राजस्थान

Submitted by Hindi on Mon, 08/22/2011 - 15:36
राजस्थान स्थिति : 260 450 उ. अ. तथा 730 300 पू. दे.। यह भारत का पश्चिमी राज्य है। भारत की स्वतंत्रता के पहले यह कई देशी रियासतों में बँटा था एवं राजपूताना नाम से प्रसिद्ध था। इसके उत्तर-पूर्व में हरियाना एवं उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में मध्य प्रदेश, दक्षिण-पश्चिम में गुजरात तथा पश्चिम में पश्चिमी पाकिस्तान स्थित है। इसका क्षेत्रफल 1,32,152 वर्ग मील है।

धरातल- इसके मध्य में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर अरावली पर्वत फैला है। इस पर्वत की ऊँचाई 4,000 से 5,000 फुट तक है। यह पर्वत माउंट आबू से दिल्ली के पास तक फैला है। इसकी ढालों पर वन हैं तथा नीची उपजाऊ घाटियों में कृषि होती है। सबसे ऊँची चोटी माउंट आबू (5,546 फुट) है। राज्य के उत्तरी तथा पूर्वी भाग मरुस्थली हैं। इसका पूर्वी भाग पठारी है। राजस्थान को दो भागों में बाँटा जा सकता है :

1. पश्चिमी मरुस्थली प्रदेश- यह प्रदेश अरावली के पश्चिम की ओर है। यह निचला एवं शुष्क प्रदेश है तथा यहाँ बालू की अधिकता है। इसका उत्तर पश्चिमी भाग कुछ उपजाऊ हो गया है। यहाँ के लोग भेड़, बकरियाँ तथा ऊँट पालते हैं। मकराना के पास संगमरमर पाया जाता है तथा साँभर झील से नमक बनाया जाता है।

2. पूर्वी राजस्थान- अरावली के पूर्वी भाग को पूर्वी राजस्थान कहते हैं। यहाँ की भूमि पठारी है तथा उत्तरी भाग यमुना की घाटी का एक भाग है। इस भाग में चंबल एवं बनास नदियाँ बहती हैं तथा यहाँ भूक्षरण से गहरे खड्ड बन गए हैं। यहाँ लगभग 20 इंच वर्षा होती है।

जलवायु- यहाँ की जलवायु विषम तथा शुष्क है। दिन में अधिक गरमी तथा रात में ठंढक रहती है। अरावली पर्वत तथा दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाओं के समांतर होने के कारण, जलयुक्त हवाएँ यहाँ वर्षा नहीं करती हैं। गरमियों में तेज एवं गरम आँधियाँ चला करती हैं। गरमी में बंगाल की खाड़ी से आनेवाले मानसून से कुछ वर्षा होती है। वार्षिक वर्षा का औसत पूर्व में 15 से 20 इंच तथा पश्चिम में 10 इंच से भी कम रहता है।

कृषि- अधिकांश कृषियोग्य भूमि पूर्व में है। मक्का, गेहूँ, जौ, चना, ज्वार, बाजरा, तिलहन, कपास, मूंगफली, प्याज, लहसुन, जीरा तथा दलहनों की कृषि की जाती है। कुआँ, तालाब तथा नहरों से सिंचाई का आधुनिक स्रोत भाखड़ा एवं नंगल बाँधों से निकली नहरें हैं।

खनिज  कोयला, संगमरमर, अभ्रक, ताँबा, लोहा, जिप्सग आदि यहाँ के प्रमुख खनिज हैं। साँभर से नमक भी बनाया जाता है।

उद्योग- यहाँ के मुख्य उद्योग-धंधे, पशुओं से प्राप्त ऊन से ऊनी कंबल, दरी, कालीन आदि बनाना, कपड़ा बुनना, छपाई एवं रँगाई का काम, पत्थर का काम, बरतन बनाना आदि हैं। जयपुर में एक लोहे का कारखाना भी है, जहाँ बॉलबियरिंग आदि बनते हैं। कुटीर उद्योगों में लकड़ी एवं कागज के खिलौने, नागरा जूता, चाँदी के गोटे, जरी एवं किनारे आदि बनते हैं।

जनसंख्या- राजस्थान की जनसंख्या 2,01,55,602 (सन्‌ 1961) है। यहाँ के मुख्य नगर कोटा, बूँदी, जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, उदयपुर आदि हैं। यहाँ अधिकतर हिंदू रहते हैं। इनके अतिरिक्त मुसलमान, ईसाई तथा झील आदि भी रहते हैं। यहाँ की मुख्य भाषा हिंदी है। 15.2 प्रति शत लोग साक्षर हैं। जयपुर राज्य की राजधानी है।

