पर्यावरण प्रदूषण की संकल्पना और लखनऊ (Lucknow Metro-City: Concept of Environmental Pollution)

Submitted by Hindi on Sun, 03/04/2018 - 18:21
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शोध प्रबंध 'बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय पी.एच.डी. (भूगोल) उपाधि हेतु प्रस्तुत' भूगोल विभाग अतर्रा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अतर्रा (बांदा) 2001

पर्यावरण प्रकृति की सहज संरचना है। इस प्रकृति की स्वाभाविक दशा में हस्तक्षेप करके मनुष्य उसे प्रतिकूल बनाता है और प्रदूषण उत्पन्न करने में सहायक बनता है। वर्तमान समय में भौतिक सुख-सुविधाओं का भोगी मानव प्रदूषण की विभीषिका को दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक गहन और विस्तृत बनाता जा रहा है जिसकी परिणति विभिन्न प्रकार की नवीन बीमारियों का लगातार बढ़ता प्रकोप, संक्रामक रोगों का विस्तार, जलवायु परिवर्तन, वर्षा की अनियमितता, सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि-अनावृष्टि, पृथ्वी का बढ़ता तापमान, समुद्र के जलस्तर की वृद्धि, तेजाबी वर्षा, ग्रीन हाउस प्रभाव, ओजोन छिद्र और वनस्पतियों एवं जीवों की विविध प्रजातियों का नष्ट होना है। जीव-जगत एवं प्रकृति के नि:शुल्क उपहार, लगातार संदूषित होते जा रहे हैं और उनके स्वस्थ रूपों का मनुष्य उपभोग नहीं कर पा रहा है, फलत: विविध प्रकार की बीमारियों से अस्वस्थ बनता जा रहा है। पर्यावरण का अपक्रम उसी समय से प्रारम्भ हो गया था, जबसे मनुष्य ने आग जलाना सीखा।

‘पर्यावरण’ : अर्थ एवं परिभाषा


‘पर्यावरण’ एक व्यापक शब्द है। इसके अंतर्गत सम्पूर्ण भौतिक परिवेश जलवायु, पेड़-पौधे, मिट्टी और प्रकृति के अन्य तत्व तथा जीव-जन्तु सम्मिलित हैं। जब पर्यावरण के सभी घटक पारस्परिक तालमेल नहीं रखते तो पारिस्थितिक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। पर्यावरण के सभी तत्व प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मानव स्वास्थ्य और मानव कल्याण को प्रभावित करते हैं।

‘‘पर्यावरण’’ शब्द ‘‘परि’’ और ‘‘आवरण’’ से मिलकर बना है, जिसमें सम्पूर्ण जड़ और चेतन सम्मिलित हैं। पृथ्वी के चारों ओर प्रकृति तथा मानव निर्मित समस्त दृश्य-अदृश्य पदार्थ पर्यावरण के अंग है। हमारे चारों ओर का वातावरण और उसमें पाये जाने वाले प्राकृतिक, अप्राकृतिक, जड़, चेतन सभी का मिला-जुला नाम पर्यावरण है और उसमें पारस्परिक ताल-मेल और अन्योन्य क्रिया व पारस्परिक प्रभाव को पर्यावरण संतुलन कहते हैं।

व्यापक अर्थों में पर्यावरण उन सम्पूर्ण शक्तियों, परिस्थितियों एवं वस्तुओं का योग है, जिनसे मनुष्य घिरा हुआ है तथा अपने क्रियाकलापों से उन्हें प्रभावित करता है। आनुवांशिकता और पर्यावरण दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण कारक हैं जिनसे मानव सबसे अधिक प्रभावित होता है। मनुष्य ही सम्पूर्ण जीव जगत का केंद्र बिंदु है और आनुवांशिकता उसकी अंर्तनिहित क्षमताओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करती है। पर्यावरण इन क्षमताओं को भू-सतह पर लाता है। इस प्रकार से मानव तथा अन्य जीव पृथ्वी तथा उसके पर्यावरण के अविभाज्य अंग हैं और पृथ्वी को अविभाज्य इकाई का स्वरूप प्रदान करते हैं।

‘पर्यावरण’ को परिभाषित करते हुए ‘‘हर्षकोविट्स’’ ने लिखा है - ‘‘पर्यावरण संपूर्ण वाह्य परिस्थितियों एवं प्रभावों का जीवधारियों पर पड़ने वाला सम्पूर्ण प्रभाव है जो उनके जीवन विकास एवं कार्य को प्रभावित करता है।’’

पार्क2 के अनुसार ‘‘पर्यावरण का अर्थ उन दशाओं के योग से होता है जो मनुष्य को निश्चित समय में निश्चित स्थान पर आवृत करती हैं।’’

गाउडी3 ए. ने अपने पुस्तक ‘The Nature Of Environment’ में पृथ्वी के घटकों को ही पर्यावरण का प्रतिनिधि माना है तथा उनके अनुसार पर्यावरण को प्रभावित करने में मनुष्य एक महत्त्वपूर्ण कारक है।

टान्स्ले4‘‘पर्यावरण को उन सम्पूर्ण प्रभावी दशाओं का योग कहा है, जिसमें जीव रहते हैं।’’

डॉ. दीक्षित5 ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहा- ‘‘पर्यावरण विश्व का समग्र दृष्टिकोण है क्योंकि यह किसी समय संदर्भ में बहुस्थानिक तत्वीय एवं सामाजिक आर्थिक तंत्रों, जो जैविक एवं अजैविक रूपों के व्यवहार/आचार पद्धति तथा स्थान की गुणवत्ता तथा गुणों के आधार पर एक दूसरे से अलग होते हैं, के साथ कार्य करता है।’’

अर्थात पर्यावरण विश्व का समग्र दृष्टिकोण है तथा इसकी रचना स्थानिक तत्वों वाले एवं विभिन्न सामाजिक आर्थिक तंत्रों से होती है। ये विभिन्न तंत्र अलग-अलग विशेषताओं वाले होते हैं। इन विभिन्न तंत्रों के साथ पर्यावरण सक्रिय रहता है। आगे डॉक्टर दीक्षित ने कहा - ‘‘पर्यावरण की परिभाषा और विषय क्षेत्र हमारे हित तथा अभिरुचि एवं प्राथमिकताओं द्वारा निर्धारित होते हैं। हमारा तात्कालिक हित हम जिस स्थान पर रहते हैं, वायु जिसमें सांस लेते हैं, आहार जिसे हम खाते हैं, जल जिसे हम पीते हैं, संसाधन जिसे हम अपनी अर्थ व्यवस्था को पुष्ट बनाने के लिये पर्यावरण से प्राप्त करते हैं - की गुणवत्ता है।’’

अ. पर्यावरण प्रदूषण : अर्थ एवं परिभाषा


पर्यावरण प्रदूषण मानवीय कारणों द्वारा स्थानीय स्तर पर पर्यावरण की गुणवत्ता मे ह्रास है। पर्यावरण प्रदूषण हमारी असीम आवश्यकताएँ, नगरीकरण, औद्योगिक क्रांति, प्रौद्योगिकी विकास, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध विदोहन, पदार्थ तथा ऊर्जा के विनिमय की बढ़ी दर तथा औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों, नगरीय मल-जल तथा न सड़ृने वाली उपभोक्ता सामग्रियों के उत्पादन में निरंतर वृद्धि का ही परिणाम है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति की विज्ञान सलाहकार समिति6 ने प्रदूषण को इस प्रकार परिभाषित किया है ‘‘मनुष्य के कार्यों द्वारा ऊर्जा प्रारूप, भौतिक एवं रासायनिक संगठन तथा जीवों की बहुलता में किये गये परिवर्तनों से उत्पन्न प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभावों के कारण आस-पास के पर्यावरण में अवांछित एवं प्रतिकूल परिवर्तनों को प्रदूषण कहते हैं।’’

डिक्सन डीएम7 के अनुसार प्रदूषण के अंतर्गत मनुष्य और उसके पालतू मवेशियों के उन समस्त अनिच्छत कार्यों तथा उनसे उत्पन्न प्रभावों एवं परिणामों को सम्मिलित किया जाता है जो मनुष्य को अपने पर्यावरण से आनंद एवं पूर्ण लाभ प्राप्त करने की उसकी क्षमता को कम करते हैं।

मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (1970) ने प्रदूषण को इस प्रकार परिभाषित किया है- ‘‘वस्तुओं के उत्पादनों एवं उपभोग के प्रथम चरण में अपशिष्ट पदार्थों का जनन होता है। ये अपशिष्ट पदार्थ उस समय प्रदूषक या पर्यावरणीय समस्या होते हैं जब उनका वायुमंडीलय महासागरीय या पार्थिव पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।’’

राष्‍ट्रीय पर्यावरण अनुसंधान परिषद (1976) के अनुसार- ‘‘मनुष्य के क्रियाकलापों से उत्पन्न अपशिष्ट उत्पादों के रूप में पदार्थों एवं ऊर्जा के विमोजन से प्राकृतिक पर्यावरण में होने वाले हानिकारक परिवर्तनों को प्रदूषण कहते हैं।’’

लार्ड केनेट8 के अनुसार पर्यावरण में उन तत्वों को या ऊर्जा की उपस्थिति को प्रदूषण कहते हैं जो मनुष्य द्वारा अनचाहे उत्पादित किये गये हों, जिनके उत्पादन का उद्देश्य समाप्त हो गया हो, जो अचानक बच निकले हों या जिनका मनुष्य के स्वास्थ्य पर अकथनीय हानिकारक प्रभाव पड़ता हो।

दासमन9 (Dasman R.F.) के अनुसार उस दशा या स्थिति को प्रदूषण कहते हैं जब मानव द्वारा पर्यावरण में विभिन्न तत्वों या ऊर्जा का इतनी मात्रा में संग्रह किया जाता है कि वे पारिस्थितिक तंत्र द्वारा आत्मसात करने की क्षमता से अधिक हो जाते हैं।

प्रदूषण को स्पष्ट करते हुए ओडम10 (Odum) ने अपनी पुस्तक ‘फंडामेंटल इकोलॉजी’ में परिभाषित किया है। ‘‘प्रदूषण हमारी हवा, भूमि एवं जल के भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक लक्षणों में एक अवांछनीय परिवर्तन है जो मानव जीवन एवं अन्य जीवाणुओं, हमारी औद्योगिक प्रक्रिया, जीवन दशाओं और सांस्कृतिक संपत्तियों को हानि पहुँचा सकता है या पहुँचाएगा अथवा वह परिवर्तन जो संपत्तियों को कच्चे पदार्थ तथा संसाधनों को नष्ट कर सकता है या करेगा।’’

‘‘Pollution is an undesirable change in physical, chemical or biological charactristics of our air, land and water that may or will harmfully affect human life and other organisms, our industrial process, living conditions and cultural assets; or that may or will deteriorate our raw material resources.’’

प्रदूषण की बढ़ती समस्या को देख समझकर अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री वाल्टर शिराका एम.11 ने कहा था कि ‘‘मानव निवास के लिये चंद्रमा, शुक्र तथा मंगल उपयुक्त नहीं है। हमारे लिये उपयुक्त यही होगा कि हम जो कुछ कर सकते हैं पृथ्वी को स्वच्छ बनाने के लिये करें क्योंकि यही वह जगह है, जहाँ हमें रहना है।’’

इसी प्रकार से पर्यावरण प्रदूषण पर रॉयल कमीशन12 ने उल्लेख किया है कि ‘‘प्रदूषण उस समय घटित होता है जब मानव क्रियाओं के परिणामस्वरूप पर्यावरण में विद्यमान अधिकांश पदार्थ हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने लगते हैं। प्रदूषण का स्तर केवल जनसंख्या वृद्धि के साथ नहीं बढ़ता और न ही अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण से बढ़ता है। वस्तुत: यह विश्व के औद्योगिक देशों के दुरुपयोग एवं अप्रयोजनीयता से उत्पन्न होता है तथा बढ़ता है। इसका क्षेत्रीय प्रसार वायु, जल, मिट्टी एवं ध्वनि प्रदूषण के आंकड़ों के आधार पर ज्ञात किया जा सकता है।’’

उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार यह तथ्य सामने आते हैं कि मानव द्वारा उत्पादित अपशिष्ट पदार्थ तथा उनका निपटान करना, अपशिष्ट पदार्थों के निपटान से क्षति एवं हानि और इसका मानव जीवन पर प्रभाव ही प्रदूषण सम्बन्धी परिभाषाओं का आधार है। प्रदूषण उत्पन्न करने वाले पदार्थ या ऊर्जा के किसी भी रूप को जो पर्यावरण को क्षति पहुँचाते हैं, प्रदूषक कहा जाता है।

पर्यावरण के प्रमुख प्रदूषक


प्रदूषक उस तत्व को कहते हैं, जो अवांछनीय रूप से वस्तुओं के प्रयोग के रूप में उत्पन्न होते हैं। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि मानव प्रयोग में आने वाली त्याज्य सामग्री को प्रदूषक कहा जा सकता है, जिससे पर्यावरणीय अवनयन होता है। पर्यावरण प्रदूषकों को दो वर्गों में रखा जा सकता है –

1. प्राकृतिक प्रदूषक
2. मानवकृत प्रदूषक

प्रकृति में स्वकारणों से उत्पन्न परिवर्तनों का आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता होती है। इसके विपरीत मनुष्य में प्रदूषकों के निपटान की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं होती।

इसी प्रकार दृश्यता के आधार पर प्रदूषकों को दो वर्गों में रखा जा सकता है।

1. दृश्य प्रदूषक - धूम्र, गैस, धूल, सीवरजल, कचरा, पशुओं तथा मनुष्यों के मलमूत्र, औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थ।

2. अदृश्य प्रदूषक - बैक्टीरिया, जल व मिट्टी में मिले विषैले रसायन।

प्रदूषकों को उनकी प्रकृति तथा दशा के आधार पर तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है

1. ठोस प्रदूषक - धुआँ, धूल, औद्योगिक अपशिष्ट, सीसा, पारा एयरोसॉल, उत्सर्जित पदार्थ, आस्वेस्टस आदि।

2. गैसीय प्रदूषक - क्लोरो-फ्लोरोकार्बन गैस, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड आदि।

3. तरल प्रदूषक - सागरों में रिसा हुआ खनिज तेल, जल में घुला ठोस पदार्थ, अमोनिया, यूरिया, नाइट्रेट फ्लोराइड, कार्बोनेट, कीटनाशक एवं रोग नाशक रसायन, तेल ग्रीस आदि।

प्रदूषण को कारकों के आधार पर तीन वर्गों में रखा जा सकता है-

1. भौतिक प्रदूषक - मानवकृत, गैसीय, ठोस तथा तरल प्रदूषक।

2. सांस्कृतिक प्रदूषक - जनसंख्या विस्फोट, निर्धनता, समृद्धि, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन, लूट-पाट, डकैती, व्याभिचार इत्यादि।

3. जैविक प्रदूषक - जलीय पौधों की अधिकता, टिड्डी समूह आदि।

अध्ययन की सुविधा के दृष्टि से प्रदूषकों को प्रदूषण फैलाने वाले क्षेत्रों के आधार वर्गीकृत करना समीचीन होगा

1. वायु प्रदूषक - सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बनमोनो ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, सीसा, अमोनिया, एल्डिहाइड, असबेस्टस एअरोसाल आदि।

2. जल प्रदूषक - घुले तथा जल में निलंबित पदार्थ, क्लोरीन आयन, सोडियम आयन, कैल्सियम आयन, मैग्नीशियम आयन, कीटनाशी एवं रोगनाशी रसायनों के अपशिष्ट भाग विषैली धातुएँ जैसे - सीसा, पारा, कैडमियम, जिंक, रेडियोएक्टिव अपशिष्ट आदि।

