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गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा
सिन्धु नदी को करभार देने वाली पांच नदियों में वितस्ता-झेलम-और शुतुद्री दो ही महत्त्व की मानी जाती हैं। बाकी की नदियां अपने जिम्मे आया हुआ काम नम्रता के साथ पूरा करती हैं। जिस प्रकार किसी श्रेष्ठ पुरुष से मिलने के लिए शिष्ट-मंडल जाता है, उसी प्रकार ये नदियां धीरे-धीरे साथ मिलकर आखिर सिन्धु से जा मिलती हैं। व्यास सतलुज से मिलती है। चिनाब झेलम से मिलती है और रावी इन दोनों से मिलती है। मुलतान के पास तीन नदियों का पानी लाती हुई झेलम हिन्तुस्तान के उस पार से आने वाली सतलुज से मिलती है। और अंत में इन सबों का बना हुआ पंचनद सिन्धु में मिलकर कृतार्थ होता है। सिन्धु से बातें करने वाले शिष्ट-मंडल का अध्यक्षीय स्थान तो सतलुज को ही मिल सकता है, क्योंकि वह भी सिन्धु की तरह परलोक से (हिमालय के उस पार से) ही आती है।
इन पांच नदियों में मध्यम स्थान इरावती का यानी रावी का है। वेदों में इरा का अर्थ है पानी, आह्लादक पेय। यों तो नदी में पानी होता ही है। किन्तु इस नदी के विशेष गुण को देखकर ऋषियों ने उसे इरावती नाम दिया होगा। ब्रह्मदेश की ऐरावती (इरावान्=समुद्र के समान विस्तृत देखकर क्या यह नाम दिया होगा? रावी इतनी विस्तृत नहीं है।
स्वामी रामतीर्थ की जीवनी में रावी का जिक्र अनेक जगह पर आता है। रावी को देखकर स्वामी रामतीर्थ की आखें प्रेम से भर आती थीं। वैराग्य और संन्यास के कच्चे विचार उन्होंने इस नदी के किनारे ही पक्के किये। किन्तु रावी तो सिख-गुरु अर्जुनदेव और सिख-महाराज रणजीत सिंह के लिए ही आंसू बहाती दिखाई देती है।
मैं लाहौर गया था तब इरावती के पुण्य दर्शन कर पाया था। उस समय वह कितनी शांत थी! उसके विशाल पट पर सारा लाहौर उलट पड़ा था। लोगों की धूमधाम और पैसे वालों की शान-शौकत तथा विलास के सामने रावी की शांति विशेष रूप से शोभा पाती थी। यहां रावी का दृश्य ऐसा मालूम होता था, मानो सारे लाहौर को अपनी गोद में लेकर खेलाती हो!
अपना पावन और पोषक जल देने के अलावा रावी अपने बच्चों की विशेष सेवा करती है। हिमालय के घने अरण्यों में चीड़, देवदार, बांझ, सफेता आदि आर्य वृक्षों के घने नगर बसे हुए हैं। कहीं-कहीं तो ऐन दोपहर के समय भी सूरज की धूप जमीन तक बड़ी मुश्किल से पहुंचती है। और वयोवृद्ध वृक्षों का एकाध पितामह जब उन्मूल होकर गिर पड़ता है तब भी उसका जमीन तक पहुंचना असंभव-सा हो जाता है। आसपास के वृक्ष अपनी बलवान भुजाओं में उसको अंतरिक्ष में ही पकड़ लेते हैं। मानों बाणशय्या पर पड़े हुए भीष्माचार्य हों। बरसों तक इस तरह अधर-ही-अधर में रहकर ठंड, धूप तथा बारिश सहते हुए आखिर इस भीष्मचार्य का विशाल शरीर छिन्न-भिन्न और चूर्णित होकर लुप्त हो जाता है।
