Source
पर्यावरण विमर्श
आज आवश्यकता है कि बेटी और बेटे के जन्मदिवस को वृक्षारोपण से जोड़ने की शासकीय पहल होनी चाहिए। बेटी के पैदा होने पर पांच इमारती वृक्ष यथा-सागौन, शीशम, साल आदि का वृक्षारोपण खुद कि ज़मीन में अथवा वृक्षारोपण हेतु संरक्षित शासकीय ज़मीन में कर उसकी देखभाल व परवरिश पालक की ओर से हो। लड़की के विवाह योग्य होने पर 20 वर्षों के उक्त इमारती वृक्ष को शासन-अधीन कर देने पर कन्या के विवाह के लिए शासन की ओर से 2 लाख रूपए देय हों। बेटे के जन्म पर पांच फलदार पौधे लगाए जाने चाहिए। इसके लिए शासकीय नौकरी के समय साक्षात्कार में पांच अंक उसे बोनस के रूप में दिए जाने की व्यवस्था हो। पर्यावरण की समस्या विकासशील राष्ट्रों की हीं नहीं, अपितु पूरे विश्व की समस्या बन गई है। नभचर, जलचर, थलचर-सभी जीवधारी पर्यावरण के कुप्रभाव व प्रदूषण से प्रभावित हुए हैं। सभी ऋतुएं अपने अस्तित्व को खोती नजर आ रही हैं। समय पर ठंड नहीं पड़ना, गर्मी में अति गर्मी तथा वर्षा का समय पर ना आना या कहीं-कहीं बेमौसम अधिक वर्षा होना, कहीं आकाल की स्थिति निर्मित होना, यह सब पर्यावरणीय बदलाव का ही नतीजा है।
इन सब के पीछे उद्योगवादी संस्कृति और उपभोगवादी संस्कृति का ही प्रमुख कारण माना जाता है। प्रकृति को विकृत करने का दोष हमारी अतिभौतिकवादी व अतिअदूरदर्शी सभ्यता को है, जिसमे पूरे विश्व को प्रभावित किया है। कारण की अतिभौतिकता की चाह ने प्रकृति के नियमों के विरूद्ध अप्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ दिया है। वनों का विनाश, कल-कारखानों का अंधाधुंध स्थापना, मनुष्य द्वारा जंगलों में अतिक्रमण, मोटर गाड़ी मे वृद्धि आदि ऐसे औद्योगिक कारण बने जिससे प्रदूषण गुणोत्तर वृद्धि हुई।
उद्योगों/हवाई जहाजों से निकलते धुओं ने वायु, जल में जहर घोल दिया है। भूमंडल का तापमान भी धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। यदि तापमान में 3 से 5 डिग्री की वृद्धि हो गई तो ध्रुवों की बर्फ के पिघलने से कोई नहीं रोक सकता। तब महासागर अपनी मर्यादा छोड़ देंगे। जल-प्लावन की भयावह स्थिति निर्मित हो जाएगी सभी को उर्जा व सुंदर स्वास्थ्य देने वाली प्रकृति बढ़ते प्रदूषण के कारण उसी प्रकार असहाय हो जाएगी, जैसे किसी अनाड़ी बालक ने मां को दूध पिते स्तन को इतना काट लिया कि वहां फोड़े निकल आएं और मां ही बीमार हो गई। इस प्रकार अनाड़ी बालक रूपी वर्तमान मानव को अपनी सीमाएं समझनी होंगी अन्यथा निरंतर उपेक्षा व राक्षसी दोहन से समूल पर्यावरण व प्रकृति का सर्वनाश अवश्यंभावी है।
पर्यावरण को बिगाड़ने का काम वनों की कटाई से हुआ है तो पर्यावरण का संरक्षण हम पौध-रोपण से कर सकते हैं। यह सच है कि सन् 1980 में भी बिगड़ते पर्यावरण पर चिंता कर इससे संबंधित विभाग केंद्र में खोले गए। तीस साल के लंबे अंतराल में वृक्षारोपण पर ध्यान कम धन ज्यादा खर्च किया गया। पर्यावरण को बचाने में आशातीत सफलता इसीलिए नहीं मिली कि सामाजिक वानीकि विभाग कागजी वृक्षारोपण और औपचारिक खानापूर्ती का अड्डा बन गया।
वन कटते गए, धरा संतुलन में खड़े पहाड़ों का अस्तित्व समाप्त होता गया रत्नगर्भा कहलाने वाली धरती के अंदर हजारों मीटर गहरे गड्ढे खोदकर लोभियों ने उपभोगवादी व अति भौतिकवादी सभ्यता के चलते लोभ संवरण तो कर लिया, किंतु सधःप्रसूता जननीरूपी धरती को उसके हाल पे क्यों छोड़ दिया गया? उन सैकड़ों वर्ग किलोमीटर गड्ढों को भरने का दायित्व क्या हमारा नहीं बनता। हमने एक साथ एक समय में लाखों पौधे रोपण कर गिनीज बुक मे नाम दर्ज कराने का भरसक प्रयास किया, किंतु उनके संरक्षण में हमने कोताही बरती, लापरवाही बरती जिसका दुष्परिणाम है कि तीस साल में वृक्षारोपण से जहां पुनः नया जंगल खड़ा हो जाना था, वहां कटे हुए वृक्षों के ठूंठ भी नजर नहीं आते।