राजस्थानी भाषा और साहित्य राजस्थानी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है, जिसका वास्तविक क्षेत्र वर्तमान राजस्थान प्रांत तक ही सीमित न होकर मध्यप्रदेश के कतिपय पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में और पाकिस्तान के वहावलपुर जिले तथा दूसरे पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी सीमा प्रदेशों में भी है। राजस्थानी का विकास, अधिकांश विद्वानों के मतानुसार, मतानुसार, मध्यदेशीय प्राकृत या शौरसेनी से हुआ है, किंतु डॉ. चाटुर्ज्या इसका विकास अशोककालीन सौराष्ट्री प्राकृत से मानते हैं, जो ''शौरसेनी या मध्यदेशीय प्राकृत से कुछ विभिन्न थी''। इसी प्राकृत का क्षेत्र गुजरात प्रांत तथा मारवाड़ प्रांत था, और यह बोली यहाँ मध्यप्रदेश से न आकर ''उत्तर-भारत के किसी और प्रांत या जनपद से आई थी। इसी आधार पर डॉ. चाटुर्ज्यां गुजराती मारवाड़ी को पश्चिमी पंजाब की लँहदा तथा सिंध की सिंधी से विशेष संबद्ध मानते हैं। वैसे इस प्रदेश की बोलियों को मध्ययुग में शौरसेनी ने काफी प्रभावित किया है। ईसा की तीसरी-चौथी सदियों में स्वात प्रदेश के गुर्जर गुजरात, राजस्थान तथा मालवा में आ बसे थे। पिछले दिनों इन लोगों ने यहाँ कई राज्य स्थापित किए और ये लोग ही वर्तमान अग्निवंशी राजपूतों में बदल गए। गुर्जर जाति की मूल बोलियों ने इस प्रदेश की प्राकृत को पर्याप्त प्रभावित किया है तथा अपभ्रंश के विकास में, खास तौर पर उसके शब्दकोश के विकास में, इस जाति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दंडी ने तो 'अपभ्रंश' भाषा को आभीरादि की ही बोलियाँ माना है। नागर अपभ्रंश के ही परवर्ती रूप से, जिसे माकोबी जैसे विद्वान्‌ गुर्जर अपभ्रंश या श्वेतांबर अपभ्रंश कहना अधिक ठीक समझते हैं, गुजराती-राजस्थानी का विकास हुआ है। गुजराती मूलत: राजस्थानी (पश्चिमी राजस्थानी) का ही एक विभाषा थी, जो सोलहवीं सदी तक अविभक्त थी, किंतु बाद में चलकर सांस्कृतिक, प्रांतीय तथा साहित्यिक कारणों से स्वतंत्र भाषा बन बैठी। पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी जहाँ गुजराती और सिंधी के अधिक निकट है वहाँ पूर्वी राजस्थानी (जैपुरी हाड़ौती) ब्रजभाषा (पश्चिमी हिंदी) से पर्याप्त रूप में प्रभावित है। फिर भी पूर्वी राजस्थानी में भी स्पष्ट भेदक तत्त्व मौजूद हैं जो इसे हिंदी की विभाषा मानने से इंकार करते हैं। राजस्थानी भाषा की भाषाशास्त्रीय स्थिति रिहारी तथा पहाड़ी की तरह उन भाषाओं में है, जिन्हें हिंदी की विभाषा नहीं माना जा सकता, किंतु हिंदी के सांस्कृतिक तथा साहित्यिक इतिहास के साथ इसका गठबंधन इतना दृढ़ हो गया है कि साहित्यिक दृष्टि से राजस्थानी भाषा की स्वतंत्र सत्ता न रह पाई और यह उसकी विभाषासी बन गई।

राजस्थानी में पर्याप्त प्राचीन साहित्य उपलब्ध है। जैन यति रामसिंह तथा हेमचंद्राचार्य के दोहे राजस्थानी गुजराती के अपभ्रंश कालीन रूप का परिचय देते हैं। इसके बाद भी पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में जैन कवियों के फागु, रास तथा चर्चरी काव्यों के अतिरिक्त अनेक गद्य कृतियाँ उपलब्ध हैं। प्रसिद्ध गुजराती काव्य पद्मनाभकविकृत 'कान्हडदेप्रबंध' वस्तुत: पुरानी पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी की ही कृति है। इसी तरह 'प्राकृतपैंगलम्‌' के अधिकांश छंदों की भाषा पूर्वी राजस्थानी की भाषा-प्रकृति का संकेत करती है। यदि राजस्थानी की इन साहित्यिक कृतियों को अलग रख दिया जाए तो हिंदी और गुजराती के साहित्यिक इतिहास को मध्ययुग से ही शुरु करना पड़ेगा। पुरानी राजस्थानी की पश्चिमी विभाषा का वैज्ञानिक अध्ययन डॉ. एल. पी. तेस्सितोरी ने 'इंडियन एंटिववेरी' (1914-16) में प्रस्तुत किया था, जो आज भी राजस्थानी भाषाशास्त्र का अकेला प्रामाणि ग्रंथ है। हिंदी में डॉ. चाटुर्ज्यां की ''राजस्थानी भाषा'' (सूर्यमल्ल भाषणों) के अतिरिक्त राजस्थानी भाषा के विशय में कोई प्रामाणिक भाषाशास्त्रीय कृति उपलब्ध नहीं है। वैसे दो तीन पुस्तकें और भी हैं,पर उनका दृष्टिकोण परिचयात्मक या साहित्यिक है, शुद्ध भाषाशास्त्रीय नहीं। ग्रियर्सन की लिंग्विस्टिक सर्वे में राजस्थानी बोलियों का विस्तृत परिचय अवश्य मिलता है।