3. स्थलीय प्रदूषक - मनुष्य एवं जानवरों के मलमूत्र, कूड़ा कचरा, कीटनाशी, शाकनाशी एवं रोगनाशी रसायन, रासायनिक खाद, मशीन तथा औजार, रेडियोएक्टिव तत्व आदि।

4. ध्वनि प्रदूषक - विमानों, वाहनों, रेलों, विस्फोटकों, आदि की ध्वनियाँ।

प्रदूषण के स्रोत :


प्रदूषण को उत्पत्ति के स्रोतों के आधार पर दो वर्गों में रखा जा सकता है।
1. प्राकृतिक स्रोत - इसमें ज्वालामुखी की राख, धूल, भूकम्पीय घटनाओं के कारण उत्पन्न दरारों द्वारा धरातलीय सतह पर लाये गये तत्वों, बाढ़ के जल, भूमि, अपरदन द्वारा उत्पन्न अवसाद आदि प्रदूषकों को लिया जा सकता है।

2. मानव स्रोत - मानव जनित प्रदूषण के स्रोतों में औद्योगिक स्रोत उद्योग, कृषि स्रोत तथा और जनसंख्या स्रोत मुख्य हैं।

नगर की औद्योगिक इकाइयों से नि:सृत अनेक प्रदूषक हैं जिनमें गैसीय प्रदूषक (नाइट्रोजन, ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन तथा विषैली गैसें) ठोस प्रदूषक, घुले तथा निलंबित ठोस पदार्थ, कई प्रकार के हानि कारक रसायन तथा उनके अपशिष्ट से प्रदूषित जल, घुले उच्छिष्ट पदार्थ आदि नगरीय स्रोतों से सीवेज जल, ठोस अपशिष्ट पदार्थ, कूड़ा-कचरा, वाहनों की विषाक्त गैसें, कारखानों की गैसें, धूल कण, धूम्र तथा निस्तारित जल प्रमुख प्रदूषक हैं।

कृषि जनित प्रदूषकों में मुख्य है -


रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, शाकनाशी, रोगनाशी, विविध प्रकार के रसायन आदि। मानव जनसंख्या प्रदूषण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत है क्योंकि सभी प्रकार के मानव जनित प्रदूषण मनुष्य के कार्यकलापों के कारण उत्पन्न होते हैं। निर्धनता, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति, आत्महत्या, वैशवृत्ति, सांप्रदायिकता, खाद्य अपमिश्रण आदि।

प्रदूषण को स्वरूप, माध्यम एवं स्रोत के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. स्वरूप के आधार पर -


भौतिक प्रदूषण - स्थल प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण।
सामाजिक प्रदूषण - आर्थिक प्रदूषण, धार्मिक प्रदूषण, राजनीतिक प्रदूषण, जातीय प्रदूषण।

2. माध्यम या साधन के आधार पर - जिन साधनों से प्रदूषकों का विभिन्न स्रोतों से पर्यावरण के विभिन्न संघटकों में परिवर्तन या विसरण होता है वे इस वर्ग के अंतर्गत हैं, यथा-स्थल, जल एवं वायु प्रदूषण।

3. प्रदूषण का क्षेत्रों एवं स्रोत के आधार पर वर्गीकरण - इसमें नगरीय, ग्रामीण औद्योगिक एवं कृषि प्रदूषण को लिया जाता है।

प्रदूषण विश्व के उन्नत औद्योगिक देशों के दुरुपयोग एवं अप्रयोजनीयता से उत्पन्न होता है हैगेट पीटर13 के अनुसार प्रदूषण की समस्या का मूल्यांकन चार कारकों के आधार पर किया जा सकता है-

1. पारिस्थितिक तंत्र पर प्रभाव।
2. प्रदूषक तत्वों की प्रकृति।
3. उनके उत्क्षेप का समय संदर्भ।
इस प्रकार के मूल्यांकन में पर्यावरणीय संदर्श (Environmental perception) का विशेष महत्त्व होता है।

तालिका 1.1 पर्यावरण के मुख्य घटक, प्रदूषक तत्व एवं उनके स्रोत

ब. पर्यावरण अभिज्ञान, समस्या, उद्देश्य, शोध विधि एवं पूर्वावलोकन


ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में पर्यावरण अभिज्ञान का अर्थ है – “The Process of taking cognizance of a sensible or quasi-sensible object, or the intuitive recognition of a moral or aesthetic quality.”‘‘अभिज्ञान संवेदनशील अथवा अर्द्ध संवेदनशील वस्तु के ज्ञान की प्रक्रिया है अथवा नैतिक सौंदर्य कलात्मक गुणवत्ता की अंतर्ज्ञानात्मक मान्यता है’’ अभिज्ञान या Perception शब्द की परिभाषा मनोविज्ञान में कुछ इस प्रकार दी है। ‘‘पर्यावरण अभिज्ञान या संदर्श से तात्पर्य जीवन के लिये प्राकृतिक तत्वों के प्रति संवेदनशीलता है, जिसके बिना जीवन संभव नहीं हैं। यह जीव को अपने जीवन के लिये पूर्व संचेतन करने वाला मनोविज्ञान है।’’

मानव प्राकृतिक परिवर्तनों के प्रभाव से प्रभावित होता है। उसका अपने प्राकृतिक पर्यावरण से निकट का सम्बन्ध है। मानव और पर्यावरण के अभिन्न सम्बन्धों की व्यावहारिक व्याख्या किये जाने के पश्चात से अभिज्ञानात्मक (संदर्शनात्मक) अध्ययन (Perception study) को बल मिला तथा प्रकृति और मानवकृत विविध असामयिक आपदाएँ संदर्श के सिद्धांतों के प्रयोग के लिये मुख्य क्षेत्रों के रूप में उभरी हैं। इस प्रकार आज मानव तथा पर्यावरण का सम्बन्ध समझने के लिये पर्यावरणीय संदर्श की सर्वप्रथम आवश्यकता है। इस प्रकार संदर्श के अंतर्गत हम अपने पर्यावरण के विशिष्ट और चुने हुए तत्वों का अध्ययन करते हैं।

ह्वाइट14 नामक विद्वान का मत है कि ‘‘व्यक्तियों के लिये समायोजन की रुचि, संकट अभिज्ञान का कार्य है। यह उनके लिये प्राप्त रुचियों के अभिज्ञान का, टेक्नोलॉजी पर उनके अधिकार के अभिज्ञान का, विकल्पों की सापेक्ष आर्थिक दक्षता के अभिज्ञान का तथा अन्य लोगों से सम्बन्धों के अभिज्ञान का कार्य है।’’

जैव मंडल के दोनों तत्व जैव-अजैव एक दूसरे से इस प्रकार संघटित हैं कि उनको मनुष्य से अलग कर देखना कठिन कार्य है। लेकिन दोनों घटकों के कुछ तत्व अन्य की तुलना में अधिक व्यापक प्रभाव वाले हैं।

अजैव तत्वों में जलवायु सर्वोपरि है। इसी प्रकार जैव तत्वों में मनुष्य सर्वोपरि है। इन दोनों तत्वों की भूमिका जैव मंडल की व्यवस्था और क्रियाशीलता में सर्वोच्च है। जिस प्रकार जलवायु ने जीवों का इतिहास निर्मित किया है। उसी प्रकार मनुष्य ने जलवायु को अन्य जीवों से अधिक प्रभावित किया है। आज जैव संकट बढ़ता जा रहा है, जिसके लिये मानव उत्तरदायी है। इन मानव जन्य एवं प्रकृति जन्य आपदाओं में विविध प्रकार की भिन्नताएँ दृष्टिगत होती है -

1. व्यक्ति की आपदाओं से निपटने की प्रवृत्ति एवं भाग्यवादिता।
2. असूचित आपदाओं का जनहित में महत्त्व।
3. आपदाओं के प्रकार एवं आवृत्ति।
4. स्वअनुभव की नवीनता एवं आवृत्ति।

पर्यावरण के प्रति मनुष्य की चेतना जन्म से जाग्रत होती है क्योंकि जन्म ही पर्यावरण की देन है। मनुष्य का भौतिक पर्यावरण से समायोजन और उसके क्रियात्मक प्रतिरूप का परिणाम यह है कि मानव अपनी सांस्कृतिक और व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार संसाधनों का शोषण करता है तथा अवरोधों आपदाओं और संकटों को विजित करता है।

पर्यावरण का अध्ययन सामाजिक संदर्श (Social Perception) के संदर्भ में काफी जटिल प्रक्रिया है। यह पर्यावरण के भौतिक कारकों से सम्बन्धित है। इसका सम्बन्ध मानव विवेक से है, जिसमें मानव का अनुभव, आवश्यकताएँ और स्मृतियों तथा आकांक्षाओं के माध्यम से वर्तमान का दृष्टिकोण संदर्श के स्तरों में भिन्नता के लिये उत्तरदायी है। इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी कठिनाई संदर्श से सम्बन्धित सूचनाओं, भावनाओं एवं दृष्टिकोण को एकत्र करना है।

पर्यावरण संदर्श भूगोलवेत्ता के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण विषय है। आज कल विविध माध्यमों से यह आंका जाता है कि संदर्श विशेषज्ञ मानव और पर्यावरण का कहाँ तक, कितना, किन-किन स्तरों का अध्ययन करता है। पर्यावरण संदर्श को ब्रुकफील्ड ने दो वर्गों में रखा है -

1.अनुभावित पर्यावरण
2. पर्यावरणीय संदर्श

अनुभावित पर्यावरण से अभिप्राय उन पर्यावरणीय अनुभवों से है, जो मनुष्य के विभिन्न निर्णयों के आधार हैं। अर्थात जों पर्यावरणीय अनुभव हम अपने पूर्वजों के माध्यम से करते आये हैं जिसके आधार पर कोई निर्णय लिया जाता है जैसे - मृदा, जल, वायु, पौधों आदि के सम्बन्ध में संग्रहीत ज्ञान और अनुभव जो जीवन संचार के स्तंभ हैं इसी क्रम में आते हैं।

पर्यावरण संदर्श पर्यावरण का समूचा ज्ञान है जिसमें सम्पूर्ण और अपूर्ण दोनों ज्ञान हो सकते हैं। अपूर्ण ज्ञान ही पर्यावरण के प्रति असावधानियों का कारण बनता है। उदाहरण के रूप में वायुमंडल का ज्ञान हमें है लेकिन ओजोन परत का वास्तविक ज्ञान नहीं है, जिससे अनेक विषैली गैसों को बिना रोकटोक वायु मंडल में छोड़ा जाता है, जिसके परिणाम अब हमारे सामने प्रत्यक्ष हो रहे हैं कि पराबैगनी किरणें पृथ्वी में पहुँचकर जीवजगत के लिये विनाश का कारण बनती जा रही है।

डाउन्स15 Downs का मानना है कि पर्यावरण संदर्श तीन प्रकार से किया जा सकता है :-

1. संरचनात्मक उपागम (Structual approach)
2. मूल्यांकन उपागम (Evaluative approach)
3. अपेक्षित उपागम (Preference approach)

रचनात्मक उपागम में किसी स्थान की पर्यावरणीय स्थिति का मानव मन पर पड़ने वाले स्थायी प्रभाव को परखा जाता है। मानव संस्कृति की विविधता इसी कारण देखने को मिलती है।

मूल्यांकन उपागम में पर्यावरण के तत्वों का मूल्यांकन स्थान, काल और अंतर्सम्बन्ध के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। उदाहरण के लिये किसी नदी घाटी के विकास कार्य में उसकी उपलब्धियों के साथ कठिनाइयों और कुप्रभावों का मूल्यांकन किया जाता है। नर्मदा नदी घाटी के सम्बन्ध में परियोजना के विस्तृत ज्ञान के अभाव में ऐसी ही परिस्थिति हो गयी है, जिसमें लाभ की तुलना में हानि अधिक बढ़ गयी जिससे पारिस्थितिक संकट का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है।

अपेक्षित उपागम में उक्त प्रथम और द्वितीय उपागमों को आधार बनाया जाता है अर्थात जो हमें ज्ञान है उसका पर्यावरण के संदर्भ में संकलन किया जाता है और तद्पश्चात निर्णय लिया जाता है अर्थात प्राकृतिक प्रकोप का जितना ज्ञान उस क्षेत्र के निवासियों ने अनुभव किया है उसके आधार पर आगे की संभावनाओं का पता किया जाता है और इसके पश्चात आगे उससे निपटने के उपायों और सुरक्षा की योजना तैयार की जाती है। प्राकृतिक आपदाओं में समुद्री तूफान, बाढ़, सूखा, भूकम्प, महामारियाँ आदि प्राकृतिक देन हैं। इन पर नियंत्रण कर लेना या रोक लेना मनुष्य के बलबूते का नहीं है। फिर भी मनुष्य अपनी खोजों और प्रयोगों द्वारा यह जानने का प्रयास करता है कि हम प्राकृतिक आपदाओं से किस प्रकार बचाव कर सकते हैं। इसके लिये वह रडार, संवेदनशील यंत्रों, सिस्मोग्राफी यंत्रों, उपग्रह चित्रों आदि का आश्रय लेकर जन सामान्य को अग्रिम रूप से सूचना देकर धन-जन की हानि को बचाने का प्रयास करता है और समुद्री तूफान के क्षेत्रों या भूकम्प की सम्भावना वाले क्षेत्रों में ऐसा निर्माण नहीं करना चाहता जिसके नष्ट होने की सम्भावना हो। दूसरी तरफ भूकम्प की स्थितियों को ध्यान में रखकर निर्माण कार्य को भिन्न स्वरूप देकर बचाव सुरक्षा के साथ जीवन-यापन के विकल्प खोजता है। किसी देश की समृद्धि भी विकल्प के लिये उपयुक्त/अनुपयुक्त हो सकती है। विकसित देश विकासशील और निर्धन राष्ट्रों की तुलना में अधिक सक्षम रहते हैं। यह प्राकृतिक आपदाएँ विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की होती हैं, जिससे पर्यावरण संदर्श प्रत्येक क्षेत्र में और प्रत्येक समाज में समान रूप से नहीं रहता। इस प्रकार पर्यावरण अभिज्ञान को क्षेत्रीय स्तरों पर हम अलग-अलग अध्ययन करते हैं।

पर्यावरण संदर्श के स्तर पर क्षेत्रीय स्वरूप


विश्व संस्था यूनेस्को (UNESCO) के तत्वावधान में पर्यावरण के संदर्श के विविध पक्षों के अध्ययन के लिये पर्यावरणविदों से आह्वान किया गया है क्योंकि पर्यावरण की कुछ समस्याएँ विश्वव्यापी हैं, तो कुछ क्षेत्रीय हैं। इस दृष्टिकोण से पर्यावरण का अध्ययन विश्वस्तर, राष्ट्रीय स्तर, प्रादेशिक स्तर और स्थानीय स्तर पर किया गया है।

