पर्यावरण-पर्यटन और पर्वतमालाएँ

Submitted by Hindi on Mon, 11/23/2015 - 16:42
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योजना, अगस्त 2002

विश्व के सर्वाधिक जैव-विविधता वाले सात राष्ट्रों में भारत भी एक है। इसकी समृद्ध और प्राचीन सांस्कृतिक विरासत पर्यटकों को आकर्षित करती है और यहाँ पारिस्थितिकी-पर्यटन के विकास की व्यापक सम्भावनाएँ हैं जिनके माध्यम से संरक्षण और आर्थिक विकास की योजनाएँ बनाए जा सकती हैं।

पर्वतमालाएँ समस्त प्राकृतिक सौन्दर्य का प्रारम्भ और अंत हैं। - जाॅन रस्किन

पृथ्वी हमें पूर्वजों से विरासत में नहीं मिली है; इसे हमने अपने बच्चों से उधार लिया है। -एक अमेरिकी कहावत

‘इको-टूरिज्म’ या पारिस्थितिकी-पर्यटन दो अलग-अलग अवधारणाओं यानी पारिस्थितिकी और पर्यटन का सम्मिश्रण हैं। किन्तु इन्हें एक साथ रखकर पारिस्थितिकी-संरक्षण और पर्यटन-विकास दोनों का ही महत्व बढ़ जाता है। जहाँ एक ओर पर्यटन को राजस्व अर्जित करने और स्थानीय लोगों के लिये रोजगार के अवसर पैदा करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझा जा रहा है; वहीं धरती की पारिस्थितिकी प्रणाली के संरक्षण के लिये पारिस्थितिकी परिप्रेक्ष्य को अनिवार्य माना जा रहा है। इस तरह पारिस्थितिकी-पर्यटन ने प्राकृतिक और सांस्कृतिक संसाधनों के संरक्षण और पर्यटन के विकास में रचनात्मक योगदानकर्ता के रूप में विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है। पर्वतमालाएँ अपनी भव्यता, प्राकृतिक सौन्दर्य और बेजोड़ पारिस्थितिकी प्रणाली की दृष्टि से चूँकि पर्यटकों के आकर्षण का विशेष केन्द्र हैं, अतः उन्हें पारिस्थितिकी-प्रेमी पर्यटक गतिविधियों के लिये स्वर्ग समझा जाता है। ये गतिविधियाँ सामान्यतः बाहरी और साहसिक होती हैं।

सामान्यतः पारिस्थितिकी-पर्यटन का अर्थ है पर्यटन का प्रबंध इस ढंग से करना कि मानव प्रकृति के आन्तरिक सन्तुलन को क्षति पहुँचाए बिना उससे अधिकतम लाभ प्राप्त करें। इसका लक्ष्य प्रकृति के साथ मानव का रिश्ता फिर से जोड़ना और यह सुनिश्चित करना है कि स्थानीय समुदायों की जरूरतें पूरी हों, तथा उनकी स्थानीय संस्कृति और परम्पराएँ अक्षुण्ण रहें। पारिस्थितिकी-पर्यटन, पर्यटन उद्योग के पूर्ण एकीकरण को मान्यता प्रदान करता है ताकि यात्रा और पर्यटन क्षेत्री लोगों की आय का स्रोत बनें, साथ ही स्थानीय लोग पृथ्वी की पारिस्थितिकी प्रणाली के संरक्षण सुरक्षा और बहाली में योगदान करें। इस तरह पर्यावरण-संरक्षण स्थाई पर्यटन का महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। यह महत्त्वपूर्ण बात है कि पारिस्थितिकी परिप्रेक्ष्य और पर्यटन जरूरतें आपस में इस तरह जुड़ी हैं कि वे सौंदर्यपरक, आर्थिक और सामाजिक जरूरतें तो पूरी करती ही हैं, सांस्कृतिक एकता, अनिवार्य पारिस्थितिकी प्रक्रिया, जैव-विविधता और जीवन को स्थाई बनाने वाली प्रणालियाँ भी सुनिश्चित करती हैं।