ऐसे जंगलों से इमारती लकड़ी काटकर लाना आसान बात नहीं है। इसलिए लोगों ने रावी का आश्रय लिया। रावी के किनारे जहां बड़े-बड़े जंगल हैं वहां लकड़ी काटने वाले जाते हैं और लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे काटकर रावी के प्रवाह में छोड़ देते हैं। बस हो-हा करते हुए वे चलने लगते हैं। कहीं-कहीं पाठशाला में जाने वाले आलसी लड़कों की भांति वे धीरे-धीरे और रुकते-रुकते भी चलते हैं। और कहीं-कहीं शाम के समय घर की ओर दौड़ने वाले सांड़ों की तरह वे नाचते-कूदते, ऊपर नीचे होते, एक-दूसरे से टकराते हुए दौड़ते जाते हैं।
जब सजीव जानवरों को भी हांकने के लिए गड़रियों की आवश्यकता होती है, तब ये निर्जीव लट्ठे ऐसी किसी देख-रेख के बिना मुकाम तक कैसे पहुंच सकते हैं? नदी का कहीं मोड़ देखा कि सब रूक गये। एक रुका इसलिए दूसरा रुका। उसके सहारे तीसरा। ‘आगे जाने का रास्ता नही है’ कहकर चौथा रुका। ‘क्या देखकर ये सब यहां खड़े हो गये हैं, देखू तो सही!’ कहकर पांचवा रुका। रात बिताने के लिए यह पड़ाव होगा, ऐसा ईमानदारी के साथ मानकर सांतवां, आठवां और दसवां रुका। बाद में आये हए तो यह मानने लगे कि हमारा मुकाम ही यहीं है, अब यात्रा करना बाकी नहीं रहा। जहां सब रुके ‘सा काष्ठा सा परा गतिः’।
सुबह होते ही इन लट्ठों के गड़रियें आते हैं और सबकों आगे हांक ले जाते हैं। अरे भई, चलो-चलो करते यह काफिला फिर कूच शुरू करता है। नदी का प्रवाह अच्छा हो वहां तक तो यह यात्रा ठीक चलती है। मगर जहां प्रवाह ज्यादा तेज, छिछला या पथरीला होता है वहां बड़ी मुश्किल होती है। एकाध लंबे लट्ठे को दो बड़े पत्थरों का आश्रय मिल गया कि वह वही रुक जायेगा और कहेगा ‘मैं तो यहां से हटने वाला ही नहीं हूं। और दूसरों को भी नहीं जाने दूंगा।’ ऐसी जगह पर उन लट्ठों के जाने के लिए पांच-सात ही स्वेज नहरें होंगी। वे रुंध गई की सारा काफिला रुक गया समझिये। गड़रिये यहां तैर कर आने की हिम्मत भी नहीं करेंगे; क्योंकि उनकों इन लट्ठों से अधिक अपना सिर प्यारा होता है। किनारे पर खड़े रहकर लम्बे-लम्बे बांसों से ढकेल-ढकेलकर कइओं को निकाला जा सकता है। किन्तु जो प्रवाह के बीचों बीच रुक गये हों उनका क्या?
मनुष्य ने इस आफत का भी इलाज खोज निकाला है। हिमालय में भैंस समान बड़े जानवर रहते होंगे। उनकी पूरी खाल उतारकर उसको सी लेते हैं और उसका थैला बनाते हैं। गले की ओर से हवा भरकर उसे भी सी डालते हैं। इससे यह जानवर अप्सरा की तरह, बिना मांस हड्डियों का, हवा से भरा हुआ हो जाता है और पानी पर तैरने लायक बन जाता है। उसके चार पांव भी हड्डियों को निकाल कर जैसे के तैसे रखे जाते हैं फिर इस तैरते हुए फुग्गे या मश्क को पानी में छोड़कर ये गड़रिये उसके पेट पर अपनी छाती रख देते हैं और पांव हिलाते-हिलाते तय किए हुए मुकाम पर पहुंच जाते हैं। फुग्गे के कारण पानी में तैरना आसान हो जाता है। फुग्गे के पांवों को पकड़ रखने पर वह छाती के नीचे से खिसकता नहीं और तेज-प्रवाह में कहीं पत्थर से टकराने पर चोट खाल को ही लगती है, उस पर सवार हुए आदमी को नहीं।
इतनी तैयारी होने पर वे लट्ठे भटकते हुए कैसे रह सकते हैं? एक-एक को तो आगे बढ़ना ही पड़ता है। पहाड़ की घाटियों को पार कर एक बार बाहर निकल आये कि ये लट्ठे मनचाहे ढंग से अलग-अलग न हो जायं इसलिए उनके गड़रिये सबको रस्से से बांधकर उन पर सवार होते हैं और उन्हें आगे ले जाते हैं।
