शब्दावली (Glossary)

Submitted by Hindi on Fri, 08/26/2011 - 12:37
शब्दावली (Glossary) 'ग्लासरी' शब्द  शब्दावली जिसका प्रतिशब्द है  मूलत- 'ग्लॉस' शब्द से बना है। 'ग्लॉस' ग्रीक भाषा का (glossa) है जिसका प्रारंभिक अर्थ 'वाणी' था। बाद में यह 'भाषा' या 'बोली' का वाचक हो गया। आगे चलकर इसमें और भी अर्थपरिवर्तन हुए और इसका प्रयोग किसी भी प्रकार के शब्द (पारिभाषिक, सामान्य, क्षेत्रीय, प्राचीन, अप्रचलित आदि) के लिए होने लगा। ऐसे शब्दों का संग्रह ही 'ग्लॉसरी' या 'शब्दावली' है।

शब्दावली की परंपरा 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका' में तथा अन्यत्र भी फिलेटस (Philetas) से मानी जाती है। इनका काल तीसरी सदी ई. पू. है। इन्होंने 'अतक्ता' (Atakta) शीर्षक शब्दावली संगृहीत की थी। किंतु वस्तुत: शब्दावली का इतिहास अब बहुत पीछे चला गया है, और अब तक प्राप्त प्राचीनतम शब्दावली हित्ताइत (हित्ती) भाषा की है, जिसका समय ईसा से प्राय: 1000 वर्ष पूर्व से भी आगे है। भारत में प्राचीनतम शब्दावली 'निघंटु' रूप में मिलती है। संस्कृत भाषा में विकास के कारण जब वैकि संस्कृत लोगों के लिए दुरूह सिद्ध होने लगी तो वैदिक शब्दों के संग्रह किए गए, जिन्हें 'निघंटु' (निघण्टति शोभते, नि घण्टकु) की संज्ञा दी गई। आज जो निघंटु उपलब्ध है वह यास्काचार्य का है, किंतु ऐसे विश्वास के पर्यांत प्रमाण हैं कि यास्क के समय में ऐसे 4-5 और भी निघंटु थे। यास्क का समय 8वीं सदी ई. पू. माना गया है। इसका आशय यह हुआ कि पश्चिमी विद्वान्‌ फिलटस की जिस शब्दावली (glossary) को प्राचीनतम मानते हैं वह भारतीय निघंटुओं से कम से कम 4-5 सौ वर्ष बाद की है। यूरोप में जो शब्दावलियाँ प्रारंभ में संगृहीत की गईं, एकभाषिक थीं किन्तु बाद में बहुभाषिक शब्दावलियों की परंपरा चली। यूरोप की प्राचीनतम ज्ञात द्विभाषिक शब्दावली लैटिनग्रीक की है, जिसके संग्रहकर्ता फिलॉक्सेनस माने जाते रहे हैं यद्यपि यह सिद्ध हो चुका है कि मूलत: यह रचना उनकी नहीं थी। इसका काल मोटे रूप से छठी सदी ई. है। यह उल्लेख है कि एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका आदि में इसे प्राचीनतम बहुभाषिक शब्दावली माना गया है, किंतु वस्तुत: पीछे जिस हित्ताइत शब्दावली का उल्लेख किया जा चुका है, वह द्विभाषिक ही नहीं त्रिभाषिक (हित्ती-सुमेरी-अक्कादी) है। इस प्रकार प्राचीनतम बहुभाषिक शब्दावली का काल लैटिन-ग्रीक से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पीछे है। 1000 ई. के आसपास ग्रीक-लैटिन लैटिन-ग्रीक की कई शब्दावलियाँ बनीं। भारत में बहुभाषिक शब्दावलि की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है। अमरकोश के पूर्व  जैसे कात्य का 'नामवाला', भागुरि का 'त्रिकांड', अमरदत्त का 'अमरमाला' या वाचस्पति का 'शब्दार्णव' आदिएवं बाद के  पुरुषोत्तम देव के 'हारावली' तथा 'त्रिकांडकोश', हलायुध का 'अभिधान रत्नमाला', यादवप्रकाश का 'वैजंती' आदिकोश एकभाषिक ही हैं। प्राकृत अपभ्रंश  जैसे धनपालकृत 'पाइअ लच्छीनाममाला', हेमचंद्र की 'देशीनाममाला' तथा गोपाल, द्रोण आदि के देशी' कोश'एवं हिंदी के पुराने कोश  जैसे नंददास, बनारसीदास, बद्रीदास, हरिचरणदास, चेतनविजय, विनयसागर आदि की 'नाममाला', प्रयागदास की 'शब्दरत्नावली' या हरिचरणदास का 'कर्णाभरण' आदिउसी परंपरा में, अर्थात्‌ एकभाषिक शब्दावलियाँ हैं। इस परंपरा में कदाचित्‌ अंतिम ग्रंथ सुवंश शुक्ल का 'उमरावकोश' (19वीं सदी) है।