पारिस्थितकी-पर्यटन को कई तरह से परिभाषित किया गया है, जैसे ‘एक आर्थिक प्रक्रिया, जिसमें दुर्लभ और सुन्दर पारिस्थितिकी प्रणालियों का विपणन किया जाता है’, अथवा ‘वन्य जीवों और अविकसित प्राकृतिक क्षेत्र का आनंद उठाने के विशेष लक्ष्य के लिये पर्यटन’ अथवा ‘‘पर्यावरण संस्कृति और उसके प्राकृतिक इतिहास को समझने और इस बात का ध्यान रखने के लिये प्राकृतिक क्षेत्रों की उद्देश्यपूर्ण यात्रा, कि पारिस्थितिकी प्रणाली की अखंडता में बदलाव न आए....’’। इन परिभाषाओं से दो विशेष प्रवृत्तियों का पता चता है: पहली यह कि पारिस्थितिकी-पर्यटन को एक उपभोक्ता वस्तु माना गया है और दूसरी यह कि पारिस्थितिकी-पर्यटन एक संतुष्टि प्रदान करने वाला अनुभव है। विश्व पर्यटन संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा दी गई परिभाषा अधिक उपयुक्त एवं व्यापक है। इसके अनुसार ‘‘पारिस्थितिकी-पर्यटन प्रकृति और उसके वन्य पौधों और जीव-जन्तुओं तथा इन क्षेत्रों में विद्यमान सांस्कृतिक पहलुओं (अतीत और वर्तमान दोनों) के अध्ययन, प्रशंसा और आनंद उठाने के विशेष लक्ष्य से किया जाने वाला ऐसा पर्यटन है जिसमें अपेक्षाकृत अबाधित प्राकृतिक क्षेत्रों की यात्रा की जाती है।’’ इस तरह पारिस्थितिकी-पर्यटन पर्यावरण-अनुकूल गतिविधि है, क्योंकि इसमें प्रकृति के प्रति उपभोक्तावादी दृष्टिकोण नहीं अपनाया जाता। इससे पर्यावरण विषयक नैतिकता को बल मिलता है और इस बात की पुख्ता व्यवस्था होती है कि पारिस्थितिकी-पर्यटकों को एक प्रेरणात्मक और भावात्मक संतुष्टि प्राप्त हो क्योंकि इसका लक्ष्य वन्य जीवों और पर्यावरण को लाभ पहुँचाना है। अंततः इससे स्थानीय विकास को प्रोत्साहन मिलता है तथा स्थानीय समुदायों को अधिकार प्राप्त होते हैं।

पारिस्थितिकी-पर्यटन का उस समय लोकप्रियता मिली जब संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2002 को ‘पारिस्थितिकी-पर्यटन और ‘पर्वत-श्रेणियों के वर्ष’ के रूप में मनाने की घोषणा की। इसका लक्ष्य जन-अधिकारियों, निजी क्षेत्र और सभ्य समाज में इस बात की जागरुकता पैदा करना है कि पारिस्थितिकी-पर्यटन प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा में योगदान की विशेष क्षमता रखता है। इससे इन क्षेत्रों में जीवनस्तर सुधारने और पारिस्थितिकी-पर्यटन के नियोजन एवं प्रबंधन तकनीकों के सम्प्रेषण में मदद मिलती है। इतना ही नहीं, पर्वत श्रेणियों पर ध्यान केन्द्रित करने के पीछे लक्ष्य यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों में तेजी से हो रहे पर्यावरण ह्रास की ओर विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित किया जाए। अनियंत्रित ट्रैकिंग और पर्वतारोहण अभियानों से पर्यावरण को गम्भीर क्षति पहुँची है, जिससे घाटियाँ और पहाड़ कचरा डालने के स्थान बनते जा रहे हैं। शिविरों में ठहरने वाले लोगों के लिये ईंधन की व्यवस्था करने से वनों का तेजी से ह्रास हो रहा है।

