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योजना, मार्च 1995
भारत में पशुओं के रख-रखाव की अच्छी व्यवस्था कम ही स्थानों पर उपलब्ध है। उन्हें पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं होता, नस्ल की समस्या भी कम नहीं है, संक्रामक रोगों का शिकार भी यहाँ के पशु अधिक हैं और इसमें कृषिकों की अज्ञानता एवं निर्धनता भी इसका एक कारण है, पशुओं के बच्चों की देखभाल भी उचित ढंग से नहीं हो पाती तथा सामर्थ्य से अधिक काम लेना भी एक समस्या ही कही जाएगी। पशुपालन व्यवस्थित ढंग से सम्पन्न, नहीं किया जाता, अतः कल्याण के अभाव में उनकी पूर्ण क्षमता का विदोहन भारत में नहीं हो पा रहा है। भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है। आज भी करीब पाँच लाख गाँवों के अधिकांश लोगों का जीविकोपार्जन का आधार गाय, बैल, भैंस, घोड़े एवं पालतू पशु आदि ही हैं। चूँकि भारत एक कृषि प्रधान देश है इसलिये पालतू पशु कृषि सम्बन्धी अनेक कार्यों में मनुष्य का काफी सहयोग करते हैं। अतः इनके कल्याण की जिम्मेदारी भी मनुष्य पर ही है। यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि पश्चिमी देशों के कृषि क्षेत्र में जो स्थान मशीनों को प्राप्त हैं, वही स्थान भारत में पालतू पशुओं को प्राप्त है। पशुओं के कल्याण एवं उन्नति के बिना भारत में कृषि के विकास की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। पशुओं को भारत की राष्ट्रीय सम्पत्ति भी कहा गया है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में करोड़ों लोग पशुओं को पालकर जीविका प्राप्त करते हैं। जिनसे उनको लाभ है। पशुपालन मुख्यतः कृषि कार्य व्यवस्था के लिये, गोबर एवं मूत्र खाद के लिये, चमड़ा व खालों के लिये, दूध व घी की आपूर्ति के लिये, हड्डियों के लिये, दूध व बाल की प्राप्ति के लिये, रोजगार के लिये, राष्ट्रीय आय के लिये (देश की राष्ट्रीय आय में पशुपालन व्यवसाय का अंश लगभग 10 प्रतिशत रहता है।) यातायात में सहायता के लिये, अन्य पशुओं के उत्पादन के लिये और कुटीर उद्योगों के आधार के रूप में किया जाता है।
भारत में पशुओं से प्राप्त पदार्थों से अनेक कुटीर उद्योग चलाए जाते हैं जैसे दूध व घी बनाने का धंधा (डेरी फार्म), मट्ठा व दही बनाने का व्यवसाय, गोबर के उपले बनाकर बेचने का व्यवसाय, हड्डियों से खाद, स्टार्च व सींगों से कंघी तथा अन्य खिलौने आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय, चमड़ा तथा ऊन उद्योग आदि। हार्स पावर-इंजन की शक्ति भी ‘अश्व-शक्ति’ पशु से ही नापी जाती है।
समस्या
खेद का विषय है कि उपर्युक्त विषय इतना महत्त्व का होते हुए भी भारत में पशुओं की दशा शोचनीय है क्योंकि देश में पशुओं के लिये पर्याप्त चारे का आभाव रहता है। डॉ. बर्न के अनुसार- ‘यदि पशुओं को उचित एवं पर्याप्त चारा दिया जाये तो दूध का उत्पादन 60 प्रतिशत बढ़ सकता है।’
भारत में पशुओं के रख-रखाव की अच्छी व्यवस्था कम ही स्थानों पर उपलब्ध है। उन्हें पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं होता, नस्ल की समस्या भी कम नहीं है, संक्रामक रोगों का शिकार भी यहाँ के पशु अधिक हैं और इसमें कृषिकों की अज्ञानता एवं निर्धनता भी इसका एक कारण है, पशुओं के बच्चों की देखभाल भी उचित ढंग से नहीं हो पाती तथा सामर्थ्य से अधिक काम लेना भी एक समस्या ही कही जाएगी।
पशुपालन व्यवस्थित ढंग से सम्पन्न, नहीं किया जाता, अतः कल्याण के अभाव में उनकी पूर्ण क्षमता का विदोहन भारत में नहीं हो पा रहा है। यदि एक पशु कल्याण निदेशालय बनाकर लोगों को उपर्युक्त समस्याओं की देखभाल के लिये प्रशिक्षित किया जाये तो पशुओं का अधिक कल्याण सम्भव है तथा उनसे अधिक लाभ उठाया जा सकता है। यद्यपि भारत सरकार ने इस दिशा में काफी प्रयास किये हैं फिर भी जागरुकता के अभाव में पशुओं का जो कल्याण अपेक्षित है वह नहीं हो पा रहा है। इसी प्रकार से मछली पालन, मुर्गी पालन, एवं मधुमक्खी पालन की दिशा में भारत सरकार के प्रयास सराहनीय हैं।
