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दैनिक जागरण, 13 जुलाई 2012
भारत अपने पड़ोसियों से संबंध ठीक रखने के लिए हदें पार करता रहा है। कई-कई बार पड़ोसियों ने भारत की जमीन कब्जा ली है। यह सहनशीलता भारत के उदारता के रूप में प्रचारित होती रही है। लेकिन शायद ही किसी को पता होगा कि पड़ोसियों के प्रति भूमि की उदारता भारत की जल सुरक्षा को खतरे में डाल रही है। अब पाकिस्तान की मांग है कि भारत सियाचिन ग्लेशियर से पीछे हटे। ग्लेशियरों से अपना कब्जा हटाना नदियों को सूखाना और जल सुरक्षा को खतरा में डालना ही है। 1960 में पाकिस्तान से हुए सिंधु जल बंटवारे में भारत ने 80 प्रतिशत पानी पाकिस्तान को दे दिया था। ऐसी उदारता के प्रति सावधान कर रहे हैं ब्रह्मा चेलानी।
जल बंटावारे के विश्व के सर्वाधिक उदार समझौते का श्रेय भारत को जाता है। 1960 में भारत ने छह नदियों का 80.52 फीसदी पानी पाकिस्तान के लिए छोड़ दिया और खुद अपने लिए महज 19.48 फीसदी पानी ही रखा। पड़ोसी राष्ट्र के लिए छोड़े जाने वाले पानी की कुल मात्रा तथा अनुपात दोनों ही दृष्टि से अब तक कोई भी अंतरराष्ट्रीय जल संधि इस समझौते की बराबरी नहीं कर पाई है। वास्तव में, अमेरिका जितना पानी मैक्सिको के लिए छोड़ता है, भारत उसका 90 गुना पानी पाकिस्तान के लिए छोड़ रहा है। भारत इस संधि से अनिश्चित काल तक के लिए बंधा हुआ है। महत्वपूर्ण यह है कि भारत बांग्लादेश के साथ भी इसी तरह के जाल में न फंस जाए। भारत 1996 में बांग्लादेश के साथ संधि कर चुका है, जिसके तहत फरक्का से लगभग आधा पानी अपने इस पड़ोसी के लिए छोड़ा जा रहा है। अब शेख हसीना के हाथ मजबूत करने के लिए भारत तीस्ता नदी का आधा पानी बांग्लादेश के लिए छोड़ने को तैयार नजर आ रहा है।
शेख हसीना भारत की मित्र हो सकती हैं, किंतु वह हमेशा के लिए बांग्लादेश की शासक नहीं रहेंगी और भविष्य में वहां भारत विरोधी शक्तियां सत्ता में आ सकती हैं। जल कूटनीति में भारत की शिकस्त इस बात से सिद्ध हो जाती है कि चीन से बहकर भारत आने वाली नदियों के संबंध में बीजिंग दिल्ली को 80 फीसदी जल देना तो दूर, जल समझौते की अवधारणा तक से इन्कार कर रहा है। विपुल जलधाराओं से लैस चीन एशिया के जल संसाधनों पर पकड़ मजबूत रखने की मंशा से भारतीय हितों को चुनौती दे रहा है। वैसे तो अफगानिस्तान से लेकर वियेतनाम तक अनेक देश तिब्बत से निकलने वाली नदियों का जल प्राप्त करते हैं, किंतु भारत की तिब्बती पानी पर निर्भरता इन सभी देशों से अधिक है। संयुक्त राष्ट्र के हालिया आकड़ों के अनुसार तिब्बती हिमालयी क्षेत्र से बहने वाली करीब एक दर्जन नदियों से भारत को अपनी आपूर्ति का एक-तिहाई जल मिलता है।
यानी साल में करीब 1,911 क्यूबिक किलोमीटर जल भारत को मिलता है। तिब्बत से बहकर भारत आने वाली तमाम नदियों में ब्रह्मपुत्र सबसे बड़ी है। भारत में आने से पहले यह नदी हिमालय के ग्लेशियरों से होती हुई पश्चिम से पूरब की ओर बहती है। बर्फ और पिघले हुए ग्लेशियर का पानी इस नदी को इतना विशाल बनाता है। भारत में प्रवेश के समय ब्रह्मपुत्र का सीमा पार जल प्रवाह एशिया में सबसे अधिक है। ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत की दक्षिण सीमा के करीब से हिमालयी ढलानों पर करीब 2200 किलोमीटर बहते हुए हिमालय की बेहद उर्वर गाद अपने साथ लाती है। ब्रह्मपुत्र के पानी में घुली-मिली इस पोषक गाद के कारण ही असम के मैदानी इलाकों और बांग्लादेश के पूर्वी हिस्से की जमीन फिर से उर्वरा शक्ति से भर जाती है।
