रंजक, संश्लिष्ट (Synthetic Dyes)

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रंजक, संश्लिष्ट (Synthetic Dyes) प्रचलित परिभाषा के अनुसार संश्लिष्ट रंजक, वे कार्बनिक रंगीन पदार्थ हैं, जिनमें वस्तुओं को जल माध्यम में रंजित करने की क्षमता होती है, पर बहुत से वर्णक भी, जिनसे सुघट्य लेकर तथा रबर बिना जल माध्यम के रंजित किए जाते हैं, संश्लिष्ट रंजकों की श्रेणी में आते हैं। इन संश्लिष्ट रंजकों को तारकोल रंजक भी कहते हैं, क्योंकि प्राय: सभी रंजकों का निर्माण तारकोल से प्राप्त हाइड्रोकार्बनों के ही द्वारा होता है। अब प्राकृतिक रंजकों का स्थान पूर्ण रूप से संश्लिष्ट रंजकों ने ले लिया है, जिनसे कोई भी इच्छित रंग प्राप्त किया जा सकता है।

अधिकांश प्रमुख रंजकों का आविष्कार आकस्मिक घटनाओं द्वारा हुआ है। इन असंख्य संश्लिष्ट रंजकों के इतिहास का पूर्ण विवेचन यहाँ संभव नहीं है। प्रमुख रंजकों के विषय में उल्लेख करना आवश्यक है। कुनैन के संश्लेषण के प्रयास में डब्ल्यू.एच. पर्किन ने एनिलीन सल्फेट पर पोटैशियम डाइक्रोमेट की अभिक्रिया से सन्‌ 1856 में एक काला पदार्थ प्राप्त किया, जिसमें रेशम रँगने की क्षमता थी। इसका नाम मोवीन (Mauveine) अथवा टिइरियन पर्पल (Tyrian purple) पड़ा। पर्किन ने इसके लिए 1857 ई. में एक निर्माणशाला बनाई। फ्रांसीसी रसायनज्ञ वरगुइन (Verguin) ने 1859 ई. में मैंजेंटा (Magenta) का निर्माण किया। सन्‌ 1857 ई. में ही ग्रेविल विलियम्स (Greville Williams) ने साइआनिन नीला रंग (Cyanin blue) की खोज की। रंजकों के निर्माण का प्रादुर्भाव जर्मनी में हुआ और 60 वर्षों तक वह रंजकों के रसायन तथा उसे प्रौद्योगिकी में अग्रणी रहा।

ग्रैवे (Graebe) और लीवरमान (Liebermann) ने सर्वप्रथम सन्‌ 1868 ई. में प्राकृत्रिक रंजक ऐलिज़ारिन (Alizarin) का संश्लेषण किया। पर्किन ने भी दूसरी विधि से इसके संश्लेषण का पेटेंट (एकस्व) इंग्लैंड में 1869 ई. में कराया। फ्लूओरेसिइन (Fluoresceine), गैलिइन (Gallein), मेथिलीन ब्लू (Methylene blue), ऐलिज़ारिन ब्लू तथा मैलैकाइट हरित (Malachite green) जैसे उपयोगी रंजकों का निर्माण हुआ।

1880 ई. विशेष उल्लेखनीय है। बेयर (Baeyer) ने 18 वर्ष के अन्वेषण के उपरांत नील का संश्लेषण किया। ह्यूमन ने 1890 ई. में नील का औद्योगिक महत्व बताया, जिसमें फेनिल ग्लाइसीन के क्षारीय गलन से इंडॉक्सिल प्राप्त किया। भारत में 14 लाख एकड़ भूमि में नील की खेती होती थी तथा भारत से यूरोप एवं अन्य देशों में नील का निर्यात होता था। धीरे धीरे संश्लिष्ट नील ने इस व्यवसाय को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया।