जहाँ तक इन पशुओं के अपविष्ट के प्रबन्धन का प्रश्न है, यह भी एक गम्भीर समस्या है। केवल भारत में पशुओं की संख्या 41 करोड़ 12 लाख है जिनका अपविष्ट कितना होगा, केवल कल्पना की जा सकती है। यदि इसका प्रबन्धन उचित ढंग से न किया जाये तो प्राप्त होने वाले लाभ तो दूर रहे, नाना प्रकार की बीमारियाँ तथा पर्यावरण समस्याएँ उत्पन्न होने का खतरा सामने आ सकता है। सम्भवतः इसी चिन्ता को ध्यान में रखते हुए सरकार ने गोबर गैस प्लांट आदि लगाने की सुविधाएँ सम्बन्धित क्षेत्रों में देना प्रारम्भ कर दिया है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार प्रति पशु प्रतिदिन 400-425 (ग्राम) अपविष्ट विसर्जित करता है। 41 करोड़ 12 लाख पशुओं से विसर्जित अपविष्ट का एक मोटा अन्दाज लगाया जा सकता है। इस अपविष्ट के प्रबन्धन के निम्न कुछ ढंग नीचे बताए जा रहे हैं, जिनका उपयोग करने हम अपनी कई समस्याओं का समाधान कर सकते हैं तथा पशुधन की उपयोगिता बढ़ा सकते हैं।
अपविष्ट प्रबन्धन
अपविष्ट प्रबन्धन के उद्देश्य से एक कस्बे को कई बाड़ों तथा इकाइयों में बाँटा जा सकता है। जिन स्थानों पर इस अपविष्ट के उपलब्ध होने की ज्यादा सम्भावनाएँ हों वहाँ-वहाँ अपविष्ट एकत्रित करके ले जाने के उद्देश्य से केन्द्र बना देना उचित होगा जिनकी संख्या कम-से-कम ही रहनी चाहिए। इन्हें एकत्रण केन्द्र कहा जा सकता है। ट्रैक्टर-ट्राली के सहयोग तथा छोटे स्थानों के लिये हाथ से घसीटने वाली ट्राली उपयुक्त सिद्ध होगी। इस प्रकार से शहर के अन्दर गन्दगी से भी छुटकारा मिल सकता है तथा बदबू एवं विभिन्न प्रकार की उत्पन्न होने वाली बीमारियों से स्वतः रोकथाम भी सुनिश्चित की जा सकती है।
इस प्रकार से एकत्रित किये गए अपविष्ट को रासायनिक खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है तथा इनके उपलें तैयार करके व्यापार भी सम्भव है। कम्पोस्ट खाद इसी से तैयार की जाती है। जो नाइट्रोजन, फॉस्फेट तथा पोटाश की दृष्टि से बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। गोबर गैस प्लांट इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसके माध्यम से खाना पकाने के लिये गैस उपलब्ध होती है, बचे हुए पदार्थ को खाद के रूप में प्रयोग कर लिया जाता है। बाहर से खाद मँगाने से काफी विदेशी मुद्रा का व्यय होता है जिसे किन्हीं अन्य कार्यों में लगाकर देश को आगे बढ़ाया जा सकता है।
कम्पोस्टिंग भारत का प्राचीन समय से ही खाद बनाने का सर्वोत्तम साधन रहा है। आज भारत के कुछ बड़े शहर जैसे बम्बई, बंगलौर, मद्रास तथा अहमदाबाद कम्पोजटिंग तकनीक से अपविष्ट का सही उपयोग कर रहे हैं। इन नगरों में तो इस अपविष्ट के साथ अन्य कचरा आदि भी प्रयोग में आने लगा है। इससे नगर तथा कस्बा स्वच्छ तो बना ही रहता है साथ-ही-साथ गन्दगी, बदबू तथा कई प्रकार की बीमारियों से कस्बे, गाँव तथा मुहल्ले को बचाया जा सकता है क्योंकि यह हर (प्रत्येक) नगर की जनसंख्या के सैलाब के कारण, एक विकट समस्या बनती जा रही है। इस विधि के प्रयोग में 6-8 तथा एक साथ दो लाभ उठाए जा सकते हैं।
इसी में एक विधि ऐसी है जिसमें 2-3 सप्ताह का समय लगता है। जिसे ‘एरोविक’ कहते हैं। इसमें दुर्गन्ध भी कम ही रहती है। इसमें केवल इतना ही नुकसान हो सकता है कि प्रबन्धन की व्यवस्था में कमी अथवा लापरवाही के कारण विभिन्न बीमारियों का निमंत्रण मिल सकता है।
भस्मीकरण की क्रिया का प्रयोग
