पर्यावरण तथा पारिस्थितिक तंत्र संरक्षण की दिशा में इसरो का योगदान

Submitted by Editorial Team on Fri, 12/10/2021 - 21:21

पारिस्थितिकी तंत्र पारिस्थितिकी समुदाय की एक इकाई है, जो जैविक, भौतिक तथा रासायनिक घटकों से निर्मित होती है। भूमध्यरेखीय पारिस्थितिक तंत्र में मौसम, जलवायु तथा कई मानवजन्य प्रभावों के कारण परिवर्तन होता रहता है। जनसंख्या वृद्धि तथा उस हिसाब से संसाधनों की बढ़ती हुई मांग के कारण वनावरण पर बहुत प्रभाव पड़ा है। वन उत्पादों के साथ-साथ जल-विज्ञान मृदा संरक्षण, वन्य जीव समर्थन, जैवविविधता तथा पर्यावरण संरक्षण आदि भी इनका नकारात्‍मक प्रभाव पड़ा है।  जैवविविधता में क्षति के कारण परिवर्तनों के साथ हमारा तालमेल बिठाने की क्षमता का भी ह्रास हुआ है। प्राकृतिक व पारिस्थितिकी तंत्र के निकट बसे लोगों में जैव-विविधता क्षति के बारे में अज्ञानता के कारण यह समस्या अधिक बढ़ जाती है।  अब हमारा ध्यान समग्र संतुलन बनाए रखने व खपत व संरक्षण के फायदों को बताने तथा अल्प, मध्यम व दूरगामी परिणामों को पुनः परिभाषित करने पर केंद्रित हो रहा है। 

वन आवरण

वन संरक्षण तथा उसके उत्‍पादों का अक्षत उपयोग हमारी वन नीति की आधारशिला है।  वन प्रकृति का एक प्रभावी पारिस्थितिक जीवन तंत्र है।  वनावरण में हो रही क्षति, संसाधन ह्रास, वन क्षेत्र के बाहर पेड़ों की जानकारी पाने तथा वनों के अक्षत उपयोग के लिए योजनाएं बनाने में सुदूर संवेदन आंकड़े बहुत मददगार सिद्ध होते हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा संरक्षण उपायों की योजना बनाने के लिए द्विवर्षीय चक्र में राष्ट्रीय तथा राज्‍य स्‍तर पर वन आवरण का आकलन कर संसद में रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है।  भारतीय वनों की स्थिति पर तैयार 2011 की रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल वन व वृक्षावरण का क्षेत्रफल 78.29 मिलियन हेक्टेयर था। यह देश के भौगोलिक क्षेत्र का 23.81 प्रतिशत है।

उत्तर पूर्वी क्षेत्र हेतु व्यावहारिक वन योजना सूचना निवेश

उत्तर-पूर्वी परिषद की ओर से उत्तर पूर्वी क्षेत्र हेतु वन योजना सूचना निवेश का कार्य शुरू किया गया है।  मिजोरम के 27 आरक्षित वनों तथा 17 नदीय आरक्षित वनों का खण्डवार वन मात्रा आकलन कर लिया गया है। संबंधित राज्यों के वन विभागों की सहभागिता से अरुणाचल प्रदेश, असम तथा मेघालय में कार्य योजनाओं को बनाने का काम प्रगति पर है। 

जैवविविधता 

देश के जैव संसाधनों पर प्राकृतिक (जलवायु, भौगोलिक, स्‍थलाकृतिक) तथा मानवजन्य कारकों का प्रभाव पड़ा है। उपग्रह आंकड़ों से लैंडस्केप स्‍तर पर, विशेषकर पूर्वी और पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र, शिवालिक, विंध्य, पूर्वी व पश्चिम घाट तथा तटवर्ती क्षेत्रों में विभिन्न वानस्पतिक समुदायों के स्थानिक वितरण तथा इन वृक्षों व वनस्पतियों पर मानव क्रियाकलापों से पड़ रहे प्रभावों को समझने में मदद मिली है। देश भर में लगभग 125 प्रकार की वनस्पतियों का मानचित्रण किया गया है तथा जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा निधि पोषित "जैवविविधता लक्षणन परियोजना" के अंतर्गत 6,000 प्रजातियों का आंकड़ा आधार भी तैयार किया गया है।  इस अध्ययन से अति उच्‍च तथा उच्‍च जैव-समृद्ध तथा समस्याग्रस्त क्षेत्रों में संरक्षण व प्राथमिकता निर्धारण के लिए महत्‍वपूर्ण जानकारियां मिली है। 