लाहौर में रावी के प्रवाह पर इन लट्ठों के कई काफिले तैरते हुए दीख पड़ते हैं। उनके शत्रु उनको पानी से बाहर निकालकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं; और फिर मनुष्यों के मकान या दूसरे साज-समान तैयार करने के लिए दधीचि ऋषि की तरह उन्हें अपना शरीर अर्पण करना पड़ता है। अपने पर्वतीय सहोदरों को मनुष्य की सेवा में इस प्रकार लाकर छोड़ते समय रावी को कैसा लगता होगा? रावी इतना ही कहती होगीः ‘भाइयों, परोपकाराय इदं शरीरम्’
जून 1937
इन पांच नदियों में मध्यम स्थान इरावती का यानी रावी का है। वेदों में इरा का अर्थ है पानी, आह्लादक पेय। यों तो नदी में पानी होता ही है। किन्तु इस नदी के विशेष गुण को देखकर ऋषियों ने उसे इरावती नाम दिया होगा। ब्रह्मदेश की ऐरावती (इरावान्=समुद्र के समान विस्तृत देखकर क्या यह नाम दिया होगा? रावी इतनी विस्तृत नहीं है।
स्वामी रामतीर्थ की जीवनी में रावी का जिक्र अनेक जगह पर आता है। रावी को देखकर स्वामी रामतीर्थ की आखें प्रेम से भर आती थीं। वैराग्य और संन्यास के कच्चे विचार उन्होंने इस नदी के किनारे ही पक्के किये। किन्तु रावी तो सिख-गुरु अर्जुनदेव और सिख-महाराज रणजीत सिंह के लिए ही आंसू बहाती दिखाई देती है।
मैं लाहौर गया था तब इरावती के पुण्य दर्शन कर पाया था। उस समय वह कितनी शांत थी! उसके विशाल पट पर सारा लाहौर उलट पड़ा था। लोगों की धूमधाम और पैसे वालों की शान-शौकत तथा विलास के सामने रावी की शांति विशेष रूप से शोभा पाती थी। यहां रावी का दृश्य ऐसा मालूम होता था, मानो सारे लाहौर को अपनी गोद में लेकर खेलाती हो!
अपना पावन और पोषक जल देने के अलावा रावी अपने बच्चों की विशेष सेवा करती है। हिमालय के घने अरण्यों में चीड़, देवदार, बांझ, सफेता आदि आर्य वृक्षों के घने नगर बसे हुए हैं। कहीं-कहीं तो ऐन दोपहर के समय भी सूरज की धूप जमीन तक बड़ी मुश्किल से पहुंचती है। और वयोवृद्ध वृक्षों का एकाध पितामह जब उन्मूल होकर गिर पड़ता है तब भी उसका जमीन तक पहुंचना असंभव-सा हो जाता है। आसपास के वृक्ष अपनी बलवान भुजाओं में उसको अंतरिक्ष में ही पकड़ लेते हैं। मानों बाणशय्या पर पड़े हुए भीष्माचार्य हों। बरसों तक इस तरह अधर-ही-अधर में रहकर ठंड, धूप तथा बारिश सहते हुए आखिर इस भीष्मचार्य का विशाल शरीर छिन्न-भिन्न और चूर्णित होकर लुप्त हो जाता है।
ऐसे जंगलों से इमारती लकड़ी काटकर लाना आसान बात नहीं है। इसलिए लोगों ने रावी का आश्रय लिया। रावी के किनारे जहां बड़े-बड़े जंगल हैं वहां लकड़ी काटने वाले जाते हैं और लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे काटकर रावी के प्रवाह में छोड़ देते हैं। बस हो-हा करते हुए वे चलने लगते हैं। कहीं-कहीं पाठशाला में जाने वाले आलसी लड़कों की भांति वे धीरे-धीरे और रुकते-रुकते भी चलते हैं। और कहीं-कहीं शाम के समय घर की ओर दौड़ने वाले सांड़ों की तरह वे नाचते-कूदते, ऊपर नीचे होते, एक-दूसरे से टकराते हुए दौड़ते जाते हैं।