अन्तरराष्ट्रीय पारिस्थितिकी-पर्यटन वर्ष की घोषणा से विश्व स्तर पर पारिस्थितिकी-पर्यटन की समीक्षा करने और स्थाई विकास की दिशा में संगठित प्रयास करने का अवसर मिला है। इसके अतिरिक्त वर्ष 2002 को अन्तरराष्ट्रीय पारिस्थितिकी-पर्यटन वर्ष घोषित करने का एक लक्ष्य ‘‘विभिन्न देशों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बारे में अधिक जागरुकता पैदा करना और विभिन्न संस्कृतियों में अंतर्निहित मूल्यों को बेहतर ढंग से समझना और विश्व शांति में योगदान करना’’ भी है। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र घोषणा की भावना के अनुरूप एक नई पर्यटन-नीति तैयार की है, जिसका लक्ष्य ‘‘लोगों के बीच बेहतर समझ को बढ़ावा देना, रोजगार के अवसर पैदा करना और समुदाय, खासकर भीतरी और दूरदराज के क्षेत्रों को सामाजिक-आर्थिक लाभ पहुँचाना सन्तुलित एवं सतत विकास की दिशा में प्रयास करना और भारत की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित, समृद्ध और प्रोत्साहित करना’’ है। नई पर्यटन नीति के प्रारूप में इस कार्यक्रम में लोगों की भागीदारी बढ़ाने के महत्व को स्वीकार किया गया है और इसे एक साझा प्रयास बनाने की बात कहीं गई है ताकि केन्द्र और राज्य सरकार की एजेंसियों के इतर एजेंसियाँ भी लक्ष्य प्राप्ति में मदद कर सकें।

पर्वतीय क्षेत्रों को पारिस्थितिकी-पर्यटन की सम्भावना वाले क्षेत्रों के रूप में विकसित करने के महत्व पर विचार करने से पहले यह उचित होगा कि हम उन गतिवधियों पर नजर डालें जो पारिस्थितिकी-पर्यटन की अवधारणा में शामिल हैं। इन गतिविधियों का दायरा अत्यन्त व्यापक है, जिन्हें ‘आउटडोर रिक्रिएशन’ यानी ‘बाहरी मनोरंजन’ कहा जा सकता है जैसे ट्रैकिंग (भ्रमण), हाइकिंग (पैदल सैर), पर्वतारोहण, माउंटेन साइकलिंग, काइएकिंग, पक्षियों को निहारना, नौकायन, रीवर राॅफ्टिंग (नदी-नौकायन), स्कीइंग (बर्फ पर फिसलना), जैविक खोज और वन्य जीव अभ्यारण्यों की यात्रा। इनमें से अधिकतर गतिविधियों का सम्बन्ध पर्यटन से है लेकिन इसमें एक बड़ा अंतर यह है कि साहसिक पर्यटन में जोर प्रकृति के साथ रोमांच पर अधिक रहता है। राफ्टिंग का आनंद उठा रहे व्यक्ति में नदी के प्रति जागरुकता हो भी सकती है और नहीं भी, जबकि एक पारिस्थितिकी-पर्यटक के मन में प्राकृतिक शक्ति के प्रति भावात्मक आकर्षण दिखाई देगा। दूसरे शब्दों में, विलियम वडर्सवर्थ द्वारा दी गई उपमा का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि राफ्टिंग प्राणि-बल विषयक रोमांचकारी अनुभव है जबकि पारिस्थितिकी-पर्यटन अधिक संवेदनात्मक और परिपक्व दृष्टिकोण है। इसके अलावा साहसिक पर्यटन में आमतौर पर युवा हिस्सा लेते हैं जबकि पारिस्थितिकी-पर्यटन में बुजुर्ग और परिपक्व पर्यटक भी युवाओं का साथ दे सकते हैं।