विश्वस्तर पर पर्यावरण संदर्श


विश्व एक व्यापक इकाई है और इतने वृहद स्तर पर पर्यावरण का संदर्श कष्टसाध्य है। आज इतने बड़े व्यापक स्तर पर पर्यावरण का अभिज्ञान अभी बहुत सीमित है। लेकिन अनेक ऐसी समस्यायें है, जिनका विश्वव्यापी प्रभाव है। उदाहरण के रूप में जलवायु किसी देश की सीमा में बंधी नहीं रहती है। इसी प्रकार वायुमंडल की गैसों का प्रभाव भी किसी देश की सीमा से बंधा नहीं होता। उसका प्रभाव भी व्यापक हो सकता है। इसी प्रकार वनस्पति और समुद्री शैवाल के विनाश से ऑक्सीजन संतुलन पर घातक प्रभाव पड़ा है। बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड से पृथ्वी पर 0.50C से अधिक तापमान प्रतिवर्ष बढ़ता जाता है। अगर यही स्थिति रही तो आगे आने वाली स्थिति और अधिक बुरी हो जायेगी। इस संदर्भ में टांन16 (Toun) का मत है कि देश और काल के अनुसार प्रकृति के प्रति दृष्टिकोणों में विभिन्नता पायी जाती है तथा कोई भी संस्कृति पर्यावरण व्यवहार के अंश मात्र का अध्ययन कर पाती है। इतने बड़े व्यापक पैमाने पर पर्यावरण अभिज्ञान का स्तर वैचारिक और सामान्य विश्वासों पर आधारित रहता है।

पर्यावरण अभिज्ञान की व्यापकता एवं विभिन्नता 1972 के स्टॉक होम में 110 देशों के सम्मेलन से स्पष्ट होती है। इसमें पर्यावरणीय समस्या से सम्बन्धित विचारों में विकसित और विकासशील देशों में भिन्नता थी। जो कि एक चिंतन का विषय है। विश्वव्यापी स्तर पर पर्यावरणीय समस्या के कई आयाम प्राकृतिक और मानवकृत दोनों है जिनमें ऑक्सीजन की कमी कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता, ग्रीन हाउस प्रभाव, ओजोन कवच का क्षय, तापवृद्धि से हिम आवरण का पिघलना तथा समुद्री तटों के जलमग्न होने जैसी समस्याओं से एक देश या क्षेत्र प्रभावित नहीं होता बल्कि सम्पूर्ण विश्व पर इसकी समस्याओं का प्रभाव पड़ना निश्चित है। अत: विश्वव्यापी पर्यावरणीय संकट से निपटने के लिये अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण बचाओ अभियान प्रारम्भ किया गया है। किंतु चिंता का विषय है विश्व के अधिकांश देश अभी इस संकट से बेखबर हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संदर्श


राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण अभिज्ञान अपेक्षाकृत सशक्त होता है। राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रम पर्यावरण अभिज्ञान पर आधारित है। राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरणीय समस्याओं का ज्ञान अच्छी प्रकार से किया जा सकता है। राष्ट्र अपने पर्यावरणीय तत्व मौसम, जलवायु, मृदा, धरातल, खनिज, वनस्पति और जीव-जन्तुओं का सही ज्ञान प्राप्त कर अपने क्रियाकलापों को व्यवस्थित कर सकता है। पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध जैव जगत की आदतों से है जो पर्यावरण बोध को प्रकट करता है। जीव पर्यावरण अभिज्ञान के आधार पर अंत:क्रिया करता है जो कालांतर में उसकी आदत बन जाती है। इसी स्वभाव के परिप्रेक्ष्य में भविष्य की अंत:क्रिया को व्यवस्थित करता है। जहाँ पर ऐसा नहीं हो पाता वहाँ पर असंतुलन की स्थिति बनी रहती है और पारिस्थितिकी संकट उत्पन्न हो जाता है जो जैव जगत के विनाश का कारण बनता है। राष्ट्रीय स्तर के कुछ मानकों के अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि एक आदर्श अभिज्ञान वह है, जिसे वे पूर्ण करना चाहते हैं उनके आदर्श विविध स्रोतों में आबद्ध होते हैं। साहित्य, भाषण और समाचार पत्र, ऐसे स्रोतों का निर्माण करने वाले थोड़े से लोगों में भू-दृश्यों के प्रति रुचियाँ उत्पन्न करके तथा उन्हें संशोधित करने में बड़े प्रभावशाली होते हैं।

वर्तमान समय में विभिन्न आयु संवर्गों के विचारों में भौगोलिक क्षेत्र की वरीयताओं का निर्माण सूचना प्रवाह की गति और माध्यमों पर आधारित है। भौगोलिक स्तर पर प्रव्रजन और आवागमन की व्याख्या करने में सहायता मिलती है। पर्यावरण ह्रास और प्रदूषण का अध्ययन इनके आयाम और आकस्मिकता के मूल्यांकन में सहायक होगा।

प्रादेशिक स्तर पर पर्यावरण संदर्श


प्रादेशिक स्तर पर पर्यावरण अभिज्ञान काफी सरल होता है क्योंकि पर्यावरण तत्वों की निकटता का लाभ ऐसी स्थिति में सबसे अधिक मिलता है। प्रादेशिक स्तर पर पर्यावरणीय अध्ययन भी अधिक किये गये हैं। शिकागो विश्वविद्यालय ने पर्यावरणीय आपदाओं से बचने वाले लोगों का अध्ययन किया जो कि बाढ़ों, ज्वालामुखियों, सूखे, भूकम्पों आदि से बचने के लिये अपने क्षेत्रों से चले जाते हैं और पुन: वापस लौटते हैं। उनके अभिज्ञान के स्तर की माप के लिये कुछ विविध प्रकार की सूचनाएँ एकत्र की गयी। समय पर की गयी कार्यवाही हमें बेहतर असुरक्षा और हानि से बचाती है। बाढ़ में प्रभाव के बाद बांध तथा सूखे के बाद सिंचाई परियोजनाएँ हमारी समस्याओं को कम करती रहती है। पर्यावरणीय घटनाओं के घटित होने की समुचित भविष्यवाणियाँ सदैव एक समस्या बनी रही हैं और उनके विकास के साथ कुछ जटिलताएँ तथा संकटों से निपटने की सूचनाएँ हमारे लिये उपादेय सिद्ध हो रही हैं।

स्थानीय स्तर पर पर्यावरण संदर्श :


स्थानीय क्षेत्रों के पर्यावरण का अभिज्ञान तर्कसंगत और प्रमाणित रूप से किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का पर्यावरण अभिज्ञान नगरीय लोगों से भिन्न होता है। ग्रामीण जन जहाँ प्रकृति के निकट रहते हैं। वही नगर निवासी विलासिता पूर्ण कृत्रिम संसाधनों का अधिक उपयोग करते हैं। स्थानीय स्तर पर पर्यावरणीय अभिज्ञान हमारे लिये शोध का स्वरूप प्रदान करता है। अत: आज की समस्या को दृष्टिगत करते हुए देखा जाये तो नगरीय क्षेत्रों में पर्यावरणीय समस्याएँ अधिक हैं। नगरों के आकार, घनत्व व कार्यों में सतत वृद्धि के कारण नगरीय क्षेत्रों में अनेक समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं। धनी राष्ट्रों तथा अमेरिका और इंग्लैंड के अनेक नगरों की वायु एवं जल प्रदूषण सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन किया गया है। नगरीय स्तर पर अभिज्ञान अध्ययन से नगरों के लिये प्रदूषण नियंत्रण के लिये नीति निर्धारित की जा सकती है। नगरों के स्वास्थ्य के लिये आज अनेकों देशों में वृक्षारोपण अनिवार्य कार्य समझा जा रहा है। इसी कारण से भारत के अनेक वास्तुकारों ने हजारों वर्ष पूर्व पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के लिये ‘‘वाटिका नगर’’ की रचना की थी। कालांतर में इसे अनावश्यक समझा गया जो पर्यावरण अभिज्ञान की कमी का प्रमाण है। आज हम जानते हैं कि नगरों महानगरों का कूड़ा, कचरा, निस्तारित मल-जल, मृदा तथा नदियों को बुरी तरह प्रदूषित कर अयोग्य बना रहा है। गंगा, गोमती और महानदी नदियाँ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। अगर नागरिकों और औद्योगिक क्षेत्र के मालिकों को पर्यावरण अभिज्ञान होता तो यह स्थिति न बनती। भोपाल गैस त्रासदी इसी अपूर्ण पर्यावरण ज्ञान का अभाव है। दूसरी तरफ ‘चिपको आंदोलन’, ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ पर्यावरण के प्रति जागरूकता के ज्वलंत और प्रत्यक्ष दूरदर्शी उदाहरण हैं। इसी प्रकार यूकेलिप्टस के गुण से भिज्ञ न होने के कारण इसका वृहद पैमाने पर रोपण किया गया किंतु बाद में पता चला कि यह जल का अतिशोषण करता है तो कुछ देशों ने इसके रोपण पर प्रतिबंध लगा दिया तथा अपनी धरती से इसका सफाया तक कर दिया।

पर्यावरणीय संदर्श में नीति निर्धारण :


पर्यावरणीय क्षेत्रीय संदर्श के लिये विभिन्न प्रकार की नीतियों का निर्धारण किया जाता है। कोई क्षेत्र जिस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त होता है। वहाँ के लोगों के लिये उसी प्रकार के विकल्पों और सम्भावनाओं का पता लगाकर बचाव आदि के लिये सुझाव दिये जाते हैं और हम आपदाओं की भयंकरता से लोगों की रक्षा कर पाने में कुछ हद तक सफल होते हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कायस्थ एसएल17 ने 1980 में निचले घाघरा मैदान में अपने अध्ययन से यह बात स्पष्ट की अभिज्ञान हानि से रक्षा प्रदान करता है और उचित समायोजन भी। घाघरा क्षेत्र के लोगों ने अपने घरों की कुर्सी कुछ ऊपर उठायी और पुन: बाढ़ के समय उन्होंने अपना गाँव खाली नहीं किया तथा उस क्षेत्र में अच्छी कृषि कर पाने में सफल हुए। नीति निर्धारण की सबसे बड़ी आवश्यकता समायोजन की है, जिसमें संकटों और आपदाओं के समय अपने दृढ़ विश्वास के साथ कुछ अपने स्थानीय अभिज्ञान के आधार पर विकल्पों का चयन कर कदम उठाए जाते हैं। उचित समय पर नीतिबद्ध कार्य जन चेतना को जागृत कर किये जाने पर पर्यावरण प्रबंध कार्यक्रमों के लिये विकल्प एवं दिशा प्रदान करते हैं तथा अनिश्चितता के वातावरण और प्रकृति के प्रकोप से जनधन की रक्षा करते हैं।

पर्यावरणीय अभिज्ञान एवं विकास


पर्यावरणीय अध्ययन मानव विकास से जुड़ा हुआ है। प्राचीन काल से लोगों में पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा रहती थी। हड़प्पा मोहन जोदड़ों की नगरीय सभ्यता के आवासों की व्यवस्था उस समय के लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता को बताते हैं। हमारे वेदों में भी वनस्पतियों, पवन देवता, जल देवता, सूर्य देवता की वंदना और उनको गंदा न करने की बात कहकर उस समय के लोगों की पर्यावरण चेतना के प्रति अभिज्ञान कराते हैं। मनुष्य जैसे-जैसे विकास की अंधी दौड़ में सम्मिलित होता गया हमारा पर्यावरण विभिन्न प्रकार से प्रदूषित होता गया। हमारी पुरानी सभ्यताएँ ‘‘बेबीलोन, ह्वागहो, सिंधु आदि नदी घाटी की सभ्यताओं को बाढ़ से अधिक हानि पहुँची थी। आज धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ पर्यावरण का ज्ञान बदलता गया और मनुष्य प्रकृति विजय का स्वप्न देखने लगा। विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के साथ पर्यावरण के अध्ययन के लिये भी अन्य द्वार खुले और अध्ययन को उत्साहित करने के कारण बने। आज विश्व के लगभग सभी देशों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता आयी है और पर्यावरण के प्रति गोष्ठियाँ, सभाएँ, विश्व सम्मेलन, पर्यावरण दिवस, सप्ताह आदि आयोजित किये जा रहे हैं। भारत तो पर्यावरण के सम्बन्ध में वैदिक काल से जागरूक दिखायी दे रहा है। हमारे वैदिक मंत्रों में पर्यावरण या प्राकृतिक तत्वों के संरक्षण का आह्वान किया गया है। प्राकृतिक तत्वों को देवी देवता का स्वरूप माना गया, जैसे कि प्रत्येक जीव में आत्मा है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा का निवास है। तरूदेवो भव, वरुण देवता, अग्नि देवता, वायु देवता आदि नामों से पर्यावरण कारकों को अभिहित किया गया। धरती को माता कहा गया। आकाश को पिता का स्थान दिया गया।

पर्यावरण अभिज्ञान का अध्ययन भूगोल में दो रूपों में किया जाता है। प्रथमत: पर्यावरण तत्वों को वर्गीकृत करके स्थल मंडल, जल मंडल, वायु मंडल और जैव मंडल के रूप में अध्ययन किया जाता है, जिसमें प्रत्येक तत्व या गुण धर्म का सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप से अध्ययन किया जाता है। दूसरा पक्ष मनुष्य और पर्यावरण के अंतर्सम्बन्धों के विश्लेषण से सम्बन्धित है जिसमें मानव अनुक्रियाओं का अध्ययन पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। फलत: यह पर्यावरण अध्ययन का गुणात्मक पक्ष है। पर्यावरण तथा मानव सहित अन्य जीवों का अध्ययन पारिस्थितिकी के सम्बन्ध में किया जाता है। आज पर्यावरण के सम्बन्ध में अनेक शाखाओं के विज्ञानी अपने अध्ययन के विस्तार में जुटे हैं और प्राकृतिक प्रकोप और पर्यावरण अवमानना के संदर्भ में विकराल रूप धारण करती हुई समस्याओं का अध्ययन कर रहे हैं, जिनके कारणों से पर्यावरण की महत्ता बढ़ गयी है।

पर्यावरणीय अभिज्ञान प्रविधियाँ


सोने फील्ड18 (SONE FIELD.J.) ने पर्यावरण अभिज्ञान अध्ययन को व्यवहारजन्य गुफित चार वर्गों में रखा है -

1. तटस्थ पर्यावरण
2. क्रियाशील पर्यावरण
3. अभिज्ञानात्मक पर्यावरण
4. व्यवहारजन्य पर्यावरण

तटस्थ पर्यावरण से तात्पर्य सार्वभौम पर्यावरण से है, जिसमें की सम्पूर्ण भू-मंडल सम्मिलित है। अभी विश्व स्तर का अभिज्ञान अध्ययन बहुत कम हो सका है। क्रियाशील पर्यावरण से तात्पर्य उस पर्यावरण से है जिसमें सर्वाधिक मानव क्रिया पाई जाती है। इस प्रकार के पर्यावरण का अभिज्ञान अधिक होता है। इस दिशा और ऐसी दशाओं पर आज अधिक ध्यान दिया गया है।

इस प्रकार पर्यावरण अभिज्ञान मनुष्य की शारीरिक मानसिक अनुभव जन्य विशिष्टताओं पर आधारित हैं।
मानव स्वभाव का अंतर इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। स्वाभाविक व्यवहार जन्य पर्यावरण के प्रति मनुष्य जागरूक होकर उसका परिमार्जन करता है और अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है।

