पुल नदी

Submitted by Hindi on Mon, 08/22/2011 - 10:13
पुल नदी नालों को पार करने के लिए पुल का प्रयोग मनुष्य प्राचीन काल से करता आ रहा है। ईसा से 2,650 वर्ष पूर्व, मिस्र के बादशाह मेनेस (Menes) द्वारा नील नदी पर पुल बनाने का वृत्तांत मिलता है। इसके 5 वर्ष बाद बैबिलॉन की रानी सेमिरामिस (Semiramis) द्वारा निर्मित फ़रात (Euphrates) नदी के ऊपर एक दूसरे पुल का विस्तृत वर्णन भी इतिहास में पाया जाता है। इस पुल को बनाने के लिए नदी को मोड़कर एक बनावटी झील में डाला गया, जिससे पायों का निर्माण नदी के सूखे तल में किया जा सके। पुल का ऊपरी भाग लकड़ी का बनाया गया तथा पुल की चौड़ाई 30 फुट के लगभग थी। बीच के कुछ हिस्से की लकड़ी रात में हटा ली जाती थी, जिससे डाकू तथा दुश्मन के आने की आंशका न रहे। फिर दिन में अपने स्थान पर लगा दी जाती थी पुल के निर्माण के बाद नदी का बहाव फिर पहले जैसा कर दिया गया था।

जहाँ पत्थर सुगमता से उपलब्ध था वहाँ उसका प्रयोग पूरी तरह किया जाता था, पर जहाँ पत्थर की कमी थी, पर जंगल में लकड़ी आसानी से मिलती थी, वहाँ अधिकतर लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता था।

आरंभ में लकड़ी के लट्ठों को जमीन में गाड़कर उन्हें पाये के रूप में प्रयोग किया जाता था, पर बाद में इन लट्ठों को नदीतल में ठोंककर उनपर पाये का निर्माण किया जाने लगा, जैसा आधुनिक काल में पाइल (pile) की नींव बनाने में किया जाता है। कुछ और समय बीतने पर इन लट्ठों को एक दूसरे के बहुत समीप गाड़कर कॉफरडैम (cofferdam के रूप में भी पाये के निर्माण के लिए इनका उपयोग किया जाने लगा। रोम के इंजीनियरों ने इस प्रकार के कॉफरडैम बनाकर, उनके बीच की मिट्टी निकालकर, पुल के पायों क निर्माण करने में विशेष योग्यता प्राप्त कर ली थी। चीन में भी कॉफरडैम के प्रयोग का वर्णन ईसा से 200 वर्ष पूर्व तक मिलता है।

पुलों के निर्माण में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य बलि के भी बहुत से वृत्तांत मिलते हैं। पुल निर्माण में बहुत सी कठिनाइयाँ आती हैं। बहुधा निर्माण कार्य में दुर्घटनाओं से क्षति हो जाती थी। अंधविश्वास तथा अंध परंपरा के कारण निर्माता लोग इसे देवता का प्रकोप समझकर आरंभ में ही देवता को प्रसन्न करने के लिए बलि चढ़ाया करते थे। धीरे-धीरे जैसे मनुष्य शिक्षित होता गया तथा अंधविश्वास का लोप होता गया, इस बुरी प्रथा का भी अंत हो गया।

भारत में लकड़ी के लट्ठों के दोनों किनारों पर पत्थर की दीवार या बीच के पायों में फँसाकर, थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ाकर, कैंटिलीवर (cantilever) पद्धति के पुल बनाने की प्रथा प्राचीन काल से प्रयोग में लाई गई, जैसा कि नीचे के चित्र में दर्शाया गया है।