पारिस्थितिकी-पर्यटन से संतुष्टि सुनिश्चित होती है, और इसका आयोजन छोटे एकरूप समूहों के लिये किया जाता है। इसकी प्रेरणात्मक और भावात्मक दृष्टि मूल्यवान है क्योंकि इसका लक्ष्य प्रकृति को उपभोग्य वस्तु के रूप में देखना नहीं है बल्कि इसकी रक्षा के महत्व को समझना है। इतना ही नहीं पारिस्थितिकी-पर्यटन ‘जन-पर्यटन’ (मास टूरिज्म) अथवा अधिक सही शब्दों में कहें, तो सैरगाह पर्यटन (रिजाॅर्ट टूरिज्म) से भी भिन्न है। सैरगाह पर्यटन में पर्यटक का मुख्य लक्षण सामान्य दिनचर्या से दूर रहना, अवकाश का आनंद लेना, ऐतिहासिक स्थानों या पर्यटक-स्थलों की यात्रा करना और एक अच्छी सैर की स्मृति लेकर लौटना होता है। इनमें अधिसंख्य पर्यटक ऐसे होते हैं जो यात्रा किए गए स्थानों के प्राकृतिक सौंदर्य अथवा उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता से अभिभूत या प्रेरित नहीं होते।

पर्वतीय क्षेत्र पारिस्थितिकी-पर्यटन गतिविधियों के संचालन के लिये एक प्रभावकारी कार्य-क्षेत्र उपलब्ध कराते हैं। पर्वतों की बेजोड़ पारिस्थितिकी प्रणाली, उनका उत्कर्ष और विस्मयकारी सुरम्य सौन्दर्य नित्य आकर्षण का स्रोत हैं। वास्तव में ट्रेकिंग, हाइकिंग, पर्वतारोहण जैसी पारिस्थितिकी-पर्यटन की लगभग सभी गतिविधियाँ पर्वतीय इलाकों में आयोजित की जा सकती हैं। पर्वतीय पारिस्थितिकी-पर्यटन की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन पर विचार करना इस सन्दर्भ में अनिवार्य होगा। पर्वतमालाएँ हरियाली की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध क्षेत्र हैं। यहाँ वृक्षों, जड़ी-बूटियों और फूलों की विविधता मन-मोह लेती है। ये हरित क्षेत्र कई मायनों में महत्त्वपूर्ण हैं, जैसे इनसे भू-परिदृश्य का सौन्दर्य बढ़ता है, वे जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों का प्राकृतिक वास हैं और पौधों, झाड़ियों और औषधीय गुणों से सम्पन्न जड़ी-बूटियों का खजाना है। स्थानीय निवासी इन हरित क्षेत्रों का सम्मान करते हैं और उन्हें पवित्र उपवन समझकर परम्परागत रूप से उनका संरक्षण करते हैं। भारत में ऐसे हजारों पवित्र उपवन मैदानों और पर्वतीय क्षेत्रों में फैले हुए हैं। हिमालय में शिमला से करीब 12 कि.मी. दूर शिपिन में सबसे बड़ा देवदार उपवन है जहाँ सैकड़ों वर्ष पुराने वृक्ष मौजूद हैं। हिमालय क्षेत्र में ऐसे अनेक उपवन हैं जिनका उल्लेख हमारे प्राचीन धर्म-ग्रंथों में मिलता है। हिमालय हमारी प्राकृतिक और आध्यात्मिक विरासत है; यह हमारे सर्वोच्च आदर्शों और आकांक्षाओं का प्रतीक है। दुर्भाग्य से हिमालय की पारिस्थितिकी का तेजी से ह्रास हो रहा है। इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। मौजूदा हालात में पारिस्थितिकी-पर्यटन के साथ संरक्षण का समुचित प्रबंध करके पर्वतीय पारिस्थितिकी-प्रणाली में मदद की जा सकती है।

पर्वतीय क्षेत्रों में पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इन प्रजातियों को अभ्यारण्यों और सुरक्षित वन-क्षेत्रों में उनके प्राकृतिक वातावरण में देखना रोमांचकारी और शिक्षाप्रद अनुभव हो सकता है। उदाहरण के लिये महाराष्ट्र में चिखलदारा सतपुड़ा पर्वतश्रेणी में स्थित है। मिथकीय दृष्टि से देखें तो इसका संबंध महाभारत के कीचक वन से है। चिखलदारा बाघ अभयारण्य है जहाँ कुछ प्राचीन जन-जातियाँ पाई जाती हैं। पारिस्थितिकी-पर्यटन के लिये यह स्थान अत्यन्त आदर्श है। यहाँ चट्टान शृंखलाएँ, घने जंगल, बाघ और अन्य वन्य जीव तथा स्थानीय जनजातियाँ हैं जिनकी संस्कृति और परम्पराओं का अध्ययन किया जा सकता है। यही बात अन्य स्थानों के बारे में कही जा सकती है जो देशभर में बहुतायत में हैं। पश्चिम घाटों और केरल के पर्वतीय क्षेत्रों में धार्मिक उपवनों के विस्तृत भू-भाग हैं जहाँ मनोरंजनात्मक और सांस्कृतिक गतिविधियों की व्यापक सम्भावनाएँ हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के इर्द-गिर्द सम्भावित पारिस्थितिकी-पर्यटन गतिविधियों को निम्नांकित समूहों में रखा जा सकता है:

1. बाहरी गतिविधियों जैसे ट्रैकिंग, हाइकिंग, माउंटेन-साइक्लिंग, पर्वतारोहण, नदी नौकायन आदि छोटे समूहों के लिये।

2. पवित्र वन या उपवनों और विरासत-स्थलों की यात्रा, खासकर इस बात के सजग प्रयासों के साथ कि स्थानीय लोगों के लिये उनका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व क्या है।

3. वन्य जीव जन्तुओं और पक्षी अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों की यात्रा।

4. झीलों, घाटियों और जहाँ सम्भव हो बर्फीले पर्वत-शिविरों की यात्रा।

5. स्थानीय समुदायों अथवा उनके पुरातन वातावरण में प्रवास, उनकी परम्पराओं और संस्कृति का पर्यवेक्षण और समीक्षा।

अब सवाल यह है कि पारिस्थितिकी-पर्यटन को कारगर बनाने के लिये क्या कदम उठाए जाएँ कि वह आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण सम्बन्धी तीन कार्यों को पूरा कर सकें? पारिस्थितिकी-पर्यटन की सफलता के कुछ प्रमुख बिन्दु हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि पारिस्थितिकी-पर्यटन का आनंद उठाने के इच्छुक पर्यटकों को छोटे समूहों में ले जाया जा सके। उन्हें पर्यावरण के प्रति जागरुक बनाने और उनमें पर्यावरण के प्रति अनुराग पैदा करने की आवश्यकता है ताकि उन्हें प्रकृति की प्रशंसा करने के लिये प्रेरित किया जा सके। परिस्थितिकी-पर्यटन के लिये चुने गए स्थानों को इस उद्देश्य के लिये अलग किया जाना चाहिए और उनके संरक्षण की अच्छी व्यवस्था की जानी चाहिए।

गतिविधियाँ आयोजित करते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि वे पारिस्थितिकी-अनुकूल हों। ये गतिविधियाँ स्थानीय संस्कृति के भी अनुकूल होनी चाहिए। उनका चयन करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे न तो आगन्तुकों की भावनाओं को और न ही स्थानीय लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली हों। स्थानीय लोगों को उनकी संस्कृति, परम्पराओं और रीति-रिवाजों की जानकारी के साथ इस उद्यम में प्रमुख कर्ताओं के रूप में शामिल किया जाना चाहिए ताकि उन्हें पूर्ण भागीदारी मिले और वे आगन्तुकों की जिज्ञासाएं संतुष्ट करने में सक्षम हों।