सन्‌ 1901 में बॉन (Bohn) ने इंडैंथीन ब्लू का आविष्कार किया और कुछ वर्षों बाद ही औद्योगिक महत्व के ऐंथ्राक्विनोन वैट रंजकों (Anthraquinone Vat dyes) का निर्माण हुआ। थायोइंडिगो का निर्माण, साइआनिनरंजकों का फोटाग्राफिक फिल्मों में उपयोग तथा सूती कपड़ों को नेवी ब्लू में रंगने के लिए सल्फर वैट रंजकों का प्रयोग सन्‌ 1906 से प्रारंभ हुआ।

द्वितीय विश्वयुद्ध में इंडैंथीन खाकी (Indanthrene Khaki GG) का निर्माण हुआ। युद्ध के उपरांत 1920 ई. में कैलेडान जेड ग्रीन (Caledon jade green) का निर्माण हुआ। इंडैंथीन गोल्डेन येलो (Indanthrene golden yellow G K) सन्‌ 1922 में, इंडैंथ्रीनन ब्रिलिएंट ऑरेंज सन्‌ 1925 में आविष्कृत हुए। सन्‌ 1934 में रजक उद्योग में एक विशेष प्रगति काफपर थैलोसाइआनिन (Copper Phthalocyanine) की उत्पत्ति से हुई। थैलीमाइड का निर्माण जब लोहे की कड़ही में किया गया, तो डैड्रिज (Dandrige) ने एक नीले द्रव्य का प्रेक्षण किया, जिसी संरचना का अध्ययन कर लिनस्टेड (Linstead) ने बताया कि यह क्लोरोफिल और हीमिन के सदृश है।

रंजकों का निर्माण- ये रंजक कार्बनयुक्त मूलकों के संजात हैं, जिनमें कम से कम एक चक्रिक समूह, जैसे बेंज़ीन, या नैफ्थेलीन वलय का होना आवश्यक है। कार्बन के अतिरिक्त इनमें हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और गंधक तत्व होते हैं। प्राय: सभी रंजक बेंज़ीन, टॉलूईन, ज़ाइलीन, नैफ्थेलीन तथा ऐं्थ्राासीन नामक पाँच हाइड्रोकार्बनों के संजातों से प्राप्त होते हैं। इन सभी हाइड्रोकार्बनों का प्रमुख स्रोत अलकतरा है। इनसे आरंभ करके विभिन्न चरणों में विभिन्न रंजकों का निर्माण होता है। प्रथम चरण में इन्हें मध्यस्थों (intermediates) में परिवर्तित किया जाता है, जो हाइड्रोकार्बन के हाइड्रोजन परमाणु के स्थान पर सरल परमाण्विक समूहों, जैसे ऐमिडो, नाहा2 (NH2) डाइमेथिल ऐमिडो, (काहा3)2 नाहा [(CH3)2 NH], हाइड्रॉक्सिल, औहा (OH), सल्फोनिक, हागंऔ3 (HSO3) इत्यादि से प्रतिस्थापन द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार बेंज़ीन नाइट्रोकरण (nitration) पर नाइट्रोबेंज़ीन में परिवर्तित होता है और यह अपचयन से ऐनिलीन देता है:

नैफ्थेलीन पर सल्फ्यूरिक अम्ल की अभिक्रिया से ऐल्फा और बीटा सल्फ़ोनिक संजात प्राप्त होते हैं, जिन्हें दाहक सोडा (caustic soda) के साथ संगलन करने पर ऐल्फा और बीटा नैफ्थॉलों की प्राप्ति होती है:

नैफ्थेलीन नाइट्रोकरण पर नाइट्रोनैफ्थेलीन देता है, जो अपचयन पर ऐल्फ़ा नैफ्थिलऐमीन में परिवर्तित होता है:

कुछ विशेष मध्यस्थों में ऐनिलीन, डाइमेथिल ऐनिलीन, ऑर्थो तथा पैरा-टॉलिडीन, डाइनाइट्रो-क्लोरो-बेंज़ीन, थेलिक ऐनहाइड्राइड, बीटा-नैफ्थिलऐमिन, बीटा-नैफ्थॉल, ऐंथ्राक्विनान इत्यादि हैं। इन मध्यस्थों के द्वारा ही रंजकों का निर्माण होता है।