समस्या


लखनऊ महानगर राजधानी नगर होने के कारण तीव्र नगरीकरण एवं औद्योगीकरण की प्रक्रियाओं का शिकार हो गया है। परिणामस्वरूप मृदा, जल, वायु एवं ध्वनि प्रदूषण जैसी समस्यायें उत्पन्न हो गयी हैं। इन प्राकृतिक घटकों के प्रदूषण के साथ-साथ लखनऊ महानगर के सामाजिक पर्यावरण में आवासीय संकीर्णताएँ, गंदी बस्तियाँ, मानवीय सम्बन्धों में बदलाव की समस्या, बाल एवं अन्य अपराधों ने गम्भीर समस्याओं का रूप लेकर लखनऊ महानगर के पर्यावरण पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया है। नगर की बढ़ती हुई जनसंख्या तथा यहाँ के निवासियों की बाधित विकास प्रक्रिया पर्यावरण विशेषज्ञों के लिये विशेष चिंता का विषय है। सन 1901 में लखनऊ नगर की जनसंख्या 256,239 तथा इसका क्षेत्रफल 103 वर्ग किमी था। सन 1991 में इसकी जनसंख्या बढ़कर 1619,115 हो गयी तथा वर्तमान में इसका क्षेत्रफल 620 वर्ग किमी हो गया है। इसी प्रकार सन 1901 में नगर में कुछ गिनी चुनी औद्योगिक इकाइयाँ थी जो वर्तमान में बढ़कर भारी प्रदूषण का कारण बन गयी है। इसी प्रकार आवासीय, व्यापारिक, औद्योगिक, शैक्षिक एवं चिकित्सीय क्षेत्रों में व्यापक वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप परिवहन साधनों में अबाध गति से वृद्धि हुई है। इस वृद्धि के कारण नगर के उपलब्ध संसाधनों भूमि, जल, वायु आदि पर असहनीय दबाव पड़ा है। इसलिये महानगर का प्राकृतिक पर्यावरण विनष्ट हो चुका है। नगरवासी प्रदूषित जल वायु एवं भोजन को ग्रहण कर रहे हैं और धीरे-धीरे स्वास्थ्य संकट की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में भूगोल विज्ञानियों एवं पर्यावरण विशेषज्ञों का उत्तरदायित्व बन जाता है कि वे उक्त समस्याओं का अध्ययन कर उनका सीमांकन केरें, विशिष्ट क्षेत्रों को चिह्नित करें तथा लखनऊ महानगर को प्रदूषण मुक्त पर्यावरण प्रदान करने में अपना योगदान करें।

प्रस्तुत अध्ययन लखनऊ महानगर की मृदा, जल, वायु, ध्वनि एवं सामाजिक प्रदूषण समस्याओं का नवीनतम अध्ययन है तथा इन समस्याओं के निराकरण हेतु कारगर उपाय सुझाने का एक प्रयास है।

उद्देश्य


किसी भी महानगर के निवासियों के जीवन की गुणवत्ता वहाँ के सक्रिय विकास एवं पर्यावरण के संतुलन से निर्धारित होती है। वर्तमान समय की मांग है कि पर्यावरण और विकास दोनों को संयुक्त संदर्भ में देखा जाये साथ ही यह भी आवश्यक है कि विकास कार्यों का मूल्यांकन किया जाये तथा बिगड़ते पर्यावरण को संतुलित रखा जाए। लखनऊ महानगर में बढ़ती हुई जनसंख्या तथा विकास प्रक्रिया से जुड़ी हुई औद्योगिक इकाइयों एवं परिवहन साधनों ने पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न कर दिया है। इससे जीवन की गुणवत्ता गिर गयी है। अम्बी राजन19 ने ठीक ही कहा है - ‘‘समस्त पर्यावरणीय समस्याओं के बीज तृतीय विश्व की निर्धनता तथा औद्योगिक देशों के उपभोक्तावाद में निहित है।’’ लखनऊ महानगर के भौगोलिक क्षेत्र में भी दो प्रवृत्तियाँ दिखायी देती हैं। निर्धनता और धनी लोगों की भोगवृत्ति ने इस नगर की जनसंख्या और प्रदूषण समस्याओं को जन्म दिया है।

प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य उद्देश्य नगर की जनसंख्या वृद्धि और बढ़ते हुए पर्यावरण की समस्याओं का अध्ययन करना है। इन समस्याओं के निराकरण के उपाय खोजकर नगर निवासियों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि के उपाय खोजना है। संक्षेप में इस अध्ययन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं।

1. लखनऊ महानगर के भौतिक विकास का अध्ययन करना।
2. लखनऊ महानगर के कृषि क्षेत्रों, बागानों तथा अन्य प्रकार के उत्पादन कार्यों में लगे हुए भू-क्षेत्रों की मृदा के प्रदूषण स्तर, स्रोत एवं निराकरण के उपाय ज्ञात करना।
3. नगर में बढ़ती हुई जनसंख्या से उत्पन्न वायु प्रदूषण उसके स्रोतों की जानकारी तथा नियंत्रण के बेहतर उपायों के सुझाव प्रस्तुत करना।
4. गोमती जल, अधोभौमिक जल तथा सतही जल के प्रदूषण स्तर को ज्ञात करना, नमूनों का परीक्षण कराना, स्रोतों की जानकारी करना तथा स्वच्छ जल आपूर्ति के लिये उपाय सुझाना।
5. बढ़ते हुए वाहनों, उद्योगों एवं मशीनों के शोर तथा इसका क्षेत्रवार अध्ययन करना, स्रोतों का निरीक्षण करना और नियंत्रण के उपाय सुझाना।
6. लखनऊ महानगर को प्रदूषण से बचाने के लिये योजना प्रस्तुत करना तथा जीवन की गुणवत्ता में अभिवृद्धि करने के उपाय सुझाते हुए सम्यक विकास की गति को बनाए रखना।
7. लखनऊ महानगर के सामाजिक पर्यावरण में विद्यमान बुराइयों जैसे- नशाखोरी, जुआ, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, चोरी तथा बाल अपराध जैसी समस्याओं का अध्ययन करना, समस्याग्रस्त स्थानों को चिह्नित करना तथा उनके निराकरण के लिये एक समयबद्ध योजना प्रस्तुत करना आदि महत्त्वपूर्ण उद्देश्य हैं।
8. गंदी बस्तियों का सुधार कर उनमें जन सुविधाओं को उपलब्ध कराने के उपाय खोजना तथा इनके अनियंत्रित विकास को रोकने के कानूनी पक्ष पर विचार करना।
9. नगरीय कचरे एवं ठोस अपशिष्ट का वैज्ञानिक एवं आर्थिक दृष्टि से लाभकारी उपयोग के उपाय सुझाना।
10. पॉलीथीन बैग्स के उपयोग को हतोत्साहित करना तथा उसके विकल्प खोजना।

शोध विधि


सामान्यतया पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन तथा विश्लेषण करने के लिये निम्नलिखित चार विधियाँ अपनायी जाती है -

1. भू-क्षेत्रीय उपागम
2. तंत्र उपागम
3. पारिस्थितिकी उपागम
4. व्यावहारात्मक उपागम

1. भू-क्षेत्रीय उपागम


सर्वप्रथम पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याओं के अध्ययन के लिये भू-क्षेत्रीय उपागम का सहारा लिया जाता है। इस विधि में समस्याओं के स्तरों एवं प्रतिरूपों के वितरण का अध्ययन किया जाता है। जनसंख्या का वितरण इस विधि के केंद्र में होता है। किसी क्षेत्र विशेष में प्रदूषणों का अध्ययन एवं विश्लेषण जनसंख्या तथा आर्थिक क्रियाओं के घनत्व के साथ किया जाता है। इस संदर्भ में कार्य कारण का विश्लेषण दिया जाता है। इस विधि में कारण एवं कारकों को जो प्रदूषकों के वितरण प्रतिरूपों को प्रभावित करते हैं, केंद्र में रखकर अध्ययन किया जाता है। साथ ही इन वितरण प्रतिरूपों को संशोधित करके न्यूनतम प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है, जिससे मानव स्वास्थ्य तथा अन्य जीवों को हानि से बचाया जा सके।

2. तंत्र उपागम


यह एक तार्किक एवं वैज्ञानिक विधि है जिसका उपयोग मानव पर्यावरण सम्बन्ध की गत्यात्मकता को समझने के लिये किया जाता है। तंत्र वस्तुओं का एक समुच्चय है जिसमें वस्तुओं और उनके लक्षणों के बीच सम्बन्ध होता है। System is a set of objects together with the relationship between the objects and their attributes.

तंत्र किसी भी पैमाने पर सक्रिय हो सकता है। तंत्र एक परमाणु से लेकर ब्रह्मांड तक कार्य करता है। हमारा सौर तंत्र जिसमें अनेक अनुक्रमीय तंत्र हैं ब्रह्मांड के अन्य तंत्रों से अंत: सम्बन्धित है। जिस प्रकार से सौर तंत्र के ग्रह एक दूसरे से अंत: सम्बन्धित हैं, तथा एक दूसरे पर अंत: क्रिया करते हैं उसी प्रकार एक इकाई के रूप में सौर तंत्र अन्य ब्रह्माण्डीय तंत्रों से अंत: सम्बन्धित हैं अतैव आपसी अंत:क्रिया करता है तथा स्वयं प्रभावित होता है। इस प्रकार संपूर्ण ब्रह्मांड अनेकता में एकता प्रस्तुत करता है। इस पर्यावरण वैज्ञानिक का कार्य तंत्र के विभिन्न तत्वों को सुनिश्चित करना तथा उनकी कार्य प्रक्रिया को जानना है जिससे उनके अंत: सम्बन्धों तथा अंत: क्रियाओं को एक क्रियात्मक इकाई के रूप में समझा जा सके। तंत्र के दो भेद होते हैं। (1) अनावृत्त तंत्र (Open system) जो ऊर्जा-आपूर्ति द्वारा अपने को बनाए रखता है तथा अपना संरक्षण करता है तथा (2) आवृत्त तंत्र (closed system) जो अपनी एक सीमा रखता है जिसके बाहर से कोई विनिमय कार्य नहीं होता। इसे आंतरिक तंत्र (Internal system) भी कहते हैं।

तंत्र उपागम की पाँच कार्यात्मक अवस्थाएँ हैं :-


1. तंत्र प्रमाप (systems measurement) : इसमें लक्ष्यों का निर्धारण तथा सम्बन्धित आंकड़ों का एकत्रीकरण किया जाता है।

2. आंकड़ों का विश्लेषण (Data analysis) : इसमें विविध चरों के बीच सम्बन्धों की व्याख्या के लिये आंकड़ों का अनेक संख्यकीय विधियों द्वारा विश्लेषण किया जाता है।

3. तंत्र सम्बन्धी मॉडल तैयार करना (System modelling) : विश्लेषण का सैद्धांतिक आधार प्राप्त करने के लिये मॉडल बनाए जाते हैं।

4. तंत्र स्वांगीकरण (Systems Simulation) : तंत्र में होने वाले परिवर्तनों एवं उनके दुष्परिणामों की गवेष्णा करने के लिये स्वांगीकरण तकनीकों का उपयोग किया जाता है।

5. तंत्र औचित्यीकरण (Systems Optimization) : लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सर्वश्रेष्ठ रणनीतियों का चयन एवं मूल्यांकन तंत्र विश्लेषण की अंतिम अवस्था होती है।

3. पारिस्थितिक उपागम


इसके अंतर्गत पर्यावरण एवं मानव के बीच जटिल सम्बन्धों की व्याख्या एवं विश्लेषण किया जाता है। ये सम्बन्ध ऊर्जा एवं पदार्थ विनियम पर आधारित है। वर्तमान समय में भारी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ पर्यावरण में डाले जा रहे हैं तथा अत्यधिक उपयोग के लिये किये गये संसाधनों का पुनरूत्पादन और अवांछनीय पदार्थों के शोधन एवं पुनःचक्रण करने की प्राकृतिक क्षमता में सतत गिरावट कि स्थिति को अधिक जटिल बना दे रहे हैं। आज सामाजिक आर्थिक समस्याएँ अधिक महत्त्वपूर्ण हो गयी हैं। इसलिये मानव पारिस्थितिकी तथा सामाजिक पारस्थितिकी जैसी संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। ये संकल्पनाएँ औद्योगिक एवं तकनीकी वैज्ञानिक क्रांति से बहुत गहराई तक सम्बन्धित हैं। इस प्रकार पारस्थितिकी उपागम का क्षेत्र व्यापक हो गया है और जीव विज्ञान, समाजशास्त्र नृशास्त्र आदि विज्ञानों की प्रासंगिक सूचनाएँ एवं परिणाम इसके अंतर्गत आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीव विज्ञान एवं परिणाम इसके अंतर्गत आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीव विज्ञान अब पारिस्थितिकी उपागम का एक मात्र संरक्षक नहीं रहा। भूगोल विषय ने क्षेत्रीय भिन्नताओं और सम्बन्धों के पक्ष पर अपना विशेष अधिकार सुरक्षित कर लिया है। इसके अंतर्गत अन्य विज्ञान भी पर्यावरण के विभिन्न पक्षों एवं तत्वों के अध्ययन में लगे हैं।

जेरासिमोव20 (Gerasimov) ने इसी तथ्य को इस प्रकार व्यक्ति किया है।

“Under such a changed set up, geography has equally emphasized aspects spatial variation and relationship and biological science are no more the sole custodian of ecological approach, It has rather displayed a well marked tendency to become common in other fields of science.”

4. व्यावहारात्मक उपागम


पर्यावरण के मूल्यांकन में ज्ञान (Perception) की बढ़ती भूमिका के साथ निर्णयकारी प्रक्रिया में यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। इस विधि में पर्यावरण समस्याओं के प्रति मानव दृष्टिकोण का अध्ययन किया जाता है, जो विकल्पों के चयन के लिये आधार प्रस्तुत करता है।

पर्यावरण का ज्ञान जो व्यवहारात्मक उपागम का मुख्य घटक है। जटिल परिस्थितियों में निर्णयकारी प्रक्रिया में सहायक होता है क्योंकि सम्पूर्ण जैव मंडल में लक्ष्यों, लक्षणों एवं सम्बन्धों के अनेक ज्ञात तत्व एवं अंत: प्रक्रियाएँ होती हैं तथा मानव समुदायों में इनका ज्ञान होता है। गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति एवं वायु प्रदूषण के स्तर का अधिक अच्छा ज्ञान वहाँ के लोगों एवं सामाजिक सांस्कृतिक समूह के सर्वेक्षण से प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि यह एक कष्ट साध्यकार्य है। यह उपागम पर्यावरण प्रबंध हेतु योजनाएँ बनाने में अधिक उपयोगी है।

उक्त चारों उपागमों का अपना-अपना महत्त्व है। यदि एक उपागम एक स्थान पर अधिक उपयोगी है तो दूसरा अन्य स्थान पर इन उपागमों का विधि तंत्र एवं तर्क भिन्न-भिन्न हैं। इन चारों उपागमों का एक शीर्षक ‘‘वैज्ञानिक उपागम’’ के अंतर्गत रखा जा सकता है।

प्रस्तुत अध्ययन में उक्त विधियों को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम भूमि, जल, वायु तथा ध्वनि प्रदूषण के आंकड़ों को प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोतों से प्राप्त किया गया है। मृदा प्रदूषण सम्बन्धी आंकड़ों को प्राप्त करने के लिये लखनऊ नगर निगम, आलमबाग स्थित मृदा परीक्षण केंद्र एवं स्वयं एकत्रित किए गए मृदा नमूने नगर के विभिन्न क्षेत्रों से एकत्रित कर मृदा परीक्षण केंद्र से उनका परीक्षण कराकर उनकी जैव रासायनिक रचना का विश्लेषण प्राप्त किया गया है। इसके अतिरिक्त नेडा द्वरा विस्थापित किए जाने वाले कचरा से विद्युत उत्पादन के आंकड़ों तथा नगर निगम से नगरीय कचरा सम्बन्धी क्षेत्रवार आंकड़े प्राप्त किए गए गोमती प्रदूषण नियंत्रण इकाई गोमतीनर से भी कचरा एवं ठोस अपशिष्ट सम्बन्धी आंकड़े प्राप्त किए गए। इन स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करके, सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करके समुचित आरेखों द्वारा इसके विविध आयामों को प्रदर्शित किया गया है।