पर्वतीय क्षेत्रों में पारिस्थितिकी-पर्यटन के इस सन्दर्भ में नेपाल का उदाहरण दिया जा सकता है। पर्वतीय राज्य नेपाल को पर्यटकों, खासकर ऐवरेस्ट, अन्नपूर्णा और अन्य पर्वतशिखरों पर जाने वाले यात्रियों के निरंतर आगमन से उत्पन्न एक खास तरह की समस्या का सामना करना पड़ा था। पर्वतीय इलाकों में कैम्प लगाने वालों द्वारा फैलाए गए कचरे और ईंधन के लिये काटे गए वृक्ष एक दयनीय तस्वीर पेश कर रहे थे। इस गंदगी को दूर करने के लिये वहाँ की सरकार ने पारिस्थितिकी-पर्यटन उपायों का सहारा लिया ताकि पर्यटन में भी तेजी आए और पारिस्थितिकी-सन्तुलन भी कायम रखा जा सके। इस दिशा में किए गए उपायों में सफाई अभियान और संरक्षण प्रयास शामिल किए गए, जिसके लिये अधिकारियों ने ट्रैकिंग फीस से एकत्र धन का एक हिस्सा खर्च करने का फैसला किया। सरकार जानती थी कि स्थानीय लोग लामाओं का सम्मान करते हैं और लामा उसके आवाह्न पर ध्यान देने को तैयार हैं। अतः उसने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और तेंगबीच मठ के स्थानीय लामाओं की सहायता से खुम्बू दल का गठन किया और उसे पर्वतीय क्षेत्रों की वच्छता का काम सौंपा। अब यह क्षेत्र बड़ी तेजी से अपने मूल रूप में लौट रहा है। ऐवरेस्ट को ‘टाॅइलिट बोल’ (शौचघर) कहकर उसका उपहास किया जाने लगा था और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के मिंगमा नोर्बू शेरपा के शब्दों में ‘हम यह सुन-सुन कर ऊब चुके थे कि ऐवरेस्ट एक ‘टाॅइलिट बोल’ है।’

आज अन्नपूर्णा संरक्षण क्षेत्र परियोजना पर हर वर्ष पर्यटक शुल्क में से 50,00,000 डाॅलर से अधिक धन खर्च किया जा रहा है और इस धन का इस्तेमाल जैव-विविधता और स्थानीय संस्कृति के संरक्षण के लिये किया जा रहा है। इसी तरह नामचे बाजार- जिसे ऐवरेस्ट का प्रवेश-द्वार कहा जाता है- अब आर्थिक दृष्टि से समृद्ध है और पारिस्थितिकी की दृष्टि से स्थिर। नेपाल सरकार भी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये अनेक राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों का विकास कर रही है। माकूल-बरुन राष्ट्रीय उद्यान की अवस्थिति ऐसी है कि वहाँ एक ओर समुद्र तल से थोड़ी ऊँचाई पर उष्णकटिबंधी बरसाती जंगल हैं और साथ ही ऊँचे-ऊँचे पर्वत शिखर हैं। चूँकि यह उद्यान कई नृजातीय समूहों का निवास भी है, अतः वहाँ पारिस्थितिकी-पर्यटन गतिविधियों की व्यापक सम्भावनाएँ हैं। किन्तु हिमालय और उसकी जैव-विविधता को अगर बचाना है तो और उपाय करने होंगे। नेपाल सरकार को पर्यटकों और ट्रैकरों के अनियंत्रित आगमन का यह प्रवाह सीमित और नियंत्रित करना होगा।

जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न मालदीव ने पारिस्थितिकी-पर्यटन को गम्भीरता और कारगर ढंग से अपनाया है। यह लघु द्वीप-राष्ट्र भली-भाँति समझता है कि उसे पर्यटन-संरक्षण तथा स्थानीय लोगों के लिये रोजगार और आय के अवसर पैदा करने के बीच बेहतर सन्तुलन कायम करना है। मालद्वीव के लिये पर्यटन एक पूर्ण उद्योग है और वह इससे प्राप्त राजस्व पर निर्भर है, किन्तु साथ ही उन्हें अनियोजित पर्यटन के खतरों की भी जानकारी है। उन्होंने अपनी प्रवालभित्तियों की सुरक्षा के लिये कड़े उपाय किए हैं और सभी सैरगाहों और होटलों के लिये यह अनिवार्य बना दिया है कि वे अपने कचरे का निपटान उसे जलाकर करें, जल संरक्षण करें और कूड़े-कचरे को फिर से काम में लाए जाने के उपाय करें। मालदीव के राष्ट्रपति का कहना है कि पर्यटन उनके लिये न केवल विकास, बल्कि अस्तित्व बचाव का भी साधन है।

