‘जब जेठ तपै निरंता, तब जानौ बरखा बलवंता।’
निराला ने इस स्थिति-द्वंद्व का चित्रण इन पंक्तियों में किया है-
‘जला है जीवन यह आतप में दीर्घ काल
सूखी भूमि सूखे तरु सूखे सिल आल बाल
बंद हुआ अलि गुंज धूलि धूसर हुए कुंज
किंतु देखो व्योम-उर पड़ी बंधु मेघ-माल।’
कहने की जरूरत नहीं कि कविता में चित्रित जलने वाला जीवन निराला का भी है और लोक और प्रकृति का भी। इस घोर ताप का ही फल है आकाश (और निराला के कंठ में भी) पड़ने वाली मेघ माला (निराला के पक्ष में यश की माला) इस द्वंद्व में जीवन-राग है। यह राग कभी-कभी विलाप भी बनकर रह जाता है किंतु यह सच है, प्रकृति का नियम है,ग्रीष्म और वर्षा का कारण-कार्य संबंध।
हमारे देश में वर्षा का विशिष्ट महत्व है। प्रकृति का ही रूपक लें तो वर्षा ही पृथ्वी को वसुंधरा बनाती है। द्वंद्व आकाश और पृथ्वी में भी है। वे एक-दूसरे से दूर रहते भी एक-दूसरे से मिलने के लिए लालायित रहते हैं। कहते हैं कि वर्षा में आकाश पृथ्वी पर उतर आता है। दोनों का मिलन होता है। ग्रीष्म मिलन ऊष्मा के कारण है और वर्षा आकाश का क्षरण है। इसी से पृथ्वी धन-धान्य से भर उठती है। ऋग्वेद के मंत्र में इस रूपक का बिंब है- पर्जन्य देवता वृषभ के समान निर्भीक हैं और पृथ्वी तल की औषधियों में बीजारोपण करके नवीन जीवन की सूचना ला देते हैं। वे वृक्षों का ताड़न करते हैं, राक्षसों का वध करते हैं और अपने महान अस्त्र से समूचे जगत को त्रस्त-विकंपित कर देते हैं। जब पर्जन्य देवता अपने भयंकर गर्जन के साथ असुरों पर वज्र-प्रहार करते हैं, निरपराध लोग भी भय से कांप उठते हैं। जब वे मेघाच्छन्न आकाश में गरजते होते हैं तो ऐसा जान पड़ता है कि दूरस्थ अरण्य-ग्रह से सिंह दहाड़ रहा है –
अच्छा वद तवसंगीमिरामिः स्तुहि पर्यन्यं नमसा
विवास/कनिक्रद वृषभो जीरदानू देतो दधात्योषधीषु गर्भम्..
(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुवाद के आधार पर)
ऋग्वेद के इन सूत्रों के बिंब निराला के बादल-राग में मिलते हैं, जिसमें बादल को ऐसे पराक्रमी आक्रामक और मंगल विधायक रूप में प्रस्तुत किया गया है –
‘कंपित जंगम नीड़ विहंगम
ऐ न व्यथा पाने वाले
ऐ अटूट पर टूट छूट पड़ने वाले
उन्माद रुद्ध कोष है क्षुब्ध तोष
अंगना-अंग से लिपटे भी,
आतंक अंक पर कांप रहे हैं
धनी वज्र गर्जन से।’
बादल के इस योद्धा रूप का चित्रण जायसी की इन पंक्तियों में है-
‘चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा।’
वर्षा में आकाश के गगनभेदी घोष निनाद के ध्वनि बिंब भारतीय कविता में यत्र-तत्र सर्वत्र मिलेंगे। इसी अंहकारी नाद ने तुलसी के विरही राम को डरा दिया था –
घन घमंड गरजत घनघोरा,
प्रिया हीन डरपत मन मोरा।’
वर्षा सर्वाधिक संगीतात्मक ऋतु है। वर्षा का वर्णन हो और संगीत न हो यह संभव नहीं। जोश मलीहाबादी ने एक पंक्ति में वर्षा को सितारवादक कहा है-
‘बजा रहा है सितार पानी।’