इसी प्रकार जल प्रदूषण सम्बन्धी आंकड़े न केवल अनेक स्रोतों से प्राप्त किए गए हैं। बल्कि गोमती जल के आठ (8) नमूना स्थलों, अद्योभौमिक जल के ग्यारह (11) तथा नालों के 44 नमूना स्थलों से जल एकत्र करके उनकी खनिज संरचना का तथा वीओडी आदि के प्राथमिक आंकड़े लखनऊ विश्वविद्यालय, आईटीआरसी, लखनऊ राज्य प्रदूषण बोर्ड तथा पर्यावरण निदेशालय की प्रयोगशालाओं से प्राप्त किए गए नगर के विभिन्न क्षेत्रों से पेयजल के नमूने लेकर उनका पीएच, कॉलीफार्म, बैक्टीरिया, टीडीएस आदि का परीक्षण भू-गर्भ जल संरक्षण तथा जल निगम तथा जल संस्थान की प्रयोगशालों से कराया गया। इन आंकड़ों का विश्लेषण करके इन्हें मानचित्रों एवं आरेखों द्वारा प्रदर्शित किया गया।

वायु प्रदूषण के द्वितीयक स्तरीय आंकड़े राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, औद्योगिक विष विज्ञान केंद्र, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान केंद्र लखनऊ से प्राप्त कर कार्टोग्राफी विधियों द्वारा इन आंकड़ों का आरेखण किया गया है। वाहनों से होने वाले प्रदूषण सम्बन्धी आंकड़े आरटीओ ऑफिस ट्रांसपोर्ट नगर लखनऊ से प्राप्त किए गए।

ध्वनि प्रदूषण के आंकड़े, राज्य प्रदूषण बोर्ड, आईटीआरसी, एनबीआरआई लखनऊ से प्राप्त किए गए इन आंकड़ों के विश्लेषण एवं व्याख्या करने के पूर्व नीरी कानपुर, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड लखनऊ, पर्यावरण निदेशालय, आईटीआरसी के पुस्तकालय से इससे सम्बन्धित आंकड़ों का अध्ययन किया गया। इस प्रकार से प्रस्तुत समस्या को नवीनतम सीमांत में रखने का प्रयत्न किया गया है।

पूर्व साहित्य का पुनरावलोकन


पर्यावरण प्रदूषण आज सम्पूर्ण विश्व की गम्भीर चिंता का विषय बन गया है। बढ़ती हुई जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं नगरीयकरण की प्रवृत्तियों के कारण नगरीय क्षेत्रों में उत्पन्न हुई गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं ने वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, प्रशासकों एवं स्वयंसेवी संगठनों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। अत: भारत के अनेक नगरों के प्रदूषण का अध्ययन भारतीय तथा विदेशी मनीषियों ने किए हैं। अनेक विदेशी विद्वान हैरी21, डिक्सन22, साउथविक23 सीएल वुड24 रिचर्ड स्कोरर25, तुर्क-तुर्क और वीट्स26 आदि ने नगरीय प्रदूषण का अध्ययन किया। इसी प्रकार से अनेक भारतीय विद्वानों ने अनेक भारतीय नगरों का अध्ययन किया है। वीके कुमरा27 ने (1981) कानपुर महानगर के प्रदूषण का, एसएस शर्मा28 (1994) जयपुर नगर का अंजना देसाई29 (1993) ने अहमदाबाद का, केएम कुलकर्णी30 (1984) अहमदाबाद नगर का, अमर सिंह31 (1983) में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के औद्योगिक प्रदूषण का, हीरालाल यादव32 (1985) ने नगर उपांतों के संविकास का, कल्पना मार्काण्डेय33 (1987) ने नगरीय भूदृश्य की पर्यावरणीय समस्याओं का, के सीता34 (1984) ने वृहत्तर मुंबई की संरचना का अध्ययन किया। एनसी सक्सेना, एमआर पाणिग्रही, एसके राघव स्वामी और वी. गौतम35 (1995) ने उत्तरी कर्णपुरा कोयला क्षेत्र के भूमि एवं जल संसाधनों पर प्रभाव का, के. बालाजी, वी. राघव स्वामी, पी राम मोहन, आर. नागराज और एनसी गौतम36 (1995) ने तूती कोरिन रिफाइनरी स्थल के पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन पर तृप्ता जायसवाल37 (1989) में कानपुर नगर के जेवड़ा मोहल्ले की गंदी बस्ती का, एस मेहता और पी. कुलकर्णी38 (1983) ने अहमदाबाद नगर के गंदी बस्ती निवासियों तथा पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का, एसएच माथुर39 (1983) ने जयपुर के पर्यावरणीय संकट का, वीपी सिंह, आरके वर्मा और एके माथुर40 (1983) ने गाजियाबाद नगर का, आरके राय और पी. पांडा41 (1983) ने शिलागनगर के पर्यावरणीय ह्रास का, विल फोर्ड, ए. ब्लैडन42 (1983) ने कलकत्ता क्षेत्र के प्रदूषण का, सविन्द्र सिंह43 (1983) ने गोमती नदी से उत्पन्न बाढ़ के पर्यावरणीय ह्रास का, बीबी सिंह, एपी सिंह, डीएन सिंह44 (1983) ने कलकत्ता महानगर के प्रदूषण संकट का एमजी भसीन45 (1983) ने वृहत्तर मुंबई के पर्यावरण का मंदगति से विषयुक्त होने का अध्ययन किया। एनकेडे और एके बोस46 (1983) ने कलकत्ता महानगर के गंदे क्षेत्रों के प्रवाह के सम्बन्ध में वहाँ के पर्यावरण का अध्ययन किया। पुष्पा अग्निहोत्री और डीएस श्रीवास्तव47 (1979) ने जबलपुर के गंदे क्षेत्रों में होने वाले अपराधों के सामाजिक प्रदूषण का अध्ययन किया। उदय भाष्कर रेड्डी48 (1989) ने भारत के महानगरों में गंदी बस्तियों की पारिस्थितिकी का अध्ययन किया। जी विश्वनाथन49 (1984) ने हैदराबाद नगर के पारस्थितिकी संगठन का अध्ययन, आभा माथुर50 (1990) ने कोटा नगर के वायु प्रदूषण का अध्ययन किया।

इसके अतिरिक्त टीएन खोसू51 (1984) ने इनवायर मेंटल कनसर्न, आरके त्रिवेदी52 ने River Pollution In India तथा जीके घोस53 ने Environmental Pollution जैसे महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं, जिनका अध्ययन प्रस्तुत शोध कार्य को उपयोगी बनाने में किया गया है।

स. लखनऊ महानगर : विकासात्मक संक्षिप्त इतिहास


भारतीय गणतंत्र के सबसे बड़े प्रदेश की राजधानी लखनऊ गोमती नदी (आदि गंगा) के दोनों ओर बसा है। प्रचलित कथाओं के अनुसार इस नगर को अयोध्या के राजा मर्यादा पुरूषोत्तम राम के अनुज वीरवर लक्ष्मण जी के द्वारा बसाए जाने के कारण उनके नाम से लक्ष्मणपुर, पुन: लखनावती या अन्य इसी प्रकार के नाम से जाना जाता रहा और आज यह लखनऊ के नाम से जाना जाता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार इस नगरी में विभिन्न कालों में विभिन्न संप्रदायों के राजाओं का राज्य रहा। परिणामस्वरूप इस नगर की सभ्यता सदैव गंगा यमुनी रही। आदिकाल से ही महानगर उद्यानों का नगर माना जाता रहा है।

लखनऊ मुगल सल्तनत में अपने शान शौकत के साथ संगीत और नृत्य में फूला-फला, ठीक उसी प्रकार जैसे संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर के कारण आगरा सुकोमल, परिष्करण और आकर्षण जीवन पद्धति को इस नगर ने संजोकर रखा है। इन्हीं वर्षों में नगर ने अपनी प्रतिष्ठा विकसित की है। महमूद गजनवी का आक्रमण भी इस नगर की अस्मिता को बहुत अधिक दुष्प्रभावित न कर सका, क्योंकि थोड़े समय के बाद 1130 ई. में एक राजपूत राजा ने महमूद गजनवी के भतीजे का तख्ता पलट दिया। अंत में यह नगर दिल्ली में बैठे लोदी सल्तनत का एक अंग बन गया। 1732 में मोहम्मद अमीन सरदार खां को नबाव वजीर बना दिया गया। अत: लखनऊ नगर भारतीय इतिहास के मुख्य धारा से मिल गया। चौथे नवाब आसुफददौला के समय में लखनऊ को अवध क्षेत्र की राजधानी बनाया गया। वर्ष 1957 के अंत में इसका सूर्यास्त होने लगा।

नगर के बचे हुए स्मारकों के रूप में अनेकों पुराने भवन हैं। यहाँ की वास्तुकला ने नवाब आसुफद्दौला के काल में अधिक विकास किया और यहाँ के लोगों की मूल संस्कृति अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुँच गयी और इसके सौंदर्य को सुरूचि पूर्ण ढंग से निखारा गया। इस काल में वास्तुकला, भवन निर्माण कला का सूर्य चमका और नगरीय क्षेत्र में प्रसिद्ध ऐतिहासिक भवनों का निर्माण हुआ।

इस प्रकार लखनऊ नवाबों की देखरेख में कला और संस्कृति के क्षेत्र में काफी विकास कर गया और ‘‘लखनऊ की शाम’’ की तुलना ‘‘बनारस की सुबह’’ से की जाने लगी। अवध शब्द का अर्थ है- ‘‘शिष्टता’’। नवाबों के काल की उनसे जुड़ी लोगों द्वारा कहानियाँ कही जाती हैं। यद्यपि यह कहानियाँ विश्वसनीय नहीं हैं फिर भी इनके साथ लखनऊ की आत्मा जुड़ी है।

नवाब वाजिद अलीशाह को अंग्रेजों ने देश निकाला कर दिया। नगर में बेगम हजरत महल के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों से युद्ध हुए तथा स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र बन गया। रेजीडेंसी भवन जो गोलियों से छलनी कर दिया गया था। वह आज भी यहाँ के लोगों की गाथा बता रही है। इस समय नगर का विकास रूक सा गया। ऐतिहासिक उथल पुथल ही प्रमुख रही। पुन: जब प्रदेश की राजधानी इलाहाबाद से स्थानांतरित कर इस नगर में लायी गयी तो काफी प्रगति हुई।

भारतीय गणतंत्र स्थापित हो जाने के बाद नगर एवं प्रदेश निकायों द्वारा प्रदेश के मुख्यमंत्री स्व. श्री चंद्रभानु गुप्त जी ने इस नगर के विकास हेतु अथक प्रयास किया था तथा उसमें चार चाँद लगाए। नगर के पुराने ऐतिहासिक महत्त्व के अनेक भवन तथा उनके भग्नावशेष आज भी उपलब्ध हैं जो अपनी यशोगाथा कहते हैं। इनमें बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा, पिक्चर गैलरी, छतर मंजिल, बारादरी, रेजीडेंसी, शाहनजफ का इमामबाड़ा आदि दर्शनीय स्थल हैं जो नगर के सांस्कृतिक ऐतिहासिक गौरव को संजोए हैं।

लखनऊ महानगर : भौगोलिक व्यक्तित्व


1. भौगोलिक स्थिति
भौगोलिक दृष्टि से यह नगर उत्तर प्रदेश के मध्य में 260 43‘07‘‘ से 260 58‘37‘‘ उत्तरी अक्षांश के मध्य तथा 800 48‘52‘‘ से 81003‘ पूर्वी देशांतर के मध्य बसा हुआ है इसका क्षेत्रफल 620 वर्ग किमी है। इस महानगर की सीमाएँ जनपद के विकासखण्ड सीमाओं से लगी है। पूर्व तथा उत्तर पूर्व में बक्सी के तालाब की सीमा, पश्चिम में काकोरी तथा सरोजनी नगर की सीमाएँ तथा दक्षिण पश्चिम और दक्षिण में मोहन लालगंज और गोसाईगंज की सीमाएँ हैं। गोमती नदी इस नगर के लगभग मध्य से होकर बह रही है। प्राचीन नगर इसके दाहिने तथा वर्तमान नया नगर बायीं ओर बसा है और विकसित हो रहा है। प्रदेश के सभी नगरों तथा देश के मुख्य नगरों से रेल, सड़क और वायु मार्गों से जुड़ा हुआ है। संचार के विविध माध्यमों से यह नगर विश्व के प्रमुख नगरों से भी संयुक्त है।

लखनऊ नगर का ‘‘नगर निगम’’ के अंतर्गत आने वाला कुल क्षेत्रफल वर्ष, 1959 में 103 वर्ग किमी था। 1987 में पुन: सीमा वृद्धि के फलस्वरूप वर्तमान में कुल क्षेत्रफल 337.50 वर्ग किमी. है। इसकी उत्तर से दक्षिण की लंबाई 38 किमी तथा पूर्व से पश्चिम की लंबाई 32 किमी है।

लखनऊ महानगर अध्ययन क्षेत्र2. प्राकृतिक धरातल
सामान्यतया नगर का धरातल समतल है, जो औसत समुद्र तल से 403 फिट की ऊँचाई पर बसा है। नगर का आलमबाग क्षेत्र ऊँचाई पर है। गंगा और घाघरा के मध्य तथा गोमती के किनारे बसे होने के कारण बालू पायी जाती है और कोई खनिज नहीं मिलते हैं। कानपुर रोड तथा सीतापुर रोड का क्षेत्र आवासीय भूमि के लिये अधिक उपयुक्त है या कि जल निकास की व्यवस्था ठीक है। शेष संपर्क मार्गों में जल भराव की स्थिति रहती है। गोमती पार कुकरैल का क्षेत्र या उत्तरी क्षेत्र निचला है। नवोन्मेषित गोमतीनगर गोमती के किनारे बसे होने के कारण ऊँचा-नीचा है। नगर के पश्चिम और उत्तर का क्षेत्र असमतल है। यहाँ टीले के आकारों के भू-क्षेत्र देखने को मिलते हैं। नगर का एक बड़ा भू-भाग गोमती के क्षेत्र में है। जहाँ सर्दियों-गर्मियों में सब्जी आदि की खेती की जाती है। कुकरैल का भी कुछ क्षेत्र इस उपयोग में लाया जाता है जो मानसून सत्र में नदी के प्रवाह क्षेत्र में बदल जाया करता है। लखनऊ के धरातल का ढाल एक फिट प्रति किमी की औसत दर से है। उत्तर या उत्तर-पश्चिम से दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम की ओर एक फिट प्रति किमी का ढाल है जो काफी कम है। गोमती और कुकरैल के कारण शहर की भूमि बँटी हुई है। गोमती नदी अपने प्रवाह मार्ग में सर्पाकृति होकर बहती है। वर्षाकाल में प्रवाह मार्ग विस्तृत हो जाया करता है। तटबंध बनने से पूर्व 1915, 1930, 1960 में गोमती नदी का जलस्तर सबसे ऊँचा रहा तथा पूरा शहर बाढ़ से प्रभावित हुआ। तट बंध बन जाने के पश्चात नगरीय क्षेत्र इस आपदा से सुरक्षित हो गया। फिर भी उत्तरवर्ती गाँव प्रभावित होते रहते हैं। नदी का जल काफी गहराई से होकर बहता है। इसलिये जल का सिंचाई के लिये उपयोग नहीं हो पाता है। नगरीय क्षेत्र के पेयजल की 60 प्रतिशत सुविधा गोमती नदी पर निर्भर करती है।54