इस प्रकार के पुल कश्मीर तथा भारत के उत्तरी पहाड़ी प्रदेशों में अब भी बनाए जाते हैं। इस पद्धति का प्रयोग चीन तथा तिब्बत में भी पुल-निर्माण के लिए किया गया। इस प्रकार के पुल का वृत्तांत लेफ्टेनेंट टर्नर ने अपनी भूटान यात्रा के विवरण में भी दिया है। उन्होंने लिखा है कि ऐसे पुल चीड़ की लकड़ी के पटरों की लकड़ी की गुल्लियाँ ठोंककर बनाए गए थे तथा इनमें लोहे का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया गया था।

मेहराबदार या डाट-पुल 


डाटदार पुलों का निर्माण रोमनों ने किया। रोमन डाट अथवा मेहराब अर्धवृत्ताकार होती थी और बीच में एक डाट का पत्थर (key stone) होता था। रोमन लोग कुशल शिल्पी थे और इसमें संदेह नहीं कि रोमन काल में पुलों का विधिपूर्वक निर्माण आरंभ हुआ।

रोमन युग के बाद पुल निर्माण में कुछ विशेष ढील आ गई। फिर, मध्य युग में पुलों का निर्माण शुरू हुआ। 13वीं, तथा 14वीं सदी में कुछ बढ़िया किस्म के पुल बनाए गए। सामान्य रूप से पुलों के दर 40 से 80 फुट तक होते थ, पर 14वीं सदी के अंत में इटली में अद्दा (Adda) नदी पर 251 फुट का पुल बना। अन्य कई पुल भी 100 फुट स बड़े दर के बने। इस युग के पुलों पर सजावट के लिए बुर्जियाँ, कंगूरे तथा मूर्तियाँ इत्यादि और यहाँ तक कि रहने अथवा दूकानों के लिए भी जगह बनाई गई। 17वीं सदी में इस्फहान (ईरान) में बना पुले-खाजू इस प्रकार के पुलों का प्रसिद्ध उदाहरण है। इस पुल पर पैदल यात्रियों के लिए रास्ता (footpath) अलग बनाया गया था। तथा यह पुल दोमंजिला था जिसमें यात्रियों के ठहरने का प्रबंध था। दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की गई थी, जिससे धनी यात्री वहाँ सुंदर वातावरण और नदी की ठंडी हवा में आराम कर सके तथा रास्ते की थकावट को मिटा सके। पुल 85 फुट चौड़ा तथा 25 डाटों का, कुल 462 फुट लंबा था।

भारत में भी प्रागैतिहासिक काल में डाट बनाने की पद्धति ज्ञात थी, पर पुल निर्माण में डाट का प्रयोग मुसलमानों के शासनकाल में ही हुआ। इन्होंने बड़ी संख्या में पुलों का निर्माण कराया। इनकी मेहराबें नोकादार हुआ करती थीं। कलकत्ते से पेशावर तक जानेवाले प्रसिद्ध ग्रैंड ट्रंक मार्ग के निर्माता बादशाह शेरशाह सूरी (सन्‌ 1540-45) का बनवाया हुआ जौनपुर में गोमती का पुल अब भी मौजूद है तथा इसपर से सब प्रकार का यातायात होता है। इस पुल के दर 17 फुट के हैं तथा पाये 17 फुट मोटे हैं। बाद में अकबर तथा जहाँगीर के शासनकाल में भी कई महत्वपूर्ण डाटदार पुल बने। इस प्रकार के नोकदार डाट के पुल 19वीं शती तक बनते रहे। इसके बाद अंग्रेजों के शासनकाल में चाप के आकार की मेहराबें बननी शुरू हुईं।

आधुनिक काल में, जब से सीमेंट कंक्रीट का प्रयोग होने लगा, सरियायुक्त कंक्रीट के बहुत बड़े-बड़े डाटदार पुल बनने लगे। हाल में ही सिडनी, आस्ट्रेलिया, में 350 मीटर, अर्थात्‌ करीब 100 फुट, के एक दर प्रबलित कंकीट (reinforced concrete) का पुल निर्मित हुआ है, जो इस प्रकार का सब से बड़ा डाट का पुल है। भारत में 325 फुट लंबा, कंक्रीट की डाट वाला, उत्तर प्रदेश के नैनीताल जिले में चल्थी पुल तथा बंगाल में 300 फुट लंबा कॉरोनेशन (Coronation) पुल उल्लेखनीय हैं।