भारत में एकाधिक भाषाओं की शब्दावलियों की परंपरा मुसलमानों से आरंभ होती है। इसका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ 'खालिकबारी' है, जिसमें हिंदी, फ्रारसी, तुर्की के शब्द हैं। खालिकबारी परंपरा में इस प्रकार के कई ग्रंथ लिखे गए, जिनमें सबसे प्रसिद्ध रचना अमीर खुसरों की कही जाती है, यद्यपि इस संबंध में पर्याप्त विवाद है। अनेक विद्वानों के अनुसार खालिकबारी किसी 'खुसरोशाह' की रचना है, जो प्रसिद्ध कवि खुसरो के बहुत बाद में हुए थे। शिवाजी ने भी राजनीति की फ़ारसी-संस्कृत शब्दावली बनाई थी, जिसमें लगभग 1500 शब्द थे। उसके बाद खालिकबारी परंपरा में हिंदी-फारसी के कई कोश लिखे गए। किंतु वैज्ञानिक ढंग से यह कार्य अंग्रेजों के संपर्क के बाद प्रारंभ हुआ। यूरोप में इस दिशा में कार्य को वैज्ञानिक स्तर पर लाने का श्रेय जे. स्कैलिसर (1540-1609) को है। 1573 में प्रकाशित हेनरी स्टेफेनस की द्विभाषिक शब्दावली इस क्षेत्र की प्रथम महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है। भारत में अंग्रेज पादरियों ने धर्म एवं राजप्रचार की दृष्टि से यहाँ की कई भाषाओं के अंग्रेजी कोश प्रकाशित किए। हिंदी की दृष्टि से इस शृंखला के प्रथम कोश जे. फरगुसन की 'ए डिक्शनरी ऑव हिंदोस्तान लैंग्विज' है जो 1773 ई. में लंदन से छपी थी। यह उल्लेख्य है कि इस परंपरा में होते हुए भी ये कोश शब्दावली की सीमा के बाहर हैं।

अब बहुभाषिक शब्दावलियों की परंपरा बहुत विकसित हो गई है तथा इधर 3-4 से लेकर 10-12 भाषाओं की विभिन्न विषयों की शब्दावलियाँ प्रकाशित हुई हैं। इस दिशा में इंग्लैंड, अमरीका, जर्मनी, फ्रांस तथा रूस ने पर्याप्त श्रम किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस दिशा में योग दिया है।

इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि शब्दावलियों का ही विकास कोशों के रूप में हुआ है, किंतु दोनों एक नहीं हैं। दोनों में अंतर यह है कि शब्दावली में एक या अधिक भाषाओं के शब्दों का संग्रह रहता है, किंतु कोश में शब्दों का अर्थ या उनकी व्याख्या आदि भी रहती है। कला, वाणिज्य, विज्ञान आदि के विज्ञान आदि के विभिन्न विषयों के द्विभाषिक या बहुभाषिक कोशों के अतिरिक्त, पर्याय एवं विलोमकाश (Thesaras) भी शब्दावलियों की ही परंपरा में आते हैं। मध्ययुगीन हिंदी साहित्य का 'नाममाला' साहित्य इस दृष्टि से उल्लेख्य है। अब पर्याय कोशों की परंपरा बड़ी वैज्ञानिक हो गई है और लेखकों आदि के लिए ये बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं। (भोलानाथ तिवारी)

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