अणु की संरचना में दो प्रकार से संकीर्णता लाई जा सकती है। एक तो प्रतिस्थापक समूहों के द्वारा, जैसे फ़ीनोल नाइट्रीकरण पर पिक्रिक अम्ल एक पीले रंजक में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार रंगहीन ऐंथ्राक्विनोन में छह हाइड्रॉक्सिल समूहों के प्रतिस्थापन से गहरा नीला ऐलिज़ारीन हेक्सासाइआनिन (Alizarin hexacyanine) रंजक प्राप्त होता है:

दूसरी विधि में दो, या अधिक मध्यस्थों की बंधुता से रंजक प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए क्रिस्टल बैंगनी रंजक तीन डाइमेथिल ऐनिलीन और एक फ़ासजीन (phosgene) अणु के संघनन से प्राप्त होता है:

संश्लिष्ट रंजक बनाने की बहुत ही उपयोगी विधि डायज़ो-अभिक्रिया (Diazoreaction) है, जिससे सभी सौरभिक हाइड्रोकार्बनों के प्राथमिक ऐमिन संजात नाइट्रस अम्ल के द्वारा डायज़ोनियम लवण में परिवर्तित किए जाते यद्यपि ये लवण प्राय: रंगहीन तथा बहुत ही अस्थायी होते हैं, पर साथ ही बड़े सक्रिय भी होते हैं। ये किसी सौरभिक हाइड्रोकार्बन के हाइड्रॉक्सी, या ऐमिनो संजातों के संपर्क से रंगीन यौगिक बनाते हैं। उदाहरण के लिए, ऐनिलीन डाइज़ो अभिक्रिया पर बेंज़ीन डायज़ोनियम क्लोराइड देता है और यह 2-नैफ्थॉल 6-सल्फ़ोनिक अम्ल के सोडियम लवण के संयोग से एक गहरा नारंगी रंजक उत्पन्न करता है:

नील का संश्लेषण भी विभिन्न उपायों से होता है, पर औद्योगिक प्रणाली में इसे ऐंथ्रानिलिक और क्लारोऐसीटिक अम्ल के संघनन से प्राप्त करते हैं। ऐंथ्रानिलिक अम्ल और क्लोरोऐसीटिक अम्ल से फ़ेनिल (phenyl) ग्लाइसीन ऑर्थोकार्बाक्सिलिक अम्ल उत्पन्न करते हैं और यह क्षारीय संगलन पर इंडॉक्सिलिक अम्ल देता है। यह गरम होते ही कार्बन डाइऑक्साइड देकर इंडाक्सिल में परिवर्तित होता है और हवा द्वारा ऑक्सीकृत होकर नील बन जाता है:

रंजकों की सरंचना बड़ी जटिल होती है। उदाहरण के लिए फ्लैवैन्थ्रोन तथा कैलेडॉन जेड ग्रीन के संघटन निम्नलिखित हैं:

रंग तथा रासायनिक संघटन- रंग की उत्पत्ति अणु के सामुहिक अंगों पर निर्भर करती है। ये सामूहिक अंग असंतृप्त होते हैं और इन्हें वर्णमूलक (Chromophores) कहते हैं। इन रंगीन पदार्थों को वर्णकोत्पादक (Chromogen) कहते हैं और इनमें एक, या बहुत से वर्णमूलक होते हैं। साधारण वर्णमूलकों में इत्यादि हैं। प्राय: पारदर्शी रंग होने के लिए अणु में एक से अधिक वर्णमूलक समूहों की आवश्यकता होती है। वर्णकोत्पादक अपचयन से रंगहीन यौगिकों में परिवर्तित हो जाते हैं। इन अपचयित पदार्थों को ल्यूको यौगिक कहते हैं और ये प्राय: साधारण ऑक्सीकरण से अपने पूर्व रंगीन पदार्थ में परिवर्तित हो जाते हैं।