न तो इस बात के प्रमाण मिलते हैं और न अभिलेख कि सरंचनाएँ बनाने के सिद्धांत का आविष्कार करने का पहला प्रयास 15वीं सदी में लेओनार्दो द विंशी ने तथा बाद में गैलिलीओ ने किया। कहा जाता है, शक्तियों के समांतर चतुर्भुज के विचार की कल्पना पहले-पहल साइमैन स्टीविन (सन्‌ 1548-1620) ने की और स्थायी रचना का बुनियादी आधार त्रिकोण बताया। एक बार जब सरंचना सिद्धांत की स्थापना हो गई, तब पुल निर्माण कार्य में तेजी से इसका उपयोग किया गया और 17वीं तथा 18वीं सदी में आधुनिक प्रणाली द्वारा पुल निर्माण कार्य में बड़ी प्रगति हुई। गर्डर पुल, कैंची पुल, डाटदार पुल तथा झूला-पुल, सभी प्रकार के पुलों का प्रयोग हुआ और आज भी करीब करीब उन्हीं सिद्धांतों का प्रयोग किया जा रहा है, पर शक्ति, कुशलता तथा किफायतसारी की दृष्टि से उनमें प्रयुक्त सामान तथा तकनीकों में अंतर पड़ गया है।

कैंची पुल - इस प्रकार के पुल की संरचना में सबसे पहले लकड़ी की कैंची का प्रयोग किया गया, क्योंकि आरंभ में इस्पात के प्रयोग का ज्ञान उस समय नहीं था। लकड़ी के प्रथम कैंची पुल बनाने का श्रेय ऐंड्री पैलाडियो (सन्‌ 1518-80) को है। इसने इस प्रकार के चार पुल बनाए थे, जिनमें से एक सिस्मोन नदी पर था।

पुनर्जागरण काल (renaissance) में कैंची डिजाइन में नए नए प्रयोग किए गए। कैंची पुलों का मुख्य गुण यह है कि उनका भार बहुत कम होता है, अत: पुलों के दरों की लंबाई बढ़ने लगी। सन्‌ 1767 में स्विट्सरलैंड में 200 फुट लंबे कैंची पुल का निर्माण हुआ, पर 18वीं सदी में नेपोलियन की सेना ने उसे नष्ट कर दिया। जब यूरोपवासी अमरीका गए, तो अपने साथ पुल बनाने की कला भी ले गए। वहाँ थोडोरबर ने सन्‌ 1815 में 360 फुट लंबा लकड़ी का मेहराबदार पुल बनाया। यह पुल भी दो वर्ष बाद बर्फ गिरने से नष्ट हो गया।

18वीं सदी में इस्पात उत्पादन में वृद्धि होने से पुल निर्माण में इसका प्रयोग आरंभ हुआ और लोहे के कैंची पुल, रज्जु पुल तथा मेहराबदार पुल भी बनाए गए। 19वीं सदी के आरंभ में जब जॉर्ज स्टीफेंसन ने रेल का ईजाद किया, तब उन्हें रेलमार्ग के लिए भारी तथा मजबूत पुलों की आवश्यकता हुई और उन्होंने कुछ लोहे के पुलों के डिजाइन स्वयं बनाए, जिनमें लोहे से ढालकर बनाए गए गडरों का प्रयोग किया गया। बाद में उन्होंने सन्‌ 1846 में दो बड़े पुल बनाए। इसमें से एक टाइन नदी पर बना दुमंजिला पुल था, जिसमें नीचे की मंजिल पर सड़क गुजरती थी और ऊपर की मंजिल से रेल। दूसरा पुल मेनाई जलडमरूमध्य पर ब्रिटानिया पुल बना, जिसमें 230, 450 तथा 230 फुट के दरों पर लंबे गर्डर डाले गए। इसे वर्तमान प्लेट गर्डर पुल का पूर्वज कहा जा सकता है।