कालिदास ने मेघ के संगीत का महाकाल की आरती आयोजन के गान-वाद्य में अद्भुत उपयोग किया है। यक्ष मेघ से कहता है कि उज्जयिनी में महाकाल के मंदिर में आरती का नगाड़ा जब बजे तो उस नगाड़े की आनंदध्वनि में तुम भी अपने गर्जन की श्रवण सुभग ध्वनि मिला देना। उस समय नगाड़े के गंभीर निनाद के साथ तुम्हारे मंद घोष का ताल मिलेगा। वर्षा कालीन मेघ गर्जन की ध्वनि का आरती बेला में उपयोग की कल्पना ‘मेघदूत’ का कवि ही कर सकता था-
‘कुर्वन संध्या बलि पटहतां शूलिनः श्लाघनीया
मा मंद्राणां फलमविकलं लप्स्यस गर्जितानाम्।’
हमारे देश में वर्षा का विशिष्ट महत्व है। प्रकृति का ही रूपक लें तो वर्षा ही पृथ्वी को वसुंधरा बनाती है। द्वंद्व आकाश और पृथ्वी में भी है। वे एक-दूसरे से दूर रहते भी एक-दूसरे से मिलने के लिए लालायित रहते हैं। कहते हैं कि वर्षा में आकाश पृथ्वी पर उतर आता है। दोनों का मिलन होता है। ग्रीष्म मिलन ऊष्मा के कारण है और वर्षा आकाश का क्षरण है। इसी से पृथ्वी धन-धान्य से भर उठती है।
वर्षा संगीतात्मक होने के साथ-साथ मनोरम ऋतु भी है। यह श्रवण सुभग ही नहीं, नयन सुभग भी है। वर्षा में पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है, हरी दूबों, नाना प्रकार की वनस्पतियों, स्नात पेड़-पौधों की निर्मलता और खेतों में लहलहाते छोटे-छोटे कृषि बिरवों से। वर्षा अच्छी होती है तो प्रकृति श्रम-सौंदर्य की प्रतिमा, मानवीय संस्कृति का रूप बन जाती है। फसल प्रकृति नहीं – वह कृषि-संस्कृति – एग्रीकल्चर का रूप है। धान, गेहूं, जौ, सब्जियों के लहलहाते खेत अपने आप नहीं उग आए हैं। उन्हें मनुष्य ने अपनी जुगत, पसीने और श्रम से यह रूप दिया है लेकिन फसल वह संस्कृति है जो प्रकृति से भिन्न नहीं लगती। वह प्रकृति ही लगती है। वह कुर्सी, मेज, हवाईजहाज, औषध, अस्त्र-शस्त्र की तरह अपने मूल उपादान से इतना दूर और भिन्न नहीं हो जाती कि उसका मूलरूप पहचाना ही न जाए। वह पर्यावरण को दूषित भी नहीं करती। फसल पर्यावरण का रूप बनाए रखती है इसलिए कृषि संस्कृति प्रकृति का रूप धारण किए रहने वाली है। और यह सब वर्षा-ऋतु में दिखलाई पड़ता है।इस सुख का ही परिणाम है कि वर्षाकालीन लोकजीवन अनेकानेक राग-रागनियों, समारोहों, पर्वों, उत्सवों से भरा है। आल्हा, बिरहा, कजरी, झूला, नागपंचमी, श्रावणी, गंगा एकादशी, अब पंद्रह अगस्त का स्वाधीनता दिवस ये सब वर्षा ऋतु में ही पड़ते हैं। वर्षा होने पर बाढ़ आती है। बाढ़ बर्बादी भी करती है लेकिन गांवों के लोग बढ़िया को भी मां कहकर उसकी पूजा करते हैं। शाम को बढ़िया मां पर फूल चढ़ाए जाते हैं, गीत गाए जाते हैं। वर्षा में इतने प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं कि उनकी चर्चा शुरू करने पर बात वर्षा पर न होकर व्यंजनों पर ही रह जाएगी।
सूरदास वात्सल्य और विरह के महाकवि हैं। वे महारास के उल्लास के और लीला-गान के कवि हैं, लेकिन इस लीला-गान में भी एक ऐसा प्रसंग आ गया है कि उन्हें वर्षाकालीन मेघों की प्रचडंता का बहुबिंबी प्रधानतः नाद और रूप बिंबी वर्णन करना पड़ता है। वह वर्णन है गोवर्धन धारण का। इंद्र ने कुपित होकर ब्रज का विनाश कर देने की आज्ञा दी-
‘मेघदल प्रबल व्रज लोग देखैं
चकित जहं तहं भए निरीख बादर
नए ग्वाल गोपाल डरि गगन पे देखैं
