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दैनिक भास्कर ईपेपर, 06 अक्टूबर 2011
सीएफएल के जरिए भारतीय पर्यावरण में हर साल 8.5 टन पारे का प्रवेश हो रहा है। इसके अलावा अलग से फ्लोरोसेंट लैंप के जरिए ही 8 टन पारा सालाना पर्यावरण में बढ़ रहा है। 2008 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दावा किया था कि देश में बनने वाले एक सीएफएल में 3 से 12 मिलीग्राम पारे का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन किसी सख्ती के अभाव में उत्पादक इस मानक स्तर का लगातार उल्लंघन कर रहे हैं।
भारत में इन दिनों सीएफएल (कांपैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप) का प्रयोग लगातार बढ़ रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है कि इसके इस्तेमाल से ऊर्जा की काफी बचत होती है। केंद्र सरकार की ब्यूरो ऑफ इनर्जी इफीसियंसी (बीईई) इन बल्बों पर भारी अनुदान देकर इसे घर-घर तक पहुंचाने का काम कर रही है। ब्यूरो की बचत लैंप योजना संयुक्त राष्ट्र के कार्बन उत्सर्जन स्कीम का हिस्सा भी है। लेकिन अभी भी देश के आम घरों के महज 20 फीसदी हिस्से तक ही सीएफएल पहुंच पाया है। क्योंकि एक सीएफएल बल्ब की कीमत आम बल्ब की तुलना में 10 से 15 गुना ज्यादा होती है।जहां भी ग्रोथ तेजी से होता है वहां चीजें तेजी से बिगडऩे भी लगती हैं। कारोबार और मुनाफा मुख्य उद्देश्य होने लगता है, बाकी चीजें पीछे छूट जाती हैं। यह सेक्टर भी इससे अछूता नहीं रहा। इन बल्बों को तैयार करने वाली कंपनियों की लापरवाही के चलते ही आम लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है। टॉक्सिक लिंक के ताजे शोध अध्ययन के मुताबिक भारत में बिकने वाले सीएफएल बल्बों में पारा की मात्रा काफी ज्यादा है। यहां प्रमुख ब्रांडों के एक सीएफएल में 21.21 मिलीग्राम पारा मौजूद है। यह अंतर्राष्ट्रीय मानक से चार से छह गुना ज्यादा है। पारे के ज्यादा इस्तेमाल से रोशनी ज्यादा होती है, इसलिए निर्माता इसकी मात्रा बढ़ाते हैं।
पारे में न्यूरोटॉक्सिन पाया जाता है, जो भारी धातु के संपर्क में और हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करता है। अगर कोई सीएफएल बल्ब टूट फूट गया तो घर में इसका हानिकारक प्रभाव फैलना तय है। इससे मानव शरीर के लीवर पर बुरा असर पड़ता है और न्यूरोलॉजी संबंधी समस्याएं शुरू होने लगती हैं। इसका गर्भवती औरतों और बच्चों की सेहत पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है। सीएफएल के पारे के बारे में लोगों को जानकारी नहीं होती, लिहाजा वे प्रयोग में आए और टूटे-फूटे सीएफएल को सावधानीपूर्वक कहीं दूर नहीं रख पाते।
वैसे भी भारत में अभी तक इस कचरे से कैसे निपटा जाए, इसको लेकर कोई प्रबंधन देखने को नहीं मिला है। सीएफएल के जरिए भारतीय पर्यावरण में हर साल 8.5 टन पारे का प्रवेश हो रहा है। इसके अलावा अलग से फ्लोरोसेंट लैंप के जरिए ही 8 टन पारा सालाना पर्यावरण में बढ़ रहा है। 2008 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दावा किया था कि देश में बनने वाले एक सीएफएल में 3 से 12 मिलीग्राम पारे का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन किसी सख्ती के अभाव में उत्पादक इस मानक स्तर का लगातार उल्लंघन कर रहे हैं।
मौजूदा समय में अमेरिका में 25 वाट की एक सीएफएल में 4 मिलीग्राम पारा होता है, जबकि 25 वॉट से कम पावर वाले सीएफएल में 5 मिलीग्राम पारे का इस्तेमाल होता है। यूरोपीय देशों में रिस्ट्रिक्शन ऑफ हजार्ड्स सबस्टांसेज के प्रावधानों के तहत सीएफएल बल्बों में 5 मिलीग्राम पारे के इस्तेमाल की इजाजत है। लेकिन भारत में इस तरह का कोई नियामक या प्रावधान नहीं है।
भारत में सीएफएल के कारोबार में 36 फीसदी सालाना की वृद्धि दर देखने को मिल रही है। ऐसे में आने वाले दिनों में संकट और बढ़ेगा ही। सरकार इसकी गंभीरता को समझते हुए प्रत्येक सीएफएल में पारे की मात्रा को लेकर एक मानक तय करे। तकनीकी तौर पर इसे 2-3 मिलीग्राम प्रति सीएफएल भी रखा जाना संभव है। इस मानक को तय करने के बाद इसे लागू कराने और निगरानी करने के लिए सरकार को प्रभावी रणनीति बनानी होगी। सरकार को मल्टीनेशनल ब्रांड वाले निर्माताओं पर दबाव बढ़ाना चाहिए कि वे भारत में उसी स्तर के सीएफएल पेश करें, जैसा दुनिया के दूसरे बाजारों में करते हैं।