सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र में वायुमंडलीय एरोसोल की प्रवृत्ति और उनके सम्भावित प्रभाव
जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की सबसे अहम चुनौती के रूप में उभर कर सामने आया है। पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान और कई महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक प्रक्रियाओं में बदलाव को वैश्विक स्तर पर काफी गम्भीरता से लिया जा रहा है।
विभिन्न मानवीय गतिविधियों से वायु प्रदूषण के स्तर में काफी वृद्धि हुई है और यह जलवायु परिवर्तन का एक प्रबल स्रोत है। वायुमंडलीय प्रदूषण में मुख्यतया ग्रीन हाउस गैसें तथा कुछ और हानिकारक गैसों के प्रभावों पर काफी शोध और अध्ययन हो रहे हैं। हाल के कुछ वर्षों में गैसों के अतिरिक्त वायुमंडल में विद्यमान एरोसोल भी वैज्ञानिक जगत का ध्यान आकर्षित किये हैं।
पृथ्वी के ऊर्जा बजट और कई अन्य जलवायु प्रक्रियाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान देने में सक्षम एरोसोल अपने अनेक नकारात्मक विशेषताओं की वजह से भी शोध का मुख्य केन्द्र बनते जा रहे हैं। सिंधु गंगा मैदानी क्षेत्र में ऐरोसोल की भारी उपलब्धता और विविधता इस क्षेत्र में इनकी उपस्थिति के महत्त्व को बढ़ा देती हैं।
कृषि, बायोमास दहन, वाहनों से होने वाले उत्सर्जन और औद्योगीकरण से इस क्षेत्र में एरोसोल की बढ़ती मात्रा और उनके स्पष्ट प्रभाव सामने आ रहे हैं। परन्तु जलवायु परिवर्तन में इनके योगदान पर अनिश्चितता बनी हुई है। वैश्विक जल चक्र, कृषि उत्पादन तथा मानव स्वास्थ्य पर एरोसोल का प्रभाव एक चिंता का विषय है।
एरोसोल उत्सर्जन की रोकथाम के लिये नवीन तथा उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करना समय की आवश्यकता है। संपोष्य विकास की संकल्पना को पूरा करने के लिये ऐरोसोल उत्सर्जन की रोकथाम वैज्ञानिकों और नीति निर्देशकों के लिये एक चुनौती भरा विषय है जिसके सक्रिय कार्यान्वयन की आवश्यकता है।
एरोसोल क्या है?
विभिन्न वायु प्रदूषकों में एरोसोल एक प्रबल अंशभूत है। ये वायुमंडल में विद्यमान एक भौतिक प्रजाति है जिनका निर्माण किसी ठोस अथवा तरल पदार्थ के कणों के किसी गैस में निलंबन से होता है और यह अपनी अलग विशेषताओं से वायुमंडल की विभिन्न प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान एफ.जी. डॉनन ने पहली बार हवा में सूक्ष्म कणों के बादलों के लिये एरोसोल शब्द का प्रयोग किया था। विभिन्न स्रोतों के आधार पर इन्हें दो महत्त्वपूर्ण श्रेणियों में रखा जाता है। प्राथमिक अथवा ‘प्राइमरी एरोसोल’ की श्रेणी ऐसे एरोसोल की होती है जो प्रत्यक्ष रूप से वायुमंडल में उपेक्षित होते हैं और अपना प्रभाव छोड़ते हैं।
हालाँकि कुछ एरोसोल का निर्माण विभिन्न वायुमंडलीय गैसों के रूपांतरण से होता है और उन्हें द्वितीयक अथवा ‘सेकेंडरी एरोसोल’ की श्रेणी में रखा जाता है। एरोसोल सौर्य विकिरणों के प्रकीर्णन और अवशोषण से पृथ्वी की ऊर्जा बजट को सीधी तरह से प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त ये अप्रत्यक्ष रूप से बादलों के गुणों और जीवनकाल को भी संशोधित करते हैं। स्थानिक और सामयिक स्तर पर अपनी भौतिक और रासायनिक गुणों में विविधताओं की वजह से एरोसोल कणों के विकीर्णन प्रभाव में काफी अनिश्चितता होती है, जिसपर शोध की आवश्यकता है।