आज वृक्षारोपण के नाम पर सूबबूल, कनेर, छातिम, यूकिलिप्टस जैसे कम कद काठी वाले वृक्षों का रोपण किया जा रहा है, जबकी पहले बरगद, पीपल, आम, महुवा, कौहा, करंज जैसे दीर्घजीवी वृक्ष बिना विशेष देखभाल के ही शतायु पूरी करते थे। ऐसे वृक्षों से प्रत्यक्ष रूप से फल व ईंधन तो मिलता है ही है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से वे कार्बन डाइऑकसाईड का शोषण कर हमे ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। सही ही है कि पूरे परिधान व साजो श्रृंगार में अच्छी लगने वाली मां को अर्ध-लिवास में रहना हमारी संस्कृति इजाजत नहीं देती।
पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना अब हमारी अनिवार्यता हो गई है। पहले हम प्रकृति में दैवीय स्वरूप देखते थे। प्रकृती को अपना स्वामी मानकर आंवला नवमी, वट सावित्री जैसे पर्वों पर पूजा अर्चना कर नीम में माता का वास पीपल मे वासुदेव, तुलसी को साक्षात देवी, रूद्राक्ष में शिव, बिल्व-पत्र यहां तक की मदार व धतुरा जैसे जहरीले पौधों के फल व फूल को भी शिव अर्चना में चढ़ाए जाने के कारण हम स्वप्न में भी इन्हें काटने की कल्पना नहीं करते हैं, किंतू आज हम प्रकृति को भोग्या समझ बैठे हैं। उनकी संतान नहीं, बल्की अपने आप को प्रकृति का स्वामी समझ बैठे हैं।
प्रकृति को उपभोग करने का भ्रम पाल लिया हमने। इसके दुष्परिणामों के लेशमात्र चिंता नहीं की। आज टेक्नोलॉजी से पैदा हुई सभ्यता उपभोगवादी संस्कृति की क़ायल है। यही उपभोग का भ्रम ही परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। पर्यावरणीय बदलाव के कई कारक हैं, यथा औद्योगीकरण, उर्जा का असंतुलित उपयोग, प्रदूषण व धरती के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन- ये ऐसे कारक हैं, जिनसे पर्यावरण में बदलाव हुआ।
आज अमेरिका की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 7 प्रतिशत है, किंतु ऊर्जा खपत 32 प्रतिशत है वहीं भारत की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का 20 प्रतिशत है, किंतु ऊर्जा खपत मात्र 1 प्रतिशत है। इस प्रकार का असंतुलन हर क्षेत्र में विद्यमान है। कल-कारखानों के वृद्धि से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, किंतु वृक्ष नहीं रहेंगे तो कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण कैसे संभव है? माना की उद्योग लगाना हमारी प्राथमिकताओं में होना चाहिए था, किंतु उसके साथ उद्योगों से निकलने वाले धुएं, राख से बचने के लिए पौधा-रोपण कर हरित पट्टी की अनिवार्यता को तिलांजली क्यों दे दी गई? इसी उद्योगवादी संस्कृति के कारण पर्यावरण में असंतुलन बढ़ने लगा।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हवाई जहाज से सर्वाधिक प्रदूषण होता है। 46 हजार हेक्टेयर के वनिकरण से जितना ऑक्सीजन निकलता है, उतना एक दिन में एक हवाई जहाज द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड का फैलाव वायुमंडल में हो जाता है। कोयला, डीजल, पेट्रोल के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है, जिसके कारण रोज एक प्रजाती लुप्त हो रही है।