प्राकृतिक रबड़ की खेती 

उत्तर-पूर्वी भारत में भूमि उपयोग द्वंद के बिना प्राकृतिक रबड़ की खेती के लिए संभावित जमीन की उपलब्धता के विषय में वैज्ञानिक जानकारी जुटाने की जरूरत है। रबड़ अनुसंधान संस्थान तथा रबड़ बोर्ड के साथ मिलकर प्राकृतिक रबड़ के स्थानिक विस्तार तथा प्राकृतिक रबड़ की खेती के लिए उपयुक्त बंजर भूमि खण्डों को चिह्नित करने की पद्धति प्रदर्शन  के लिए एक पायलट अध्ययन शुरू किया गया है। आकलन के अनुसार त्रिपुरा में 48,037 हेक्‍टयर में प्राकृतिक रबड़ की खेती हो रही है। प्राकृतिक रबड़ की खेती के लिए बंजर भूमि खण्डों की उपयुक्तता का भी विश्लेषण किया गया। मृदा-जलवायु प्राचलों, विद्यमान प्राकृतिक रबड़ की खेती के इलाकों से जुड़े भूखंड तथा मृदा की उर्वरता, जलवायु, ढलान, अपवाह आदि भूमि विशेषताओं के आधार पर बंजर भूखण्डों में रबड़ की खेती के लिए उपयुक्तता का विश्लेषण किया गया। लगभग 22,947 हेक्टेयर बंजर भूमि खण्डों को प्राकृतिक रबड़ की खेती के लिए उपयुक्त पाया गया। इस पद्धति के स्‍थापित हो जाने पर इसे संपूर्ण उत्‍तर-पूर्वी क्षेत्रों में लागू किया जाएगा। यह परियोजना सफलतापूर्वक संपादित कर प्रयोक्‍ता को रिपोर्ट सौंप दी गई। तैयार आंकडा आधार को प्रदर्शन के लिए भुवन पोर्टल पर पोस्‍ट कर दिया गया है। रबड़ बोर्ड को प्रौद्योगिकी अंतरित तथा उनके लिए क्षमता निर्माण का काम चल रहा है।   

रेशम उत्‍पादन विकास 

केंद्रीय सिल्‍क बोर्ड द्वारा वित्त पोषित "रेशम उत्पादन विकास में सुदूर संवेदन तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) संबंधित अनुप्रयोग" परियोजना को देश के 24 राज्‍यों में व्याप्त 106 चुने हुए शहरों में पूर्ण कर दिया गया है। इस परियोजना के अंतर्गत विकसित सेरिकल्‍चर इंफॉर्मेशन लिंकेजेस एंड नॉलेज सिस्‍टम (एसआईएलकेएस) इंटरनेट पर जारी होने के लिए तैयार है।