पश्चिमी राजस्थानी का मध्ययुगीन साहित्य समृद्ध है। राजधानी की ही एक कृत्रिम साहित्यिक शैली डिंगल है, जिसमें पर्याप्त चारण-साहित्य उपलब्ध है। 'ढोला मारू रा दोहा जैसे लोक-काव्यों ने और 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' जैसी अलंकृत काव्य कृतियों ने राजस्थानी की श्रीवृद्धि में योग दिया है। भाषागत विकेंद्रीकरण की नीति ने राजस्थानी भाषाभाषी जनता में भी भाषा संबंधी चेतना पैदा कर दी है और इधर राजस्थानी में आधुनिक साहित्यिक रचनाएँ होने लगी है। राजस्थानी नागरी लिपि में लिखी जाती है। इसके अतिरिक्त यहाँ के पुराने लोगों में अब भी एक भिन्न लिपि प्रचलित है, जिसे 'बाण्याँ वाटी' कहा जाता है। इस लिपि में प्राय: मात्रा-च्ह्रि नहीं दिए जाते। राजस्थानी बनिये आज भी बहीखातों में इस लिपि का प्रयोग करते हैं।

डॉ. ग्रियर्सन ने राजस्थानी की पाँच बोलियाँ मानी हैं(1) पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी), (2) उत्तर पूर्वी राजस्थानी (मेवाती अहीरवाटी), (3) मध्यपूर्वी (या पूर्वी) राजस्थानी (ढँूढाडी हाड़ौती), (4) दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी (मालवी), (5) दक्षिणी राजस्थानी (निमाड़ी)। ग्रियर्सन ने भीली और खानदेशी को स्वतंत्र भाषा वर्ग में माना है, किंतु डॉ. चाटुर्ज्या इन्हें 'राजस्थानी वर्ग' के ही अंतर्गत रखना चाहेंगे, जो अधिक समीचीन जान पड़ता है। डूँगरपुर बाँसवाड़ाप्रतापगढ़ तथा आसपास की भीली बोलियों और खानदेशी की व्याकरणिक संघटना राजस्थानी से विशेष भिन्न नहीं है। वस्तुत: ये राजस्थानी के वे रूप हैं जो क्रमश: गुजराती और मराठी तत्वों से मिश्रित हैं। राजस्थानी वर्ग के अंतर्गत पाकिस्तान तथा कश्मीर के सीमांत प्रदेश की गूजरी बोली और तमिल-नाड की सौराष्ट्र बोली भी आती है, जो पूर्वी राजस्थानी से विशेष संबद्ध जान पड़ती है। डॉ. चाटुर्ज्या ने ग्रियर्सन के राजस्थानी के पाँच बोली-भेदों को नहीं माना हे। वे मारवाड़ी और ढूँढाडी हाड़ौती को ही 'राजस्थानी' संज्ञा देना ठीक समझते हैं। उनके अनुसार राजस्थानी के दोही वर्ग है :(1) पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी), (2) पूर्वी राजस्थानी (जैपुरी हाड़ौती)। मेवाती, मालवी और निमाड़ी का वे पश्चिमी हिंदी की ही विभाषा मानने के पक्ष में हैं, यद्यपि इस संबंध में व अंतिम निर्णय नहीं देते।

राजस्थानी भाषा की सामान्य विशेषताएँ निम्न हैं-


(1) राजस्थानी में 'ण', 'ड़' और (मराठी) 'ल' तीन विशिष्ट ध्वनियाँ (Phonemes) पाई जाती हैं।

(2) राजस्थानी तद्भव शब्दों में मूल संस्कृत 'अ' ध्वनि कई स्थानों पर 'इ' तथा 'इ' 'उ' के रूप में परिवर्तित होती देखी जाती हैं'मिनक' (मनुष्य), हरण (हरिण), क'मार (कुंभकार)।