हर साल ब्रह्मपुत्र में आने वाली बाढ़ से ये पोषक तत्व पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के मैदानों में दूर-दूर तक समा जाते हैं और इस प्राकृतिक तालाब की अवस्था में किसान धान की भरपूर पैदावार लेते हैं। इसके अलावा वहां मछली पालन भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। ब्रह्मपुत्र की निचली खाड़ी की उर्वर भूमि गाद की इस सालाना भेंट पर निर्भर करती है। यही नहीं बंगाल की खाड़ी में समुद्री जीवन भी ब्रह्मपुत्र और अन्य हिमालयी नदियों से पोषक तत्व हासिल करता है। चीन में ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाने के कारण भारत और बांग्लादेश के किसान प्रकृति के इस अनमोल उपहार से वंचित रह जाएंगे। ब्रह्मपुत्र नदी की अधिकांश पोषक गाद प्राकृतिक रूप से बहकर भारत और बांग्लादेश आने के बजाय बाधों में रुक जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे थ्री जॉर्जेस बांध याग्जे नदी की गाद को थाम लेता है और यह जलकुंडों में जमा हो जाती है।
चीन में ब्रह्मपुत्र और अन्य नदियों पर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण से सूखे मौसम में भारत में आने वाले पानी की मात्रा कम हो जाएगी। इसके अलावा चीन को अपनी मर्जी से भारत में पानी छोड़ने या रोकने का औजार भी मिल जाएगा। एक प्रभावशाली चीनी शिक्षाविद ने मुझे बताया था कि तिब्बती नदियों का रुख मोड़ने का फैसला लेते समय चीनी नीतिनिर्माताओं के सामने दो ही विकल्प हैं। एक तो चीन की उत्तरी आबादी की प्यास बुझाना तथा दूसरा भारत तथा अन्य देशों को नाराज न करना। और इन विकल्पों में से चुनाव कोई मुश्किल नहीं है। सीधा-सा तथ्य यह है कि जब राष्ट्रीय हितों का सवाल आता है तो चीन अन्य देशों के असंतोष और नाराजगी की जरा भी परवाह नहीं करता। इसकी नीतियां राष्ट्रीय हित साधने के लिए बनी हैं न कि दूसरे देशों का अनुमोदन हासिल करने या फिर उनकी नाराजगी दूर करने के लिए।
भारत को भी अपने हितों की रक्षा करनी चाहिए। ऐसे में यह पूछना उचित है कि क्या अपने पड़ोसियों के प्रति शाश्वत उदारता के लिए भारत की भर्त्सना की जानी चाहिए? इस सवाल का जवाब जल्द चाहिए क्योंकि भारत ने अपनी नई सहायता नीति पर चलना शुरू कर दिया है-एक अरब डॉलर बांग्लादेश को, पचास करोड़ डॉलर म्यांमार को, 30 करोड़ डॉलर श्रीलंका को, 14 करोड़ डॉलर मालदीव को। इसके अलावा अब अफगानिस्तान और नेपाल को भी उदार सहायता दी जा रही है। इस सहायता उदारता का नतीजा भी जल और भूमि उदारता के समान होगा। कूटनीति में उदारता का लाभांश तभी मिल सकता है, जब इसके माध्यम से क्षेत्रीय सुरक्षा कि स्थिति में सुधार आता हो ताकि भारत व्यापक वैश्विक भूमिका निभा सके। किंतु अगर यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों का मूल तत्व नहीं है, तो भारत अपने भूभाग पर अत्याचार कर रहा है।
(ब्रह्मा चेलानी: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत की दक्षिण सीमा के करीब से हिमालयी ढलानों पर करीब 2200 किलोमीटर बहते हुए हिमालय की बेहद उर्वर गाद अपने साथ लाती है। ब्रह्मपुत्र के पानी में घुली-मिली इस पोषक गाद के कारण ही असम के मैदानी इलाकों और बांग्लादेश के पूर्वी हिस्से की जमीन फिर से उर्वरा शक्ति से भर जाती है। हर साल ब्रह्मपुत्र में आने वाली बाढ़ से ये पोषक तत्व पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के मैदानों में दूर-दूर तक समा जाते हैं और इस प्राकृतिक तालाब की अवस्था में किसान धान की भरपूर पैदावार लेते हैं।