कार्बन डाइऑक्साइड को पौधे अवशोषित करते है और ऑक्सीजन को विमुक्त करते हैं। पर विनाश व औद्योगीकरण तथा शहरीकरण ने प्रकृति की व्यवस्था में बाधा डाल दी है। बढ़ रहे प्रदूषण के कारकों में अन्न उत्पादन की अत्यधिक ललक ने रासायनिक उर्वरकों के, जीवननाशी दवाइयां (पेस्टीसाइड) के, अंधाधुंध उपयोग से भी मृदा-प्रदूषण बढ़ने के कारण धरती कहीं क्षारीय, कहीं अम्लीय होती जा रही है, जिससे जल धारण क्षमता का ह्रास धरती में हो रहा है। जल स्तर शनैः शनैः नीचे खिसकता जा रहा है, परिणाम कम वर्षा, ग्लोबल वार्मिंग का होना।
हमे आने वाली पीढ़ी को पीने के लिए स्वच्छ जल और जीने के लिए स्वच्छ वायु मुहैया कराना सबसे बड़ा चुनौती होगी। इसके लिए हमें एक मात्र उपाय वृक्षारोपण व वन-महोत्सव को शासकीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अपनी तिथि त्योहारों की तरह समाज की मान्यताओं का हिस्सा बनाना चाहिए वृक्षारोपण स्वस्फूर्त अभियान होना चाहिए, किंतु आज भागती-दौड़ती जिंदगी में कल की किसे चिंता? इसलिए आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण मुक्त प्राणवायु देने के लिए तथा प्रकृति के संरक्षण हेतु अब आवश्यक हो गया है कि वृक्षारोपण अभियान शासन-प्रशासन की ओर से जनता-जनार्दन का अभियान बने।
आज आवश्यकता है कि बेटी और बेटे के जन्मदिवस को वृक्षारोपण से जोड़ने की शासकीय पहल होनी चाहिए। बेटी के पैदा होने पर पांच इमारती वृक्ष यथा-सागौन, शीशम, साल आदि का वृक्षारोपण खुद कि ज़मीन में अथवा वृक्षारोपण हेतु संरक्षित शासकीय ज़मीन में कर उसकी देखभाल व परवरिश पालक की ओर से हो। लड़की के विवाह योग्य होने पर 20 वर्षों के उक्त इमारती वृक्ष को शासन-अधीन कर देने पर कन्या के विवाह के लिए शासन की ओर से 2 लाख रूपए देय हों। बेटे के जन्म पर पांच फलदार पौधे लगाए जाने चाहिए। इसके लिए शासकीय नौकरी के समय साक्षात्कार में पांच अंक उसे बोनस के रूप में दिए जाने की व्यवस्था हो।
यदि इस तरह अभिनव पहल शासन की ओर से की जाए तो मेरा मानना है कि प्रकृति को प्रदूषणरूपी कैंसर से बचाने का यह अपने आप में एक दूरगामी सुखद परिणाम होगा। वरना प्रदूषण बम विस्फोट से भी ज्यादा खतरनाक होगा। अतः बेटी और बेटे के जन्मोत्सव पर इमारती और फलदार पौधारोपण कर बच्चों की दीघार्यु की कामना करनी चाहिए।
हरियर छत्तीसगढ़ की कल्पना साकार करने में स्व-सहायता समूहों, सेवा-भावी संस्थाओं, वृक्ष- प्रेमी सहकारीताओं, संगठनों और कृषक क्लबों को प्रयोग के तौर पर कुछेक सड़कों पर वृक्षारोपण करना चाहिए। वृक्षारोपण का दायित्व शासकीय तौर पर सौंपना चाहिए। इससे लोगों व संगठनों में प्रतिस्पर्धा का वातावरण निर्मित होगा। वहीं शासन की अपेक्षा कम लागत में वृक्षारोपण के साथ संवर्धन का भी दायित्व पूरा हो सकेगा।
हमें प्रदूषण के दुष्परिणामों से बचने के लिए आज से ही नई नीति बनानी होगी, वरन् ओजोन की रक्षा कवच में छेद, अपक्षय के कारण पराबैंगनी किरणों से तेजाबी वर्षा और काली वर्षा का होना प्रायः हर जगह देखा जाने लगेगा। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रदूषण रहित टेक्नोलॉजी का निर्माण करना होगा। पौधा-रोपण के साथ-साथ पौधा संरक्षण करना भी निहायत जरूरी है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।