19वीं सदी के मध्य में लोहे की संरचनाएँ बननी शुरू हो गई। इस्पात बनाने की विधि मालूम हो जाने पर इस सदी के पिछले भाग में पुल निर्माण में इस्पात का प्रयोग बहुत लाभदायक हुआ। टाइन नदी पर दोमंजिला पुल बना, जिसमें ऊपर रेलवे लाइन तथा नीचे सड़क बनाई गई। दूसरा प्रसिद्ध पुल मेनाई नामक स्थान पर ब्रिटैनिया पुल था, जिसके दर 230, 460 तथा 320 फुट के थे।

19वीं सदी में पुल की ऊपरी संरचना में प्रगति के अतिरिक्त पुलों की नींव बनाने की कला में भी बड़ी तरक्की हुई। कैसन (caisson) का प्रयोग तो रिनैसाँ काल से ही होने लगा था, पर अधिक गहराई को नींवों के लिए न्यूमैटिक (pneumatic) कैसन की पद्धति का पेटेंट सन्‌ 1830 में अंग्रेज इंजीनियर, सर टॉमसन, ने प्राप्त किया, जिससे कठिन से कठिन स्थिति में भी पानी के भीतर गहरी नींव बनाना संभव हो गया। सन्‌ 1876 में निर्मित 2,700 फुट लंबा इस्पात का कैंचीनुमा गर्डरों का मिजुरि नदी का पुल इस जमाने का एक उल्लेखनीय पुल है। इसमें 316 फुट तक के दर बनाए गए। इस्पात के उपयोग तथा गुणों से लोगों का भय जाता रहा और इसके बाद बड़े बड़े श्रेष्ठतम पुलों के निर्माण का युग आरंभ हो गया।

19वीं सदी के मध्य में इंजीनियरी के सिद्धांतों में भी बड़ी प्रगति हुई। सन्‌ 1818 में रैंकिन की प्रसिद्ध पुस्तक, ऐप्लाइड मिकैनिक्स, प्रकाशित हुई, जिसके सिद्धांतों पर आज भी अमल हो रहा है। इसी जमाने में मैक्सवेल, मोहर तथा कैस्टिलिआनो के प्रमेयों की रचना हुई, जो संरचना इंजीनियरी (structural engineering) में महत्व रखते हैं।

झूला पुल 


इसी काल में लोहे के झूला पुलों की भी बड़ी तरक्की हुई, खासकर अमरीका में। सन्‌ 1850 में विश्वप्रसिद्ध नियाग्रा प्रपात के पास एक हजार फुट लंबे दर के झूला पुल का निर्माण हुआ। इस पुल को बाद में हटाना पड़ा, क्योंकि तेज हवा से बचाव का समुचित प्रबंध न था। इसके बदले सन्‌ 1899 में दूसरा पुल बनाना पड़ा, जो अब भी मौजूद है। झूला पुलों के निर्माण की प्रगति में प्रसिद्ध इंजीनियर रोपब्लिंग का बड़ा हाथ है। सन्‌ 1860 में रोऐब्लिंग के पिता, जॉन रोएब्लिंग, द्वारा आरंभ किया ब्रूकलिन झूला एक 13 साल में काफ़ी कठिनाइयों का सामना करने के बाद पूरा हुआ। यह 1595.5 फुट लंबे दर का पुल है, जिसपर अन्य वाहन, ट्राम, रेल, तथा पैदल सभी प्रकार के यातायात के लिए स्थान रखा गया है। इस पुल की नीवें 44 फुट से लेकर 78 फुट गहरी हैं तथा कैसन पद्धति की है।