पारस्परिक आदान-प्रदान कूटनीति का पहला सिद्धात है, किंतु भारत के लिए नहीं। पड़ोसियों से दोस्ती की खातिर भारत हदें लाघता रहा है, फिर भी आज वह समस्या खड़ी करने वाले पड़ोसियों से घिरा हुआ है। भूमि के मुद्दे पर भारत की उदारता की काफी चर्चा हुई है। भारत 1954 में तिब्बत पर ब्रिटिश वंशागत अपरदेशीय अधिकार को तिलांजलि दे चुका है, 1965 के युद्ध के बाद पाकिस्तान को सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हाजी पीर वापस कर चुका है और 1971 के युद्ध के बाद भूभाग लाभ तथा 93000 सैनिकों को वापस लौटाने की उदारता दिखा चुका है। ये सब त्याग बिना पारस्परिक आदान-प्रदान के हुए हैं। इस रेकॉर्ड के बावजूद, आज भारत के अंदर से ही सियाचिन ग्लेशियर से नियंत्रण हटाने की मांग की जा रही है। बहुत कम लोगों को यह पता है कि पड़ोसियों के प्रति जल संकट से जूझ रहे भारत की उदारता भूभाग लौटाने तक ही नहीं, बल्कि नदियों का पानी लुटाने तक विस्तारित है।जल बंटावारे के विश्व के सर्वाधिक उदार समझौते का श्रेय भारत को जाता है। 1960 में भारत ने छह नदियों का 80.52 फीसदी पानी पाकिस्तान के लिए छोड़ दिया और खुद अपने लिए महज 19.48 फीसदी पानी ही रखा। पड़ोसी राष्ट्र के लिए छोड़े जाने वाले पानी की कुल मात्रा तथा अनुपात दोनों ही दृष्टि से अब तक कोई भी अंतरराष्ट्रीय जल संधि इस समझौते की बराबरी नहीं कर पाई है। वास्तव में, अमेरिका जितना पानी मैक्सिको के लिए छोड़ता है, भारत उसका 90 गुना पानी पाकिस्तान के लिए छोड़ रहा है। भारत इस संधि से अनिश्चित काल तक के लिए बंधा हुआ है। महत्वपूर्ण यह है कि भारत बांग्लादेश के साथ भी इसी तरह के जाल में न फंस जाए। भारत 1996 में बांग्लादेश के साथ संधि कर चुका है, जिसके तहत फरक्का से लगभग आधा पानी अपने इस पड़ोसी के लिए छोड़ा जा रहा है। अब शेख हसीना के हाथ मजबूत करने के लिए भारत तीस्ता नदी का आधा पानी बांग्लादेश के लिए छोड़ने को तैयार नजर आ रहा है।
शेख हसीना भारत की मित्र हो सकती हैं, किंतु वह हमेशा के लिए बांग्लादेश की शासक नहीं रहेंगी और भविष्य में वहां भारत विरोधी शक्तियां सत्ता में आ सकती हैं। जल कूटनीति में भारत की शिकस्त इस बात से सिद्ध हो जाती है कि चीन से बहकर भारत आने वाली नदियों के संबंध में बीजिंग दिल्ली को 80 फीसदी जल देना तो दूर, जल समझौते की अवधारणा तक से इन्कार कर रहा है। विपुल जलधाराओं से लैस चीन एशिया के जल संसाधनों पर पकड़ मजबूत रखने की मंशा से भारतीय हितों को चुनौती दे रहा है। वैसे तो अफगानिस्तान से लेकर वियेतनाम तक अनेक देश तिब्बत से निकलने वाली नदियों का जल प्राप्त करते हैं, किंतु भारत की तिब्बती पानी पर निर्भरता इन सभी देशों से अधिक है। संयुक्त राष्ट्र के हालिया आकड़ों के अनुसार तिब्बती हिमालयी क्षेत्र से बहने वाली करीब एक दर्जन नदियों से भारत को अपनी आपूर्ति का एक-तिहाई जल मिलता है।