सभी रंगीन पदार्थ रंजक नहीं होते। वर्णकोत्पादक वर्णाणुओं के साथ एक दूसरे समूह का, जिसे वर्णवर्धक (auxochrome) कहते हैं, होना आवश्यक है। इस समूह में लवण बनाने की क्षमता होती है, जो अम्लीय अथवा क्षारीय होते हैं। उदाहरण के लिए औहा (OH); काऔ औहा (COOH), हागंऔ3 (HSO3), नाहा2 (NH2), नाहामू (NHR) इत्यादि प्रमुख वर्णवर्धक समूह हैं। ऐसे बेंज़ीन का6हा5नानाका6हा5 (C6H5NNC6H5) रंजक नहीं है, क्योंकि इसमें कोई वर्णवर्धक नहीं है, पर पैरा हाइड्रॉक्सी ऐज़ोवेंज़ीन, हाऔकाहा4नानाका6हा5 (HOC6H4NNC6H5) रंजक है।

वास्तव में संश्लिष्ट रंजकों की संख्या बहुत अधिक है और इनका वर्गीकरण भी विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है। रंजित करने की विधि के अनुसार इन्हें निम्नलिखित भागों में विभक्त किया जा सकता है:

अम्लीय रंजक (Acid Dyes)- ये मुख्यत: सल्फोनिक अम्लों तथा नाइट्रोफ़ेनिल रंजकों के सोडियम लवण हैं। ऐसीटिक, या सल्फ्यूरिक अम्लों के अम्लीय कुंड से रंजक सीधे ही ऊन पर अवशोषित होते हैं। इस वर्ग के रंजकों की बंधुता सूती रेशों के लिए बहुत कम है। रंगबंधकों से ये लाक्षक भी नहीं बनाते। इस प्रकार का एक रंजक नेफ्थॉल येलो एस (Naphthol Yellow S) है।

क्षारक रंजक (Basic Dyes)- ये प्राय: रंगीन क्षारों के हाइड्रोक्लोरिक, अथवा जिंक क्लोराइड लवण होते हैं। जैसे मैजेटा, रोडामीन-बी, मैलेकाइट ग्रीन। टेनिन रंगबंधकों के द्वारा इनका मुख्य उपयोग सूती रेशों को रंगने के लिए होता है।

प्रत्यक्ष रंजक (Direct Dyes)- इस वर्ग में अधिकाँश बेंज़ीडीन और इसी प्रकार के क्षारकों के ऐज़ो संजात हैं। ये पानी में विलेय हैं और सीधे सूती तथा सेलुलोस रेयान को अम्लीय कुंड में रंग देते हैं। इसके रंजक का उदाहरण कांगो रेड (Congo red) है।

रंगबंधक रंजक (Mordant Dyes)- इस वर्ग के रंजकों की संख्या काफी बड़ी है और इनके रासायनिक गुणों में भी बड़ी भिन्नता है। ये प्राय: अम्लीय प्रकृति के होते हैं और बंधकों से लाक्षक (lakes) बनाते हैं। ऊन रंगने के लिए क्रोमियम, ताम्र, लौह तथा ऐलुमिनियम रंगबंधकों का उपयोग होता है। उदाहरण के लिए, ऐलिज़ारीन तथा उनके अन्य संजात हैं।

वैट रंजक (Vat Dyes)- ये पानी में अविलेय हैं। इसलिए रँगने के लिए इनका सीधे उपयोग नहीं हो सकता। पहले इन्हें क्षार और सोडियम हाइपोसल्फाइट से अपचयित करके विलेय ल्यूको क्षारक में परिवर्तित करते हैं। तीव्र क्षारीय कुंड के कारण सूती वस्तुएँ ही रंजित की जा सकती हैं। अपचयित ल्यूको यौगिक क्षार में विलेय है और इसी रूप में शीघ्र ही रेशों द्वारा अवशोषित हो जाता है। इस क्रिया के अनंतर ल्यूको यौगिक हवा द्वारा ऑक्सीकृत होकर अपने वास्तविक रंजक में परिवर्तित हो जाता है और स्थायी रूप में रेशों से बँध जाता है। वैट रंजकों के उदाहरण नील तथा बहुत से ऐंथ्राक्विनोन संजात हैं।