ब्रूकलिन पुल के निर्माण से उत्साहित होकर, इंजीनियरों ने और भी बहुत से बड़े बड़े झूला पुल बनाए। 20वीं सदी के आरंभ में, खासकर अमरीका में, बड़े पैमाने के बहुत से झूला पुल बने। इनमें कैलिफॉर्निया के सैनफ्रैंसिस्को शहर में, सन्‌ 1937 में निर्मित पुल केवल उल्लेखनीय ही नहीं है, वरन्‌ उसे अभी तक संसार का सबसे बड़े दर का का पुल होने का श्रेय भी है। इसका बीचवाला दर 4,200 फुट लंबा है, तथा यह 80 फुट चौड़ा है। लोहे के जिन रस्सों पर यह पुल लटकाया हुआ है, उनकी मोटाई तीन तीन फुट है। इसके लौहस्तंभ 746 फुट ऊँचे हैं तथा दक्षिणी खंभे की नींव 100 फुट गहरी है। न्यूयॉर्क स्थित, जॉर्ज वाशिंगटन झूला पुल (3,500 फुट लंबा दर) तथा उत्तर पश्चिमी अमरीका का ठैकोमा नैराज़ (Tacoma Narrows) के झूला पुल भी विशेष उल्लेखनीय हैं। टैकोमा पुल पहली बार सन्‌ 1940 में बनाया गया पर चार महीने में ही यह पुल हवा के झोंके को सहन न कर सकने के कारण ध्वस्त हो गया। यद्यपि यह 120 मील प्रति घंटा की गतिवाली वायु की दाब के लिए डिजाइन किया गया था, तथापि केवल 42 मील प्रति घंटा वाली आँधी में ही नष्ट हो गया। इस पुल के टूटने से इंजीनियरों में बड़ी सनसनी फैली और विंड-टनलों में प्रयोग करके नए सिद्धांतों का पता लगाया गया। डा. डी. बी. स्टीनमैन ने, जो अमरीकी झूला पुल के डिजाइन में ख्यातिप्राप्त इंजीनियर थे, द्रवगतिकी (hydrodynamics) के इन अध्ययनों में महत्वपूर्ण काम किया। लोगों का विचार है कि झूला पुल अन्य पुलों की तुलना में हलका होने के कारण, दस हजार फुट की लंबाई तक, बीच में बिना पाया इत्यादि दिए, निर्मित किए जा सकते हैं। संरचना सिद्धांत, मशीन पुर्जे तथा इस्पात, ऐल्यूमीनियम इत्यादि पुल निर्माण सामग्री के बनाने में जो प्रगति हो रही हैं, उससे आशा की जाती है कि वह दिन दूर नहीं जब इतने बड़े दर के पुल भी बनते आ रहे हैं। पहले ये केवल मूँज के रस्सों और लकड़ी से बनाए जाते थे। अंग्रेजी राज्य में ये लोहे के रस्सों और लोहे के गर्डरों से बने। ऋषिकेश के निकट लछमन झूला पुल विख्यात है। यह केवल पैदल यात्रियों के लिए है और इसका दर लगभग 500 फुट है। सन्‌ 1959 में एक झूला पुल ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर बनाया गया है, जो 240 फुट लंबा है। इसमें दोनों ओर के बुर्ज भी लोहे के हैं तथा अन्य सब सामान भी इस्पात का है।

इस्पात के प्रयोग से झूला-पुलों के अतिरिक्त इस्पाती मेहराब तथा कैंटिलीवर प्रणाली के कैंची पुलों में भी बड़ी तरक्की हुई है। इन प्रकारों के भी बहुत बड़े बड़े पुल 19वीं तथा 20वीं सदी में बने हैं। इनमें क्यूबेक तथा हाबड़ा पुल हैं। क्यूबेक का प्रसिद्ध पुल 1,800 फुट लंबे दर का है तथा यह कैनाडा के क्यूबेक शहर में सेंट लारेंस नदी पर सन्‌ 1918 में बनाया गया था। क्यूबेक पुल पर उसके निर्माणकाल में ही दुर्घटना हो गई। इस पुल पर काम सन्‌ 1805 में प्रारंभ हुआ और सन्‌ 1907 में जब ऊपरी भाग में लोहे की कैंचियों पर काम हो रहा था, अचानक 29 अगस्त को, लोहे का ढांचा टूट गया और 75 आदमी मर गए। जाँच पड़गाल के बाद फिर काम शुरु हुआ और अगस्त, 1918 में पुल यातायात के लिए खोल दिया गया।