यानी साल में करीब 1,911 क्यूबिक किलोमीटर जल भारत को मिलता है। तिब्बत से बहकर भारत आने वाली तमाम नदियों में ब्रह्मपुत्र सबसे बड़ी है। भारत में आने से पहले यह नदी हिमालय के ग्लेशियरों से होती हुई पश्चिम से पूरब की ओर बहती है। बर्फ और पिघले हुए ग्लेशियर का पानी इस नदी को इतना विशाल बनाता है। भारत में प्रवेश के समय ब्रह्मपुत्र का सीमा पार जल प्रवाह एशिया में सबसे अधिक है। ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत की दक्षिण सीमा के करीब से हिमालयी ढलानों पर करीब 2200 किलोमीटर बहते हुए हिमालय की बेहद उर्वर गाद अपने साथ लाती है। ब्रह्मपुत्र के पानी में घुली-मिली इस पोषक गाद के कारण ही असम के मैदानी इलाकों और बांग्लादेश के पूर्वी हिस्से की जमीन फिर से उर्वरा शक्ति से भर जाती है।
हर साल ब्रह्मपुत्र में आने वाली बाढ़ से ये पोषक तत्व पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के मैदानों में दूर-दूर तक समा जाते हैं और इस प्राकृतिक तालाब की अवस्था में किसान धान की भरपूर पैदावार लेते हैं। इसके अलावा वहां मछली पालन भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। ब्रह्मपुत्र की निचली खाड़ी की उर्वर भूमि गाद की इस सालाना भेंट पर निर्भर करती है। यही नहीं बंगाल की खाड़ी में समुद्री जीवन भी ब्रह्मपुत्र और अन्य हिमालयी नदियों से पोषक तत्व हासिल करता है। चीन में ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाने के कारण भारत और बांग्लादेश के किसान प्रकृति के इस अनमोल उपहार से वंचित रह जाएंगे। ब्रह्मपुत्र नदी की अधिकांश पोषक गाद प्राकृतिक रूप से बहकर भारत और बांग्लादेश आने के बजाय बाधों में रुक जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे थ्री जॉर्जेस बांध याग्जे नदी की गाद को थाम लेता है और यह जलकुंडों में जमा हो जाती है।
चीन में ब्रह्मपुत्र और अन्य नदियों पर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण से सूखे मौसम में भारत में आने वाले पानी की मात्रा कम हो जाएगी। इसके अलावा चीन को अपनी मर्जी से भारत में पानी छोड़ने या रोकने का औजार भी मिल जाएगा। एक प्रभावशाली चीनी शिक्षाविद ने मुझे बताया था कि तिब्बती नदियों का रुख मोड़ने का फैसला लेते समय चीनी नीतिनिर्माताओं के सामने दो ही विकल्प हैं। एक तो चीन की उत्तरी आबादी की प्यास बुझाना तथा दूसरा भारत तथा अन्य देशों को नाराज न करना। और इन विकल्पों में से चुनाव कोई मुश्किल नहीं है। सीधा-सा तथ्य यह है कि जब राष्ट्रीय हितों का सवाल आता है तो चीन अन्य देशों के असंतोष और नाराजगी की जरा भी परवाह नहीं करता। इसकी नीतियां राष्ट्रीय हित साधने के लिए बनी हैं न कि दूसरे देशों का अनुमोदन हासिल करने या फिर उनकी नाराजगी दूर करने के लिए।
भारत को भी अपने हितों की रक्षा करनी चाहिए। ऐसे में यह पूछना उचित है कि क्या अपने पड़ोसियों के प्रति शाश्वत उदारता के लिए भारत की भर्त्सना की जानी चाहिए? इस सवाल का जवाब जल्द चाहिए क्योंकि भारत ने अपनी नई सहायता नीति पर चलना शुरू कर दिया है-एक अरब डॉलर बांग्लादेश को, पचास करोड़ डॉलर म्यांमार को, 30 करोड़ डॉलर श्रीलंका को, 14 करोड़ डॉलर मालदीव को। इसके अलावा अब अफगानिस्तान और नेपाल को भी उदार सहायता दी जा रही है। इस सहायता उदारता का नतीजा भी जल और भूमि उदारता के समान होगा। कूटनीति में उदारता का लाभांश तभी मिल सकता है, जब इसके माध्यम से क्षेत्रीय सुरक्षा कि स्थिति में सुधार आता हो ताकि भारत व्यापक वैश्विक भूमिका निभा सके। किंतु अगर यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों का मूल तत्व नहीं है, तो भारत अपने भूभाग पर अत्याचार कर रहा है।
(ब्रह्मा चेलानी: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)