जब सजीव जानवरों को भी हांकने के लिए गड़रियों की आवश्यकता होती है, तब ये निर्जीव लट्ठे ऐसी किसी देख-रेख के बिना मुकाम तक कैसे पहुंच सकते हैं? नदी का कहीं मोड़ देखा कि सब रूक गये। एक रुका इसलिए दूसरा रुका। उसके सहारे तीसरा। ‘आगे जाने का रास्ता नही है’ कहकर चौथा रुका। ‘क्या देखकर ये सब यहां खड़े हो गये हैं, देखू तो सही!’ कहकर पांचवा रुका। रात बिताने के लिए यह पड़ाव होगा, ऐसा ईमानदारी के साथ मानकर सांतवां, आठवां और दसवां रुका। बाद में आये हए तो यह मानने लगे कि हमारा मुकाम ही यहीं है, अब यात्रा करना बाकी नहीं रहा। जहां सब रुके ‘सा काष्ठा सा परा गतिः’।
सुबह होते ही इन लट्ठों के गड़रियें आते हैं और सबकों आगे हांक ले जाते हैं। अरे भई, चलो-चलो करते यह काफिला फिर कूच शुरू करता है। नदी का प्रवाह अच्छा हो वहां तक तो यह यात्रा ठीक चलती है। मगर जहां प्रवाह ज्यादा तेज, छिछला या पथरीला होता है वहां बड़ी मुश्किल होती है। एकाध लंबे लट्ठे को दो बड़े पत्थरों का आश्रय मिल गया कि वह वही रुक जायेगा और कहेगा ‘मैं तो यहां से हटने वाला ही नहीं हूं। और दूसरों को भी नहीं जाने दूंगा।’ ऐसी जगह पर उन लट्ठों के जाने के लिए पांच-सात ही स्वेज नहरें होंगी। वे रुंध गई की सारा काफिला रुक गया समझिये। गड़रिये यहां तैर कर आने की हिम्मत भी नहीं करेंगे; क्योंकि उनकों इन लट्ठों से अधिक अपना सिर प्यारा होता है। किनारे पर खड़े रहकर लम्बे-लम्बे बांसों से ढकेल-ढकेलकर कइओं को निकाला जा सकता है। किन्तु जो प्रवाह के बीचों बीच रुक गये हों उनका क्या?
मनुष्य ने इस आफत का भी इलाज खोज निकाला है। हिमालय में भैंस समान बड़े जानवर रहते होंगे। उनकी पूरी खाल उतारकर उसको सी लेते हैं और उसका थैला बनाते हैं। गले की ओर से हवा भरकर उसे भी सी डालते हैं। इससे यह जानवर अप्सरा की तरह, बिना मांस हड्डियों का, हवा से भरा हुआ हो जाता है और पानी पर तैरने लायक बन जाता है। उसके चार पांव भी हड्डियों को निकाल कर जैसे के तैसे रखे जाते हैं फिर इस तैरते हुए फुग्गे या मश्क को पानी में छोड़कर ये गड़रिये उसके पेट पर अपनी छाती रख देते हैं और पांव हिलाते-हिलाते तय किए हुए मुकाम पर पहुंच जाते हैं। फुग्गे के कारण पानी में तैरना आसान हो जाता है। फुग्गे के पांवों को पकड़ रखने पर वह छाती के नीचे से खिसकता नहीं और तेज-प्रवाह में कहीं पत्थर से टकराने पर चोट खाल को ही लगती है, उस पर सवार हुए आदमी को नहीं।
इतनी तैयारी होने पर वे लट्ठे भटकते हुए कैसे रह सकते हैं? एक-एक को तो आगे बढ़ना ही पड़ता है। पहाड़ की घाटियों को पार कर एक बार बाहर निकल आये कि ये लट्ठे मनचाहे ढंग से अलग-अलग न हो जायं इसलिए उनके गड़रिये सबको रस्से से बांधकर उन पर सवार होते हैं और उन्हें आगे ले जाते हैं।
लाहौर में रावी के प्रवाह पर इन लट्ठों के कई काफिले तैरते हुए दीख पड़ते हैं। उनके शत्रु उनको पानी से बाहर निकालकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं; और फिर मनुष्यों के मकान या दूसरे साज-समान तैयार करने के लिए दधीचि ऋषि की तरह उन्हें अपना शरीर अर्पण करना पड़ता है। अपने पर्वतीय सहोदरों को मनुष्य की सेवा में इस प्रकार लाकर छोड़ते समय रावी को कैसा लगता होगा? रावी इतना ही कहती होगीः ‘भाइयों, परोपकाराय इदं शरीरम्’
जून 1937