पर्यावरण को केंद्र बिंदु बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर विकास कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। इन सबका ईमानदारीपूर्वक प्रयास आज से हीं किया जाए, तब जाकर कहीं 20-30 वर्षों के पश्चात् ग्लोबल वार्मिंग के कहर से बचा जा सकेगा, वरना आने वाले दिनों में बहुत जल्दी पेट्रोल पंप और गैस रिफिलींग केंद्रों की तरह मानव को शुद्ध प्राणवायु के लिए जगह-जगह पर बने ऑक्सीजन बूथों पर जाना होगा। उन्मुक्त वातावरण में पूर्वजों के घूमने वाली बात तब शायद कहावत हो जाएगी वृक्ष है तो जल है, जल है तो कल है और जल से ही जीवन है।
अध्यक्ष, जिला सहकारी केंद्रीय बैंक मर्यादित, राजनांदगांव
इन सब के पीछे उद्योगवादी संस्कृति और उपभोगवादी संस्कृति का ही प्रमुख कारण माना जाता है। प्रकृति को विकृत करने का दोष हमारी अतिभौतिकवादी व अतिअदूरदर्शी सभ्यता को है, जिसमे पूरे विश्व को प्रभावित किया है। कारण की अतिभौतिकता की चाह ने प्रकृति के नियमों के विरूद्ध अप्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ दिया है। वनों का विनाश, कल-कारखानों का अंधाधुंध स्थापना, मनुष्य द्वारा जंगलों में अतिक्रमण, मोटर गाड़ी मे वृद्धि आदि ऐसे औद्योगिक कारण बने जिससे प्रदूषण गुणोत्तर वृद्धि हुई।
उद्योगों/हवाई जहाजों से निकलते धुओं ने वायु, जल में जहर घोल दिया है। भूमंडल का तापमान भी धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। यदि तापमान में 3 से 5 डिग्री की वृद्धि हो गई तो ध्रुवों की बर्फ के पिघलने से कोई नहीं रोक सकता। तब महासागर अपनी मर्यादा छोड़ देंगे। जल-प्लावन की भयावह स्थिति निर्मित हो जाएगी सभी को उर्जा व सुंदर स्वास्थ्य देने वाली प्रकृति बढ़ते प्रदूषण के कारण उसी प्रकार असहाय हो जाएगी, जैसे किसी अनाड़ी बालक ने मां को दूध पिते स्तन को इतना काट लिया कि वहां फोड़े निकल आएं और मां ही बीमार हो गई। इस प्रकार अनाड़ी बालक रूपी वर्तमान मानव को अपनी सीमाएं समझनी होंगी अन्यथा निरंतर उपेक्षा व राक्षसी दोहन से समूल पर्यावरण व प्रकृति का सर्वनाश अवश्यंभावी है।
पर्यावरण को बिगाड़ने का काम वनों की कटाई से हुआ है तो पर्यावरण का संरक्षण हम पौध-रोपण से कर सकते हैं। यह सच है कि सन् 1980 में भी बिगड़ते पर्यावरण पर चिंता कर इससे संबंधित विभाग केंद्र में खोले गए। तीस साल के लंबे अंतराल में वृक्षारोपण पर ध्यान कम धन ज्यादा खर्च किया गया। पर्यावरण को बचाने में आशातीत सफलता इसीलिए नहीं मिली कि सामाजिक वानीकि विभाग कागजी वृक्षारोपण और औपचारिक खानापूर्ती का अड्डा बन गया।
वन कटते गए, धरा संतुलन में खड़े पहाड़ों का अस्तित्व समाप्त होता गया रत्नगर्भा कहलाने वाली धरती के अंदर हजारों मीटर गहरे गड्ढे खोदकर लोभियों ने उपभोगवादी व अति भौतिकवादी सभ्यता के चलते लोभ संवरण तो कर लिया, किंतु सधःप्रसूता जननीरूपी धरती को उसके हाल पे क्यों छोड़ दिया गया? उन सैकड़ों वर्ग किलोमीटर गड्ढों को भरने का दायित्व क्या हमारा नहीं बनता। हमने एक साथ एक समय में लाखों पौधे रोपण कर गिनीज बुक मे नाम दर्ज कराने का भरसक प्रयास किया, किंतु उनके संरक्षण में हमने कोताही बरती, लापरवाही बरती जिसका दुष्परिणाम है कि तीस साल में वृक्षारोपण से जहां पुनः नया जंगल खड़ा हो जाना था, वहां कटे हुए वृक्षों के ठूंठ भी नजर नहीं आते।