हिम एवं हिमनद 

हिमालयी क्षेत्र में हिम एवं बर्फ का एक विशाल भंडार मौजूद है जो कि एक विशाल शुद्ध जलाशय का रूप भी है। जलाशय को होने वाले नुकसान की संपूर्ण जानकारी के लिए ग्लेशियरों का अध्ययन बेहद ज़रूरी है लेकिन, उबड़-खाबड़ तथा अगम्य क्षेत्र होने के कारण सामान्य परंपरागत तरीकों से हिमालयी हिमनदों का अध्ययन कठिन है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से हिम एवं हिमनद अध्ययन चरण-1 के अंतर्गत 1989-1990 से लेकर 1997-2008 के कालिक फ्रेमों से संबंधित उपग्रह चित्रों द्वारा हिमालय के 13 उप बेसिनों में हिमनदों के घटने-बढ़ने से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारियां तैयार की गई है।  कुल 2190 हिमनदों में से लगभग 76% हिमनदों के हिमावरण क्षेत्र में कमी पाई गई तथा लगभग 24%  हिमनदों में या तो वृद्धि पाई गई या फिर कोई परिवर्तन नहीं पाया गया। 

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा वित्तपोषित हिम एवं हिमनद अध्ययन चरण-2 परियोजना के अंतर्गत सिंधु, चिनाब, सतलज, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र बेसिनों में वर्ष 2010-11 के लिए उप-बेसिनवार हिम आवरण एटलस का निर्माण किया गया। हिम एवं हिमनद अध्ययन परियोजना के अंतर्गत सैक में हिमालय के हिमाच्छादित (2012-2013) क्षेत्रों में कार्बन अवशेष (कार्बन सूट) मॉनिटरिंग के लिए द्वि-दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया गया। अगस्‍त-सितंबर 2012 के दौरान भारतीय हिमालय क्षेत्र में कारगिल-लेह सेक्टर के हिमाच्‍छावित क्षेत्र में हिमनद अभियान चलाया गया। उसके अलावा सितंबर 09-23, 2012 के दौरान छोटा शिगरी हिमनद सहित चंद्रा घाटी में एक तथा बथाल के निकट एक अन्य हिमनद को भी आवृत्त किया गया। भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीपीएस) तथा मौके पर किए गए पर्यवेक्षण के द्वारा बथाल हिमनद की भूरूपाकृतिक जॉंच तथा प्रोथ (स्‍नाउट) का अध्ययन किया गया। 

हिमालय क्षेत्र में भारतीय नदी बेसिनों में मौजूद हिमनदीय झीलों/जलाशयों के मानीटरन के तहत 2009-10 उपग्रह आंकड़ों के मदद से 2028 हिमनदीय झीलों तथा जलाशयों का सूचीकरण किया गया। इनमें से 503 हिमनदीय झीलें तथा 1525 जलाशय थे। 2011 के मानसून के दौरान 50 हेक्टेयर से बड़ी झीलों और जलाशयों के मॉनिटरिंग से पता चला कि 218 जलाशयों के जल में विस्तार हुआ है, जबकि 35 जलाशय छोटे हो गए हैं। बाकी जलाशयों में कोई बड़ा अंतर नहीं पाया गया। 

उपग्रह चित्रों की मदद से हर 10 दिन के अंतराल पर हिम आवरण क्षेत्र का मॉनिटरिंग किया जाता है तथा ग्रीष्मकालीन महीनों में हिमालय  की पांच प्रमुख नदियों नामत:, चिनाब, ब्यास, यमुना, गंगा तथा सतलुज बेसिनों में हिम गलन प्रवाह का पूर्वानुमान तैयार किया जाता है। 

तटवर्ती क्षेत्रों का अध्ययन

समुद्री तटवर्ती क्षेत्र विभिन्न पारिस्थितिक जीवन तंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा वे कच्छीय वनस्पति (मैंग्रोव) प्रवाल, पंक मैदानों व अन्य समुद्री प्रजातियों के लिए बेहद उत्पादक आवास होते हैं।   भारत की तटरेखा 7500 कि.मी. लम्‍बी है।  इसके बीच में चट्टानी घास तथा रेतीले समुद्री तट मिलते हैं।  100 कि.‍मी. लम्बी समुद्री तट रेखा देश की 25% जनसंख्या निवास करती है।  समाजार्थिक तथा मानव जन्य कारणों से भारत के समुद्री तटों पर दबाव बढ़ गया है।  समुद्री तटवर्ती क्षेत्र की गतिशील जो प्रकृति के कारण तटवर्ती क्षेत्रों के सतत संरक्षण की एकीकृत प्रबंधन योजनाऍं बनाने के लिए उनका नियमित मॉनिटरिंग जरूरी हो जाता है।  उपग्रह आंकड़े समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों के अध्ययन, भूमि उपयोग मानचित्रण, महत्‍वपूर्ण तटवर्ती आश्रय स्थलों का सूचीकरण संरक्षित समुद्री क्षेत्र के पर्यावरणीय स्थिति तथा समुद्री जलस्तर में वृद्धि के प्रभाव का आकलन करने में उपग्रह आंकड़े बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं। 

