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जनसत्ता (रविवारी), 08 सितंबर 2013
अमृतलाल वेगड़ की नर्मदा परिक्रमा एक तरह से उनकी कलायात्रा भी है। नदी-संस्कृति के तमाम रूप उनके चित्रों और रेखांकनों में मुखरित हुए हैं। साथ में लोकजीवन की दूसरी बहुतेरी छवियां भी उनके रचना संसार में रची-बसी हैं। उनके कलारूपों को कलमबद्ध कर रहे हैं राजेश कुमार व्यास।
अमृतलाल वेगड़ ने नर्मदा की चार हजार से अधिक किलोमीटर की पदयात्रा की है। इस पदयात्रा में निर्जन वन, पहाड़, नदी के संगम गुफाओं, चट्टानों, आदिवासियों, ग्रामीणों की संस्कृति को उन्होंने गहरे से छुआ। अनुभूत किया नर्मदाव्रती चित्रकार के रूप में तात्कालिक स्तर पर रेखाओं के जो जीवनानुभव उन्होंने उकेरे बाद में उनके आधार पर ही रंगीन पेपर कोलाजों में उन्हें अनूठे रूपाकर दिए। इन्हीं में उन्होंने नर्मदा की अपनी की पदयात्रा को फिर से एक प्रकार से जिया भी है। नर्मदा, अमृतलाल वेगड़ के लिए नदी नहीं, पूरी एक संस्कृति है। रेखाओं की सांगीतिक लय में वह नदी और उससे जुड़े संस्कारों,सभ्यता और जीवन से जुड़े तमाम दूसरे सरोकारों से हमारा अपनापा कराते हैं। उनके रेखाचित्रों और पेपर कोलाज में नदी मधुर गान करती हमें लुभाती है तो कभी चीखती-चिल्लाती अपनी पीड़ा भी बताती है। कभी नदी के मोड़ हमसे बतियाते अपने साथ चलने के लिए आमंत्रित करते हैं तो कभी तट के गांव और आदिवासी सभ्यता से जुड़े सरोकार औचक ही हममें बसने लगते हैं। उनके चित्र देखने के हमारे संस्कारों को एक तरह से संपन्न करते हैं। उनके चित्रों में नर्मदा नदी रूप में नहीं, संस्कृति के रूप में हममें जैसे प्रवेश करती है। चित्र देखते लगता है, नर्मदा नदी का अनथक यात्री हमें भी अपने साथ पद परिक्रमा करा रहा है। सम् और कृति के योग से बना है संस्कृति शब्द। संस्कृति इस अर्थ में सम्गति की द्योतक ही तो है। बगैर समेकित भाव के संस्कृति नहीं होती और वेगड़जी ने नर्मदा को समेकित भाव से ही अपने में आत्मसात किया है। संस्कृति को साक्षात देखने की चाह हो तो वेगड़जी के चित्र उसमें मदद करेंगे। इसलिए कि अपनी पदयात्राओं के बाद से ही नर्मदा को वे नदी रूप में नहीं बल्कि संस्कृति रूप में महसूस करते रहे हैं। पद परिक्रमा में जो कुछ उन्होंने देखा, महसूस किया उसे अंतर्मन में प्रवाहित अनुभूति की तरंगों से अपने चित्रों में एक प्रकार से उद्घाटित किया है।
असल में बड़ा यथार्थ वह नहीं होता जो दिख रहा होता है, बल्कि वह होता है जो देखने के बाद भी मन में घट रहा होता है। इस दृष्टि से वेगड़जी ने नर्मदा परिक्रमा को भले नर्मदात्री की तीन पुस्तकों में शब्द रूप में समेट लिया, लेकिन लगता है नर्मदा की यात्रा सतत् उनके भीतर घटती रहती है। इस घटने की परिणति में ही वे रेखाओं और रंगों में यात्रा अनुभूतियों, स्मृतियों, अंतर्मन संवेदनाओं के साथ ही विभिन्न रंगीन छपे कागज़ों की कतरनों के कोलाज बनाते आ रहे हैं। तमाम माध्यमों में व्यक्त उनकी कला की बड़ी विशेषता यह है कि वहां प्रकाश और अनुभूति के क्षणांश को भी सदा के लिए पकड़ व्यंजित किया गया है। बेशक रेखाओं की गति ने इसमें उनका सहयोग किया है, लेकिन वहां आंख का यथार्थ भर ही नहीं है, उससे परे का वह आकाश भी है जिसमें प्रकृति के संगीत को गुना और बुना जाता है। माने उनके रेखाचित्र दृश्य के साथ श्रव्य का आस्वाद भी कराते हैं। वहां नर्मदा के जल का कल-कल है, वहां नर्मदा से उपजे प्रपात का कोलाहल है, वहां जंगल में पसरी खामोशी का सन्नाटा है और है नदी किनारे बसी सभ्यता की आहटें।
वेगड़जी और सीमित रेखाएं बहुतेरी बार बिंबों के जरिए वह सब कुछ कह देती है जो शब्द शायद चाहकर भी नहीं कह पाते होंगे। वे रेखाचित्रों में किसी एक दृश्य का नहीं बल्कि उससे संबंधित पूरे परिवेश को उकेरते रूपकों का निर्माण करते हैं। घटनाओं का वृत्त वहां है। अनुभूत सौंदर्य के क्षण का अपूर्व वहां है और है अपरिमेय की स्थापना। उनके रेखाचित्रों को देखते प्लेटों के सौंदर्यदर्शन की याद आती है, बान गॉग की चित्र संवेदना की स्मृतियाँ जेहन में कौंधती हैं तो पौल गोग्वॅ का यह कहा भी मन में कहीं घर करता है कि ‘रेखाओं में रंगों का सामर्थ्य है।’ सीधी सरल रेखाओं में लोक की सहजता वहां है। शायद इसलिए कि रेखाओं से व्यक्ति किसी घटना, परिवेश और नर्मदा के भांति-भांति के रूप उकेरते वे आत्म और पर के भेद का विलय कर देते हैं। चित्र बनाते हुए वे नर्मदा से जुड़े लोगों के रीति-रिवाज़ों, उनके विचारों, कल्पनाओं, निष्ठाओं, रहन-सहन, पहनावे और प्राकृतिक सौंदर्य के अंग-प्रत्यंगों का अंतर्मन संवेदना से गहन निरीक्षण करते हैं। फिर सहज ही अपने इस निरीक्षण को रेखाओं की लय में रुपायित कर देते हैं। कहें, इसीलिए उनके रेखांकनों में संस्थापन, संतुलन, संयोजन और लय का प्रभावी अंकन दृष्टिगोचर होता है।
पौल गोग्वॅ ने रेखाओं के बारे में कभी कहा था, ‘रेखाएं भी स्वभाव विशेषताएँ लिए होती हैं- जैसे कि सहृदय रेखाएं, हीन रेखाएं, कठोर रेखाएं वगैरह; सरल रेखाओं से अनंत विशालत्व का आभास होता है और वक्र रेखाओं से संकोच पैदा होता है।’ गोग्वॅ के इस कथन के परिप्रेक्ष्य में वेगड़जी की रेखाओं पर जाएं तो सहज ही कहा जा सकता है कि रेखाओं से वे नर्मदा और उसके तट पर बसे लोगों की संवेदना, उनकी संस्कृति को गहरे से अभिव्यंजित करते हैं। इसलिए कि उन्होंने स्वयं पदयात्राएं करते उकेरे गए विषयों को अपने तईं जिया है। कुछेक रेखाचित्रों पर गौर करेंगे तो यह सहज समझ में भी आ जाएगा। एक रेखाचित्र है जिसमें उलझी रेखाओं में आदिवासी स्त्री के चेहरे को उकेरा गया है। रेखाओं में महिला उसके केश विन्यास, गले में पहने पारंपरिक गहने, बिंदी आदि सभी स्पष्ट उभर कर सामने आए हैं। यों देखेंगे तो रेखाचित्र सामान्य सा लगेगा, लेकिन जैसे-जैसे उसमें वर्ण्य रेखा वस्तुओं पर जाएंगे लगेगा आदिवासी जीवन से हम साक्षात हो रहे हैं। ऐसे ही एक और सबीह है जिसमें पुरुष को उकेरा गया है। घनी मूंछें, कानों में बालियां, पगड़ी और चेहरे का बांकपन। इसके बरक्स एक चित्र उस स्त्री का है जिसने नाक में बड़ा सा तिणखा पहन रखा है। पल्लू उघाड़े जंगल के जीवन को जीती वह जैसे हमसे बतिया रही है।