एरोसोल कणों के परिमापन की अनेक विधियाँ और इकाईयाँ हैं लेकिन पर्यावरणीय विज्ञान में उन्हें मुख्यतया ‘मांस कंसंट्रेशन यानी वायुमंडल के प्रति इकाई आयतन में मौजूद इनके भार के आधार पर प्रदर्शित किया जाता है। मांस कंसंट्रेशन के अलावा इनके विभिन्न भौतिक, रासायनिक, जैविक अथवा प्रकाशकीय गुणों का अलग-अलग तरह से अध्ययन किया जाता है।
जलवायु परिवर्तन में एरोसोल की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए हाल के कुछ वर्षों में यह पर्यावरण विज्ञान में शोध का अहम केंद्र बनकर सामने आया है। भारतीय उपमहाद्वीप में एरोसोल के कई आयामों पर विस्तृत शोध कार्य हुए हैं जिनमें भारत के मैदानी और तटीय क्षेत्रों में इनकी बहुतायत उपस्थिति पाई गयी है।
वायुमंडलीय एरोसोल : सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र के परिपेक्ष्य में
सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्र पूरे विश्व में अपनी उर्वरता के लिये विख्यात हैं और भारत एक बड़े पैमाने पर रबी और खरीफ की फसलों के उत्पादन इस क्षेत्र पर निर्भर है। कृषि के अतिरिक्त यह क्षेत्र कई लघु, मध्यम और विस्तृत औद्योगिक ईकाइयों को समेटे हुए है जो इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण में अहम भूमिका निभाते हैं। हरित क्रांति के ‘सघन कृषि अभियान’ की संकल्पना का सिंधु गंगा क्षेत्र में वायु प्रदूषण पर गहरा प्रभाव पड़ा है। हालाँकि वैज्ञानिक कृषि पद्धति और कृषि मशीनीकरण ने बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परन्तु इसके नकारात्मक पहुलओं पर भी विचार करना होगा।
गंगा के मैदानी क्षेत्र, भारत की सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। उत्तर भारत में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और मध्य गांगीय क्षेत्र में स्थित उत्तर प्रदेश खासकर पूर्वांचल और बिहार, भारत की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। पूर्वी भारत में स्थित पश्चिम बंगाल भी सघन आबादी वाला प्रदेश है और इन सभी क्षेत्रों में जलावन के लिये बायोमास का प्रयोग, वाहनों के उत्सर्जन, सड़क किनारे से उड़ने वाले धूल कण, और कई बिंदु स्रोत वायुमंडलीय एरोसोल की उपस्थिति में योगदान देते हैं।
पूर्व में हुए कई शोधों से यह पता चलता है कि सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र के ऊपरी हिस्से में पाए जाने वाले एरोसोल की भौतिक और रासायनिक विशेषताओं में विविधताएँ हैं जो इन क्षेत्रों के उत्सर्जन स्रोतों की अवधारणा स्पष्ट करती हैं।
गौतम एवं सहयोगियों (2011) ने सिंधु-गंगा मैदान के पश्चिमी हिस्से में एरोसोल कणों में भारी मात्रा में ‘मिनरल डस्ट’ के अंतप्रर्वाह का अवलोकन किया और पाया कि उस क्षेत्र में पाए जाने वाले एरोसोल कणों का आकार पूर्वी हिस्से में पाए जाने वाले कणों से बड़ा है। पश्चिमी वायु और थार रेगिस्तान की वजह से उन हिस्सों में ‘डस्ट लोडिंग’ की प्रवृत्ति ज्यादा पायी गयी जबकि मध्य सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्रों में पूर्व मानसून के चक्रवातीय बहाव से संबंद्ध प्रचलित वायु की कमी की वजह से अपेक्षाकृत कम ‘डस्ट लोडिंग’ देखी गयी हालाँकि पूर्वी क्षेत्रों में ‘कार्बनिक एरोसोल’ की बहुतायतता पायी गयी है।
