हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से युक्त वायु प्रदूषण के खतरे से दिल्ली लगातार जूझ रही है। पर, साल के कुछ महीनों के दौरान हवा में फैले पेड़-पौधों की अलग-अलग प्रजातियों के पराग कण साँस की बीमारियों से ग्रस्त लोगों के लिये जानलेवा साबित होते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट (वीपीसीआई) में सार्वजनिक डिजिटल पॉलेन काउंट डिस्प्ले की शुरुआत ऐसे मरीजों के लिये राहत भरी खबर हो सकती है। इस सार्वजनिक डिजिटल पॉलेन काउंट डिस्प्ले का उद्घाटन वीपीसीआई के 69वें स्थापना दिवस के मौके पर केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने किया है।
वीपीसीआई के कार्यकारी निदेशक प्रो. राजकुमार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों के बारे में जागरुकता बढ़ी है। पर, पराग कणों के प्रदूषण की चर्चा बहुत कम होती है। वीपीसीआई में पहले से ही पॉलेन काउंट स्टेशन मौजूद था जिससे मिलने वाली जानकारियों का उपयोग इंस्टीट्यूट के डॉक्टरों द्वारा मरीजों के उपचार में किया जा रहा था। इंस्टीट्यूट में लगे नए सार्वजनिक डिजिटल पॉलेन काउंट डिस्प्ले की मदद से हवा में मौजूद पराग कणों की सघनता की जानकारी का उपयोग अब साँस की बीमारियों से पीड़ित लोग भी इसके दुष्प्रभावों से बचाव के लिये कर सकेंगे।”
किसी सर्वमान्य मानक के अभाव में वैज्ञानिकों के लिये हवा में पराग कणों के प्रकार और उनके घनत्व का अन्दाजा लगाना कठिन होता है। हालांकि, वर्ष के कुछ महीने ऐसे होते हैं, जब पराग कणों की मौजूदगी हवा में बढ़ जाती है। वीपीसीआई द्वारा किए गए पूर्व अध्ययनों में पाया गया है कि मार्च-अप्रैल और सितम्बर-नवम्बर के दौरान वातावरण में पराग कणों की मात्रा सबसे अधिक होती है।
प्रो. राजकुमार के अनुसार “वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में मौजूद पराग कणों की निगरानी के लिये दो स्टेशन बनाए गये हैं। इसमें लगे एयर सैम्पलर की स्लाइड में पराग कण चिपक जाते हैं। पराग के इन नमूनों का लैब में संश्लेषण किया जाता है और फिर माइक्रोस्कोप की मदद से पराग कणों का अवलोकन करके हवा में प्रति 24 घंटे और प्रति सप्ताह पराग कणों के घनत्व का पता लगाया जाता है।”
वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की शक्ति उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ प्रतिक्रिया करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है। हाइड्रोफिलिक प्रवृत्ति होने के कारण ये पानी की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिये जब नमी का स्तर हवा में बढ़ता जाता है तो पराग अधिक जहरीला हो जाता है।
वीपीसीआई के एक अध्ययन में 30 प्रतिशत लोग एक या अधिक एलर्जी से ग्रस्त पाये गये हैं। पॉलेन काउंट स्टेशन विशेष रूप से अस्थमा और अन्य श्वसन रोगों से ग्रस्त लोगों के लिये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, क्योंकि इसके आधार पर मरीज एंटी-हिस्टामाइन लेने या घर के अन्दर रहने जैसे प्रतिरक्षात्मक उपाय करके जोखिम को कम कर सकते हैं।
प्रो. कुमार ने बताया कि “पराग कण पेड़-पौधों, फूलों, घास और फसलों समेत विभिन्न वनस्पति प्रजातियों से पैदा हो सकते हैं। तापमान, वर्षा और आर्द्रता के अनुसार पराग कणों का घनत्व अलग-अलग हो सकता है और हवा में तैरते हुए कई किलोमीटर की यात्रा करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाते हैं। कई पश्चिमी देशों डिजिटल पॉलेन काउंट का उपयोग आम है। इसके आधार पर वहाँ अलर्ट भी जारी किए जाते हैं। पर, भारत में अभी यह प्रक्रिया बहुत चलन में नहीं है।”
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