ऐसे बादर सजल करत अति महाबल
चलत घहरात करि अंधकारा
घटा घनघोर हहरात अररात
दररात, थररात व्रज-लोग डरपे
तड़ित आघात तररात उतपात सुनि
नारि नर सकुचि तन प्राण अरपे।’
सूरदास की कविता कृष्ण जन्मोत्सव पर भरे भादों में यमुना और जलधर नदी और बादल के सम्मिलित उल्लास चित्र पर भी है। इस दुर्लभ कविता जैसी मार्मिकता और व्यंजना अन्यत्र कम मिलती है। सूरदास की उल्लास तन्मयता में जड़-चेतन घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। सूरदास महारास के कवि हैं-
‘आजु तौ बधाई बाजै मंदिर महर के
फूले फिरैं गोपी ग्वाल ठहर-ठहर के
फूली फिरैं धेनु धाम फूली गोपी अंग-अंग
फूले फले तरुवर आनंद लहर के
उमंगे जमुन जल प्रफुलित कुंज-पुंज
गरजत कारे भारे जूथ जलधर के
नृत्यन मदन फूले फले रति अंग-अंग
मन के मनोज फूले हलधर वर के।’
आपने देखा उल्लास में ग्वाल, बाल, गोपी, बादर, जमुन, जल, देवी-देवता सब एकरस हैं। प्रकृति, मनुष्य, जड़-चेतन, सब एक प्राण!
डॉ. रामविलास शर्मा ने सूरदास के इस शब्दचित्र पर टिपण्णी की है – ‘इस कवि ने ज्ञान या अज्ञान में प्रकृति के मर्म में उस अंध इच्छाशक्ति का स्पंदन सुना है जो आगे चलकर मनुष्य की चेतना के रूप में विकसित हुई।’
कबीर के यहां जल शीतल है लेकिन उसमें आग भी लगती है। जो हो, वर्षा कबीर के यहां कम है लेकिन जो है वह अमृत का, परमपद का आस्वाद है। वह सदगुरू के संग का उपमान है –
‘सतगुरु हम सौं रीझकर कहा एक परसंग
बादर बरसा प्रेम का भीजि गया सब अंग।’
कबीर के यहां ज्ञान का सर्वग्राही प्रभाव ‘गगन घटा गहरानी’ के रूपक में व्यक्त हुआ है।
और तुलसी का वर्षा-वर्णन। समझा जाता है कि उन्होंने वर्षा के माध्यम से नीति और उपदेश ही दिए हैं। तुलसी के यहां जल के जितने रूप हैं वह अन्यत्र शायद ही मिलें। रामकथा का विशद रूपक विविधरूपा नदी का है। तुलसी का मन सबसे ज्यादा रमा है चित्रकूट वर्णन में। वर्षाकालीन चित्रकूट का यह वर्णन पढ़िए और तुलसीदास की प्रकृति के सौंदर्यांकन की क्षमता का अनुमान कीजिए।
वर्षा ऋतु के प्रारंभ में चित्रकूट पर्वत देखते ही बनता है। वन चारों ओर से संपन्न है। पशु-पक्षियों के स्वर की शोभा है। चित्रकूट के श्रृंगों के धातुरंगों में घटाएं अपना मृदु वर्ण घोल रही है। मानो आदि कमल विकसित हो। शिखरों को घन घटाएं स्पर्श करती हैं, वलाका पंक्तियां उड़ रही हैं लगता है आदिवाराह समुद्र के तल में से पृथ्वी को अपने दांतो पर उठाए ऊपर आ रहे हैं। चित्रकूट की शिलाओं पर स्थित जल-तरंगों में चित्रकूट की शोभा झिलमिला रही है। शिला स्थित उन जल तरंगों पर झलकती हुई विविध रूप शोभा में जगरचना की विराटता बिलस रही है-
‘जल जुत बिमल सिलनि झलकत नभ बन-प्रतिबिंब तरंग
मानहुं जग रचना विचित्र बिलसति विराट अंग-अंग।’