(3) मेवाडी और मालवी में 'च, छ, ज, झ' का उच्चारण भीली और मराठी की तरह क्रमश: 'त्स, स, द्ज, ज़' की तरह पाया जात है।

(4) संस्कृत हिंदी पदादि 'स-ध्वनि' पूर्वी राजस्थानी में तो सुरक्षित है, किंतु मेवाड़ी-मालवी-मारवाड़ी में अघोष 'ह्‌ठ' हो जाती है। हि. सास, जैपुरी-हाडौती 'सासू', मेवाड़ी-मारवाड़ी 'ह्‌ठाऊ'

(5) पदमध्यगत हिंदी शुद्ध प्राणध्वनि या महाप्राण ध्वनि की प्राणता राजस्थानी में प्राय: पदादि व्यंजन में अंतर्भुक्त हो जाती हैहिं. कंधा, रा. खाँदो; हि. पढना, रा. फढ-बो।

(6) राजस्थानी के सबल पुल्लिंग शब्द हिंदी की तरह आकारांत न होकर ओकारांत है :हि. घोड़ा, रा. घोड़ी, हिं. गधा, रा. ग'द्दो, हिं. मोटा, रा. मोटो।

(7) पश्चिमी राजस्थानी में संबंध कारक के परसर्ग 'रो-रा-री' हैं, किंतु पूर्वी राजस्थानी में ये हिंदी की तरह 'को-का-की' हैं।

(8) जैपुरी-हाड़ौती में 'नै' परसर्ग का प्रयोग कर्मवाच्य भूतकालिक कर्ता के अतिरिक्त चेतन कर्म तथा संप्रदान के रूप में भी पाया जाता है'छोरा नै छोरी मारी' (लड़के ने लड़की मारी); 'म्हूँ छोरा नै मारस्यँ' (मैं लड़के को पीटूँगा;चेतन कर्म); 'यो लाडू छोरा नै दे दो' (यह लड्डू लड़के को दे दोसंप्रदान)।

(9) राजस्थानी में उत्तम पुरुष के श्रोतृ-सापेक्ष 'आपाँ-आपण' ओर श्रोतृ निरपेक्ष 'महे-म्हें-मे' दुहरे रूप पाए जाते हैं।

(10) श्हिंदी की तरह राजस्थानी के वर्तमानकालिक क्रिया रूप सहायक क्रियायुक्त शतृप्रत्ययांत विकसित रूप न होकर शुद्ध तद्भव रूप हैं। 'मूँ जाऊँ छूँ' (मैं जाता हूँ)।

(11) श्सहायक क्रिया के रूप पश्चिमी राजस्थानी में 'हूं-हाँ-हो-है' (वर्तमान) और 'थो-थी-था' (भूतकाल) हैं, किंतु पूर्वी राजस्थानी में 'छूँ-छाँ-छो-छै' (वर्तमान) और 'छो-छी-छा' (भूतकाल) हैं।

(12) श्राजस्थानी में तीन प्रकार के भविष्यत्कालिक रूप पाए जाते हैं :जावैगो, जासी, जावैलो। इनमें द्वितीय रूप संस्कृत के भविष्यत्कालिक तिङंत रूपों का विकास हैं'जासी' (यास्यति), जास्यूँ (यास्यामि)।

(13) श्राजस्थानी की अन्य पदरचनात्मक विशेषता पूर्वकालिक क्रिया के लिए 'र' प्रत्यय का प्रयोग है : 'ऊ-पढ़-र रोटी खासी' (वह पढ़कर रोटी खाएगा)।

(14) श्राजस्थानी की वाक्यरचनागत विशेषताओं में प्रमुख उक्तिवाचक क्रिया के कर्म के साथ संप्रदान कारक का प्रयोग है, जबकि हिंदी में यहाँ 'करण या अपादान' का प्रयोग देखा जाता है1'या बात ऊँनै कह दो' (यह बात उससे कह दो)। पूर्वी राजस्थानी में हिंदी के ही प्रभाव से संप्रदानगत प्रयोगके अतिरिक्त विकल्प से कारण-अपादानगत प्रयोग भी सुनाई पड़ता है'या बात ऊँ सूँ कह दो'।

सं. ग्रं.  एल. पी. तेस्सितोरी : नोट्स ऑन ओल्ड वेस्टर्न राजस्थानी (इंडियन एंटिवर्वरी 1914-1916); ग्रियर्सन : लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया इंडिया (जिल्द 9); चाटुर्ज्या, डॉ. सुनीतिकुमार : राजस्थानी भाषा; डॉ. मोतीलाल : राजस्थानी भाषा और साहित्य; दिवेटिया : गुजराती लैंग्वेज ऐंड लिटरेचर। (भोलाशंकर व्यास)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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