पटसन या पाट

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 16:30
पटसन या पाट को मेस्टोम भी कहते हैं। भारत में पटसन की कृषि लगभग 582 हजार एकड़ भूमि में होती है। इससे मोटे रस्से, मछली के जाल, मोटे बोरे, टाट तथा कैनवास बनता है। जूट के साथ मिलाकर इसके चीनी के बोरे भी बनते हैं। इसकी पत्तियाँ, कोपलें और फल बहुत कड़वे होते हैं। पोधों के शीर्ष और शाखाएँ पशुओं को खिलाई जाती है। इसका बीज दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है। सूखे डंठल जलाधन के काम आते हैं। इनसे दियासलाई को सींक भी बनती है।

पटसन के लिये 20 से लेकर 30 इंच तक वर्षा, पाँच छह महीनों के बीच वितरित होनी चाहिए। खरीफ की फसल के रूप में इसकी खेती अच्छी होती है। भारी वर्षा और पाला फसल के लिये हानिकारक होता है।

हलकी काली भूमि तथा बलुई कछार दुमट इसके लिये अच्छी होती है। पथरीली भूमि में भी यह उगता है। निचली मिट्टी इसके लिये उपयुक्त नहीं है। इसकी फसल बाजरा, ज्वार और कपास के साथ होती है। फसलों के किनारे किनारे यह उगाया जाता है। या तो यह छींटा जाता है या मुख्य फसल के साथ पाँच या छह कतारों के बाद ड्रिल से स्वतंत्र कतारों में बोया जाता है।

पटसन के लिये खेत की तीन बार जुताई और फिर आड़ी जुताई करके हैरो चलाया जाता है, जिसमें मिट्टी भुरभुरी हो जाय। साधारणतया खाद नहीं दी जाती। यदि 20 से लेकर 30 पाउंड नाइट्रोजन की खाद का प्रयोग किया जाय तो फसल अच्छी होती है। इसकी बोआई बरसात के आरंभ में मई से जुलाई के बीच की जाती है। एक दो बार गुड़ाई की जाती है। पौधों की दूरी चार से लेकर छह इंच तक रहनी चाहिए।

जब फूल खिलने लगें तब रेशे के लिये फसल काटी जाती है। पौधों को उखाड़कर धूप में सुखाया जाता है। फिर 30 से 40 पौधों को बाँधकर पोरियों को काट दिया जाता है ताकि कठोर भाग मुलायम हो जायें। फिर पौधों को पानी में लिटाकर तथा डुबाकर गलाई के लिये रख देते हैं। आवश्यकता होने पर उनपर वजन भी रखा जाता है।

10 से लेकर 20 दिनों तक के भीतर गलाई हो जाती है। फिर जूट की भाँति ही इससे रेशा निकालकर और धोकर सुखाते हैं। सूखे डंठलों में लगभग 16 प्रतिशत रेशा होता है।

यदि बीज प्राप्त करना है तो पटसन को कुछ दिन और खड़ा रहने दिया जाता है। जब पौधा सूखने की अवस्था में आता है तब उसे काट लिया जाता है। अब डंडे से पीटकर, बीज निकालकर और डंठलों को सड़ाकर रेशा निकालते हैं। बीज से निकाला गया रेशा मोटा, चमकरहित और कमजोर होता है। पछेती बुआई की फसल से प्रति एकड़ 400 से लेकर 800 पाउंड तक बीच प्राप्त होता है।

पटसन की खपत देश में ही होती है। इसका निर्यात नहीं होता। सफेद, मुलायम, चमकदार तथा नमी, अपद्रव्य और काले धब्बों से रहित रेशा कीमती समझा जाता है। इसे 300 से लेकर 400 पाउंड तक की गाँठों में दबाकर बाँधते हैं। पटसन का रेशा अन्य रेशों के साथ, विशेषत: रोजेल के रेशों के साथ, मिलाकर बेचा जाता है। यह हिबिसकस डेब डेरीफ नामक सजातीय पौधे से प्राप्त होता है।

(फूलदेवसहाय वर्मा)

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