इसका उपयोग पशुओं के अपविष्ट पर नहीं किया जा सकता। पशुओं के अपविष्ट को एक ओर विधि से गुजार कर, जलाने के लिये ठोस गोले तैयार किये जा सकते हैं। इस विधि को रिफ्यूज डेराइब्ड्यूल’ विधि कहते हैं। बम्बई में पशु अपविष्ट के साथ-साथ शहर का कचरा एकत्र करके उसमें यह विधि प्रयोग की जाती है। लगभग 50 टन कूड़ा-करकट, गोबर आदि प्रतिदिन जलाने वाले ठोस गोलों में परिवर्तित किया जाता है। इन गोलों को घरेलू तथा कारखानों में प्रयोग करने के योग्य बनाया जा सकता है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि सभी कस्बों तथा नगरों आदि में अपविष्ट को इकट्ठा करने, दूसरे स्थानों पर पहुँचाने एवं उसके विदोहन का कोई निर्धारित ढंग तथा व्यवस्था नहीं है। इसलिये यह अपविष्ट नगरों तथा गाँवों के लिये समस्या बनता जा रहा है। यह जिम्मेदारी शहरों तथा कस्बों के स्तर पर स्थानीय संस्थाओं को सौंप दी जाएँ तो काफी हद तक समस्या का समाधान भी हो सकता है तथा लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है।
जैसा कि हम निरन्तर दिन-प्रतिदिन देख रहे हैं कि हम लोगों के ऊपर पर्यावरण का दबाव बढ़ता जा रहा है जो विकास का परिणाम है। अतः इसे नियंत्रित एवं व्यवस्थित करना हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है। चूँकि देश में कारखानों एवं नगरों का विकास तेजी से हो रहा है, अतः स्वच्छता की दृष्टि से इन ठोस अपविष्ट तथा कचरे की सुव्यवस्थता प्रभावी ढंग से नितान्त आवश्यक है। इसमें कम्पोस्टिंग विधि सबसे उत्तम है। इस विधि से किया गया प्रबन्धन सरल तथा सभी को ग्राहकारी होगा। इसमें भी जन-सहयोग के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है फिर भी सरकार को त्वरित ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर हम चाहते हैं कि सन् 2000 तक सभी स्वास्थ्य की परिधि में आ जाएँ, यह प्रबन्ध स्थापित करना होगा।
अपविष्ट को एकत्र करने का ढंग, उसकी संरचना तथा दूसरे स्थानों पर प्रोसेस के लिये वितरित करना यह सभी बातें नगर, कस्बा तथा गाँवों-मुहल्लों में अलग-अलग निश्चित होंगी यानि सभी स्थानों की एक निश्चित व्यवस्था नहीं हो सकती। अभी तक इसकी व्यवस्था कुछ स्थानों में कमजोर वर्गों के लिये ही भारत सरकार ने निश्चित की है। इसके अतिरिक्त कोई दूसरी संरचना पर अभी तक विचार नहीं किया गया है। यदि इसमें स्वैच्छिक संगठनों की भागीदारी और सुनिश्चित कर ली जाये तो समस्या का समाधान सरलता से हो सकता है।
इस कार्य के लिये सरकार को निम्न व्यवस्थाएँ तुरन्त करनी चाहिए:-
उचित धन की व्यवस्था; उचित संगठनों की भागीदारी सुनिश्चित करना, सम्बन्धित कार्य के लिये कर्मियों के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था; अनुश्रवण तथा देख-रेख की उचित व्यवस्था; रख-रखाव पर उचित जोर; प्रबन्धन की उचित व्यवस्था और समुदाय के लोगों द्वारा इस व्यवस्था की प्रशंसा सुनिश्चित करवाना।
कानपुर में कल्यानपुर खण्ड के अन्तर्गत पनकी रोड पर भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गाँधी द्वारा कानपुर के कचरे से कम्पोस्ट खाद बनाने की व्यवस्था की गई थी जिसमें बचे हुए अवशेष से किसानों हेतु खाद तथा स्थानीय लोगों के लिये गैस की व्यवस्था की गई थी। यह व्यवस्था इस समय विशेष विचारणीय है जबकि सम्पूर्ण कानपुर बुरी तरह से दुर्गन्धग्रस्त है।
इससे भी अधिक त्रासदी यह है कि कानपुर का कचरा (अपविष्ट) कानपुर के उस राष्ट्रीय मार्ग पर विशेष तौर पर इकट्ठा किया जा रहा है जिस पर स्थित आईआईटी, नेशनल शुगर इंस्टीट्यूट एवं कानपुर विश्वविद्यालय आदि में मानव संसाधन पर देश-विदेश से छात्र अध्ययन करने आया करते हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर सरकार इन मानव संसाधन के स्रोत पर करोड़ों रुपया खर्च करके उनके स्वास्थ्य हेतु चिन्तित रहती है दूसरी ओर उन्हीं के साथ इस नगर के कचरे/अपविष्ट के माध्यम से उनके स्वास्थ्य को सीधे विपरीत दिशा में प्रभावित किया जा रहा है।
6, कानपुर विश्वविद्यालय परिसर
कानपुर-209024।