शहर का विस्तार उत्तर तथा दक्षिण-पूर्व में कैंट एरिया होने के कारण विकास नहीं हो पाया। सीतापुर रोड, कानपुर रोड, फैजाबाद रोड, हरदोई रोड, कुर्सी रोड, रिंग रोड तथा कुछ छोटे सम्पर्क मार्गों में आवासीय क्षेत्र का विस्तार हो रहा है इन्हीं में औद्योगिक इकाइयाँ भी स्थापित की जा रही है। यहाँ परिवहन सुविधाएँ भी क्षेत्रीय तथा सम्पर्क मार्गों से संबद्ध की गयी हैं।

3. अपवाह तंत्र
गोमती नदी नगर के मध्य से होकर पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है तथा ऊपरी भाग में कुकरैल जो बरसाती नदी है उत्तरी की ओर से बहती हुई गोमती नदी में मिलती है। नगर के छोटे-बड़े नाले प्राय: पश्चिम से पूर्व की ओर बहकर नदी में मिलते हैं।

कुकरैल का उद्गम परगना महोना के ग्राम अस्ती में है जो पहले नाले के रूप में बहती है। शहरी क्षेत्र के दक्षिण में सई नदी बहती है, जिससे बालू प्राप्त होती है।

4. जलवायु
यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण मानसूनी है। यहाँ पर क्रमश: ग्रीष्म काल (मार्च से जून तक) वर्षा काल (जुलाई से अक्टूबर तक) शीतकाल (नवंबर से फरवरी) तीन मुख्य मौसम आते हैं। नगर की जलवायु दशाओं को जलवायु के तत्वों के आधार पर देखा जा सकता है।

अ. तापमान
लखनऊ में जनवरी सबसे ठंडा महीना है। इस महीने में तापमान गिर कर 10C तक चला जाता है। मई जून सबसे गर्म महीने हैं। इन महीनों में तापमान 480C तक पहुँच जाता है। लखनऊ में फरवरी के बाद तापमान तेजी से बढ़ने लगता है। ग्रीष्मकाल में धूलभरी पछुवा पवन के कारण यह तापमान 480C तक पहुँच जाता है। दक्षिण-पश्चिम मानसून पवन के आगे बढ़ने पर जून के मध्य में तापमान कभी-कभी एकाएक तेजी से गिर जाता है और गर्मी घटने लगती है। वर्षाऋतु के अंत में सितंबर-अक्टूबर महीने में तापमान गिरना प्रारम्भ हो जाता है। जनवरी 1946 में यहाँ का तापमान 10C तक पहुँच गया था।

तालिका 1.2 दैनिक औसत अधिकतम, मासिक औसत न्यूनतम एवं अधिकतम-न्यूनतम अभिलेखित तापमानब. आर्द्रता
मानसून काल में नगरीय क्षेत्र में आर्द्रता का औसत 75 प्रतिशत तक हो जाता है जबकि वर्ष की सबसे शुष्क ऋतु गर्मी में वायु में उपस्थिति आर्द्रता का प्रतिशत 30 तक रह जाता है। अप्रैल-मई में न्यूनतम तथा जुलाई अगस्त एवं सितंबर महीनों में उच्चतम रहती है।

स. मेघाच्छादन
मानसून काल में मेघाच्छन्नता उच्च रहती है। यह क्रम अक्टूबर तक चलता रहता है। इसके पश्चात आकाश प्राय: स्वच्छ रहता है तथा सफेद बदली यदा कदा दिखाई देती है।

तालिका 1.3 लखनऊ नगर में आर्द्रता का मासिक विवरण (प्रतिशत में)द. वायुदाब
लखनऊ नगर में शीतकाल में (जनवरी) वायुदाब सबसे अधिक रहता है। वर्ष के नवंबर, दिसंबर, जनवरी और फरवरी माह में तापमान कम और वायुदाब अधिक रहता है। जून, जुलाई में तापमान बढ़ता है और वायुदाब कम हो जाता है। वार्षिक वायुदाब का औसत 995 मिलीवार के लगभग रहता है।

तालिका 1.4 लखनऊ नगर में वायुदाब का औसत मासिक वितरण (मिलीवार)य. पवन वेग एवं दिशा
इस क्षेत्र में शीतकाल में पश्चिम और उत्तर-पश्चिम से हवाएँ चलती हैं। ये हवाएँ शुष्क रहती है। वायु का वेग 2 से 3 किमी. प्रति घंटा रहता है। मार्च-अप्रैल के महीनों में वायु का वेग बढ़ जाता है तथा मई और जून में वायु वेग बढ़ता है जो धीरे-धीरे ‘लू’ में बदल जाता है। मई-जून में चलने वाली ये हवाएँ शुष्क तथा गर्म होती है। ये हवाएँ 30 से 40 किलो मीटर प्रति घंटा की गति से चलती है। बरसात के दिनों में उत्तर-पूर्व की ओर हवाएँ चलती हैं तथा इनका घनत्व धीरे-धीरे घटना प्रारम्भ हो जाता है और सितंबर से पहले गर्म होकर ऊपर उठ जाती है और हवा का घनत्व कम हो जाता है।

तालिका 1.5 लखनऊ नगर में वायु वेग एवं दिशार. वर्षा
यहाँ वर्षा जून से सितंबर के मध्य होती है। कुल वर्षा का 90 प्रतिशत वर्षा इन्हीं महीनों में प्राप्त होता है। अधिकतम वर्षा के माह जुलाई और अगस्त है, जिनमें कुल वर्षा का 30 प्रतिशत प्राप्त होता है।

लखनऊ में कुल 3 स्थानों के वर्षा के अभिलेख उपलब्ध हैं, जो 90 वर्षों से अधिक के हैं। यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 940.3 मिलीमीटर है। लखनऊ नगर में इसके परित: स्थित स्थानों की अपेक्षा वर्षा का प्रतिशत अधिक है। लखनऊ नगर में पिछले 50 वर्षों की लंबी अवधि में वर्षा का प्रतिशत परिवर्तनशील रहा है। यहाँ दक्षिण पश्चिम पवन से होने वाली वर्षा का प्रतिशत 88 है। 1901 से 1951 तक के वर्षों की अवधि में सर्वाधिक वर्षा 193 प्रतिशत हुई, जो 1915 की साधारण वर्षा है। 1907 में सबसे कम 44 प्रतिशत वर्षा हुई।

वार्षिक वर्षा के औसत दिन 46 होते हैं, जिनमें 2 से 3 मिमी वर्षा प्रतिदिन होती है तथा औसत 49 प्रतिशत होता है। लखनऊ में सबसे अधिक वर्षा 324.6 मिमी सितंबर, 1915 में अंकित की गयी।

तालिका 1.6 लखनऊ नगर में वर्षा (मिमी.) तथा पवन वेग (कि.मी.)

5. वनस्पति


नगरीय क्षेत्र में सुल्तानपुर रोड के कैंट तथा गोमती नदी के पूर्वी क्षेत्र में प्राकृतिक वनस्पति के कुछ सीमित क्षेत्र हैं। वैसे लखनऊ नगर बागों एवं पार्कों का शहर है। शहर तथा आस-पास के क्षेत्रों में बगीचे पर्याप्त संख्या में है। आम, अशोक, महुआ, शीशम, नीम, बबूल, बांस आदि के वृक्ष यहाँ पाये जाते हैं। नगरीय क्षेत्र में शोभादार तथा फूलदार वृक्षों का रोपण किया गया है। विभिन्न स्वयत्तशासी संस्थाओं तथा सरकारी व अर्द्धसरकारी संस्थायें ने नगरीय पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिये सघन वृक्षारोपण अभियान चला रही हैं। ये संस्थायें छायादार तथा शोभादार वृक्षों का रोपण करती हैं जिनमें शीशम, केकैसिया, अमलताश, नीम, गोल्डमोहर के वृक्ष मुख्य हैं। यह संस्थाएँ सम्पर्क मार्गों, पार्कों तथा रेल की पटरियों के किनारे, कॉलोनियों में वृक्षारोपण करती हैं।

6. मिट्टी


लखनऊ नगरीय क्षेत्र में मुख्यत: दोमट और मटियार प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। यहाँ की मिट्टी पीला रंग लिये बलुई है। नदी के तटीय क्षेत्र में बालू की अधिकता पाई जाती है। नगरीय क्षेत्र के परित: सब्जी तथा फल, उगाए जाते हैं। नदी के प्रवाह क्षेत्र में तथा कुकरैल और निजी भूमि क्षेत्र की मिट्टी में भी फल एवं सब्जी का उत्पादन होता है। निचली पर्तों में कंकड़ भी पाये जाते हैं, जो एक पर्त के रूप में हैं।

7. भूमि उपयोग


लखनऊ नगर संकुलन का वह भाग निर्मित क्षेत्र माना जाता है, जिसका अधिकांश भाग व्यापार, उद्योग तथा आवासीय उपयोग हेतु विकसित हो चुका है। इस क्षेत्र में विभिन्न आवश्यक सुविधाएँ यथा मार्ग, जल वितरण, सीवेज, विद्युत आदि उपलब्ध है फिर भी नगरीय सुविधाएँ सभी क्षेत्रों में समान रूप से नहीं है। नगर का वर्तमान में भूमि उपयोग का क्षेत्र 14580.7 हेक्टेयर है। आगे आने वाले समय में 23682.00 हेक्टेयर भू-क्षेत्र उपयोग में आयेगा।56 (परिशिष्ट-1)

क. आवासीय भूमि उपयोग


लखनऊ नगर संकुलन क्षेत्र में आवासीय क्षेत्र 7105.7 हेक्टेयर में है जो कुल नगरीय विकसित क्षेत्र का 48.73 प्रतिशत है। आवासीय उपयोग हेतु 15923.8 हेक्टेयर भूमि प्रस्तावित है। नगर के प्रमुख प्राचीन विकसित क्षेत्र में निवास योग्य वातावरण में क्रमिक ह्रास हो रहा है क्योंकि नगरीय मध्य क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व अधिक है।

लखनऊ के 14 वार्डों- मौलवीगंज, नजरबाग, मकबूलगंज, गनेशगंज, कश्मीरी मोहल्ला, अशर्फाबाद, यहियागंज, मशकगंज, हुसैनगंज, कुण्डरी रकाबगंज, राजेन्द्र नगर, भदेवा, लालकुआँ तथा बशीरतगंज में नगर संकुलन के क्षेत्र का 4.5 प्रतिशत भाग आता है। जबकि जनसंख्या 27.5 प्रतिशत निवास करती हैं। इन वार्डों का घनत्व 415 व्यक्ति/हेक्टेयर है, जबकि नगर का घनत्व 69 व्यक्ति/हेक्टेयर है। सघन वार्डों का जनसंख्या घनत्व 1000 व्यक्ति/हेक्टेयर से अधिक है। नवोन्मेषित नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व कम है। नये बसने वाले उपनगरीय क्षेत्रों में कृष्णानगर, इंद्रानगर, गोमतीनगर, विकासनगर, आलमबाग, कानपुर रोड पर एलडीए कॉलोनी, अलीगंज तथा राजाजीपुरम वर्तमान में बड़े आवासीय उपनगर है। यह आवास कानपुर रोड, फैजाबाद रोड, मोहान रोड, कुर्सी रोड, हरदोई रोड, कानपुर-हरदोई रोड सम्पर्क मार्क, सीतापुर-फैजाबाद रोड सम्पर्क मार्ग तथा कानपुर-रायबरेली रोड सम्पर्क मार्ग में आवासीय नये क्षेत्र विकसित हो रहे हैं।

नगर संकुल का क्रमिक आवासीय विकास


लखनऊ का आवासीय विकास तीन चरणों में हुआ है -
1. नवाबी काल में नगर विकास।
2. ब्रिटिश कालीन विकास।
3. स्वतंत्रता पश्चात का आवासीय विकास।

1. नवाबी माल में नगर विकास


इस काल में नगर विकास के लिये कोई योजना नहीं बनायी गयी मकानों का निर्माण एक के पश्चात एक होता गया। आवासीय मकान के साथ व्यापारिक प्रतिष्ठानों का निर्माण किया गया। चौक और सहादतगंज मुहल्ले व्यापारिक रूप में अधिक विकसित हुए। इस काल में आवासीय भवनों का निर्माण चौक, वजीरगंज, हसनगंज (हुसैनाबाद) कैसरबाग, सहादतगंज टिकैतगंज, दौलतगंज, अशर्फाबाद कश्मीरी मोहल्ला, झाऊलाल बाजार आदि क्षेत्रों में किया गया। इस समय मकान काफी पास-पास बने, गलियाँ पतली रहीं, मकानों के मध्य आंगन बनाए गये। इस समय मकानों के बाहर जगह का प्राय: अभाव रहा या कम जगह छोड़ी गयी। किसी भी प्रकार की सफाई तथा जल निकासी की व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा गया।

लखनऊ महानगर कृमिक विकास

2. ब्रिटिश कालीन नगरीय विकास


ब्रिटिशकाल में आवासीय मकान कॉलोनियों के रूप में बनें जिनमें खुली जगह को प्राथमिकता दी गयी। इस काल में मार्ग चौड़े बनाए गए, भवन बंगलेनुमा बनाए गये, मार्गों में छायादार वृक्ष लगाए गए तथा बहुत से बाग-बगीचे लगाए गए। लखनऊ के सिविल लाइंस के आवासीय बंगले इस समय विकसित हुए।

3. स्वतंत्रता पश्चात का आवासीय विकास


स्वतंत्रता के पश्चात आवासीय कॉलोनियाँ, गोमती के किनारे बनायी गयी यह सम्पर्क मार्गों के सहारे मुख्य नगर से कुछ हटकर विकसित हुई। पहले महात्मा गांधी रोड, विक्रमादित्य मार्ग, चांदगंज, आलमबाग के मुहल्ले बसे, इसके पश्चात बढ़ती हुई नगरीय जनसंख्या को ध्यान में रखकर एशिया की सबसे बड़ी आवासीय योजना के अंतर्गत गोमती नगर, इंदिरा नगर, विकासनगर, खदरा, अलीगंज, बालागंज, राजाजीपुरम, कृष्णानगर, एलडीए कानपुर रोड, आशियाना, बंगलाबाजार, तेलीबाग और सुल्तानपुर रोड में अर्जुनगंज तक, फैजाबाद रोड में चिनहट तक, कानपुर रोड में 17 किमी दूर कृष्णालोक तक आवासीय क्षेत्रों का विकास उत्तरोत्तर द्रुत गति से हो रहा है।

ख. व्यावसायिक


महानगर संकुल के आंतरिक क्षेत्रों में प्रमुख कार्य केंद्र, उच्चकोटि की सुविधाएँ, कार्यालय एवं व्यावसायिक क्षेत्र गोमती तथा हरदोई, बाराबंकी रेलवे लाइन के मध्य में स्थित हैं। नगर का 377.4 हेक्टेयर क्षेत्र व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के अंतर्गत है, जो कुल भूमि उपयोग का 2.58 प्रतिशत है। बढ़ते हुए नगर क्षेत्र की जनसंख्या को ध्यान में रखकर 3.9 प्रतिशत तक क्षेत्र में अभिवृद्धि की योजना है, जो कुल 936.2 हेक्टेयर के लगभग हो जायेगा। (परिशिष्ट 1)

