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कल्पतरू एक्सप्रेस
वन संपदा की सुरक्षा और संरक्षण का दायित्व निर्वहन करने वाला वन विभाग पूरी तरह अपाहिज दिखाई देता है। वनों की कटाई के सापेक्ष कंक्रीट के जंगल जिस तेजी से उभर रहे हैं, वे पर्यावरणीय चक्र को तेजी से असंतुलित कर रहे हैं।
बाजार द्वारा मुनाफे को लक्ष्य कर विकास और आधुनिकता के अंधानुकरण ने हमें अपने प्राकृतिक वातावरण के प्रति असंवेदनशील बना दिया है। वैश्वीकरण के नाम पर उदारीकरण की नीतियों के पीछे प्राकृतिक संसाधनों की लूट ही नव अमेरिकी साम्राज्यवादी नीतियों का प्रमुख लक्ष्य है। संसाधनों की लूट की नीतियों को सत्ता संरक्षण प्राप्त है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ देश के विभिन्न इलाकों में लोग बड़ी संख्या में आज भी संघर्ष कर रहे हैं। जनता की आवाज सरकारें लंबे समय से अनसुना करती चली आ रही हैं। दूसरी ओर देश की न्यायपालिका पर्यावरणीय महत्त्व को लेकर बेहद गंभीर दिखाई दे रही है। देश की शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह ‘नेशनल रेग्युलेटर’ बनाए जो वन नीति के पालन पर नजर रखेगा।इस मामले में उस दलील को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि इसके लिए किसी ऐसी बॉडी की जरूरत नहीं है। हर बात के लिए अदालतों को, सरकार को निर्देश देने के लिए मजबूर होना पड़े, यह स्थिति सरकारों की लापरवाही, गंभीर मसलों के प्रति संवेदनहीनता और बुनियादी जरूरतों की अनदेखी को ही दर्शाती है। समझने वाली बात है कि मौजूदा दौर में विकास और पर्यावरण के बीच क्या और किस तरह का संतुलन होना चाहिए ।
इसे लेकर देश के वन और पर्यावरण मंत्रालयों ने अपनी नीतियों को अपडेट करने के सद्प्रयास नहीं किए, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट को मान्यता देने का काम जरूर किया है।
उच्चतम न्यायालय के जस्टिस एके पाठक की अगुवाई वाली बेंच ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह इस मामले में अदालत के आदेश के पालन से जुड़ी एक्शन रिपोर्ट 31 मार्च तक अदालत के सामने पेश करे। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह रेग्युलेटर नियुक्त करे। साथ ही इसके तमाम राज्यों में कार्यालय भी बनाए जाएं। इससे पहले केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने दलील दी थी कि इस मामले में नजर रखने के लिए किसी रेग्युलेटर को बनाए जाने की जरूरत नहीं है। फॉरेस्ट पॉलिसी कैसे लागू होगी, इस पर नजर रखने के लिए रेग्युलेटर की जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फॉरेस्ट एक्ट के तहत क्लियरेंस का काम तो पर्यावरण व वन मंत्रालय ही करेगा, लेकिन फॉरेस्ट पॉलिसी के पालन पर रेग्युलेटर नजर रखेगा।
बड़ा सवाल यह है कि हमारी सरकार और उसके नीति नियंता वनों से जुड़े पर्यावरणीय महत्व की क्यों अनदेखी कर रहे हैं या किन मजबूरियों के चलते वे इस ओर ध्यान नहीं देना चाहते। ये ऐसे सवाल हैं जो हमारे नीति नियंताओं की नीयत के खोट को दर्शाते हैं। देश का ही नहीं पूरे विश्व का पर्यावरणीय संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है। इस पर्यावरणीय असंतुलन के लिए वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् दिशाहीन विकास और मुनाफे के लिए प्राकृतिक संसाधनों की लूट को ही बड़ी वजह मान रहे हैं। भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन का पूरा लाभ वन माफिया और कॉरपोरेट सेक्टर को मिल रहा है। हमारी वन संपदा के स्वाभाविक संरक्षक जनजातियों को विकास के नाम पर जोर जबरदस्ती से बेदखल करने पर उतारू हैं।
इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें भी दमन करने में किसी तरह का संकोच नहीं कर रहीं। प्राकृतिक संसाधनों की लूट की बहती गंगा में हर कोई हाथ धोने को आतुर बैठा है। इस लूट का असर गांवो और कस्बों तक देखने को मिल रहा है। जहां नजर डालो वहीं हरितिमा की चादर गायब है। वन संपदा की सुरक्षा और संरक्षण का दायित्व निर्वहन करने वाला वन विभाग पूरी तरह अपाहिज दिखाई देता है। वनों की कटाई के सापेक्ष कंक्रीट के जंगल जिस तेजी से उभर रहे हैं, वे पर्यावरणीय चक्र को तेजी से असंतुलित कर रहे हैं।
देश के सभी राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव विहारों तथा दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत के हिमालय की तराई में आबाद राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव विहार, सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं। तेजी से घटती वन संपदा और बदलते पर्यावरण के लिए सीधे तौर पर सरकार की दोषपूर्ण नीतियां जिम्मेदार हैं। तभी तो न चाहते हुए हमारी न्यायपालिका को आदेश और निर्देश देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। वन्य जीव संरक्षण के साथ जनजातियों के संरक्षण और जीवनदायी औषधियों के संरक्षण की दृष्टि से रेग्युलेटर की नियुक्ति एक स्वागत योग्य कदम है।