अलाव तापते तीन ग्रामीणों का रेखाचित्र तो अद्भूत है। चित्र नहीं। चित्र रूपक। चित्र देखते परिवेश की कहानी जैसे मन में घटित होने लगती है। अलाव और उसकी आग। ताप के साथ बतियाते मिनख। यह ग्राम्य जीवन की सहज बंतल है। राजस्थानी में कहूं हथाई। वार्ता का विषय कुछ भी हो, लेकिन जिस तल्लीनता से आग तापते यह तीन जन वेगड़जी के इस रेखाचित्र में दिखते हैं, वे सदा के लिए हमारी स्मृति में बस जाते हैं। गत्यात्मक रेखाओं के ऐसे चित्र और भी हैं जिनमें जीवन का स्पंदन है। अर्थ क्या निकले, चित्रकार का इसे लेकर कोई आग्रह नहीं है क्योंकि उन्होंने जो देखा, अनुभूत किया-उसे ही व्यंजित किया है, पर अर्थ उनके देखे-अनुभूत किए तक ही थोड़े न है! आप कुछ और भी अर्थ निकाल सकते हैं। अर्थ का दुरूहपन जो वहां नहीं है।
वेगड़जी सरल, सहज रेखाओं में ऐसे ही नर्मदा और उस परिवेश से जुड़े जीवन के अनगिनत दृश्य हमारे समक्ष उद्घाटित करते हैं। चट्टानों, नर्मदा नदी के घुमाव, जल प्रवाह, पेड़ के तनों या पुरानी दीवारों के बनाए उनके रेखाचित्रों का आकाश गजब का है। वहां जानी-पहचानी आकृतियों के साथ बहुतेरी बार ऐसी आकृतियां भी उभरती दिखती हैं, जो अचरज में डालती हैं। प्रकृति पर यथार्थ में जो दिख रहा है, उससे कुछ अलग। यह स्मृतिलेख हैं। स्मृति के दृश्यालेख। प्रकृति की पांडुलिपियों में छिपी सौंदर्य संपदा की तलाश करते वे शूलपाणा झाड़ी, नर्मदा तट की गुफाएं, मंदिरों में सुबह, सांझ, दोपहर और रात्रि की नीरवता में भी कुछ न कुछ बनाते रहे हैं। अपने को भूलते। प्रकृति को गुनते अपने को उसमें बुनते। इसीलिए तो नर्मदा परिक्रमा में गुफा की दीवारों से निकली चट्टानों को वे अपने तई अभिव्यंजित करते हुए अपने यात्रा संस्मरणों में एक स्थान पर कहते हैं, ‘गुफा की दीवारों से निकली कागज जैसी चट्टानों का भंडार है, यह गुफा। सीधी सपाट नहीं, बलखाती, लहराती चट्टानें और छोर पर मोतियों की माला! प्रकृति ने यहां चट्टानों में से बारीक वस्त्र तलाशें हैं- किसी संन्यासी के जोगिया वस्त्र!’ वेगड़जी दृश्यों से ऐसे ही अपनापा करते हैं। वे दृश्य के भीतर जाते हैं। उसमें रमते हैं और फिर बसते हुए शब्द और रेखाओं का उजास फैलाते हैं। चित्रकार जब दृश्य में इस सूक्ष्मता से प्रवेश करता है तो सहज ही उसकी रेखाओं में दृश्य ही नहीं उससे जुड़ा अनंत भी प्रकट होता ही है।... तो वेगड़जी प्रकृति दृश्य में निहित अनंत के चित्रकार हैं।
चित्रकार मार्क टोबेन ने कभी कहा था, ‘सृजनशील व्यक्ति के लिए वह आयाम महत्वपूर्ण है जिसमें वह अपने अंदर एक अंतरिक्ष की रचना करता है। यह आंतरिक अंतरिक्ष अन्य किसी की अपेक्षा असीम के अधिक निकट होता है।’ मुझे लगता है, वेगड़जी अपने चित्रों में जिस अंतरिक्ष का निर्माण करते हैं उसमें नर्मदा के सौंदर्य का असीम ही है। इसलिए कि नर्मदा यात्रा में वे सृजनात्मकता के स्रोत और प्रकृति की सृजन प्रक्रिया के रूपों को समझने में हमारी मदद करते हैं। वे व्यक्ति,पेड़-पौधों, आदिवासी जीवन की भौतिक उपस्थिति तो रेखाओं में जताते ही हैं, साथ ही दृश्य में निहित आंतरिक सुंदरता को भी अपने लिए जीते हैं और इसी से सौंदर्य के चरम का दर्शन देखने वालों को कराते हैं।
वेगड़जी के चित्र दृश्यों में वस्तु, व्यक्ति की आकार-विशेषताओं की स्पष्टता के बजाय रेखाओं की भावदर्शी लय का अंकन है। गतिमान लयबद्ध रेखाएं। बाह्य के जरिए आंतरिक सौंदर्य का प्रकटीकरण। दृष्टि के साथ ही आंख जिस सौंदर्य को देख नहीं पाती उस अचेतन और उपचेतन के अंकन तक की गति को उनके रेखाचित्रों में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। नर्मदा पद परिक्रमा के अंतर्गत नदी तट के सौंदर्य के साथ इसीलिए वेगड़जी वहां के निवासियों के रहन को इस गहराई से व्यंजित कर सके हैं। जो कुछ उन्होंने बनाया है उसमें कहीं कोई बनावटीपन नहीं है। लोग जैसे रेखाओं में दिखते हैं, वैसे ही हैं। वहां कहीं कोई कृत्रिमता जो नहीं है! ओढ़ा या ओढ़ाया हुआ परिवेश नहीं है। आदिम प्रवृत्तियों के मनुष्य संस्कारों के अविकृत रूप में सौंदर्य के दर्शन जो वहां हैं। रूप विधान के साथ वस्तु संयोजन का अपूर्व वहां है। लोक जीवन के चित्रण की उनकी शैली में स्वयं उनके गुरू नंदलाल बसु से प्रेरित हैं, लेकिन उनकी रेखाएं विरल हैं। रेखाओं की दृढ़ता वहां है। शक्ति संपन्न रेखाएं। प्रवाहमय। सुस्पष्ट। सूक्ष्म वर्ण विन्यास। उनके रेखाचित्र देखते यामिनी राय के संथाली चित्रों की हल्की याद भी आती है, लेकिन वेगड़जी के चित्र आत्मीयता के भाव जगाते हैं। आदिवासी जीवन के प्रति भी, जबकि यामिनी राय के संथाली चित्रों के अति अलंकरण उस जीवन से अपनापा नहीं होने देता। वेगड़जी के नर्मदा चित्रों में रेखाओं की दृढ़ता है, लेकिन वह सहजता-सरलता भी है जिसमें जो कुछ उन्होंने बनाया है वह हमें अपना लगता है। उससे आत्मीयता के भाव जगते हैं। जैसा जीवन उन्होंने देखा-वह बहुत से स्तरों पर हमारा अपना भी शायद इसलिए लगता है कि उसमें वेगड़जी का आत्म है। सर्जक का यह आत्म ही देखने वाले के आत्म से मिलकर चित्रों में अपनापे के भाव शायद जगाते होंगे।
वेगड़जी के चित्रों में पहाड़ी कहीं है तो वह पहाड़ी भर नहीं है। उसमें निहित दृश्य की तमाम दूसरी संभावनाएं भी वहां है। मसलन मंडला के पास की एक पहाड़ी पर वे रहे तो उसका अपने तईं सर्वथा अलग दृश्यबिंब शब्दों में उकेरा। नर्मदा यात्रा संस्मरण के लिए उनके शब्दों को जरा देखें, ‘...सारा दिन उस पहाड़ी पर रहे। उसका लघु आकार उसे एक विशिष्ट जीवंतता प्रदान करता था। यह पहाड़ी पेपरवेट जैसी लग रही थी। आस-पास के खेत कहीं उड़ न जाएं, इसलिए उन पर रखा पहाड़ी पेपरवेट!’ दृश्य की ऐसी लय वेगड़जी शब्दों में ही नहीं पकड़ते बल्कि अपने चित्रों में भी उड़ेलते हैं। उनका एक चित्र है, जिसमें दूर तक नदी बहती जाती दिखाई देती है। नदी के साथ उसका तट और दूर पहाड़ियों की सरगम जैसे ध्वनित होती हममें बसती चली जाती है। कैसे होता है यह?