व्यक्त रंजक (Developed Dyes)- इन रंजकों की विशेषता यह है कि रंग के अंतिम व्यक्तीकरण की क्रिया रेशे के ही ऊपर होती है। इस विधि के अनुसार पहले पदार्थ को ऐसे प्रत्यक्ष रंजक से रंगते हैं जिसमें एक ऐमिनो समूह होता है। कपड़े पर ही इस रंजक की डायज़ो अभिक्रिया होती है और दूसरा खंड किसी ऐज़ो यौगिक से विकसित किया जाता है।

गंधक रंजक (Sulphur Dyes)- ये सल्फरयुक्त जटिल रंजक पानी में अविलेय हैं, किंतु जलीय सोडियम सल्फाइड में विलेय हैं। इन सल्फर रंजकां का उपयोग सूती वस्त्रों पर सोडियम सल्फाइड के जलीय विलयन में होता है। तदनंतर हवा में ऑक्सीकरण होता है।

रासायनिक संघटन, अर्थात्‌ वर्णमूलक समूहों, के आधार पर रंजकों को निम्नलिखित प्रमुख वर्गों में बाँटा जा सकता है:

नाइट्रोसो रंजक (Nitroso Dyes)- इनमें नाइट्रोसो वर्णमूलक समूह, नाऔहा (NOH), उपस्थित है। इनकी प्राप्ति फिनोलों तथा नैफ़्थॉलों से नाइट्रस अम्ल की अभिक्रिया द्वारा होती है। लोह रंगबंधक के साथ इनका उपयोग ऊन रँगने में होता है।

नाइट्रो रंजक (Nitro Dyes)- ये मुख्यत: फ़ीनोल, नैफ़्थॉल और उनके सल्फोनिक अम्लीय संजातों के नाइट्रो संजात हैं। पिक्रिक अम्ल, मारशियस येलो (Martius yellow) तथा नैफ्थॉल येलो इस वर्ग के प्रमुख रंजक हैं। रेशम को पीला रंगने के लिए इन्हीं का उपयोग होता है।

ऐजो रंजक (Azo Dyes) वर्णमूलक समूह, [नाना NN]  यह प्रमुख तथा विशाल वर्ग है। रचना में हाइड्रॉक्सी, या ऐमिनो स्थापित ऐज़ो-बेंज़ीन हैं। इनमें एक, दो या तीन ऐज़ो समूह होते हैं। ऐज़ो रंजकों की प्राप्ति डायज़ोनियम लवण और फ़िनोल, या ऐमिन के संयोग से होती है। सरल ऐज़ो रंजक पीले होते हैं, पर ज्यों-ज्यों उनका अणुभार बढ़ने लगता है, वैसे वैसे उनका रंग लाल से बैंगनी होता जाता है। ये पानी में अविलेय तथा क्रिस्टलीय होते हैं। रंगबंधकों की सहायता से ये रंगने के काम आते हैं। ऑरेंज I और II, फास्ट रेड A, मेथिल ऑरेंज, कांगो रेड इत्यादि वर्ग इसके कुछ प्रमुख रंजक हैं।