गिल्स एवं सहयोगीगण (2011) ने भी कानपुर शहरी क्षेत्र में नगरीय उत्सर्जन, प्रदूषण और धूल कणों की वजह से ‘एरोसोल लोडिंग’ में 10-20 प्रतिशत तक के योगदान को दर्शाया है जो मध्य सिंधु गंगा क्षेत्र में औद्योगिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण नगर है। हालाँकि सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्र के अनेक शहरों में एरोसोल कणों और उनकी विशेषताओं पर कई अध्ययन हुए हैं लेकिन अपने स्रोत विशिष्ट गुणों के चलते उनके आकार, रासायनिक संरचना, उनके विकीर्णन प्रभाव और जलवायु को प्रभावित करने की क्षमता पर काफी अनिश्चितताएं बनी हुई हैं।
मुख्यतया दहन द्वारा उत्पन्न जैसे कि वाहनों, ऊर्जा संयंत्रों और बायोमास के जलने से निकलने वाले एरोसोल आकार में छोटे होते हैं वहीं हवा के साथ उड़कर आने वाले धूल कण, परागकण पौधों के टुकड़े और समुद्री नमक कण अपेक्षाकृत बड़े आकार के होते हैं जो सौर विकिरणों और बादलों के गुणों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करते हैं।
सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बायोमास का घरेलू ईंधन के रूप में बड़े पैमाने पर प्रयोग होता है जो इस क्षेत्र में द्वितीयक एरोसोल के उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। साथ ही पंजाब, हरियाणा, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसलों की कटाई के बाद खेतों में आग लगाने की प्रक्रिया से शीत ऋतु में ऊपरी सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्र में एरोसोल धुंध एक आम घटना है।
अपने अनूठे स्थलाकृतिक लक्षणों की वजह से सिंधु गंगा के मैदानी क्षेत्र वायु प्रदूषण खासकर एरोसोल के लिये संवेदनशील है। तिवारी एवं सिंह (2013) ने पाया कि पूर्वी भारत में तीव्र शहरीकरण और पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नगर वाराणसी में एरोसोल के प्रकाशीय गुणों में मौसमी विविधता पायी गयी और मानसून पूर्व एवं शीत ऋतु में ‘एरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ में बढ़ोत्तरी’, जबकि मानसून में इसमें गिरावट दर्ज की गयी अन्य पर्यवेक्षणों में भारत के अन्य हिस्सों जैसे बंगलुरु और तटीय क्षेत्र भुवनेश्वर में भी समान प्रवृतियाँ प्राप्त की गयीं।
वायुमंडलीय एरोसोल के प्रभाव
करीब 10-15 वर्ष पूर्व तक यह माना जाता रहा है कि वायु प्रदूषण सिर्फ एक नगरीय अथवा स्थानीय समस्या है, किन्तु नये सर्वेक्षणों से ज्ञात होता है कि वायु प्रदूषण का महाद्वीपों और महासागरों के बीच परिवहन होता है जो वायुमंडलीय ‘ब्राउन क्लाउड्स’ में परिवर्तित होते हैं और एरोसोल इनके महत्त्वपूर्ण घटक होते हैं जहाँ एक ओर ये कण विकिरणों के प्रकीर्णन में अपनी भूमिका अदा करते हैं और पृथ्वी के सतही तापमान को कम करते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ कण जैसे कि ‘ब्लैक कार्बन एरोसोल’ और विकिरणों को अवशोषित करके वायुमंडलीय तापमान को बढ़ाने में ग्रीन हाउस गैसों के असर को परिवर्धित करते हैं।