दरअसल वेगड़जी दृश्य से जुड़ी तमाम संभावनाओं को अपने तईं अंवेरते हैं। ऐसा है तभी तो नर्मदा पदयात्रा में कहीं आधी रात को उठकर वह आसमान में उगे अर्धचंद्र को ‘लाल सूर्ख चांद!’ पाते हैं तो पदयात्रा में एक अकेले हरे रंग की अपने तईं कई-कई व्यंजनाएं कर देते हैं। जरा देखें, उनकी अभिव्यंजना, ‘...हरे रंग का तो समुद्र ही है चारों ओर। हरे रंग के कितने अखाड़े हैं। खेतों का हरा अलग, पेड़ों का हरा अलग, यहां तक कि हर पेड़ का हरा अलग। धान का खेत हरे रंग का जूना अखाड़ा है। रमतीला का पीला तो मुझमें अजीब सी उत्तेजना भर देता। उनके पीले खेतों से चलता, तो लगता मैं वान गॉग के खेत में से जा रहा हूं।’
ऐसे ही पदयात्रा में जब सूरज और चांद को वे कितने-कितने रूपों में निहारते हैं तो रेखाओं में ऐसे ही उन्हें गुनते और बुनते भी हैं। जबलपुर से छेवलिया यात्रा के दौरान सूर्योदय से साक्षात के दृश्य में वे रमते हुए बताते हैं, ‘सुबह नारंगी रंग का बड़ा भारी सूरज निकला। निकला नहीं, उगा पौधा जैसे धरती में से उगता है। ताजा जन्मा सूरज नवजात शिशु-सा नरम और कोमल लग रहा था।’ सूर्य ही क्यों चांद को तो उन्होंने उपमाओं से लाद दिया है। भांति-भांति का चांद। चांद के धब्बों में भी वे चित्रों की भाषा बांचते हैं, ‘...मानों चांद के कैनवस पर किसी ने चित्र बनाए हों। चांद अगर सपाट होता, तो इतना मोहक न लगता। नहीं, ये उसके कलंक नहीं गोदने हैं।’ यह लिखते हुए वह नदी किनारे बनाए गए स्केच की स्मृति में चले जाते हैं। कहते हैं, ‘मैं नदी किनारे स्केच कर रहा था। इतने में एक कृशकाय स्त्री नहाने आई। नहाकर उसने पहनने के लिए साड़ी निकाली। वह उसे एक छोर से दूसरे छोर तक दो बार देख आई, लेकिन साड़ी इतनी तार-तार हो चुकी थी कि उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कहां से पहने। किसी तरह उसने अपनी लज्जा ढांकी और चली गई।...यह था कलंक। मेरा सिर लज्जा से झुक गया। मुझसे और स्केच नहीं किए गए।’
वेगड़जी के रेखाचित्रों में साड़ी से अपने को ढांकती वह महिला भी है। रेखाचित्र को देखते उस महिला से हम जुड़ जाते हैं। आदिवासी जीवन की व्यथा की ऐसी ही कथाएं उनके रेखाचित्र बहुत से स्तरों पर सुनाते हैं। लोकजीवन के अनगिनत चित्र उकेरते वेगड़जी जीवन की उत्सवधर्मिता पर भी गए हैं। थके हारे ग्रामीणों की रात की ध्वनियों में नगाड़े की थाप है। रात्रि जागरण के भजन हैं और हैं आदिवासी बालाओं के नृत्य की थिरकन। पुरुष सैला कर रहे हैं, स्त्रियां रीना और दोनों का सम्मिलित करमा। ऐसे ही हारमोनियम से निकलते स्वरों में आदिवासियों की सुरीली तान बहुत से चित्रों में सुनाई देती है। चित्र और भी हैं। मसलन एक में धान का गट्ठर उठाए स्त्री चली जा रही है। एक में नर्मदा मूर्तिकार रूप में प्रकट हो रही है... चट्टानों में तरह-तरह की आकृतियां उकेरती नर्मदा। इसी मूर्तिकार नर्मदा के तट पर एक पैर आगे कर पायल पहनती एक ग्राम्य महिला का रेखाचित्र सदा के लिए आंखों में बस जाता है। रस्सा-कशी में बिलोना करती महिलाएं उनके रेखाचित्रों में हैं तो नर्मदा तट के मंदिरों की अपूर्व शोभा भी है।
वेगड़जी अपनी पदयात्रा में नर्मदा के सौंदर्य की शब्द सर्जना करते हैं। वे नर्मदा को जन्मजात यात्री बताते हैं तो इसमें निहित उसके पथ के पाथेय, संदेश को भी चित्रों में गुनते हैं और यह गुनना उनके चित्रों को संपन्न करता है। नर्मदा के प्रकट होने और समुद्र में उसके लुप्त होने की यात्रा तक में वह नर्मदा से जुड़े जीवन का सांगोपांग आस्वाद अपने चित्रों के जरिए हमें करवाते हैं। नर्मदात्री के अपने यात्रा संस्मरणों में एक स्थान पर वह लिखते हैं, ‘...मैंने नर्मदा को प्रकट होते देखा, अन्य नदियों से पुष्ट होते देखा और समुद्र में लुप्त होते देखा। नर्मदा का मैंने किनारों से बतियाते सुना, चट्टानों पर लिखते देखा और रेत पर बेल-बूटे काढ़ते देखा।’ वे यह सब देखते ही नहीं हैं, इसके बारे में लिखते ही नहीं है बल्कि इस सबको अपने चित्रों में भी गहरे से जीते हैं। परस्पर एक दूसरे से टकराती। एक दूसरे में समाती लकीरें। सीध-सरल पर जो दृश्य इन रेखाओं ने ईजाद किया है, वह अद्भुत है। दृश्य नहीं रूपक। चित्र कहन। मसलन एक रेखाचित्र में आंचलिक संस्कृति के सरोकारों में रंगी ग्रामीण महिला गहनों से लदी है। घूंघट की ओट लिए पर फिर भी अपने होने में अंचल की तमाम विशेषताओं को जैसे गहरे से वह समाए हुए हैं।
अमृतलाल वेगड़ ने नर्मदा की चार हजार से अधिक किलोमीटर की पदयात्रा की है। इस पदयात्रा में निर्जन वन, पहाड़, नदी के संगम गुफाओं, चट्टानों, आदिवासियों, ग्रामीणों की संस्कृति को उन्होंने गहरे से छुआ। अनुभूत किया नर्मदाव्रती चित्रकार के रूप में तात्कालिक स्तर पर रेखाओं के जो जीवनानुभव उन्होंने उकेरे बाद में उनके आधार पर ही रंगीन पेपर कोलाजों में उन्हें अनूठे रूपाकर दिए। इन्हीं में उन्होंने नर्मदा की अपनी की पदयात्रा को फिर से एक प्रकार से जिया भी है।
पिछले दिनों भोपाल में तीन-चार दिन लगातार उनके साथ रहने का अवसर मिला। संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘नर्मदा से मैं अपने को कभी दूर नहीं पाता। पदयात्राओं से मन अभी भी भरा नहीं है।’