आज वृक्षारोपण के नाम पर सूबबूल, कनेर, छातिम, यूकिलिप्टस जैसे कम कद काठी वाले वृक्षों का रोपण किया जा रहा है, जबकी पहले बरगद, पीपल, आम, महुवा, कौहा, करंज जैसे दीर्घजीवी वृक्ष बिना विशेष देखभाल के ही शतायु पूरी करते थे। ऐसे वृक्षों से प्रत्यक्ष रूप से फल व ईंधन तो मिलता है ही है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से वे कार्बन डाइऑकसाईड का शोषण कर हमे ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। सही ही है कि पूरे परिधान व साजो श्रृंगार में अच्छी लगने वाली मां को अर्ध-लिवास में रहना हमारी संस्कृति इजाजत नहीं देती।
पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना अब हमारी अनिवार्यता हो गई है। पहले हम प्रकृति में दैवीय स्वरूप देखते थे। प्रकृती को अपना स्वामी मानकर आंवला नवमी, वट सावित्री जैसे पर्वों पर पूजा अर्चना कर नीम में माता का वास पीपल मे वासुदेव, तुलसी को साक्षात देवी, रूद्राक्ष में शिव, बिल्व-पत्र यहां तक की मदार व धतुरा जैसे जहरीले पौधों के फल व फूल को भी शिव अर्चना में चढ़ाए जाने के कारण हम स्वप्न में भी इन्हें काटने की कल्पना नहीं करते हैं, किंतू आज हम प्रकृति को भोग्या समझ बैठे हैं। उनकी संतान नहीं, बल्की अपने आप को प्रकृति का स्वामी समझ बैठे हैं।
प्रकृति को उपभोग करने का भ्रम पाल लिया हमने। इसके दुष्परिणामों के लेशमात्र चिंता नहीं की। आज टेक्नोलॉजी से पैदा हुई सभ्यता उपभोगवादी संस्कृति की क़ायल है। यही उपभोग का भ्रम ही परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। पर्यावरणीय बदलाव के कई कारक हैं, यथा औद्योगीकरण, उर्जा का असंतुलित उपयोग, प्रदूषण व धरती के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन- ये ऐसे कारक हैं, जिनसे पर्यावरण में बदलाव हुआ।
आज अमेरिका की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 7 प्रतिशत है, किंतु ऊर्जा खपत 32 प्रतिशत है वहीं भारत की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का 20 प्रतिशत है, किंतु ऊर्जा खपत मात्र 1 प्रतिशत है। इस प्रकार का असंतुलन हर क्षेत्र में विद्यमान है। कल-कारखानों के वृद्धि से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, किंतु वृक्ष नहीं रहेंगे तो कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण कैसे संभव है? माना की उद्योग लगाना हमारी प्राथमिकताओं में होना चाहिए था, किंतु उसके साथ उद्योगों से निकलने वाले धुएं, राख से बचने के लिए पौधा-रोपण कर हरित पट्टी की अनिवार्यता को तिलांजली क्यों दे दी गई? इसी उद्योगवादी संस्कृति के कारण पर्यावरण में असंतुलन बढ़ने लगा।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हवाई जहाज से सर्वाधिक प्रदूषण होता है। 46 हजार हेक्टेयर के वनिकरण से जितना ऑक्सीजन निकलता है, उतना एक दिन में एक हवाई जहाज द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड का फैलाव वायुमंडल में हो जाता है। कोयला, डीजल, पेट्रोल के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है, जिसके कारण रोज एक प्रजाती लुप्त हो रही है।
कार्बन डाइऑक्साइड को पौधे अवशोषित करते है और ऑक्सीजन को विमुक्त करते हैं। पर विनाश व औद्योगीकरण तथा शहरीकरण ने प्रकृति की व्यवस्था में बाधा डाल दी है। बढ़ रहे प्रदूषण के कारकों में अन्न उत्पादन की अत्यधिक ललक ने रासायनिक उर्वरकों के, जीवननाशी दवाइयां (पेस्टीसाइड) के, अंधाधुंध उपयोग से भी मृदा-प्रदूषण बढ़ने के कारण धरती कहीं क्षारीय, कहीं अम्लीय होती जा रही है, जिससे जल धारण क्षमता का ह्रास धरती में हो रहा है। जल स्तर शनैः शनैः नीचे खिसकता जा रहा है, परिणाम कम वर्षा, ग्लोबल वार्मिंग का होना।
