रेज़िन

Submitted by Hindi on Tue, 08/23/2011 - 09:53
रेज़िन वृक्षों की दरार में से निकला हुआ द्रव है, जो बाहर आकर ठोस हो जाता है। यह अक्रिस्टली, पानी में अविलेय, ईथर, संगध तेल, ऐल्कोहॉल एवं गरम वसीय तेलों में विलेय, सफेद, पीला, भूरा एवं काला तथा इनके बीच के किसी रंग का होता है, जो गरम करने पर पहले नरम फिर धीरे धीरे द्रवीभूत होता है। रेज़िन अधिक गरम करने पर ऊर्ध्वपतित नहीं होता, बल्कि धुएँ की लौ के साथ जलता है। यह पारदर्शक से अपारदर्शक के बीच किसी प्रकार का हो सकता है।

रेज़िनों का उपयोग वार्निश, मुद्रण स्याही, पॉलिश तथा दवाइयों के बनाने एवं धार्मिक कृत्यों के समय अग्नि में जलाकर सुंगध उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। प्राचीन काल से इसकी सुगंध का उपयोग देवताओं को प्रसन्न करने के लिए एवं दवाओं के लिए होता आया है। प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

भारत में सभी पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जानेवाले पेड़ों से रेज़िन प्राप्त होते हैं। हिमालय पर पाए जानेवाले चीड़ के पेड़ से भी यह प्राप्त होता है। आजकल प्राकृतिक रेज़िन के स्थान में संशिलष्ट रेज़िन का उपयोग बढ़ता जा रहा है। संशिलष्ट रेज़िन में कुछ गुण हैं, जो प्राकृतिक रेज़िन में नहीं हाते। पर संशिलष्ट रेज़िन के अधिक महँगे होने के कारण, प्राकृतिक रेज़िन का उपयोग अब भी अधिकता से होता है।

प्राकृतिक रेज़िन- ये दो प्रकार के होते हैं : (1) वृक्षों से प्राप्त अभिनव रेज़िन तथा (2) धरती की गहराई में प्राप्त फॉसिल रेज़िन।

(1) अभिनव रेज़िन- ये अनेक पेड़ों, चीड़, सोप उड आदि से प्राप्त होते हैं। कुछ छाल से प्राप्त होते हैं, जैसे डामर, कुछ गहरे छेवने से प्राप्त होते हैं, जैसे मनीला। अभिनव रेज़िन के निकालने की विधियाँ स्थान और वृक्ष की प्रकृति पर निर्भर करती है। यह रेज़िन नरम और विलेय होता है।

(2) फ़ासिल रेज़िन (Fossil resin)- पुराने समय में वृक्षों के धरती में दब जाने से उनसे ही निकला यह रेज़िन है। प्रत्येक स्थान पर इसके निकालने की अपनी विधि है। बाहर निकालकर धूल साफकर कहीं कहीं इसे कास्टिक सोडा के हलके विलयन से धोते हैं। यह रेज़िन कठोर होता है। धरती में अधिक दिनों तक दबे रहने के कारण सारे वाष्पशील अवयव उड़ जाते हैं और यह बहुलकीकृत भी समय के साथ साथ होता जाता है।

गाढ़े द्रव के रूप में जब रेज़िन वृक्ष के बाहर आता है, तब कुछ संगध तेलों के उड़ने से ऑक्सीकरण एवं बहुलकीकृत होने से वह ठोस हो जाता है। यह अम्ल एवं क्षार से प्रभावित नहीं होता। रासायनिक दृष्टि से यह निष्क्रिय होता है। रेज़िन गरम करने से कुछ मुलायम होता है। फिर द्रवीभूत होता है, साथ ही कुछ बहुलकीकरण की उत्क्रमण क्रिया होती है, जिससे रेज़िन कम जटिल हो जाता है। अधिक गरम करने से यह ऊर्ध्वपतित नहीं होता, बल्कि धुएँ से भरी लौ देकर जलता है एवं अपने अवयवों में टूटता जाता है।

रेज़िन में रेज़िन अम्ल, रेज़ेन, रेज़िनोल एवं सगंध तेल प्रधानतया रहते हैं।

रेज़िन अम्ल- विभिन्न रेज़िनों में विभिन्न रेज़िन अम्ल रहते हैं, जैसे कौरी में अगेथिक (agathic) अम्ल, का20हा30औ4 (C20H30O4), अंबर में सक्सिनिक (succinic) अम्ल, का4 हा6 औ4 (C4 H6 O4), कालोफोनी में ऐबटिक (abietic) अम्ल, का20 हा30 औ2 (C20 H30 O2), और लाख में अल्यूरिटिक (aleuritic) अम्ल, का16 हा35 औ5 (C16 H35 O5), है।

रेज़ेंन- ये ऊँचे अणुभारवाले हाइड्रोकार्बन हो सकते हैं। अभी तक इनकी ठीक संरचना नहीं ज्ञात हो पाई है।