मुख्यत: व्यावसायिक क्षेत्र नगर के तीन पृथक-पृथक क्षेत्रों में है जिनमें चौक, अमीनाबाद तथा हजरतगंज हैं। चौक नगर का नवाबी काल से व्यापारिक केंद्र रहा है। आज भी चिकन तथा आभूषण प्रतिष्ठानों के लिये प्रसिद्ध है। रकाबगंज गल्लामड़ी नवाब आसुफुद्दौला के काल में लगभग 1775 से 1797 के मध्य विकसित होकर आज भी अपना वर्चस्व कायम किये हैं। ये नवीन व्यापारिक नगरीय क्षेत्र गल्ला मंडी से पीछे नहीं है। वर्तमान में नगर से 10 किमी दूर सीतापुर रोड में गल्ला मंडी की प्रतिष्ठापना की गयी है। सहादत अलीखान ने 1798 से 1814 के मध्यसहादतगंज बाजार की प्रतिष्ठापना की जो इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज भी यह किराना बाजार के रूप में प्रसिद्ध है। आज इसी रूप में डालीगंज, फतेहगंज, पाण्डेगंज अन्य मुख्य किराना बाजार हैं। अमीनाबाद अमजदअली के काल में 1942-47 के मध्य विकसित हुआ इसका विकास गल्ला मंडी के रूप में अमीरूद्दौला द्वारा किया गया। किंतु यह नगर का मुख्य बाजार कपड़ा एवं जनरल बाजार के रूप में विकसित हो चुका है। यहाँ फुटकर और थोक दोनों प्रकार की दुकानें हैं। अन्य कुछ व्यापारिक बाजार अमीनाबाद से लगे हुए हैं। जिनमें नजीराबाद, लाटूशरोड, कैसरबाग, श्रीराम रोड, मौलवीगंज, गणेशगंज और गड़बड़झाला व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के केंद्र हैं।

नगर के मुख्य बाजारों के अतिरिक्त मुख्य तथा सम्पर्क मार्गों में बाजार विकसित हुए हैं, जिनमें फैजाबाद मार्ग (कुकरैल से पॉलीटेकनिक) विधानसभा मार्ग (हुसैनगंज से रॉयल होटल) अशोक मार्ग (मुख्य चौराहे से राणा प्रताप मार्ग) शाहनजफ मार्ग (हजरतगंज मार्ग से राणा प्रताप मार्ग) रेलवे स्टेशन मार्ग (हुसैनगंज से केकेसी) आलमबाग-तालकटोरा मार्ग (टेढ़ी पुलिस से शारदा नहर तक) विशेश्वर नाथ मार्ग (कैसरबाग चौराहे से रॉयल होटल चौराहे तक) तुलसी दास मार्ग (चौक चौराहे से गाजीउद्दीन हैदरनगर तक) कुर्सीमार्ग (रैदास मंदिर से अलीगंज पेट्रोल पंप तक) निशातगंज मार्ग (निशातगंज चौराहे से गोमती नदी सेतु तक) रामतीर्थ मार्ग (हजरतगंज केंद्रीय वाणिज्य क्षेत्र से राणा प्रताप मार्ग चौराहे तक) सुभाष मार्ग (मेडिकल कॉलेज चौराहे से स्टेशन मार्ग तक) कैंट रोड (कैसरबाग केंद्रीय वाणिज्य क्षेत्र से कैंट रेलवे संपार तक) अमीनाबाद मार्ग (चारबाग रेलवे स्टेशन से अमीनाबाद केंद्रीय वाणिज्य क्षेत्र तक) गौतमबुद्ध मार्ग (कैसरबाग केंद्रीय वाणिज्य क्षेत्र से रेलवे स्टेशन मार्ग तक) शिवाजी मार्ग (हुसैनगंज चौराहे से गौतमबुद्ध मार्ग तक) गुइनरोड (अमीनाबाद केंद्रीय वाणिज्य क्षेत्र से गुलमार्ग होटल चौराहा तक) लालकुआँ/गुरूद्वारा मार्ग (हुसैनगंज चौराहा से नाका हिण्डोला चौराहा तक) गोलागंज मार्ग (गोलागंज चौराहा से कैसरबाग बस स्टेशन चौराहे तक) वीएस वर्मा मार्ग (गुलमर्ग होटल चौराहे से कैसरबाग बस स्टेशन तक) नजीराबाद मार्ग (अमीनाबाद केंद्रीय वाणिज्य क्षेत्र से कैसरबाग चौराहे तक) झाऊलाल मार्ग (गुलमर्ग चौराहे से गोलागंजल चौराहे तक) लालबाग चौराहे तथा आस-पास के मार्गों का क्षेत्र और पान दरीबा मार्ग (अग्रसेन विद्यालय से मवइया मार्ग मुख्य है। नगरीय सम्पर्क मार्गों में विकसित व्यापारिक क्षेत्रों के अतिरिक्त स्थानीय बाजार तथा सम्बन्धित सम्पर्क मार्गों में भी बाजार विकसित हो रहे हैं।

आवासीय नवीन कॉलोनियों में व्यापारिक प्रतिष्ठानों का विकास सुनियोजित रूप से किया गया है। इंदिरा नगर, गोमतीनगर, एलडीए कानपुर रोड, आशियाना, राजाजीपुरम, विकासनगर, अलीगंज, कृष्णानगर, कैंट क्षेत्र, बालागंज आदि में नगर के व्यापारिक केंद्र है। इनका स्थानीय महत्त्व है।

ग. औद्योगिक क्षेत्र


लखनऊ नगर प्राचीन काल से अपने उद्योगों के लिये प्रसिद्ध रहा है। विशेषत: घरेलू उद्योगों, यथा- सूती परिधान, वस्त्र रंगाई, कागज एवं काँच निर्माण, कढ़ाई की वस्तुएँ, आभूषणों की कारीगरी, लकड़ी एवं लोहे का सामान निर्माण, चिकन कढ़ाई, चप्पल एवं विसाती सामग्री निर्माण, हाथी दांत की वस्तुओं पर काम, सजावटी वस्तुओं, खिलौनों तथा स्वर्ण आभूषणों का निर्माण तथा उन पर नक्काशी आदि का कार्य नगर में बहुतायत से किया जाता रहा है।

नगर में औद्योगिक प्रतिष्ठानों के अंतर्गत 1514.5 हेक्टेयर क्षेत्र है जो कुल नगर भूमि उपयोग का 10.39 प्रतिशत से अधिक है। वर्तमान में औद्योगिक इकाइयों का क्षेत्र बहुत महत्त्व का है। लखनऊ के औद्योगिक क्षेत्र जिनमें नगर के अधिक लोग लगे हुए हैं उनमें कारीगर है। पुराने दो औद्योगिक क्षेत्र निशातगंज पेपरमिल, विक्रम काटन मिल्स थे जो वर्तमान में बंदर चल रहे हैं। वर्तमान में औद्योगिक विकास की धीमी गति को ध्यान में रखकर औद्योगिक क्रियाओं में संलग्न 60150 व्यक्तियों का अनुमान किया गया जिसमें कुटीर एवं घरेलू उद्योगों में 24300 व्यक्ति तथा 35850 व्यक्ति के निर्माण इकाइयों में लगे होने की संभावना है। वृहद उद्योगों का विस्तार मार्ग के साथ किया गया है। आवासीय क्षेत्रों में प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों को नगर से बाहर स्थानांतरित करने का भी प्रस्ताव है तथा प्रदूषण रहित उद्योग नगर सकुल के केंद्र में होंगे। (परिशिष्ट 2)

नगर के औद्योगिक क्षेत्रों में ऐशबाग जहाँ यंत्रों, साइकिल, कृषि यंत्र निर्माण एवं इंजीनियरिंग उद्योग हैं। यहीं धातुओं के पात्र तथा रासायनिक पदार्थ बनाए जाते हैं। ऐशबाग में लकड़ी का सामान, चौक में कढ़ाई का सामान, एहियागंज को औद्योगिक इकाइयाँ, कानपुर रोड में नादरगंज तथा सीतापुर रोड और फैजाबाद रोड में औद्योगिक इकाइयाँ लगायी गयी है तथा बाजारों में भी औद्योगिक इकाइयाँ हैं।

उद्योग धंधे


नगर की संगठित औद्योगिक इकाइयों के अंतर्गत मुख्यत: हिंदुस्तान एरोनाटिक्स की एक इकाई, एवरेडी फ्लैश लाइट कंपनी, यूपी एसवेस्टस लि., अपर इंडिया कूपर पेपर मिल कंपनी, मोहन मीकिन, स्कूटर इंडिया, यीपीडीपीएल, अपट्रान इंडिया लिमिटेड, आदि इकाइयाँ प्रतिष्ठापित हैं। असंगठित एवं लघु उद्योग इकाइयों के अंतर्गत मुख्यत: पारम्परिक उद्योगों में लगी इकाइयाँ हैं। नगर में टेलीविजन, स्कूटर, विक्रम, सूती धागा, शराब, हवाई जहाज के पूर्जे, प्लास्टिक का सामान, चमड़े का सामान, दवाएँ, विद्युत उपकरण, ठंडे पेय, लोहे की ढलाई इलेक्ट्रॉनिक्स, प्रिंटिंग प्रेस, चिकन के कपड़ों में कढ़ाई, मिट्टी का सामान, धातुओं के पात्र आदि निर्माण इकाइयाँ उत्पादन कार्य में लगी हैं। अधिनियम 1948 के अंतर्गत कारखानों की संख्या 1988-89 में 326 थी। अन्य 27072 मध्यम एवं लघु निर्माण इकाइयाँ है। वर्ष 1987-88 में पंजीकृत कार्यरत औद्योगिक इकायों में प्रतिलाख जनसंख्या 15670 व्यक्ति लगे थे। एक अनुमान के अनुसार नगर में औद्योगिक क्रियाओं में 60150 व्यक्ति कार्यरत हैं, जिनमें की 24300 घरेलू कुटीर उद्योगों में 35850 अन्य निर्माण इकाइयों में लगे हैं। व्यक्तिगत उद्योग पतियों द्वारा चलित 6941, औद्योगिक संस्थाओं द्वारा 712 इकाइयाँ कुल 7686 कार्यशील औद्योगिक इकाइयाँ है जिनमें कुल 250810 व्यक्ति कार्यरत हैं। हस्तशिल्प की 2543, रासायनिक उद्योग की 757, इंजीनियरिंग की 1055 इकाइयाँ तथा अन्य प्रकार की 1818 इकाइयाँ कार्यरत हैं।57

घ. सेवा क्षेत्र
सरकारी तथा सहकारी कार्यालय


लखनऊ नगर उत्तर प्रदेश की राजधानी होने के कारण इसका स्वरूप प्रशासनिक है। वर्तमान समय में व्यावसायिक गतिविधियों के कार्यालय, विशेष रूप से अशोक मार्ग, विधानसभा मार्ग, तथा हाईकोर्ट क्षेत्र में केंद्रित हैं। वर्तमान में कार्यालयों के उपयोग में 160.6 हेक्टेयर भूमि है, जो नगर के भूमि उपयोग का 1.10 प्रतिशत है। आने वाले समय में 378.5 हेक्टेयर भूमि कार्यालयों के उपयोग में लाने की संभावना है। इंदिरा नगर, अलीगंज, विकास नगर, राजाजीपुरम गोमतीनगर, एलडीए जैसे नये आवासीय क्षेत्रों में सरकारी कर्मचारियों के आवास तथा कुछ नये सरकारी उपयोग के बहुखंडीय भवनों का निर्माण कराया गया है।

नगर में मुख्य इंजीनियरिंग तथा सामाजिक सेवा के कार्यालय, मेडिकल कॉलेज तथा ऑफिस, रानी लक्ष्मीबाई मार्ग, विधानसभा मार्ग तथा अशोक मार्ग में किसान भवन, चीनी भवन, गन्ना संस्थान, सीडीआरआई, आईटीआरसी, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान केंद्र, चिड़ियाघर, राणाप्रताप मार्ग में है। हजरतगंज में, प्रधान डाकघर, पूर्वी रेलवे का संभागीय कार्यालय तथा नगर निगम स्थित है।

सार्वजनिक कार्यों के क्षेत्र शहरी नियोजन विभाग के मुख्यालय विक्रमादित्य तथा कालीदास मार्ग में है। गोखले मार्ग में बड़े ऑफिस है। भू-वैज्ञानिक सर्वे विभाग, सांख्यिकीय विभाग, पिकप भवन, मंडी भवन नये आवासीय क्षेत्रों में तथा यहीं पर उ.प्र परीक्षा भवन है। उड्डयन विभाग कानपुर रोड पर नगर से 12 किमी दूर तथा बड़े क्षेत्र पर सेना तथा रेलवे आवासीय कॉलोनियाँ हैं।

सामुदायिक सुविधाएँ एवं सेवायें


किसी नगर के स्वस्थ पर्यावरण को सुनिश्चित करने में सामुदायिक सुविधाओं एवं सेवाओं की मात्रा एवं विशेषता उनका उचित वितरण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नगर का 901.1 हेक्टेयर भू-भाग इन सेवा संस्थाओं के अधीन हैं, जो 6.19 प्रतिशत क्षेत्र हैं। आगे आने वाले समय में 1537.0 हेक्टेयर क्षेत्र इन सेवाओं के अंतर्गत निवेशित करने की योजना है।

शिक्षा


नगर में वर्तमान में 546 स्कूलों (1987) के अतिरिक्त 91 प्राथमिक एवं जूनियर हाईस्कूलों को बढ़ाने की योजना है यहाँ 212 हाईस्कूल/इंटरमीडिएट कॉलेज हैं। नगरीय क्षेत्र में 21 महाविद्यालय हैं, जिनमें अधिकांश गोमती के दक्षिणी भाग में है। एक विश्वविद्यालय है तथा उसका विस्तार सीतापुर रोड में करने की योजना है। अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय रायबरेली रोड में स्थापित किया गया है तथा वर्तमान में नगर में इंजीनियरिंग कॉलेज, 4 पॉलिटेकनिक कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, संजय गांधी स्नातकोत्तर कॉलेज, ललित कला अकादमी, भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय, ऐशबाग में मूक एवं बधिर विद्यालय, मोहान रोड पर अंधविद्यालय, स्वच्छकार समाज विद्यालय तथा बाल अपराध सुधार गृह भी स्थापित किए गए हैं। बड़े पब्लिक स्कूलों की बड़ी संख्या में शाखाएँ शिक्षा प्रदान कर रही हैं। छोटे पब्लिक विद्यालयों की संख्या का अनुमान भी लगाना कठिन है। इसके अंतर्गत 15000 जनसंख्या पर 1.8 हेक्टेयर हाई/इंटर मीडिएट कॉलेज तथा 6.00 हेक्टेयर महाविद्यालयों के लिये प्रति 80,000 जनसंख्या पर भूमि उपलब्ध कराए जाने की योजना है।57

स्वास्थ्य सेवाएँ एवं अन्य सामुदायिक सेवा सुविधाएँ


नगर संकुल क्षेत्र में 76 परिवार कल्याण केंद्र, 41 डिस्पेंसरी तथा 950 चिकित्सालय शैयाओं की व्यवस्था की गयी है। 901.1 हेक्टेयर का क्षेत्र इन सुविधाओं के अंतर्गत आता है, जो 6.19 प्रतिशत है। मेडिकल कॉलेज, संजय गांधी पोस्ट ग्रैजुएट कॉलेज चिकित्सालय, नगर के बड़े प्रसिद्ध स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने वाले केंद्र है। नूर मंजिल, फातिमा अस्पताल, विवेकानंद, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, बलरामपुर, मध्यकमान चिकित्सालय, रानी लक्ष्मीबाई, रेलवे चिकित्सालय, आयुर्वेदिक कॉलेज, होम्योपैथी चिकित्सालय तथा सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों पर कई प्रसिद्ध इकाइयाँ सेवारत हैं।58