उनके रेखाचित्रों को, उनके पेपर कोलाज को नर्मदा की संस्कृति के सौंदर्य से लबरेज कहना अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि उनकी यह कला नर्मदा के सौंदर्य, उसकी संस्कृति की यात्रा है। अनवरत यात्रा। बगैर किसी पड़ाव की यात्रा। चरैवेति-चरैवेति। दुर्गम वन, नदी के पाट, मंदिर पूजारी, संन्यासी, गुफाएं, गांव, सूर्योदय, दोपहर, सांझ, रात। पेड़ों का झुरमुट, गरजती-बरसती नदी। नदी से उपजा झरना। तेज प्रपात। चट्टानों को पिघलाता पानी का बहाव। झाड़ियां। हरियाली की चादर ओढ़े खेत-खलिहान।...और सर्वग्रासी अकाल का उजाड़ भी। वह धूप को कढ़े दूध से रंग की उपमा देते हैं तो शिलाओं से सटकर बहती नर्मदा को स्नान करते भी देखते हुए लिखते हैं, ‘...नर्मदा शिलाओं से सटकर बह रही है। लगता है शिलाओं से रगड़-रगड़ कर अपनी देह को उजला कर रही है। (नदी नहा रही है!)
शूलपाण झाड़ी के निभृत्त एकांत में नर्मदा अवभृथ स्नान कर रही है।’ नदी के ऐसे दृष्टा ही उसकी चित्रों में अपूर्व सृष्टि कर सकते हैं। नर्मदा पद परिक्रमा में पथ का देखा सब कुछ वे अपनी चित्रकला में ऐसे ही उड़ेलते फिर से नर्मदा की यात्रा में रमते, उसी में बसते चले जाते हैं।
कला की उनकी शिक्षा-दीक्षा शांतिनिकेतन के कला भवन में हुई। यह 1948 से 1953 तक वह कलाभवन के छात्र रहे। आचार्य नंदलाल बसु से उन्होंने दृश्य में निहति सौंदर्य को देखने के संस्कार पाए। जलरंगों से प्रारंभ हुई कलायात्रा में नर्मदा के सौंदर्य ने नया रंग घोला। यह 1977 की बात है, जब उन्होंने नर्मदा पदयात्राओं का सिलसिला प्रारंभ किया। पदयात्रा में स्केचबुक साथ रहती। जो कुछ देखा, अनुभूत किया, स्मृति ने परखा-उसे तत्काल ही रेखाओं में व्यंजित कर दिया, पर फिर बाद में इन रेखाओं से ही कागज कोलाज बनाना प्रारंभ कर दिया।
आरंभ में सपाट पोस्टर पेपर से उन्होंने कोलाज बनाए, लेकिन बाद में ‘नेशनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका के रंगीन पृष्ठ ही उनके रंग और रेखाएं होते चले गए। बकौल वेगड़जी उनके कोलाजों में शेड्स और टेक्सचर का नया आयाम नेशनल ज्योग्राफिक पत्रिका के रंगीन पृष्ठों के उपयोग से जुड़ा। वे कहते हैं, ‘इनके पृष्ठ मेरी कल्पना को उत्तेजित करते हैं और उनका रचनात्मक उपयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं।’ एक पेपर कोलाज है जिसमें नदी है, नदी के पास का परिवेश है और है उसके पानी में उतरे स्त्री-पुरुष। नर्मदा परिक्रमा। महिला पीठ पर बच्चा लादे हुए हैं। पुरुष आगे है, कंधे पर लकड़ी और उसमें सामान के थैले डाले हुए। पहनावे के देहातीपन का अद्भुत सौंदर्य चितराम। पेपर कोलाज यानी कागद की इस रूपगोठ की बड़ी विशेषता है नदी में दोनों का चलना। बढ़ते पांवों के साथ पानी का हिलना और लहरों का जो दृश्य चितराम बना है, वह दिखता ही नहीं बल्कि जैसे सुनाई भी देता है। डबक, डब, डब...।
पानी में डूबते पैर और स्पंदित जल हिलोर। नदी में हो रहे गमन का गान! वेगड़जी के चित्रों की यही तो विशिष्टता है। वहां दृश्य आंखों के समक्ष चलायमान हो उठता है। जीवंत। सोचता हूं, रंगीन पेपरों के लीर-लीर में वह स्मृतियों की बुनावट करते उसमें देखने की संवेदना का अनुभूति रंग ही शायद भरते होंगे। मैंने उन्हें पेपर कोलाज का कार्य करते कभी नहीं देखा। उनकी इस कला का आस्वाद करते-करते ही मन में दृश्य उभरने लगा है। वेगड़जी ‘नेशनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका में अपनी पसंद के रंगीन पृष्ठ छांट रहे हैं। पन्ने फट गए हैं। अब उनकी कतरनें हो रही है। हरा, पीला, नीला, भूरा, काला, लाल और भी न जाने कितने-कितने रंगों की कतरनें एकत्र हो गई है। अब वह इन्हें चिपकाने लगे हैं। रूप की यात्रा आरंभ हो गई है।
अभी मंजिल का कहीं कोई ठिकाना नहीं है। नर्मदा यात्रा के रस की तरह ही इस यात्रा में भी वह भरपूर रस ले रहे हैं। यह रूपाकार की यात्रा है। नर्मदा की गुनगुनाहट शुरू हो गई है। अस्पष्ट स्वर धीरे-धीरे ध्वनि में लय घुलने लगी है। लीर-लीर हुए कागज एक दूसरे के पास आते अपने होने को जैसे जताने लगे हैं। औचक यह गुनगुनाहट मधुर गीत में तब्दील हो जाती है। तैयार है नर्मदा यात्रा का चित्र गीत। सोचता हूं, वेगड़जी स्मृति में बसा नर्मदा परिक्रमा का कोई दृश्य ऐसे ही तो आंखों के समक्ष जीवंत करते होंगे।
अमृतलाल वेगड़ ने नर्मदा की चार हजार से अधिक किलोमीटर की पदयात्रा की है। इस पदयात्रा में निर्जन वन, पहाड़, नदी के संगम गुफाओं, चट्टानों, आदिवासियों, ग्रामीणों की संस्कृति को उन्होंने गहरे से छुआ। अनुभूत किया नर्मदाव्रती चित्रकार के रूप में तात्कालिक स्तर पर रेखाओं के जो जीवनानुभव उन्होंने उकेरे बाद में उनके आधार पर ही रंगीन पेपर कोलाजों में उन्हें अनूठे रूपाकर दिए। इन्हीं में उन्होंने नर्मदा की अपनी की पदयात्रा को फिर से एक प्रकार से जिया भी है। नर्मदा, अमृतलाल वेगड़ के लिए नदी नहीं, पूरी एक संस्कृति है। रेखाओं की सांगीतिक लय में वह नदी और उससे जुड़े संस्कारों,सभ्यता और जीवन से जुड़े तमाम दूसरे सरोकारों से हमारा अपनापा कराते हैं। उनके रेखाचित्रों और पेपर कोलाज में नदी मधुर गान करती हमें लुभाती है तो कभी चीखती-चिल्लाती अपनी पीड़ा भी बताती है। कभी नदी के मोड़ हमसे बतियाते अपने साथ चलने के लिए आमंत्रित करते हैं तो कभी तट के गांव और आदिवासी सभ्यता से जुड़े सरोकार औचक ही हममें बसने लगते हैं। उनके चित्र देखने