रेज़िनोल- ये जटिल ऐल्कोहॉल हैं जो अम्ल के साथ एस्टर बनाते है।

सगंध तेल- ये वायु के संसर्ग में आने से उड़ जाते हैं। ये टरपीन वर्ग के यौगिक हैं (देखें टारपीन)। फ़ॉसिल रेज़िन में ये बिल्कुल नहीं मिलते। रंगों के आधार पर रेज़िन का महत्व घटता बढ़ता है। रंगहीन रेज़िन उत्तम माना जाता है। इनमें रहनेवाली गंध इनकी अपनी विशेषता है, जिससे इन्हें पहचानने में भी सुविधा होती है, पर गंध गरम करने से ही प्राप्त होती है। इनका गलनांक निश्चित नहीं होता। नरम रेज़िन एवं कठोर रेज़िन के मृदुभवन बिंदु एवं गलनांक में क्रमश: 10 सें. और 20 सें. का अंतर हो सकता है। यह कोलायड किस्म का पदार्थ है। रेज़िन का अम्लमान महत्व का होता है।

रेज़िनों में कोपाल, मास्टिक एवं सैंडार्क महत्व के हैं। इनका उपयोग वार्निश बनाने में होता है। मुलायम सुगांधित रेज़िन जैसे गोंद रेज़िन एवं ओलियोरेज़िन, जिनमें सुगंध तेल की मात्रा अधिक होती है, चिकित्सा एवं धूप आदि देने के काम आते हैं।

संशिलष्ट रेज़िन- प्राकृतिक और संश्लिष्ट रेज़िन में बहुत समानता है। संश्लिष्ट रेज़िन में कुछ विशिष्ट गुण भी हैं, जिनके कारण उनका महत्व बहुत बढ़ गया है। वैज्ञानिकों ने देखा कि फिनोल को फॉमेंल्डिहाइड के साथ गरम करने से रेज़िन से पदार्थ बनते हैं। यहाँ दोनों के बीच संघनन क्रिया संपन्न होती है। बेकलैंड ने इस प्रकार के प्रयोगो से प्रथम महत्व का संश्लिष्ट रेज़िन तैयार किया, जो बैकेलाइट के नाम से विख्यात है। पीछे अनेक ऐसे रेज़िन प्राप्त हुए जो न तो जल में विलेय थे और न आग में जलनेवाले ही थे। अब तो अनेक प्रकार के संश्लिष्ट रेज़िन प्राप्त हुए हैं, जिनको निम्नलिखित वर्गों में विभाजित कर सकते हैं : (1) फिनोल फॉर्मेल्डिहाइड रेज़िन, (2) ऐल्किड रेज़िन, (3) पॉलिएस्टर रेज़िन, (4) यूरिया फॉर्मैल्डिहाइड रेज़िन, (5) मिलेमिन फॉर्मैल्डिहाइड रेज़िन, (6) कुमेरोन इंडीन रेज़िन और (7) सिलिकोन रेज़िन। ये सब संघनन और बहुलकीकरण से बनते हैं (देखें प्लास्टिक)। संघनन और बहुलकीकरण में उत्प्रेरकों, जैसे ऊष्मा, प्रकाश आदि, से सहायता मिलती है। विभिन्न निर्माताओं ने इनके निर्माण की अपनी अपनी विधियाँ निकाली हैं और उन्हीं से वे तैयार करते हैं। कुछ का निर्माण खुले पात्रों में और कुछ का ऑटोक्लेव में होता है। निर्माता इस्पात के पात्र, कुछ ऐलुमिनियम के पात्र और कुछ विशिष्ट मिश्रधातुओं के पात्र व्यवहृत करते हैं।

संश्लिष्ट रेज़िनों की पहचान- प्राकृतिक रेज़िनों से इनकी भिन्नता है। इससे ये तुरंत पहचाने जा सकते हैं। हर एक की पृथक्‌ पृथक्‌ पहचान करना कठिन है।

गंध- गर्म करने से ये गंध देते हैं। कुछ में फ़िनोलीय गंध होती है।

गलनांक- 180 सें. तक होता है। कुछ रेज़िन तो गाढ़े द्रव के समान होते हैं।

आपेक्षिक घनत्व- प्राकृतिक रेज़िन का 1.07 से कम और संश्लिष्ट रेज़िन का 1.07 से 1.5 तक आपेक्षिक घनत्व होता है।

विलेयता- विभिन्न विलायकों के द्वारा रेज़िनों की पहचान की जा सकती है।

अम्लमान- संश्लिष्ट रेज़िन का अम्लमान प्राकृतिक रेज़िन से कम होता है। फ़िनोलीय रेज़िन का 10120, ऐल्किड रेज़िन का 1250, कूमारोन रेज़िन उदासीन एवं अल्प अम्लीय और विनायल रेज़िन का अम्लमान 5 से कम होता है।

संघटन- प्राकृतिक रेज़िन में काऔहा (COH), यूरिया एवं मेलामीन में नाइट्रोजन और विनायल में क्लोरीन होता है। इनमें उपस्थित तत्वों की पहचान सामान्य रीति से की जाती है।

साबुनीकरण- संश्लिष्ट रेज़िन साबुनीकृत किए जा सकते हैं, फिर अम्ल अपघटन द्वारा ऐल्कोहॉल एवं अम्ल प्राप्त किए जा सकते हैं। इनका परीक्षण सामान्य रीति से हो सकता है।

प्रतिदीप्तिकरण- पराबैंगनी प्रकाश में संश्लिष्ट रेज़िन नीले, या बैगनी रंग से प्रतिदीप्त होते हैं। (लक्ष्मीशंकर शुक्ल)

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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