ट्राइफ़ेनिल मेथेन रंजक (Triphenylmethane Dyes)- रंगहीन हाइड्रोकार्बन ट्राइफ़ेनिलमेथेन के बेंज़ीन वलयों में मूलक समूहों के प्रतिस्थापन द्वारा रंजकों का ल्यूको यौगिक प्राप्त होता है और इनमें ऐमिनो समूहों की ही विशेषता है। इनसे चटकीले और गाढ़े लाल, बैंगनी, नीले और हरे रंग प्राप्त होते हैं। डाइऐमिनो ट्राइफ़ेनिल मेथेन के संजातों में मेलकाइट ग्रीन तथा ब्रिलियंट ग्रीन (Brilliant green) उल्लेखनीय है। इसी प्रकार ट्राइऐमिनो ट्राइफेनिलमेथेन के संजातों में रोज ऐनिलीन, या फुक्सिन (Rosanilne or Fuchsin), पैरा रोज़ऐनिलीन, मैजेंटा फुक्सिन इत्यादि हैं। डाइहाइड्रॉक्सी ट्राइफेनिल मेथेन के संजात अम्लीय होते हैं। और इनका उपयोग लाक्षकों के रूप में कागज उद्योग में होता है। इनमें औरीन (Aurine) और रोजोलिक अम्ल (Rosolic acid) प्रमुख रंजक हैं। इओसीन (Eosine), फ़ीनॉफ़्थैलीन (Phenolphthalein), फ्लूओरेसीन (Fluoresceine) तथा रोडैमीन (Rhodamine) भी इसी वर्ग के रंजक हैं।

ऐंथ्राक्विनोन रंजक (Anthraquinone Dyes)- ऐंथ्राक्विनोन के हाइड्रॉक्सी और ऐमिनो संजात धात्विक हाइड्रॉक्साइडों के संयोग से लाक्षक बनाते हैं। इस वर्ग का सर्वप्रमुख रंजक ऐलिज़ारीन (Alizarin) है। औद्योगिक दृष्टि से ऐंथ्राक्विनोन के वैट रंजक बहुत ही उपयोगी तथा प्रसिद्ध हैं। ये बिलकुल पक्का तथा चटकीला रंग देते हैं। रेशों को तीव्र क्षारीय कुंड की सहायता से रंगते हैं। बेंज्थ्रैाोन (Benzanthrone) रंजक में नाइट्रोजन नहीं होता और ये क्षारीय अपचयन पर विलेय ल्यूको यौगिक बनाते हैं। इनमें बेंज्थ्रौन, वायोल्थ्रौंन (Violanthrone) और कैलेडान जेड ग्रीन (Caledon jade green) मुख्य है। इंडेथ्रौन (Indanthrone) रंजकों में नाइट्रोजन अणु के वलय का एक अंग होता है और इस प्रकार के रंजकों में इंड्थ्रैाोंन और फ्लैवैनथ्रनो मुख्य हैं। ऐमिनो ऐंथ्राक्विनोन के सल्फ़ोनिक अम्लीय संजातों में ऐलिज़ारीन साइआनिन ग्रीन (Alizarin cyanine green) उल्लेखनीय है।

इंडिगायड (Indigoid Dyes)- इंडोल तथा थायोइंडोल के संजात इंडिगायड के समूह में सम्मिलित हैं। इनमें नील, हाइड्रोजनीकृत नील, थायोइंडिगो और उनके संजात हैं। नील के संश्लेषण के विषय में बताया जा चुका है। इसके क्लोरो और ब्रोमो संजात अपने अनुपम पक्के और चटकीले रंगों के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें सीबा ब्लू बी (Ciba blue B) तथा टाइरियन पर्पल (Tyrian purple) प्रमुख औद्योगिक उत्पादन हैं। जब नील का इमिनो (Imino) समूह, नाहा (NH), सल्फर से प्रतिस्थापित होता है, तो चटकीला थायोरंजक प्राप्त होता है।