एरोसोल कणों के विकीर्णन एवं सूक्ष्म भौतिकीय प्रभावों का वैश्विक जल चक्र पर भी काफी गहरा असर पड़ता है और ये हमारे एकमात्र जलयुक्त ग्रह पर सूखे का कारण बन सकते हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय स्थित ‘स्क्रिप्स इंस्टीट्यूसन ऑफ ओसिनोग्राफी’ के प्रसिद्ध वैज्ञानिक वी.रामनाथन एरोसोल कणों के प्रभावों को सीधी तरह पृथ्वी पर मीठे पानी की उपलब्धता से जोड़ कर देखते हैं जो 21वीं सदी के प्रमुख पर्यावरणीय चिंताओं में से एक है।
अनेक अन्य वैज्ञानिकों ने भी पूर्व में किए गए अपने अध्ययनों से एक निश्चित स्तर पर इसकी पुष्टि की है। पिछली शताब्दी में साहेल में आये सूखे के पीछे भी एरोसोल कणों का योगदान बताया जाता है। इसके अलावा नये सागर वायुमंडलीय युग्मित मॉडल द्वारा किये गये अध्ययन यह संकेत करते हैं कि पिछले पचास वर्षों में कई भूमि क्षेत्रों में सूखे के लिये एरोसोल उत्तरदायी होते हैं।
सत्तर के दशक में इस बात पर वैज्ञानिक सहमति थी कि क्षोभमंडल में एरोसोल कणों की बढ़त से पृथ्वी हिमयुग में जा सकती है। 1940 से 1970 के बीच की अवधि में उत्तरी गोलार्द्ध में गिरते तापमान की घटना ने इस अनुमान को बल दिया। तदुपरांत अवशोषण में सक्षम कुछ एरोसोल कणों के अध्ययन से यह खुलासा हुआ कि इन कणों का तापमान वृद्धि में भी योगदान है लेकिन अगर पूर्ण प्रभाव की बात की जाये तो एरोसोल कणों का शीतलन प्रभाव भी प्रबल है हालाँकि इस पर वैज्ञानिक निश्चितता की कमी है।
वायु प्रदूषण खासकर एरोसोल कणों का कृषि उत्पादन पर भी सम्भावित असर देखने को मिला है। कई फसल-प्रतिक्रिया मॉडल प्रकाश विकिरण तथा धान और गेहूँ की पैदावार में समानुपातिक संबंध दर्शाते हैं। चीन में किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि क्षेत्रीय धुंध पफसलों की पैदावार में 5-30 प्रतिशत तक की गिरावट के लिये जिम्मेदार है। अतः एरोसोल की वजह से होने वाली क्षेत्रीय धुंध को कम करके कृषि उपज को बढ़ाया जा सकता है। बढ़ती जनसंख्या की खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करना इस सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
प्राकृतिक संसाधनों और प्रणाली के अलावा एरोसोल स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालते हैं। एरोसोल के कणों में मौजूद विभिन्न भारी तत्व जैसे आर्सेनिक, निकेल, लेड इत्यादि शरीर के विभिन्न हिस्सों पर काफी खतरनाक असर डालते हैं।
दिवाली के समय पटाखों के धुएँ के साथ निकलने वाले कैडमियम से कैंसर होने का खतरा होता है। तत्वों के अलावा एरोसोल में कई कार्बनिक अशंभूत भी होते हैं जिनमें कैंसरजनित गुण होते हैं जो मौजूदा समय में कैंसर जैसी बीमारियों की बढ़ती प्रवृत्ति के लिये जिम्मेदार हैं। धुएँ में उपस्थित ‘ऐरोमैटिक हाईड्रोकार्बन’ एक कैंसरजन पदार्थ है और यह छोटे बच्चों पर ज्यादा प्रभावकारी असर डालते हैं।