8 यातायात एवं परिवहन


नगर के यातायात के जाल को सुरक्षित करने के लिये और आंतरिक एवं वाह्य यातायात सुनिश्चित करने की विस्तृत व्यवस्था की गयी है। नगर का 2801.1 हेक्टेयर भू-भाग यातायात मार्गों के अंतर्गत आता है, जो कुल क्षेत्र का 19.84 प्रतिशत है। नगर में आने वाले 16 प्रतिशत वाहन बिना विराम किए आने-जाने वाले हैं। इनके लिये रिंग रोड का निर्माण किया गया है, जिसकी चौड़ाई 60 मीटर है। नगर के पश्चिमी क्षेत्रों को प्रमुख कार्य केन्द्रों, सचिवालय, हजरतगंज से गोमती नगर को मिलाया गया है। पुराने नगर की कॉलोनियों के मार्गों की व्यवस्था आदि में सुधार किया जाना है।

नगर के प्रमुख आन्तरिक यातायात मार्गलखनऊ महानगर देश के प्रमुख नगरों महानगरों से सड़कों द्वारा जुड़ा हुआ है। यहाँ से कानपुर, फैजाबाद, वाराणसी, सुल्तानपुर, रायबरेली, हरदोई नगरों के लिये सड़क मार्ग एवं रेल मार्ग है तथा स्थानीय सड़कों का घना जाल बिछा हुआ है।

लखनऊ नगर सड़क रेल और वायु परिवहन का मुख्य केंद्र है। यह देश के सभी नगरों से सड़क व रेलमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। लखनऊ जक्शन देश के प्रमुख रेलवे स्टेशनों में से एक है। चारबाग, सिटी स्टेशन, बादशाह नगर, मुख्य रेलवे स्टेशनों के अतिरिक्त डालीगंज, मानक नगर, अमौसी, गोमती नगर, ऐशबाग, रेलवे स्टेशन है। नगर में 1994 तक सड़कों की कुल लंबाई 174 किमी है। नगर में सड़कों का घना जाल बिछा हुआ है।

नगर में 31 मार्च, 99 की नगर परिवहन विभाग द्वारा उपलब्ध करायी जानकारी के अनुसार नगर में 386683 वाहनों की संख्या है। सरकारी क्षेत्र में वाहनों की संख्या 8980 है। निजी क्षेत्र में 8000 से अधिक बड़े वाहन हैं। नगर में 24 मार्ग नगरीय सेवाओं तथा परिवहन सेवाओं के लिये हैं। नगर में मोटर साइकिलों की संख्या 208964 है। कारें 21988, जीपें 33162 और विक्रम टैम्पों 10,000 के लगभग है। नगर में तीन बस स्टेशन, चारबाग और गोमती नगर, कैसरबाग है जहाँ से परिवहन सेवाओं की सभी सुविधाएँ सभी क्षेत्रों के लिये प्रदान की गयी है। इसके अलावा गोमती नगर डिपों की व्यवस्था की गयी है। दो सरकारी गाड़ियों की मरम्मत करने की इकाइयाँ कैसरबाग व नादरगंज में है।58

9. ऐतिहासिक/सांस्कृतिक तथा पर्यावरण एवं मनोरंजनात्मक क्षेत्र


लखनऊ में ऐतिहासिक धरोहर को सुरक्षित रखने के लिये तथा नगरीय पर्यावरण को स्वस्थ बनाए रखने के लिये पार्क, क्रीड़ा स्थलों व बाग बगीचों के लिये कुछ स्थान नगर निगम द्वारा सुरक्षित छोड़े गये हैं। जिनके अंतर्गत नगर का 1630.00 हेक्टेयर भू-भाग आता है जो नगर की भूमि का 11.17 प्रतिशत भाग है। नगर में 772 पार्क चिह्नित किये गये हैं।

ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, वास्तुकला एवं पर्यावरण तथा मनोरंजनात्मक क्षेत्रों के अनुरक्षण हेतु उन्हें तीन जोनों में विभक्त किया गया है। इन्हीं क्षेत्रों में मुख्यतया ऐतिहासिक स्मारक तथा वास्तुकला भवन स्थित है। ये जोन कैसरबाग कॉम्पलेक्स, हुसैनाबाद तथा लामाटिनियर कॉम्पलेक्स है। इसके अनुरक्षण के लिये विशेष अधिनियम तथा ट्रस्ट बनाए गये हैं।

10. जनसेवाएँ


(i) पेयजलापूर्ति - राजधानी महानगर लखनऊ में नगर निगम द्वारा नगर निवासियों को विविध स्रोतों से पेयजल की आपूर्ति की जाती है। नगर की 17 लाख आबादी के लिये 460 एमएलडी (एमएलडी = 10 लाख लीटर) जल उपलब्ध कराया जा रहा है। बालागंज द्वितीय जलकल से 96 एमएलडी, ऐशबाग जल संस्थान से 180 एमएलडी जल, 234 नलकूपों से 234 एमएलडी जल, शहर के 2500 इंडिया मार्क टू हैंडपंप से लगभग दो एमएलडी जल प्रति दिन जलापूर्ति की जानकारी विभाग द्वारा उपलब्ध करायी गई। नगर के जल निगम मुख्य क्षेत्रों में पाइप लाइनों द्वारा जल की आपूर्ति की जाती है। 4-5 एमएलडी जल का स्टोर करके नगर के लिये जलापूर्ति की जाती है। जल संस्थान 24 घंटे में तीन बार जलापूर्ति की पुष्टि करता है। प्रात: 6 बजे से 12 बजे तक, शाम 6 बजे से 8 बजे तक, जलापूर्ति सुनिश्चित है गर्मियों में अपराह्न 2 से 3 के मध्य भी जलापूर्ति की जाती है।59

(ii) संचार सेवाएँ - वर्ष, 1993-94 में लखनऊ नगर में कुल 122 डाकघर, 45 तारघर, 330 पब्लिक कॉल तथा टेलीफोन संख्या 56291 थी। नगर के सेवाओं का अति विस्तार किया गया है।

(iii) अग्निशमन सेवाएँ - नगर में 5 अग्निशमन सेवा केंद्र हैं। अग्निशम सेवा केंद्र लखनऊ तथा अन्य निकट क्षेत्रों के लिये सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं।

(iv) मनोरंजन/पर्यटन स्थल - ऐतिहासिक शहर लखनऊ बगीचों एवं बागों के शहर के नाम से प्रसिद्ध है। इनमें मुख्य रूप से कुकरैल वन, चिनहट, पिकनिक स्पॉट, मूसाबाग और चिड़ियाघर का पिकनिक स्पॉट है। ऐतिहासिक दृष्टि से लखनऊ में आसिफुद्दौला का इमामबाड़ा, हुसैनाबाद का इमामबाड़ा, रूमी दरवाजा, क्लार्क टावर तथा आर्ट गैलरी, लक्ष्मण टीला, रेजीडेंसी, लाल बारादरी, चिड़ियाघर, सिकंदरबाग, शहीद स्मारक तथा राज्य संग्राहलय, आंचलिक विज्ञान केंद्र इत्यादि प्रसिद्ध हैं जो पर्यटकों के मुख्य आकर्षण का केंद्र हैं।

नगर में दो स्पोर्टस स्टेडियम जिनमें एक में अन्तरराज्यीय स्तर की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती है। गोमती नगर स्टेडियम तथा स्पोटर्स कॉलेज स्टेडियम कॉलेज भी है। पर्यटकों को आराम करने हेतु गोमती होटल में 162 शैयाएँ तथा अन्य नगर के प्रमुख होटल तथा पर्यटन इकाइयाँ सुविधाएँ प्रदान करती हैं।

11. जनसंख्या


नगरीकरण की बढ़ती समस्याओं से लखनऊ नगर अप्रभावित नहीं है। नगर के आंतरिक भागों में जहाँ जनसंख्या का सामान वितरण नहीं है, वहीं जनसंख्या वृद्धि ह्रास भी होता रहा है। जनसंख्या घनत्व भी धीरे-धीरे लगातार बढ़ता गया है।

तालिका- 1.7 से स्पष्ट होता है कि 1911 से 21 के मध्य देश में व्यापक रूप से बीमारी आदि के कारण जनसंख्या बढ़ने के स्थान पर घटी, 1941 के दौरान नगरीकरण का प्रतिशत सबसे अधिक रहा। इसके पश्चात नगरीकरण की दर में गिरावट आयी। पुन: नगर सीमा विस्तार के कारण नगरीकरण का प्रतिशत 62.97 हो गया।

तालिका 1.7 लखनऊ नगर की जनसंख्या की दशाब्दी वृद्धि

लखनऊ नगर की जनसंख्या


वर्ष, 1991 की जनगणना के अनुसार लखनऊ नगर की कुल जनसंख्या 1669204 है, जिसमें की 892308 पुरुष एवं 776896 स्त्रियाँ है जो कि 1981 की जनगणना से 611611 अधिक है। जिसका प्रतिशत 62.97 है। नगर में कुल परिवारों की संख्या 293130 जो 270571 मकानों में निवास करते हैं। लखनऊ जनपद की कुल जनसंख्या 2762801 है, जिसमें 60.4 प्रतिशत जनसंख्या लखनऊ महानगर में निवास करती है। लखनऊ नगर को 40 वार्डों में विभक्त करके सेवाओं का सुनियोजित विस्तार किया गया है। नगर के 14 वार्ड ऐसे हैं। जहाँ नगर संकुलन क्षेत्र का 4.5 प्रतिभाग है जबकि जनसंख्या का 27.4 प्रतिशत से अधिक निवास करती है। इन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व 415 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर है।

जनसंख्या वृद्धि


नगर की जनसंख्या वृद्धि दर की प्रवृत्ति पिछले दशकों में हसोन्मुख रही। दशक 1951-61 में 24.14 प्रतिशत तथा दशक 71-81 में 23.79 प्रतिशत रही इन दशकों में नगर के विभिन्न क्षेत्रों में मूल आवश्यकताओं को जुटाने हेतु प्रयास किये गये जो की नगर की जनसंख्या को हसोन्मुखी प्रवृत्ति को रोकने में उपयोगी सिद्ध होंगे।

1981-91 दशक में नगर की सीमा का विस्तार किया गया। इस अवधि में नगरीय वृद्धि दर 62.97 हो गयी, यद्यपि पूर्व नगर सीमा में यह जनसंख्या वृद्धि दर 24 प्रतिशत ही रही। जनसंख्या वृद्धि दर यद्यपि कम हुई है। फिर भी बढ़ती जनसंख्या में कमी नहीं आयी। प्रतिदशाब्दी जनसंख्या लगातार बढ़ती गयी। नगर की जनसंख्या में वृद्धि मुख्यतया तीन कारणों से होती है। प्रवासी व्यक्तियों से, अस्थायी रूप से रोजगार के लिये आने वाले और स्थायी रूप से व्यापार एवं रोजगार के लिये आने वालों से। लखनऊ जनपद की 1971-81 के दशक में जनसंख्या वृद्धि 25.52 प्रतिशत हुई, जबकि 1981 से 1991 के दशक में यह वृद्धि 37.14 प्रतिशत रही।60

जनसंख्या का स्थानीय वितरण


नगर के पुराने बसे वार्डों में जनसंख्या का घनत्व अधिक है। 1981 में नगर का जन घनत्व अधिक है। 1981 में नगर का जन घनत्व 6904 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर रहा, यही जन घनत्व 1991 में मौलवीगंज, नजरबाग, मकबूलगंज, गनेशगंज, कश्मीरी मोहल्ला, अशर्फाबाद, यहियागंज, मशकगंज, हुसैनगंज, कंडरी रकाबगंज, राजेंद्र नगर, भदेवा, लालकुआँ, बशीरतगंज, वार्डों में 27.5 प्रतिशत व्यक्ति रहा है। इन क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व 415 व्यक्ति/हेक्टेयर है। नगर का औसत जन घनत्व 69 व्यक्ति/हेक्टेयर है। इन सघन क्षेत्रों के कुछ वार्डों का जनसंख्या घनत्व 1000 व्यक्ति/हेक्टेयर से भी अधिक है। हजरतगंज, अमीनाबाद चौक, ऐशबाग, न्यू हैदराबाद तथा आंशिक आलमबाग क्षेत्र, व्यापारिक होने के कारण कम जनसंख्या घनत्व वाले है।58

नगर में उच्च जन घनत्व का औसत 600 व्यक्ति हेक्टेयर है। मध्यम घनत्व के क्षेत्र में 400 व्यक्ति/हेक्टेयर निवास करते हैं। नयी विकसित आवासीय कॉलोनियों में जन घनत्व मध्यम स्तर से कम है। आशा की गयी कि नयी आवासीय कॉलोनियों में नगरीय नागरिक सुविधा की उपलब्धता के साथ सघन नगरीय प्रभागों से नगरीय जन घनत्व कम होगा और नगर का पर्यावरण सुधर सकेगा।60

12. आवास व्यवस्था


लखनऊ महानगर में 1991 की जनगणना के अनुसार 270571 मकानों की संख्या है। जिसमें 293130 परिवार निवास करते हैं। जबकि 1981 की जनगणना में नगर में आवासीय मकानों की संख्या 159246 थी, जिसमें 167194 परिवार निवास करते थे। इन जनसंख्या के आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि 1.10 लाख मकानों की संख्या दशाब्दी में बढ़ गयी। इसी प्रकार परिवारों में भी बढ़ोत्तरी हुई। नगर के अलीगंज, इंदिरा नगर, राजाजीपुरम, गोमतीनर, विकास नगर तथा एलडीए की कॉलोनियों में आवासीय मकानों की संख्या सर्वाधिक है। इन कॉलोनियों में 10 से 20 लाख तक मकानों की संख्या है। अलीगंज वार्ड में सर्वाधिक मकान बनाए गए हैं। इंदिरा नगर, राजाजीपुरम और गोमतीनगर जो एशिया की सबसे बड़ी आवासीय कॉलोनी के रूप में बनायी गयी हैं। दूसरे स्थान पर है।61 नगर में प्रति मकान निवास का औसत 6.1 व्यक्ति का है। नगर के किनारे के वार्डों में यह औसत 5.4 व्यक्ति का है। नगर के किसी भी वार्ड में प्रति मकान निवासियों की संख्या का 6.8 से अधिक नहीं है। सबसे कम 4.5 व्यक्ति का औसत है, जो नगर के मकबूलगंज वार्ड में है। (परिशिष्ट - 2)

जनसंख्या की नगरीकरण की प्रवृत्ति हमारे पर्यावरण को लगातार द्रुति गति से प्रभावित करती जा रही है। यह समस्या किसी नगर, देश, प्रदेश या क्षेत्र की समस्या नहीं है बल्कि यह एक विश्वव्यापी समस्या है। पर्यावरण संरक्षण के लिये इस दिशा में आवश्यक तथा प्रभावी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। अगले अध्ययन में नगरीय पर्यावरण की दशाओं, समस्याओं तथा निदान की व्यवस्थाओं को सम्मिलित किया गया है।

(संदर्भ) REFERENCES
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2. Park, C.C. Ecology and Environmental Management : A geographical Perspective, Butterworths, London, 1980, p. 272
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लखनऊ महानगर एक पर्यावरण प्रदूषण अध्ययन (Lucknow Metropolis : A Study in Environmental Pollution) - 2001


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

पर्यावरण प्रदूषण की संकल्पना और लखनऊ (Lucknow Metro-City: Concept of Environmental Pollution)

2

लखनऊ महानगर: मृदा प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Soil Pollution)

3

लखनऊ महानगर: जल प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Water Pollution)

4

लखनऊ महानगर: वायु प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Air Pollution)

5

लखनऊ महानगर: ध्वनि प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Noise Pollution)

6

लखनऊ महानगर: सामाजिक प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Social Pollution)

7

लखनऊ महानगर: प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण प्रबंध (Lucknow Metro-City: Pollution Control and Environmental Management)