के हमारे संस्कारों को एक तरह से संपन्न करते हैं। उनके चित्रों में नर्मदा नदी रूप में नहीं, संस्कृति के रूप में हममें जैसे प्रवेश करती है। चित्र देखते लगता है, नर्मदा नदी का अनथक यात्री हमें भी अपने साथ पद परिक्रमा करा रहा है। सम् और कृति के योग से बना है संस्कृति शब्द। संस्कृति इस अर्थ में सम्गति की द्योतक ही तो है। बगैर समेकित भाव के संस्कृति नहीं होती और वेगड़जी ने नर्मदा को समेकित भाव से ही अपने में आत्मसात किया है। संस्कृति को साक्षात देखने की चाह हो तो वेगड़जी के चित्र उसमें मदद करेंगे। इसलिए कि अपनी पदयात्राओं के बाद से ही नर्मदा को वे नदी रूप में नहीं बल्कि संस्कृति रूप में महसूस करते रहे हैं। पद परिक्रमा में जो कुछ उन्होंने देखा, महसूस किया उसे अंतर्मन में प्रवाहित अनुभूति की तरंगों से अपने चित्रों में एक प्रकार से उद्घाटित किया है।
असल में बड़ा यथार्थ वह नहीं होता जो दिख रहा होता है, बल्कि वह होता है जो देखने के बाद भी मन में घट रहा होता है। इस दृष्टि से वेगड़जी ने नर्मदा परिक्रमा को भले नर्मदात्री की तीन पुस्तकों में शब्द रूप में समेट लिया, लेकिन लगता है नर्मदा की यात्रा सतत् उनके भीतर घटती रहती है। इस घटने की परिणति में ही वे रेखाओं और रंगों में यात्रा अनुभूतियों, स्मृतियों, अंतर्मन संवेदनाओं के साथ ही विभिन्न रंगीन छपे कागज़ों की कतरनों के कोलाज बनाते आ रहे हैं। तमाम माध्यमों में व्यक्त उनकी कला की बड़ी विशेषता यह है कि वहां प्रकाश और अनुभूति के क्षणांश को भी सदा के लिए पकड़ व्यंजित किया गया है। बेशक रेखाओं की गति ने इसमें उनका सहयोग किया है, लेकिन वहां आंख का यथार्थ भर ही नहीं है, उससे परे का वह आकाश भी है जिसमें प्रकृति के संगीत को गुना और बुना जाता है। माने उनके रेखाचित्र दृश्य के साथ श्रव्य का आस्वाद भी कराते हैं। वहां नर्मदा के जल का कल-कल है, वहां नर्मदा से उपजे प्रपात का कोलाहल है, वहां जंगल में पसरी खामोशी का सन्नाटा है और है नदी किनारे बसी सभ्यता की आहटें।
वेगड़जी और सीमित रेखाएं बहुतेरी बार बिंबों के जरिए वह सब कुछ कह देती है जो शब्द शायद चाहकर भी नहीं कह पाते होंगे। वे रेखाचित्रों में किसी एक दृश्य का नहीं बल्कि उससे संबंधित पूरे परिवेश को उकेरते रूपकों का निर्माण करते हैं। घटनाओं का वृत्त वहां है। अनुभूत सौंदर्य के क्षण का अपूर्व वहां है और है अपरिमेय की स्थापना। उनके रेखाचित्रों को देखते प्लेटों के सौंदर्यदर्शन की याद आती है, बान गॉग की चित्र संवेदना की स्मृतियाँ जेहन में कौंधती हैं तो पौल गोग्वॅ का यह कहा भी मन में कहीं घर करता है कि ‘रेखाओं में रंगों का सामर्थ्य है।’ सीधी सरल रेखाओं में लोक की सहजता वहां है। शायद इसलिए कि रेखाओं से व्यक्ति किसी घटना, परिवेश और नर्मदा के भांति-भांति के रूप उकेरते वे आत्म और पर के भेद का विलय कर देते हैं। चित्र बनाते हुए वे नर्मदा से जुड़े लोगों के रीति-रिवाज़ों, उनके विचारों, कल्पनाओं, निष्ठाओं, रहन-सहन, पहनावे और प्राकृतिक सौंदर्य के अंग-प्रत्यंगों का अंतर्मन संवेदना से गहन निरीक्षण करते हैं। फिर सहज ही अपने इस निरीक्षण को रेखाओं की लय में रुपायित कर देते हैं। कहें, इसीलिए उनके रेखांकनों में संस्थापन, संतुलन, संयोजन और लय का प्रभावी अंकन दृष्टिगोचर होता है।
पौल गोग्वॅ ने रेखाओं के बारे में कभी कहा था, ‘रेखाएं भी स्वभाव विशेषताएँ लिए होती हैं- जैसे कि सहृदय रेखाएं, हीन रेखाएं, कठोर रेखाएं वगैरह; सरल रेखाओं से अनंत विशालत्व का आभास होता है और वक्र रेखाओं से संकोच पैदा होता है।’ गोग्वॅ के इस कथन के परिप्रेक्ष्य में वेगड़जी की रेखाओं पर जाएं तो सहज ही कहा जा सकता है कि रेखाओं से वे नर्मदा और उसके तट पर बसे लोगों की संवेदना, उनकी संस्कृति को गहरे से अभिव्यंजित करते हैं। इसलिए कि उन्होंने स्वयं पदयात्राएं करते उकेरे गए विषयों को अपने तईं जिया है। कुछेक रेखाचित्रों पर गौर करेंगे तो यह सहज समझ में भी आ जाएगा। एक रेखाचित्र है जिसमें उलझी रेखाओं में आदिवासी स्त्री के चेहरे को उकेरा गया है। रेखाओं में महिला उसके केश विन्यास, गले में पहने पारंपरिक गहने, बिंदी आदि सभी स्पष्ट उभर कर सामने आए हैं। यों देखेंगे तो रेखाचित्र सामान्य सा लगेगा, लेकिन जैसे-जैसे उसमें वर्ण्य रेखा वस्तुओं पर जाएंगे लगेगा आदिवासी जीवन से हम साक्षात हो रहे हैं। ऐसे ही एक और सबीह है जिसमें पुरुष को उकेरा गया है। घनी मूंछें, कानों में बालियां, पगड़ी और चेहरे का बांकपन। इसके बरक्स एक चित्र उस स्त्री का है जिसने नाक में बड़ा सा तिणखा पहन रखा है। पल्लू उघाड़े जंगल के जीवन को जीती वह जैसे हमसे बतिया रही है।
अलाव तापते तीन ग्रामीणों का रेखाचित्र तो अद्भूत है। चित्र नहीं। चित्र रूपक। चित्र देखते परिवेश की कहानी जैसे मन में घटित होने लगती है। अलाव और उसकी आग। ताप के साथ बतियाते मिनख। यह ग्राम्य जीवन की सहज बंतल है। राजस्थानी में कहूं हथाई। वार्ता का विषय कुछ भी हो, लेकिन जिस तल्लीनता से आग तापते यह तीन जन वेगड़जी के इस रेखाचित्र में दिखते हैं, वे सदा के लिए हमारी स्मृति में बस जाते हैं। गत्यात्मक रेखाओं के ऐसे चित्र और भी हैं जिनमें जीवन का स्पंदन है। अर्थ क्या निकले, चित्रकार का इसे लेकर कोई आग्रह नहीं है क्योंकि उन्होंने जो देखा, अनुभूत किया-उसे ही व्यंजित किया है, पर अर्थ उनके देखे-अनुभूत किए तक ही थोड़े न है! आप कुछ और भी अर्थ निकाल सकते हैं। अर्थ का दुरूहपन जो वहां नहीं है।