सौर्य विकिरणों में कमी की वजह से हानिकारक जीवाणुओं और विषाणुओं की संख्या बढ़ सकती है जिनकी वृद्धि पराबैंगनी किरणों की वजह से नियंत्रण में रहती है। इसके अलावा वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली बीमारियों जैसे दमा, स्वशनीशोथ और कई छोटी परेशानियाँ भी अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक और सामाजिक संतुलन को बिगाड़ सकती हैं। किसी भी देश अथवा राज्य की अर्थव्यवस्था में वहाँ के लोगों के मानसिक संतुलन और स्वास्थ्य का अहम योगदान होता है, और किसी भी तरह का प्रदूषण सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक संतुलन को परिवर्तित कर सकता है।
वायुमंडलीय एरोसोल: संपोष्य विकास के लिये चुनौती और निदान
बढ़ती जनसंख्या, कम होती जमीन, भूमिक्षरण, जंगलों की बेतहाशा कटाई, अनियंत्रित शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और उनसे होने वाले प्रदूषण इस सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं। वर्तमान परिवेश में विकास के मायने में काफी बदलाव हुआ है, और सतत पोषणीय विकास की अवधारणा पर बल दिया जा रहा है। एरोसोल के उत्सर्जन पर भी संपोष्य विकास की संकल्पना लागू की जा सकती है।
औद्योगिक इकाइयों में प्रक्रिया संशोधन, सकारात्म्क नीति निर्माण, क्षमता निर्माण, प्रभावी भूमि प्रबंधन और सामाजिक स्तर पर ऐसे कई बदलाव अपनाए जा सकते हैं जो वायुमंडलीय एरोसोल को अथवा उनके उत्सर्जन को कम करने में सहायक हो सकते हैं। समय के साथ वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्देशकों में भी इस बात पर सहमति बन रही है जिसे आने वाले समय में एक सकारात्मक परिणाम की कल्पना की जा सकती है।
वर्तमान समय में नगरीय क्षेत्रों में हरित पट्टी विकास की संकल्पना काफी तेजी से अपनाई जा रही है जो पूरी तरह से धारणीय है। एरोसोल के नियंत्रण के साथ इसके और भी कई फायदे हैं। कुछ पौधों की प्रजातियाँ हैं जो एरोसोल के रोकथाम में कारगर सिद्ध हुई हैं। इनमें पलाश, अमलतास, कदम्ब और मिन्जरी इत्यादि प्रजातियाँ हैं। हालाँकि कई नगरीय इलाकों में हरित पट्टी विकास को पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं किया जा सकता है क्योंकि शहरी इलाकों में कई बार भूमि की उपलब्धता इसमें बाधक बनती है।
एक अध्ययन के अनुसार विश्व के कई महानगरों में भूमि का एक बड़ा हिस्सा अभेद्य है जिस पर किसी भी प्रकार से वृक्षारोपण नहीं किया जा सकता है। न्यूयार्क और मिड मैन्हटनवेस्ट में क्रमशः 64 और 94 प्रतिशत भूमि अभेद्य है जहाँ हरित पट्टी विकास लगभग असंभव है ऐसी स्थिति में इमारतों की छतों पर छोटे पौधों को लगाने से अभिप्रायपूर्ण सफलता मिली है। एक अध्ययन में पाया गया कि टोरंटो में छतों के 109 हेक्टेयर क्षेत्र में लगाये गए पौधों की वजह से 7.87 मिट्रिक टन तक वायु प्रदूषकों को कम किया जा सकता है।
ठोस कचरे के खुले दहन से भी एरोसोल में वृद्धि होती है और साथ-साथ कई हानिकारक गैसों का उत्सर्जन भी होता है। इस समस्या से निबटने के लिये केरल सरकार ने भारतीय रेल के साथ मिलकर एक सकारात्मक पहल की है। सुचित्य मिशन के अंतर्गत तिरूअनंतपुरम शहर से निकलने वाले ठोस कचरे को रेलवे प्लेटफॉर्म के निर्माण में इस्तेमाल किया जा रहा है और इसमें अपेक्षित सफलताएँ भी मिली हैं। मुर्रूकुम्पुजा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म संख्या 2 के निर्माण में करीब 600 टन ठोस कचरे का इस्तेमाल किया गया। विश्व के कई भागों में इस तरह के सफल उदाहरण हैं जो एरोसोल के उत्सर्जन को रोकने के लिये धारणीय प्रयासों की पुष्टि करते हैं।