अधिकतर देशों ने अपनी पारिस्थतिकी आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियाँ विकसित की हैं। फिलिपीन के ओलांगो द्वीप (पक्षी प्रेमियों का स्वर्ग) का उदाहरण दिया जा सकता है, जहाँ मछुओं को ‘लैंडब्लास्ट फिशिंग (यानी भूमि में विस्फोट करके मछली पकड़ने) की अनुमति नहीं है। उन्हें मछली पकड़ने के परम्परागत तरीके अपनाने के लिये बाध्य किया गया है और मछुआ समुदाय प्रेरित किया गया है कि वे अभ्यारण्य के जीवन रक्षक मार्गदर्शकों की भूमिका निभाएँ। वहाँ महिलाएँ भोजन तैयार करने और पर्यटकों के प्रबंध में शामिल होती हैं। इस परियोजना से अनेक परिवारों को आर्थिक लाभ प्राप्त हुआ है।

इंडोनेशिया में पक्षियों की तस्करी के कारण सेरम पैरट (तोता प्रजाति) का अस्तित्व खतरे में पड़ गया था। उन्होंने ‘बर्डवाच’ नामक परियोजना आरम्भ की। इसका लक्ष्य पक्षियों की तस्करी करने वालों को संरक्षण प्रयासों में शामिल करना और उन्हें मार्गदर्शकों में तब्दील करना है। जापान में ‘फोरम फाॅर ग्रीन ट्रांसफोर्मेशन आॅफ कल्चर’ नामक पारिस्थितिकी संगठन की स्थापना की गई जबकि आस्ट्रेलिया में इको-टूरिज्म एसोसिएशन प्रकृति-आधारित पर्यटन का प्रबंध करती है ताकि उपभेक्ताओं को जागरुक बनया जा सके, पर्यावरण में सुधार और ब्लू माउंटेन क्षेत्र में स्थानीय समुदायों को सुदृढ़ बनाया जा सके। इस वर्ष जनवरी में सार्क देशों के क्षेत्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें दक्षिण एशिया में अस्तित्व के खतरे से जूझ रही प्रजातियों के संरक्षण के बारे में समुदायों के साथ मिलकर काम करने की रणनीति पर विचार किया गया। सिक्किम इकोटूरिज्म एंड कंजर्वेशन सोसायटी के अध्यक्ष ने सार्क देशों के बीच जागरुकता पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘क्षेत्र में जागरुकता और उत्पाद विकास का एक स्तर है जो देशों को एक-दूसरे से सीखने का लाभ प्रदान कर सकता है।’’

भारत में कई राज्यों ने अपने क्षेत्रों में पारिस्थितिकी-पर्यटन को प्रोत्साहित करने के उपाय सुझाए हैं। उदाहरण के लिये केरल ने तेंमाला इकोटूरिज्म प्रोमोशन सोसायटी की स्थापना की है ताकि पारिस्थितिकी-पर्यटन के लिये माॅडल का विकास किया जा सके। हिमाचल प्रदेश ने पारिस्थितिकी-पर्यटन विकास की नीति घोषित की है जिसमें स्थानीय समुदायों की भागीदारी पर बल दिया गया है। उत्तरांचल और पश्चिम बंगाल के वन निगमों ने पारिस्थितिकी-पर्यटन गतिविधियाँ शुरू की हैं जबकि कुछ राज्यों में पर्यटन विभाग और वन विभाग मिलकर पारिस्थितिकी-पर्यटन को बढ़ावा दे रहे हैं।

पर्यावरण ह्रास का असर कम करने के लिये विभिन्न संगठनों ने हिमालय क्षेत्र में वनों की कटाई रोकने के उपाय किए हैं। इनमें एक उपाय है- पर्यटकों को कैंप में केरोसिन स्टोव या ईंधन-सक्षम लकड़ी के चूल्हे प्रदान कराना। इस बात पर भी बल दिया गया है कि ऐसे भोजन के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया जाए जिसे पकाने की आवश्यकता न हो। जहाँ कहीं सम्भव हो, वैकल्पिक पन बिजली भी उपलब्ध कराई गई है। जहाँ तक पर्वतीय क्षेत्रों में कचरा डालने का सवाल है, पर्यटकों, कैंपवासियों आदि के लिये यह अनिवार्य बनाया गया है कि वे कचरा डालने के लिये गड्ढों का इस्तेमाल करें अथवा उसे पैक करके अधिक आबादी वाले केन्द्रों में निपटान के लिये भेजें। पर्वतीय राज्यों, खासकर हिमालय की गोद में बसे राज्यों को अपने संरक्षण उपायों में तेजी लाने तथा अपनी नीतियों को अधिक कारगर बनाने की आवश्यकता है ताकि अधिक संतोषजनक नतीजे और लाभ पर्वत श्रेणी वर्ष के दौरान प्राप्त किए जा सकें।