कलकत्ता में हुगली पर स्थित हावड़ा पुल संसार के प्रसिद्ध कैटिलीवर पुलों में गिना जाता है। इस पुल की विस्तृति (span) 1,500 फुट है तथा सड़क की चौड़ाई 71 फुट है। इस पर ट्राम, मोटर गाड़ी तथा पैदल यात्रियों के लिए अलग अलग मार्ग हैं। इसमें कुल 26,600 टन लोहा लगा है, जिसका अधिकांश भाग, अर्थात्‌ 23,500 टन, टाटा स्टील कंपनी से प्राप्त हुआ तथा कलकत्ते की ब्रैथवेट, बने एवं जेसप कंपनियों ने लोहे के काम को बनाया। इस पुल के बनाने में करीब साढ़े तीन करोड़ रुपया खर्च हुआ। पुल फरवरी, 1943 में यातायात के लिए खोल दिया गया। सन्‌ 1946 की गणना के अनुसार, इस पुल को 1,21,100 आदमी, 3,000 जानवर तथा 27,400 गाड़ियाँ प्रति दिन पार करती हैं।

इस्पाती मेहराबदार पुलों में हेल गेट तथा सिडनी हार्बर के पुल मशूहर हैं। हेल गेट का निर्माण सन्‌ 1916 में हुआ तथा यह 977.5 फुट लंबे दर का है, जिसपर चार रेलगाड़ियाँ एक साथ जा सकती हैं। सिडनी हार्बर पुल ऑस्ट्रेलिया में है तथा इसकी विस्तृति 1,650 फुट लंबी है। यह सन्‌ 1932 में खोला गया। इस पुल पर 4 ट्राम लाइनें, 6 सड़कें तथा 2 पगंडडियाँ (foot-paths) हैं।

नियाग्रा प्रपात से दो मील नीचे, प्रसिद्ध रेनबो पुल लोहे के मेहराबी पुलों का उत्कृष्ट नमूना है। इसका निर्माण सन्‌ 1942 में इससे पहले बने हुए नियाग्ना-क्लिफ्टन पुल के टूट जाने पर हुआ। इसकी लंबाई 950 फुट है। यह आज भी संसार का सबसे बड़ा लोहे का अचल मेहराब (fixed arch) वाला पुल है और इसकी रचना में उच्चतनन इस्पात (high tensile steel) का प्रयोग किया गया है।