वर्षा-वर्णन का प्रसंग कामायनी के जल-प्लावन के बिना नितांत अपर्याप्त होगा। चिंता सर्ग की प्रलय वर्षा ‘मार्खेज’ के उपन्यास ‘सौ वर्ष का एकांत’ के वर्षा-वर्णन के समान है। प्रसाद की प्रलय वर्षा मार्खेज की वर्षा से दशकों पूर्व रची गई थी। कामायनी में प्रकृति मनुष्य (देव संस्कृति) के अतिचार में हस्तक्षेप करती है। इस दृष्टि से कामायनी हमारे समय के लिए प्रासंगिक विशद प्रबंध काव्य है। मार्खेज के उपन्यास में भी प्रकृति (वर्षा) एक अति मानवीय चरित्र के रूप में आती है जो मनुष्य की योजनाओं में परिणामी हस्तक्षेप करती है। आज जब अपसंस्कृति से हमारे पंच महाभूतों को ही खतरा हो गया है। कामायनी ने हमें दशकों पूर्व इस अतिचार से आगाह किया था-
‘हाहाकार हुआ क्रंदनमय
कठिन कुलिश होते थे चूर
हुए दिगंत बधिर भीषण रव
बार-बार होता था क्रूर’
वर्षा संगीतात्मक होने के साथ-साथ मनोरम ऋतु भी है। यह श्रवण सुभग ही नहीं, नयन सुभग भी है। वर्षा में पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है। वर्षा होने पर बाढ़ आती है। बाढ़ बर्बादी भी करती है लेकिन गांवों के लोग बढ़िया को भी मां कहकर उसकी पूजा करते हैं। हमारे यहां वर्षा ऋतु में नदियां उमग कर बहती हैं, उसे संचित करने का प्रयास, वर्षा के जल को संभाल कर बचाने का प्रयत्न, इन सब बातों को लेकर एक सामाजिक आंदोलन का श्रीगणेश और प्रवर्तन होना चाहिए।
इस ज्येष्ठ मास में सर्वत्र प्यास है और पानी का अभाव है। चिंतक सावधान कर रहे हैं कि अगला विश्वयुद्ध तेल के लिए नहीं, पानी के लिए होगा। हमारी भाषा में जल और जीवन पर्यायवाची है। जल का खतरा जीवन का खतरा है। यह खतरा दूर हो सकता है व्यापक दृष्टि और सहृदयता से। हमने बढ़ोतरी को समृद्धि और विकास समझ लिया है। हम ऐसा उद्योग कर रहे हैं जिसमें हमारा मूलधन ही नष्ट हो रहा है। प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने अभी कहा है कि हमने बढ़ोतरी पर इतना ध्यान दिया और उसके वितरण और मनुष्य की सुख-सुविधा पर बहुत कम ध्यान दिया इसीलिए हम संकटकाल से गुजर रहे हैं। चिंता की बात यह है कि हम ऐसी चिंताधारा में फंसे जा रहे हैं जहां योजना का महत्व नहीं समझा जा रहा है। योजना संकट को समझकर उससे उबरने की सामाजिक सामूहिक कार्यनीति प्रस्तावित करती है। पानी का संकट आने वाला है तो उस पर सबको मिल-बैठकर विचार करना चाहिए – नदियों के जल का बंटवारा, जल का अपव्यय रोकना, हमारे यहां वर्षा ऋतु में नदियां उमग कर बहती हैं, उसे संचित करने का प्रयास, वर्षा के जल को संभाल कर बचाने का प्रयत्न, इन सब बातों को लेकर एक सामाजिक आंदोलन का श्रीगणेश और प्रवर्तन होना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने जल-संग्रह की कुछ युक्तियां बना रखी थी। कुछ लोग उन्हें आज प्रासंगिक ही नहीं बता रहे हैं, उनका उपयोगी कार्यान्वयन भी कर रहे हैं। अनुपम मिश्र ने तालाबों पर अतीव उपयोगी ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक लिखी है। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह जी ने जल-संग्रह पर उल्लेखनीय कार्य किया है, सो हमारा समाज इस संकट से बेखबर नहीं है। हमें विश्वास है कि मनुष्य के शब्दकोष में जल-जीवन पर्यायवाची बने रहेंगे और हम इस ज्येष्ठ के ताप में उत्कंठ भाव से मेघ शावकों की प्रतीक्षा में नागार्जुन की इन पंक्तियों का पाठ करते रहेंगे-‘नभ में चौकड़ियां भरे खूब शिशु घन कुरंग।’