भारत दुनिया के सर्वाधिक जैव विविधता वाले सात बड़े राष्ट्रों में एक है। अपनी समृद्ध एवं प्राचीन सांस्कृतिक विरासत के कारण यह पर्यटकों को आकर्षित करता है, और हमारे यहाँ पारिस्थितिकी-पर्यटन के विकास की व्यापक सम्भावनाएँ हैं जिनके माध्यम से संरक्षण और आर्थिक विकास की योजनाएँ बनाई जा सकती हैं। किन्तु आमतौर पर अत्यधिक पर्यटन और अनियन्त्रित पर्यटक यातायात पर्वतीय क्षेत्रों की पहले से ह्रासमान और कमजोर पारिस्थितिकी-प्रणाली के लिये हानिकारक सिद्ध हुआ है। इस क्षेत्र के अनुसंधानकर्ताओं की यह मान्यता गलत नहीं है कि कभी-कभी ‘पर्यटन, पर्यटन को नष्ट कर देता है।’ किन्तु पारिस्थितिकी-पर्यटन अपनाने से नष्ट होते सौन्दर्य को फिर से हासिल किया जा सकता है। इससे स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है और उनकी संस्कृति की रक्षा की जा सकती है। केरल में परियार बाँध संरक्षण परियोजना का एक उदाहरण दिया जा सकता है, जहाँ तक कार्यक्रम के अन्तर्गत चोरी-छिपे शिकार खेलने वालों को मार्गदर्शक बनाने में सफलता प्राप्त की गई। नतीजतन वहाँ न केवल प्रजातियों के संरक्षण उपायों को बल मिला बल्कि रोजगार भी उपलब्ध हुआ जिससे 40 परिवारों को लाभ पहुँचा।

वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। पहली बात यह है कि पारिस्थितिकी-पर्यटन के बारे में कुछ आशंकाएँ हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। अनेक क्षेत्रों में स्थानीय निवासियों को बाहर से आने वाले लोगों से भय है कि वे उनकी संस्कृति पर असर डालेंगे, और वे हस्तक्षेप का प्रतिरोध करते हैं। अतः यह जरूरी है कि उनके संदेह दूर किए जाएँ, उन्हें शिक्षित बनाया जाए तथा उनमें विश्वास पैदा किया जाए। दूसरे, यह भी जरूरी है कि संवेदनशील क्षेत्रों तक पहुँच को सार्थक ढंग से नियंत्रित किया जाए किन्तु शुल्क ढाँचे को भी युक्तिसंगत बनाया जाना चाहिए ताकि राजस्व अर्जित करने की अंतनिर्हित सम्भावनाओं का दोहन किया जा सके। तीसरे, इस बात की पुख्ता व्यवस्था हो कि पर्यटन से प्राप्त राजस्व लाभ फिर से संरक्षण और समुदाय विकास कार्यों में निवेश किया जाए। इंटरनेशनल इको-टूरिज्म सोसायटी की अध्यक्ष सुश्री मेगन ऐंप्लर वुड के शब्दों में ‘‘जरूरी यह है कि धन देने वाली और योजना बनाने वाली एजेंसियाँ इस बात को समझें कि पारिस्थितिकी-पर्यटन विकास का साधन है जो संवेदनशील प्राकृतिक क्षेत्रों के निकट रहने वाले निर्धन समुदायों के आर्थिक विकास में मददगार हो सकता है।’’ पारिस्थितिकी-पर्यटन की सफलता सुनिश्चित करने के लिये इस तरह की समझ अनिवार्य है।

(सुश्री उषा बंदे एक स्वतंत्र लेखिका हैं।)