वेगड़जी सरल, सहज रेखाओं में ऐसे ही नर्मदा और उस परिवेश से जुड़े जीवन के अनगिनत दृश्य हमारे समक्ष उद्घाटित करते हैं। चट्टानों, नर्मदा नदी के घुमाव, जल प्रवाह, पेड़ के तनों या पुरानी दीवारों के बनाए उनके रेखाचित्रों का आकाश गजब का है। वहां जानी-पहचानी आकृतियों के साथ बहुतेरी बार ऐसी आकृतियां भी उभरती दिखती हैं, जो अचरज में डालती हैं। प्रकृति पर यथार्थ में जो दिख रहा है, उससे कुछ अलग। यह स्मृतिलेख हैं। स्मृति के दृश्यालेख। प्रकृति की पांडुलिपियों में छिपी सौंदर्य संपदा की तलाश करते वे शूलपाणा झाड़ी, नर्मदा तट की गुफाएं, मंदिरों में सुबह, सांझ, दोपहर और रात्रि की नीरवता में भी कुछ न कुछ बनाते रहे हैं। अपने को भूलते। प्रकृति को गुनते अपने को उसमें बुनते। इसीलिए तो नर्मदा परिक्रमा में गुफा की दीवारों से निकली चट्टानों को वे अपने तई अभिव्यंजित करते हुए अपने यात्रा संस्मरणों में एक स्थान पर कहते हैं, ‘गुफा की दीवारों से निकली कागज जैसी चट्टानों का भंडार है, यह गुफा। सीधी सपाट नहीं, बलखाती, लहराती चट्टानें और छोर पर मोतियों की माला! प्रकृति ने यहां चट्टानों में से बारीक वस्त्र तलाशें हैं- किसी संन्यासी के जोगिया वस्त्र!’ वेगड़जी दृश्यों से ऐसे ही अपनापा करते हैं। वे दृश्य के भीतर जाते हैं। उसमें रमते हैं और फिर बसते हुए शब्द और रेखाओं का उजास फैलाते हैं। चित्रकार जब दृश्य में इस सूक्ष्मता से प्रवेश करता है तो सहज ही उसकी रेखाओं में दृश्य ही नहीं उससे जुड़ा अनंत भी प्रकट होता ही है।... तो वेगड़जी प्रकृति दृश्य में निहित अनंत के चित्रकार हैं।
चित्रकार मार्क टोबेन ने कभी कहा था, ‘सृजनशील व्यक्ति के लिए वह आयाम महत्वपूर्ण है जिसमें वह अपने अंदर एक अंतरिक्ष की रचना करता है। यह आंतरिक अंतरिक्ष अन्य किसी की अपेक्षा असीम के अधिक निकट होता है।’ मुझे लगता है, वेगड़जी अपने चित्रों में जिस अंतरिक्ष का निर्माण करते हैं उसमें नर्मदा के सौंदर्य का असीम ही है। इसलिए कि नर्मदा यात्रा में वे सृजनात्मकता के स्रोत और प्रकृति की सृजन प्रक्रिया के रूपों को समझने में हमारी मदद करते हैं। वे व्यक्ति,पेड़-पौधों, आदिवासी जीवन की भौतिक उपस्थिति तो रेखाओं में जताते ही हैं, साथ ही दृश्य में निहित आंतरिक सुंदरता को भी अपने लिए जीते हैं और इसी से सौंदर्य के चरम का दर्शन देखने वालों को कराते हैं।
वेगड़जी के चित्र दृश्यों में वस्तु, व्यक्ति की आकार-विशेषताओं की स्पष्टता के बजाय रेखाओं की भावदर्शी लय का अंकन है। गतिमान लयबद्ध रेखाएं। बाह्य के जरिए आंतरिक सौंदर्य का प्रकटीकरण। दृष्टि के साथ ही आंख जिस सौंदर्य को देख नहीं पाती उस अचेतन और उपचेतन के अंकन तक की गति को उनके रेखाचित्रों में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। नर्मदा पद परिक्रमा के अंतर्गत नदी तट के सौंदर्य के साथ इसीलिए वेगड़जी वहां के निवासियों के रहन को इस गहराई से व्यंजित कर सके हैं। जो कुछ उन्होंने बनाया है उसमें कहीं कोई बनावटीपन नहीं है। लोग जैसे रेखाओं में दिखते हैं, वैसे ही हैं। वहां कहीं कोई कृत्रिमता जो नहीं है! ओढ़ा या ओढ़ाया हुआ परिवेश नहीं है। आदिम प्रवृत्तियों के मनुष्य संस्कारों के अविकृत रूप में सौंदर्य के दर्शन जो वहां हैं। रूप विधान के साथ वस्तु संयोजन का अपूर्व वहां है। लोक जीवन के चित्रण की उनकी शैली में स्वयं उनके गुरू नंदलाल बसु से प्रेरित हैं, लेकिन उनकी रेखाएं विरल हैं। रेखाओं की दृढ़ता वहां है। शक्ति संपन्न रेखाएं। प्रवाहमय। सुस्पष्ट। सूक्ष्म वर्ण विन्यास। उनके रेखाचित्र देखते यामिनी राय के संथाली चित्रों की हल्की याद भी आती है, लेकिन वेगड़जी के चित्र आत्मीयता के भाव जगाते हैं। आदिवासी जीवन के प्रति भी, जबकि यामिनी राय के संथाली चित्रों के अति अलंकरण उस जीवन से अपनापा नहीं होने देता। वेगड़जी के नर्मदा चित्रों में रेखाओं की दृढ़ता है, लेकिन वह सहजता-सरलता भी है जिसमें जो कुछ उन्होंने बनाया है वह हमें अपना लगता है। उससे आत्मीयता के भाव जगते हैं। जैसा जीवन उन्होंने देखा-वह बहुत से स्तरों पर हमारा अपना भी शायद इसलिए लगता है कि उसमें वेगड़जी का आत्म है। सर्जक का यह आत्म ही देखने वाले के आत्म से मिलकर चित्रों में अपनापे के भाव शायद जगाते होंगे।
वेगड़जी के चित्रों में पहाड़ी कहीं है तो वह पहाड़ी भर नहीं है। उसमें निहित दृश्य की तमाम दूसरी संभावनाएं भी वहां है। मसलन मंडला के पास की एक पहाड़ी पर वे रहे तो उसका अपने तईं सर्वथा अलग दृश्यबिंब शब्दों में उकेरा। नर्मदा यात्रा संस्मरण के लिए उनके शब्दों को जरा देखें, ‘...सारा दिन उस पहाड़ी पर रहे। उसका लघु आकार उसे एक विशिष्ट जीवंतता प्रदान करता था। यह पहाड़ी पेपरवेट जैसी लग रही थी। आस-पास के खेत कहीं उड़ न जाएं, इसलिए उन पर रखा पहाड़ी पेपरवेट!’ दृश्य की ऐसी लय वेगड़जी शब्दों में ही नहीं पकड़ते बल्कि अपने चित्रों में भी उड़ेलते हैं। उनका एक चित्र है, जिसमें दूर तक नदी बहती जाती दिखाई देती है। नदी के साथ उसका तट और दूर पहाड़ियों की सरगम जैसे ध्वनित होती हममें बसती चली जाती है। कैसे होता है यह?