हमे आने वाली पीढ़ी को पीने के लिए स्वच्छ जल और जीने के लिए स्वच्छ वायु मुहैया कराना सबसे बड़ा चुनौती होगी। इसके लिए हमें एक मात्र उपाय वृक्षारोपण व वन-महोत्सव को शासकीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अपनी तिथि त्योहारों की तरह समाज की मान्यताओं का हिस्सा बनाना चाहिए वृक्षारोपण स्वस्फूर्त अभियान होना चाहिए, किंतु आज भागती-दौड़ती जिंदगी में कल की किसे चिंता? इसलिए आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण मुक्त प्राणवायु देने के लिए तथा प्रकृति के संरक्षण हेतु अब आवश्यक हो गया है कि वृक्षारोपण अभियान शासन-प्रशासन की ओर से जनता-जनार्दन का अभियान बने।
आज आवश्यकता है कि बेटी और बेटे के जन्मदिवस को वृक्षारोपण से जोड़ने की शासकीय पहल होनी चाहिए। बेटी के पैदा होने पर पांच इमारती वृक्ष यथा-सागौन, शीशम, साल आदि का वृक्षारोपण खुद कि ज़मीन में अथवा वृक्षारोपण हेतु संरक्षित शासकीय ज़मीन में कर उसकी देखभाल व परवरिश पालक की ओर से हो। लड़की के विवाह योग्य होने पर 20 वर्षों के उक्त इमारती वृक्ष को शासन-अधीन कर देने पर कन्या के विवाह के लिए शासन की ओर से 2 लाख रूपए देय हों। बेटे के जन्म पर पांच फलदार पौधे लगाए जाने चाहिए। इसके लिए शासकीय नौकरी के समय साक्षात्कार में पांच अंक उसे बोनस के रूप में दिए जाने की व्यवस्था हो।
यदि इस तरह अभिनव पहल शासन की ओर से की जाए तो मेरा मानना है कि प्रकृति को प्रदूषणरूपी कैंसर से बचाने का यह अपने आप में एक दूरगामी सुखद परिणाम होगा। वरना प्रदूषण बम विस्फोट से भी ज्यादा खतरनाक होगा। अतः बेटी और बेटे के जन्मोत्सव पर इमारती और फलदार पौधारोपण कर बच्चों की दीघार्यु की कामना करनी चाहिए।
हरियर छत्तीसगढ़ की कल्पना साकार करने में स्व-सहायता समूहों, सेवा-भावी संस्थाओं, वृक्ष- प्रेमी सहकारीताओं, संगठनों और कृषक क्लबों को प्रयोग के तौर पर कुछेक सड़कों पर वृक्षारोपण करना चाहिए। वृक्षारोपण का दायित्व शासकीय तौर पर सौंपना चाहिए। इससे लोगों व संगठनों में प्रतिस्पर्धा का वातावरण निर्मित होगा। वहीं शासन की अपेक्षा कम लागत में वृक्षारोपण के साथ संवर्धन का भी दायित्व पूरा हो सकेगा।
हमें प्रदूषण के दुष्परिणामों से बचने के लिए आज से ही नई नीति बनानी होगी, वरन् ओजोन की रक्षा कवच में छेद, अपक्षय के कारण पराबैंगनी किरणों से तेजाबी वर्षा और काली वर्षा का होना प्रायः हर जगह देखा जाने लगेगा। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रदूषण रहित टेक्नोलॉजी का निर्माण करना होगा। पौधा-रोपण के साथ-साथ पौधा संरक्षण करना भी निहायत जरूरी है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।
पर्यावरण को केंद्र बिंदु बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर विकास कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। इन सबका ईमानदारीपूर्वक प्रयास आज से हीं किया जाए, तब जाकर कहीं 20-30 वर्षों के पश्चात् ग्लोबल वार्मिंग के कहर से बचा जा सकेगा, वरना आने वाले दिनों में बहुत जल्दी पेट्रोल पंप और गैस रिफिलींग केंद्रों की तरह मानव को शुद्ध प्राणवायु के लिए जगह-जगह पर बने ऑक्सीजन बूथों पर जाना होगा। उन्मुक्त वातावरण में पूर्वजों के घूमने वाली बात तब शायद कहावत हो जाएगी वृक्ष है तो जल है, जल है तो कल है और जल से ही जीवन है।
अध्यक्ष, जिला सहकारी केंद्रीय बैंक मर्यादित, राजनांदगांव