प्रबलित कंक्रीट पुल -


प्रबलित कंक्रीट, अर्थात्‌ लोहे की सरिया तथा सीमेंट कंक्रीट का सम्मिलित प्रयोग निर्माण कार्यों के लिए तो 18वीं तथा 19वीं शती से ही ज्ञात था, पर इनका प्रयोग पुल निर्माण में प्राय: नहीं के बराबर था। तनाव सहने की शक्ति कंक्रीट में नहीं होती, पर दबाव सहने की बहुत अधिक शक्ति होती है। इसलिए यदि कंक्रीट के साथ तनाववाले हिस्से में लोहे का छड़ दे दिया जाए, तो तनाव लोहा सह लेगा और जहाँ दबाव पड़ेगा वहाँ केवल कंक्रीट काम आएगा। जैसे-जैसे सीमेंट के बनाने की क्रिया में तरक्की हुई और उसका प्रयोग बढ़ा, प्रबलित कंक्रीट का प्रचार भी निर्माण कार्यों में बढ़ता गया। पुलों के निर्माण में भी इस वस्तु का प्रयोग किया जाने लगा। 20वीं सदी में प्रबलित कंक्रीट का प्रयोग बढ़ चला। आरंभ में कंक्रीट का प्रयोग मेहराबी पुलों के निर्माण में हुआ, पर बाद में कंक्रीट का प्रयोग मेहराबी पुलों के निर्माण में हुआ, पर बाद में कंक्रीट के गर्डर बनाए गए। सन्‌ 1921 में फ्रांसीसी इंजीनियर फ्रेसिने ने मशीन द्वारा कंक्रीट को कंपित करने का तरीका ईजाद किया, जिससे बहुत मजबूत कंक्रीट बनना संभव हुआ। कंक्रीट का सबसे लंबा गर्डर पुल सिमातों नदी पर सन्‌ 1939 में बना। इसका दर 356 फुट था। कंक्रीट के डाट पुलों में स्वीडेन का सैंडो पुल प्रसिद्ध है, जो सन्‌ 1943 में बना तथ 866 फुट लंबा है। सन्‌ 1964 तक यह दुनिया का सबसे बड़े दर का पुल था, पर उस समय ऑस्ट्रेलिया का न्यू सिडनी पुल, जो 350 मीटर (अर्थात्‌ करीब 1,000 फुट) लंबा है, इसको भी मात दे गया। प्रबलित कंक्रीट का भारत में इस समय सबसे लंबा पुल कटक के पास महानदी का सड़क पुल है, जो 7,392 फुट लंबा है तथा जिसमें 162 फुट लंबे 45 दर हैं और दो दर 62 फुट लंबे है। यह पुल सन्‌ 1965 में बनकर पूरा हुआ है और यह संतुलित टोड़ेदार, टी-धरनी नमूने का है।

प्रबलित कंक्रीट के अलावा 20वीं सदी में पूर्वप्रतिबलित कंक्रीट के पुलों में भी बड़ी प्रगति हुई। प्रसिद्ध फ्रांसीसी इंजीनियर, फ्रेंसिने, ने इस विषय में महत्वपूर्ण कार्य किया। पूर्व-प्रतिबलन का सिद्धांत, कंक्रीट में प्रयोग किए जाने से पहले ही, लोगों को मालूम था। कंक्रीट में प्रयोग के समय जो दबाब पड़ता है, उसकी विपरीत दिशा में निर्माण के समय दबाव डालने से प्रयोग के समय पड़नेवाले दबाव को काफी मात्रा तक बराबर किया जा सकता है। फ्रेंसिने ने अधिक तनाववाले इस्पाती तारों को कंक्रीट के भीतर छेद में से खींचकर, एक विशेष प्रकार की जकड़ (anchorage) द्वारा प्रतिबलन की प्रणाली निकाली। इस प्रणाली द्वारा आजकल बहुत से पूर्वप्रतिबलित कंक्रीट के पुल संसार के भागें में बन रहे हैं। फ्रेंसिने की प्रणाली के अतिरिक्त अब और प्रणालियाँ निकली हैं, जैसे मैगनेल-ब्लेटन, वॉर-ल्योनार्ड, गिफोर्डउडाल प्रणालियाँ आदि।

पूर्वप्रतिबलित कंक्रीट का, सबसे पहले, 375 फुट लंबे दरवाला गर्डर पुल सन्‌ 1953 में बॉन (जर्मनी) में निर्माण किया गया। इस गति का सबसे लंबा, वेनेजुयेला में बना, माराकाइपो पुल है, जिसके दीवारों की लंबाई 87 फुट से लेकर 711 फुट तक है। भारत में भी से पुल पूर्वप्रतिबलन सिद्धांत पर बाए जा रहे हैं। हाल में (जनवरी, सन्‌ 1965) बिहार में, डेहरी के समीप, सोन नदी का एक पुल तैयार हुआ है, जो 10,044 फुट लंबा है तथा प्रत्येक दर पूर्वप्रतिबलित गर्डर 108 फुट लंबे हैं। यह इस समय एशिया का सबसे लंबा पुल है।

(कार्तिक प्रसाद)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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