दरअसल वेगड़जी दृश्य से जुड़ी तमाम संभावनाओं को अपने तईं अंवेरते हैं। ऐसा है तभी तो नर्मदा पदयात्रा में कहीं आधी रात को उठकर वह आसमान में उगे अर्धचंद्र को ‘लाल सूर्ख चांद!’ पाते हैं तो पदयात्रा में एक अकेले हरे रंग की अपने तईं कई-कई व्यंजनाएं कर देते हैं। जरा देखें, उनकी अभिव्यंजना, ‘...हरे रंग का तो समुद्र ही है चारों ओर। हरे रंग के कितने अखाड़े हैं। खेतों का हरा अलग, पेड़ों का हरा अलग, यहां तक कि हर पेड़ का हरा अलग। धान का खेत हरे रंग का जूना अखाड़ा है। रमतीला का पीला तो मुझमें अजीब सी उत्तेजना भर देता। उनके पीले खेतों से चलता, तो लगता मैं वान गॉग के खेत में से जा रहा हूं।’
ऐसे ही पदयात्रा में जब सूरज और चांद को वे कितने-कितने रूपों में निहारते हैं तो रेखाओं में ऐसे ही उन्हें गुनते और बुनते भी हैं। जबलपुर से छेवलिया यात्रा के दौरान सूर्योदय से साक्षात के दृश्य में वे रमते हुए बताते हैं, ‘सुबह नारंगी रंग का बड़ा भारी सूरज निकला। निकला नहीं, उगा पौधा जैसे धरती में से उगता है। ताजा जन्मा सूरज नवजात शिशु-सा नरम और कोमल लग रहा था।’ सूर्य ही क्यों चांद को तो उन्होंने उपमाओं से लाद दिया है। भांति-भांति का चांद। चांद के धब्बों में भी वे चित्रों की भाषा बांचते हैं, ‘...मानों चांद के कैनवस पर किसी ने चित्र बनाए हों। चांद अगर सपाट होता, तो इतना मोहक न लगता। नहीं, ये उसके कलंक नहीं गोदने हैं।’ यह लिखते हुए वह नदी किनारे बनाए गए स्केच की स्मृति में चले जाते हैं। कहते हैं, ‘मैं नदी किनारे स्केच कर रहा था। इतने में एक कृशकाय स्त्री नहाने आई। नहाकर उसने पहनने के लिए साड़ी निकाली। वह उसे एक छोर से दूसरे छोर तक दो बार देख आई, लेकिन साड़ी इतनी तार-तार हो चुकी थी कि उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कहां से पहने। किसी तरह उसने अपनी लज्जा ढांकी और चली गई।...यह था कलंक। मेरा सिर लज्जा से झुक गया। मुझसे और स्केच नहीं किए गए।’
वेगड़जी के रेखाचित्रों में साड़ी से अपने को ढांकती वह महिला भी है। रेखाचित्र को देखते उस महिला से हम जुड़ जाते हैं। आदिवासी जीवन की व्यथा की ऐसी ही कथाएं उनके रेखाचित्र बहुत से स्तरों पर सुनाते हैं। लोकजीवन के अनगिनत चित्र उकेरते वेगड़जी जीवन की उत्सवधर्मिता पर भी गए हैं। थके हारे ग्रामीणों की रात की ध्वनियों में नगाड़े की थाप है। रात्रि जागरण के भजन हैं और हैं आदिवासी बालाओं के नृत्य की थिरकन। पुरुष सैला कर रहे हैं, स्त्रियां रीना और दोनों का सम्मिलित करमा। ऐसे ही हारमोनियम से निकलते स्वरों में आदिवासियों की सुरीली तान बहुत से चित्रों में सुनाई देती है। चित्र और भी हैं। मसलन एक में धान का गट्ठर उठाए स्त्री चली जा रही है। एक में नर्मदा मूर्तिकार रूप में प्रकट हो रही है... चट्टानों में तरह-तरह की आकृतियां उकेरती नर्मदा। इसी मूर्तिकार नर्मदा के तट पर एक पैर आगे कर पायल पहनती एक ग्राम्य महिला का रेखाचित्र सदा के लिए आंखों में बस जाता है। रस्सा-कशी में बिलोना करती महिलाएं उनके रेखाचित्रों में हैं तो नर्मदा तट के मंदिरों की अपूर्व शोभा भी है।
वेगड़जी अपनी पदयात्रा में नर्मदा के सौंदर्य की शब्द सर्जना करते हैं। वे नर्मदा को जन्मजात यात्री बताते हैं तो इसमें निहित उसके पथ के पाथेय, संदेश को भी चित्रों में गुनते हैं और यह गुनना उनके चित्रों को संपन्न करता है। नर्मदा के प्रकट होने और समुद्र में उसके लुप्त होने की यात्रा तक में वह नर्मदा से जुड़े जीवन का सांगोपांग आस्वाद अपने चित्रों के जरिए हमें करवाते हैं। नर्मदात्री के अपने यात्रा संस्मरणों में एक स्थान पर वह लिखते हैं, ‘...मैंने नर्मदा को प्रकट होते देखा, अन्य नदियों से पुष्ट होते देखा और समुद्र में लुप्त होते देखा। नर्मदा का मैंने किनारों से बतियाते सुना, चट्टानों पर लिखते देखा और रेत पर बेल-बूटे काढ़ते देखा।’ वे यह सब देखते ही नहीं हैं, इसके बारे में लिखते ही नहीं है बल्कि इस सबको अपने चित्रों में भी गहरे से जीते हैं। परस्पर एक दूसरे से टकराती। एक दूसरे में समाती लकीरें। सीध-सरल पर जो दृश्य इन रेखाओं ने ईजाद किया है, वह अद्भुत है। दृश्य नहीं रूपक। चित्र कहन। मसलन एक रेखाचित्र में आंचलिक संस्कृति के सरोकारों में रंगी ग्रामीण महिला गहनों से लदी है। घूंघट की ओट लिए पर फिर भी अपने होने में अंचल की तमाम विशेषताओं को जैसे गहरे से वह समाए हुए हैं।
अमृतलाल वेगड़ ने नर्मदा की चार हजार से अधिक किलोमीटर की पदयात्रा की है। इस पदयात्रा में निर्जन वन, पहाड़, नदी के संगम गुफाओं, चट्टानों, आदिवासियों, ग्रामीणों की संस्कृति को उन्होंने गहरे से छुआ। अनुभूत किया नर्मदाव्रती चित्रकार के रूप में तात्कालिक स्तर पर रेखाओं के जो जीवनानुभव उन्होंने उकेरे बाद में उनके आधार पर ही रंगीन पेपर कोलाजों में उन्हें अनूठे रूपाकर दिए। इन्हीं में उन्होंने नर्मदा की अपनी की पदयात्रा को फिर से एक प्रकार से जिया भी है।
