाह हो रहा है। जान-माल की क्षति हो रही है। 22 अप्रैल, 2009 को भारत मौसम विज्ञान केंद्र, रांची द्वारा जारी किए गए आंकड़े दर्शाते हैं कि पिछले दस वर्षों में पहली बार अधिकतम तापमान 42 डिग्री सेल्सियस को छू गया है। 1999 में 30 अप्रैल को रांची का अधिकतम तापमान 42.6 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। 21 अप्रैल 2009 को जमशेदपुर का तामपान 45.6 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। इसी प्रकार तापमान के कारण फसलों का उत्पादन घट जाएगा, जबकि बढ़ती आबादी की क्षुधा- निवारण के लिए अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। वर्तमान में भारत की खाद्यान्न उत्पादकता चीन से आधी है। लगातार यह प्रयास किया जा रहा है कि यह उत्पादकता चीन के बराबर की जाए, लेकिन तापमान वृद्धि के कारण यह बढ़ने की बजाए घटती ही जाएगी। पी. सुधीर की माने तो तापमान बढ़ने से बिना मौसम बरसात लगभग हर भाग में होगी। बिन मौसम बरसात के साथ पानी की अधिकता हो जाएगी, सूखा भी भयंकर बढ़ेगा। मौसम में विनाशकारी परिवर्तन होगा। नदियों में विनाशकारी बाढ़ आएगी। यदि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पर नियंत्रण अगले 10 साल में नहीं लाया गया तो वर्तमान पीढ़ी अपने जीवन काल में ही अपनी विनाशलीला स्वयं देखेगी। जलवायु परिवर्तन के विषय में डॉ. आर.के. पचौरी कहते हैं, ‘यह साबित हो चुका है कि मानवीय गतिविधियों के कारण ही आज जलवायु परिवर्तन की समस्या पैदा हुई है। इतिहास पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि माया सभ्यता सिंधु घाटी और मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताओं के लुप्त होने के पीछे भी ऐसे ही कारण रहे हैं। ताजा उदाहरण देखना चाहें तो दक्षिण-पूर्व एशिया के खमेर साम्राज्य का जिक्र किया जा सकता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन मनुष्यजनित है तथा मानव ही अपना व्यवहार बदलकर इस खतरे को कम कर सकता है।”
मौसमविदों का कहना है कि समुद्र और जमीन लगातार गर्म होते जा रहे हैं। समुद्री जल के गर्म होने से लहरों का तूफान उठ रहा है और बाढ़ जैसी विभीषिका देखने को मिल रही है। अभी हाल में ‘आयला’ से आधिकारिक तौर पर सवा सौ जानें गई हैं और लाखों लोग बेघर हो गए। लाखों पेड़ तूफान से धराशायी हो गए। पर्यावरण में पेड़ों के महत्व से सभी वाकिफ हैं। वैसे भी बढ़ती जनसंख्या के कारण लगातार पेड़ों की कटाई हो रही है। वैसे तो लाखों पेड़ों का नष्ट हो जाना चिंताजनक हैं। सन् 1995 के बाद लगातार चक्रवात का सिलसिला चल पड़ा है। विश्व भर में चक्रवातों की बारंबारता में वृद्धि हुई है। अमेरिका में वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर चक्रवाती तूफान का बढ़ना इसी तरह जारी रहा तो वर्षा का चक्र गड़बड़ा जाएगा, जिस कारण सूखा और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होगी। इन सबके मूल में हैं, पर्यावरण की उपेक्षा।
विदेशों में पर्यावरण को लेकर योजनाबद्ध तरीके से इसके निदान के लिए नीतियां बनाई जा रही हैं, कार्यक्रम तय हो रहे हैं और ग्लोबल सेमिनार हो रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसी गंभीरता दिख नहीं रही है। पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान कार्बन डाइऑक्साइड से होता है। कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन पेड़ों से ही बनता है और हम अंधाधुंध पेड़ों की कटाई करते जा रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में वनाच्छादित दायरा कुल भूमि का 19.27 प्रतिशत है। यह कम-से-कम एक तिहाई हो तो सामान्य स्थिति मानी जाती है। जिन वनों पर देश की लगभग 95 करोड़ मानव और 45 करोड़ पशु आबादी निर्भर हैं, हम लगातार उनका सफाया करते जा रहे हैं। सरकारी प्रतिबंध के बावजूद गैर-कानूनी तरीके से वनों की कटाई हो रही है। वन-संरक्षण और चिपको जैसे आंदोलन चलाकर नए पौधों को लगाएं और उनका संरक्षण करें तो कुछ हद तक हम सफलता पा सकते हैं।
पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ाने वाले कारकों में मुख्य रूप से सड़कों पर दौड़ने वाले वाहन, फ़ैक्टरियों की बढ़ती तादाद, एयरकंडीशनर आदि है। बिजली उत्पादन में कोयले का इस्तेमाल होता है और इनसे निकलने वाली गैस मौसम को प्रभावित करती है। हमें ऊर्जा की बचत की आदत डालनी होगी। बिजली उत्पादन में कोयले का इस्तेमाल होता है, हमें इस तकनीक में परिवर्तन लाकर वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। कम कोयले से ज्यादा बिजली उत्पादन करने में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। विकास कार्यक्रमों की योजना बनाते समय तथा बहुमंजिली इमारतों को बनाते समय हरीतिमा यानी पेड़-पौधों और वर्षा जल-संरक्षण की व्यवस्था पर बल देना होगा।
आज विश्व के अनेक औद्योगिक विकसित देश अपने प्राकृतिक अपने संसाधनों का संरक्षण आरंभ कर चुके हैं। विकसित देश अपने संसाधनों का संरक्षण कर अन्य विकासशील देशों से संसाधनों का आयात कर रहे हैं। पश्चिमी जर्मनी, फ्रांस, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका इस दिशा में अग्रणी देश हैं। बीसवीं शताब्दी जहां एक ओर आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए गौरवान्वित रही, वहीं अनेक पर्यावरणीय समस्याओं के कारण संकट की शताब्दी भी बन गई। इस संकट का प्रमुख कारण मानव-प्रकृति का बिगड़ता संतुलन है। अतः यह आवश्यक है कि पर्यावरण के अवनयन के प्रमुख कारकों को समझा जाए और इनके संरक्षण के उपाय किए जाएं तथा विकास के रथ को गतिमान रखने के लिए वैकल्पिक उपायों की खोज की जाए। आज पर्यावरण अवनयन से उपजे भय के कारण समस्त विश्व उद्वेलित है। वर्तमान समय में विश्व समुदाय में जो भय देखने को मिल रहा है, वह आज की भयावह स्थिति का आईना दिखलाता नजर आता है। हाल के वर्षों में तापमान असंतुलन, बाढ़ सूखा, हिमपात, आंधी, बवंडर की वृद्धि के लिए वायुमंडल की गुणवत्ता का ह्रास प्रमुख कारण बताया जा रहा है।
उपलब्धियों के साथ संलग्न पर्यावरणीय संकट संपूर्ण मानवता के लिए प्रश्नचिन्ह बनता जा रहा है। यदि यही ढंग रहा तो पृथ्वी जीवनविहीन हो सकती है। ओजोन गैस के आवरण को जहरीली गैस से क्षति इसका एक उदाहरण है। मौसम और जलवायु के स्वभाव में इतना परिवर्तन आ सकता है कि बाढ़ और सूखे के प्रकोप से जन-धन की अपार क्षति हो सकती है। अतः आवश्यक है कि पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वैकल्पिक व्यवस्था के उपाय किए जाएं। हर व्यक्ति अगर जागरुक हो जाए और संकल्प कर ले कि कम-से-कम ऊर्जा खपत करेगा, पर्यावरण को सुंदर और संतुलित बनाने में अपना योगदान देगा तो इस खतरे को कुछ तो कम किया ही जा सकता है, क्योंकि मानवीय गतिविधियां जलवायु को प्रभावित कर रही हैं।
संदर्भ
1. पर्यावरण और पारिस्थितिकी, डॉ. बी.पी.राव और डॉ. वी.के. श्रीवास्तव, पृ.14
2. हिंदुस्तान, 5 जून 2009
3. हिंदुस्तान, पी.सुधीर, 10 जून 2009
व्याख्याता हिंदी विभाग, रामगढ़ महाविद्यालय, रामगढ़ पिन-809122 (झारखंड)