नम भूमि सूचीकरण तथा आकलन

नम भूमि क्रांतिक पर्यावरणीय महत्व के ऐसे क्षेत्र हैं जो न केवल समृद्ध जैवविविधता को आश्रय प्रदान करती है बल्‍कि ऐसे पेड़ों एवं पशु प्रजातियों की भी शरणस्थली हैं, जिन्होंने परिवर्तनशील  जलस्‍तरों के अनुरूप अपने आप को ढाल लिया है।   देश की विविध जलवायु के कारण देश में विभिन्न प्रकार की नम भूमि व्यवस्था बनी है।  जिन में ऊँचे स्थानों पर ठंडी मरुस्थलीय नम भूमि से लेकर समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों की गर्म तथा आर्द्र नम भूमि शामिल है।  ये नम भूमियों विकास संबंधी क्रियाकलापों तथा जनसंख्या के दबावों की वजह से खतरे का सामना कर रही हैं तथा उनकी सुरक्षा व संरक्षण के लिए दीर्घकालिक योजनाएं बनाना ज़रूरी है। देश की नम भूमियों के मानचित्रण के लिए उपग्रह आंकड़ों का प्रयोग किया गया है तथा राष्‍ट्र व राज्‍य स्‍तर के एटलस का निर्माण किया गया है।  इससे नम भूमि के वितरण तथा उनकी स्थिति को समझने के अलावा संरक्षण उपायों की योजना बनाने में मदद मिलेगी। पर्यवरण एवं वन मंत्रालय द्वारा वित्‍तपोषित राष्‍ट्रीय नम भूमि सूचीकरण तथा आकलन परियोजना के तहत एक विस्‍तृत अध्‍ययन किया गया है।  इस अध्‍ययन के अनुसार देश में कुल अनुमानित नम भूमि 15.26 मिलियन हेक्‍टेर है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 4.63% है। 

भारतीय वन आवरण परिवर्तन चेतावनी प्रणाली

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से भारतीय वन आवरण परिवर्तन चेतावनी प्रणाली का शुभारंभ किया गया है जिसमें सब वार्षिक वन आवरण परिवर्तन मॉनिटरिंग के लिए रिसोर्ससैट उपग्रह के उच्‍च कालिक विभेदन एविफिस आंकडों का प्रयोग किया जाएगा। पायलट अध्ययन के तहत महाराष्ट्र के जलगाँव तथा गढ़चिरोली क्षेत्र के यवल वन्‍य जीव अभयारण्य तथा उसके आसपास के क्षेत्र में वन आवरण चेतावनियाँ जारी की गई ये चेतावनियाँ अक्टूबर-दिसम्बर 2011 के लिए जारी की गई थी।  जिसमें शुष्क पतझड़ी वनों के संपूर्ण प्रणाली प्रदर्शित इस ढंग के परिणामों का महाराष्ट्र राज्य वन विभाग के साथ वैधीकरण किया गया तथा इस पायलट अध्ययन की परिशुद्धता 80%  पाई गई।  एक राष्ट्रीय कार्य गोष्ठी में वैधीकरण परिणामों पर  सभी साझेदारों के साथ विचार विमर्श व समकक्षीय समीक्षा के पश्चात इस चेतावनी निगमन प्रोटोकॉल को पूरे देश के लिए तैयार किया जाएगा।