कुशल भूमि प्रबंधन से भी इन प्रयासों को बल प्रदान किया जा सकता है। मृदा अपरदन प्रक्रिया वायुमंडल में एरोसोल कणों की उपलब्धता में एक बड़े पैमाने पर सहयोग देती है। वैज्ञानिक कृषि तकनीकों को अपनाकर इसे काफी हद तक कम किया जा सकता है। ‘एग्री-सिल्वी कल्चर’। सीमा वृक्षारोपण एवं अवरोधी वृक्षारोपण प्रक्रिया को अपना कर एरोसोल कणों के साथ-साथ भूमि के क्षय को भी रोका जा सकता है। साथ ही जल प्रबंधन की उचित वैज्ञानिक एवं प्रशासनिक नीतियों का पालन करके भी इस दिशा में अभिप्रायपूर्ण नतीजे पाए जा सकते हैं।
तकनीकी सुधार और नवीनता को कार्यान्वित करके भी वायु प्रदूषण में कमी लायी जा सकती है। पुराने और परंपरागत तकनीकों के नये और उन्नत तकनीक से प्रतिस्थापन के द्वारा कार्य की दक्षता भी बढाई जा सकती है और साथ ही साथ वायु प्रदूषकों की मात्रा भी कम की जा सकती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सीएनजी के कार्यान्वयन से मिलता है जहाँ सीएनजी अनिवार्य होने के बाद ‘ब्लैक कार्बन’ एरोसोल की मात्रा में करीब 30 प्रतिशत तक की कमी आयी जो धारणीय विकास की दिशा में एक अच्छी पहल है। भारत के अलावा भी कई देशों में ऐसी पहल से ठोस नतीजे सामने आये हैं।
वर्तमान एरोसोल विज्ञान की कमियाँ और भविष्य में शोध की आवश्यकता
हाल के वर्षों में वायुमंडलीय विज्ञान में अपेक्षाकृत विकास से प्रदूषण एवं उसके प्रभावों पर काफी वैज्ञानिक जानकारियाँ उपलब्ध हुई हैं लेकिन पृथ्वी के बढ़ते तापमान पर चिंतित वैज्ञानिक और राजनैतिक समुदाय में एक लंबे समय तक ‘ग्रीन हाउस गैसें’ ही मुख्य रूप से चर्चा का विषय रही है। इसकी वजह से ‘ग्रीन हाउस गैसों’ पर शोध और अध्ययन काफी बड़े पैमाने पर हुए और इनके बारे में हमारे पास एक ठोस वैज्ञानिक निश्चितता है जिसे हम परिमापित करके किसी यथार्थपूर्ण नतीजे पर पहुँच सकते हैं।
आईपीसीसी ने भी इस बात की पुष्टि की है कि एरोसोल के विकीर्णन प्रभावों और उनके जलवायु पर असर के निकट भविष्य में और शोध की आवश्यकता है। हमें एरोसोल उत्सर्जन दर, उसकी मात्रा और उसके जीवनकाल के ऊपर एक विश्वसनीय वैश्विक वस्तुसूचि की आवश्यकता है। एशिया और खासकर सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र में ‘ब्लैक कार्बन’ के उत्सर्जन का यथार्थपूर्ण ज्ञान होना अति महत्त्वपूर्ण है। ‘एरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ’ के भूमि के ऊपर विश्वसनीय परिमापन की जरूरत है क्येांकि उपग्रहों द्वारा उपलब्ध अवलोकन केवल महासागरों के ऊपर ही विश्वसनीय है।
‘ब्लैक कार्बन’ द्वारा बादलों के सूक्ष्म भौतिक प्रक्रिया को नियंत्रित करने की क्षमता का अध्ययन भी जरूरी है। यह जानना भी हमारे लिये अतिआवश्यक है कि वैश्विक जल चक्र किस तरह एरोसोल और उनके विकीर्णन प्रभावों के प्रति क्रिया करता है। वायुमंडलीय विज्ञान में उपग्रह अवलोकन, क्षेत्र प्रयोग और प्रयोगशाला अध्ययन का विभिन्न मॉडलों के साथ समाकलन काफी जरूरी है ताकि एरोसोल के विभिन्न पहलुओं पर हमारे ज्ञान में वृद्धि हो सके।