पिछले दिनों भोपाल में तीन-चार दिन लगातार उनके साथ रहने का अवसर मिला। संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘नर्मदा से मैं अपने को कभी दूर नहीं पाता। पदयात्राओं से मन अभी भी भरा नहीं है।’
उनके रेखाचित्रों को, उनके पेपर कोलाज को नर्मदा की संस्कृति के सौंदर्य से लबरेज कहना अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि उनकी यह कला नर्मदा के सौंदर्य, उसकी संस्कृति की यात्रा है। अनवरत यात्रा। बगैर किसी पड़ाव की यात्रा। चरैवेति-चरैवेति। दुर्गम वन, नदी के पाट, मंदिर पूजारी, संन्यासी, गुफाएं, गांव, सूर्योदय, दोपहर, सांझ, रात। पेड़ों का झुरमुट, गरजती-बरसती नदी। नदी से उपजा झरना। तेज प्रपात। चट्टानों को पिघलाता पानी का बहाव। झाड़ियां। हरियाली की चादर ओढ़े खेत-खलिहान।...और सर्वग्रासी अकाल का उजाड़ भी। वह धूप को कढ़े दूध से रंग की उपमा देते हैं तो शिलाओं से सटकर बहती नर्मदा को स्नान करते भी देखते हुए लिखते हैं, ‘...नर्मदा शिलाओं से सटकर बह रही है। लगता है शिलाओं से रगड़-रगड़ कर अपनी देह को उजला कर रही है। (नदी नहा रही है!)
शूलपाण झाड़ी के निभृत्त एकांत में नर्मदा अवभृथ स्नान कर रही है।’ नदी के ऐसे दृष्टा ही उसकी चित्रों में अपूर्व सृष्टि कर सकते हैं। नर्मदा पद परिक्रमा में पथ का देखा सब कुछ वे अपनी चित्रकला में ऐसे ही उड़ेलते फिर से नर्मदा की यात्रा में रमते, उसी में बसते चले जाते हैं।
कला की उनकी शिक्षा-दीक्षा शांतिनिकेतन के कला भवन में हुई। यह 1948 से 1953 तक वह कलाभवन के छात्र रहे। आचार्य नंदलाल बसु से उन्होंने दृश्य में निहति सौंदर्य को देखने के संस्कार पाए। जलरंगों से प्रारंभ हुई कलायात्रा में नर्मदा के सौंदर्य ने नया रंग घोला। यह 1977 की बात है, जब उन्होंने नर्मदा पदयात्राओं का सिलसिला प्रारंभ किया। पदयात्रा में स्केचबुक साथ रहती। जो कुछ देखा, अनुभूत किया, स्मृति ने परखा-उसे तत्काल ही रेखाओं में व्यंजित कर दिया, पर फिर बाद में इन रेखाओं से ही कागज कोलाज बनाना प्रारंभ कर दिया।
आरंभ में सपाट पोस्टर पेपर से उन्होंने कोलाज बनाए, लेकिन बाद में ‘नेशनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका के रंगीन पृष्ठ ही उनके रंग और रेखाएं होते चले गए। बकौल वेगड़जी उनके कोलाजों में शेड्स और टेक्सचर का नया आयाम नेशनल ज्योग्राफिक पत्रिका के रंगीन पृष्ठों के उपयोग से जुड़ा। वे कहते हैं, ‘इनके पृष्ठ मेरी कल्पना को उत्तेजित करते हैं और उनका रचनात्मक उपयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं।’ एक पेपर कोलाज है जिसमें नदी है, नदी के पास का परिवेश है और है उसके पानी में उतरे स्त्री-पुरुष। नर्मदा परिक्रमा। महिला पीठ पर बच्चा लादे हुए हैं। पुरुष आगे है, कंधे पर लकड़ी और उसमें सामान के थैले डाले हुए। पहनावे के देहातीपन का अद्भुत सौंदर्य चितराम। पेपर कोलाज यानी कागद की इस रूपगोठ की बड़ी विशेषता है नदी में दोनों का चलना। बढ़ते पांवों के साथ पानी का हिलना और लहरों का जो दृश्य चितराम बना है, वह दिखता ही नहीं बल्कि जैसे सुनाई भी देता है। डबक, डब, डब...।
पानी में डूबते पैर और स्पंदित जल हिलोर। नदी में हो रहे गमन का गान! वेगड़जी के चित्रों की यही तो विशिष्टता है। वहां दृश्य आंखों के समक्ष चलायमान हो उठता है। जीवंत। सोचता हूं, रंगीन पेपरों के लीर-लीर में वह स्मृतियों की बुनावट करते उसमें देखने की संवेदना का अनुभूति रंग ही शायद भरते होंगे। मैंने उन्हें पेपर कोलाज का कार्य करते कभी नहीं देखा। उनकी इस कला का आस्वाद करते-करते ही मन में दृश्य उभरने लगा है। वेगड़जी ‘नेशनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका में अपनी पसंद के रंगीन पृष्ठ छांट रहे हैं। पन्ने फट गए हैं। अब उनकी कतरनें हो रही है। हरा, पीला, नीला, भूरा, काला, लाल और भी न जाने कितने-कितने रंगों की कतरनें एकत्र हो गई है। अब वह इन्हें चिपकाने लगे हैं। रूप की यात्रा आरंभ हो गई है।
अभी मंजिल का कहीं कोई ठिकाना नहीं है। नर्मदा यात्रा के रस की तरह ही इस यात्रा में भी वह भरपूर रस ले रहे हैं। यह रूपाकार की यात्रा है। नर्मदा की गुनगुनाहट शुरू हो गई है। अस्पष्ट स्वर धीरे-धीरे ध्वनि में लय घुलने लगी है। लीर-लीर हुए कागज एक दूसरे के पास आते अपने होने को जैसे जताने लगे हैं। औचक यह गुनगुनाहट मधुर गीत में तब्दील हो जाती है। तैयार है नर्मदा यात्रा का चित्र गीत। सोचता हूं, वेगड़जी स्मृति में बसा नर्मदा परिक्रमा का कोई दृश्य ऐसे ही तो आंखों के समक्ष जीवंत करते होंगे।