मैसूर। कर्नाटक में विदेश से आए हुए एक नये कीट का पता चला है जो सभी तरह की फसलों को भारी नुकसान पहुँचा सकता है। यह कीट राज्य के कई हिस्सों में मक्का के पौधों को नुकसान पहुँचा रहा है। बंगलुरु स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (University of Agricultural Sciences) के वैज्ञानिकों ने यह खुलासा किया है।
स्पीडओप्टेरा फ्रूजाइपेर्डा (Spodoptera frugiperda) प्रजाति का यह कीट भारतीय मूल का नहीं है और इससे पहले भारत में इसे नहीं देखा गया है। पहली बार इस कीट को कर्नाटक के चिकबल्लापुर जिले में गौरीबिदनुर के पास मक्के की फसल में इस वर्ष मई-जून महीनों में देखा गया था, जब कृषि वैज्ञानिक इल्लियों के कारण फसल नुकसान का आकलन करने वहाँ पहुँचे थे।
यूनिवर्सिटी के कीट विज्ञान विभाग के शोधकर्ता प्रभु गणिगेर ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “खेतों से एकत्रित किए गए इस कीट के लार्वा के पालन में हमें थोड़ा वक्त लगा। लार्वा की वास्तविक पहचान के लिये उसे लैब में पाला गया है। हमने पाया कि इन कीटों को कैद में रखना मुश्किल है क्योंकि ये एक-दूसरे को खाने लगते हैं। करीब एक महीने बाद कीट के वयस्क होने पर उसकी पहचान स्पीडओप्टेरा फ्रूजाइपेर्डा के रूप में की गई है।”
स्पीडओप्टेरा फ्रूजाइपेर्डा उत्तरी अमेरिका से लेकर कनाडा, चिली और अर्जेंटीना के विभिन्न हिस्सों में आमतौर पर पाया जाने वाला कीट है। वर्ष 2017 में इस कीट के दक्षिण अफ्रीका में फैलने से बड़े पैमाने पर फसलों के नुकसान के बारे में पता चला था। हालांकि, एशिया में इस कीट के पाए जाने की जानकारी अब तक नहीं मिली थी।
इस खोज को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि इस कीट के लार्वा भारत में उगाई जाने वाली मक्का, चावल, ज्वार, बन्द गोभी, चुकन्दर, गन्ना, मूँगफली, सोयाबीन, अल्फाल्फा, प्याज, टमाटर, आलू और कपास समेत लगभग सभी महत्वपूर्ण फसलों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
डॉ. गणिगेर के अनुसार, “स्पीडओप्टेरा और कट वॉर्म के बीच अन्तर करना आसान है। इनके शरीर पर काले धब्बे होते हैं और दुम के पास चार विशिष्ट काले धब्बे होते हैं। किसान इन विशेषताओं के आधार पर इस प्रवासी कीट की पहचान कर सकते हैं। हालांकि, यह नहीं पता चला है कि यह प्रवासी कीट भारत में किस तरह पहुँचा है। सम्भव है कि कीटों के अंडे पर्यटकों द्वारा अनजाने में लाए गए हों या फिर उनके अंडे बादलों से बहुत दूर तक पहुँचे और बारिश से फैल गए। कीटों के अंडों की इस तरह की बारिश और पौधों में परागण होना कोई नई बात नहीं है। ऐसे कीटों के विस्तार को रोकने के लिये जागरुकता का प्रसार बेहद जरूरी है।”
इस अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किए गए हैं। अध्ययनकर्ताओं में डॉ. गणिगेर के अलावा एम. यशवंत, के. मुरली मोहन, एन. विनय, ए.आर.वी. कुमार और कीट विज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. के. चंद्रशेखर शामिल थे।
भाषान्तरण: उमाशंकर मिश्र
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