क्विनोन इमिन रंजक (Quinone-Imine Dyes)- पैराक्विनोन इमिन के संजातों में इंडोमीन तथा इंडोफ़िनोल आते हैं। ऑर्थो-क्विनोन-इमिन के संजातों के अंतर्गत ऑक्साज़ीन (Oxazine), थायाज़ीन (Thiazine) और ऐज़ीन (Azine) आते हैं। इंडोमीनों तथा इंडोफ़िनोलों का विशेष उपयोग सल्फ़र तथा थायाज़ीन रंजकों के लिए होता है। थायाज़ीन रंजकों में मेथिलीन ब्लू, मेथिलीन वायलेट, ब्रिलिएंट ऐलिज़ारीन ब्लू इत्यादि हैं। ऐज़ीन अथवा फिनैज़ीन के संजात फ़िनोल फिनैजोनियम लवण, जिन्हें सफ्रैीन कहते हैं, बड़े महत्वपूर्ण हैं। इनमें मोवीन (Mauveine or Perkin's Mauve) तथा फुक्सिया (Fuchsia) मुख्य हैं।

ऐक्रिडिन रंजक (Acridine Dyes)- ये ऐक्रिडिन के संजात हैं। इस वर्ग के मुख्य रंजक ऐक्रिडिन ऑरेंज (Acridine orange) तथा ट्राइपाफ्लैवीन (Trypaflavine) हैं। प्रोफ्लैवीन (Proflavine) तथा ऐक्रिफ्लैविन (Acriflavine) का विशेष उपयोग पूतिरोधी (antiseptic) के रूप में होता है।

थैलोसाइआनिन रंजक (Phthalocyanine Dyes) - यह रंजकों का एक विशेष महत्वपूर्ण वर्ग हैं, जिसमें आइसो-इंडोल वलय विद्यमान है। इनकी संरचना बहुत ही संकीर्ण होती है और इनमें धातु अणु भी उपस्थित होते हैं। ताम्र थैलोसाइआनिन शीघ्र ही ताम्र धातु और थैलो नाइट्राइल की प्रतिक्रिया से प्राप्त होता है। इनकी अणरचना पर्णहरिम (क्लोरोफ़िल) तथा हेमीन के ही समान है। ताम्र थैलो साइआनिन, जिसका औद्योगिक नाम मॉनैस्ट्रल ब्लू (monastral blue) है, अनुपम शुद्ध नीला रंग देता है। इनका उपयोग छपाई के रंग, पेंट तथा लाक्षकों में होता है।

साइआनिन रंजक (Cyanine Dyes)- फ़ोटोग्राफ़िक फिल्मों को संवेदक बनाने की क्षमतावाले रंजकों का यह वर्ग है। ये रंग क्विनोलीन वलयों के संयोग से प्राप्त होते हैं। इनमें एथिल लाल (Ethyl Red), पिनावरडोल, या सेन्सिटॉल ग्रीन (Pinaverdol or Sensitol green) तथा पिनैसाइआनोल (Pinacyanol) वर्णक्रम के दृश्य प्रदेश को संवेदक बनाते हैं।

क्रिप्टो साइआनिन (Kripto Cyanine)- यह एक मुख्य रंजक है, जा रक्त और अवरक्त (infrared) क्षेत्रों को संवेदना प्रदान करता है। ये साइआनिन रंजक बहुत मूल्यवान होते हैं और प्रकाश से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए इनका उपयोग सूती और ऊनी कपड़ों के लिए नहीं होता।

गंधक रंजक (Sulphur Dyes)- ये रंजक पक्के तथा सस्ते होते हैं। इसलिए इनका बहुत उपयोग होता है। इनकी संरचना बहुत ही जटिल होती है। साधारणत: इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है: (1) नीले और काले रंजक, जिनमें संभवत: थायाज़ीन वलय होता है और (2) पीले से भूरे तक के रंजक, जो थायाज़ीन के संजात हैं। इनकी उत्पत्ति कार्बनिक यौगिकों के गंधक के साथ संगलन से होती है। ये पानी में अविलेय हैं। इनमें इमीडीयल प्योर ब्लू (Immedial pure blue), इंडोकार्बन (Indocarbon CL) तथा इमीडियल येलो जीजी (Immedial yellow GG) उल्लेखनीय हैं। (शिवमोहन वर्मा.)

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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