नदियों के मार्ग बदलना आधुनिक तकनीकी कौशल में कोई असम्भव कार्य नहीं है। केवल उत्तम राष्ट्रीय चरित्र के साथ दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ ब्रह्मपुत्र नदी में ही इतना पानी व्यर्थ बहता है कि उसके 10 प्रतिशत पानी को भारत भूमि के मध्य से गुजरने के लिए बाध्य कर दिया जाए तो देश के समस्त जल संकट दूर हो जाएंगे।
भारतवर्ष जैसे देश में नदियों के भागों को मनोवांच्छित दिशा में प्रवाहित करवाने की परम्परा कोई नयी अवधारणा भी तो नहीं हैं। ऐतिहासिक सत्य के अनुसार महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा गंगासिंह जी का उदाहरण भी हमारे समक्ष है जिन्होंने सिंधु नदी प्रवाह से एक नयी नदी (राजस्थान नहर) का निर्माण कर थार के प्यासे मरुस्थल तक हिमालय का पानी ले आये जो निश्चय ही अनुकरणीय है।
महाराजा गंगा सिंह के द्वारा थार मरुस्थल हेतु खोजे गये पानी (इन्दिरा गाँधी नहर) का इतिहास प्रस्तुत लेख में दिया गया है जो आधुनिक जल-चेताओं के लिए सुन्दर मार्गदर्शक के रूप में उत्साहप्रद है।
यद्यपि थार मरुस्थल में पानी लाने की खोज अर्थात प्यासे थार मरुस्थल में हिमालियन नदियों से नहर के द्वारा पानी लाने का सर्वप्रथम विचार बीकानेर के स्वर्गीय महाराजा डूंगरसिंह जी का था। (पानगड़िया 1985) उन्हें यह निश्चय था कि अगर सिंधु नदी प्रवाह तन्त्र से पानी मिल जाए तो इस थार मरुस्थल की कायापलट होकर यह एक सरसब्ज प्रदेश में बदल जाये।
सन् 1884 में पड़ौसी रियासत पंजाब में अबोहर नहर का निर्माणकर बीकानेर रियासत के बहुत पास तक पानी पहुंचा दिया जिससे महाराजा का उत्साह और बढ़ गया तथा वे इस दिशा की ओर आगे बढ़ा दिया जाये तो निश्चित रूप से इस मरुस्थल को सहज ही पानी मिल जाये इस प्रस्ताव के लिए महाराज डूंगरसिंह जी ने पंजाब रियासत से अनुरोध किया किन्तु पंजाब रियासत ने उपर्युक्त प्रस्ताव को यह कह कर ठुकरा दिया कि पंजाब के “नदी प्रवाह” पर बीकानेर रियासत का कोई अधिकार नहीं है। किसी प्रकार के अंतिम निर्णय पर पहुँचने से पूर्व ही सन् 1887 में महाराज डूंगरसिंरह जी का देहान्त हो गया और तब सात वर्षीय उनके छोटे भाई गंगासिंह जी उत्तराधिकारी बने।
जैसे ही परिपक्व अवस्था में गंगासिंह जी ने प्रवेश किया और राज्य को संभाला तो उनका ध्यान इस प्यासे मरुस्थल में सिंधु नदी तंत्र से पानी लाने पर निरन्तर बना रहा और 1899 में भीषण अकाल ने उन्हें बुरी तरह झकझोर डाला। उनकी रियासत का सम्पूर्ण जल जीवन या तो मृतप्राय हो गया या अस्त-व्यस्त हो गया। अकाल की इस भयंकर मार से क्रुद्ध होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार को लिखा कि आपके राज्य से हमें क्या लाभ, जहां प्यास के कारण जनता मर जाये। इस “छप्पने अकाल” की विभीषिका ने अवश्य ही ब्रिटिश सरकार को चौंका कर इस क्षेत्र को सिंधु नदी तंत्र से पानी प्रदान करवाने के लिए सोचने हेतु बाध्य कर दिया। पंजाब के समकालीन ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारी सर डेनजिल इब्बरटशन (Ibertusun) ने पंजाब के इस मन्तव्य को कि, “बीकानेर रियासत का सिंध नदी प्रवाह तंत्र पर कोई अधिकार नहीं है।” गलत बताया और यह पेशकश की कि पंजाब रियासत अपने आप में सम्प्रभु नहीं है। इसलिए सिंधु नदी प्रवाह के पानी का उपभोग करने का अंतिम अधिकार ब्रिटिश सरकार के पास है न कि पंजाब रियासत के पास। भारत सरकार (ब्रिटिश) इस प्रवाह तंत्र के पानी का सदुपयोग अपनी किसी भी रियासत में जन कल्याण हेतु कर सकती है। इस मन्तव्य का समर्थन पंजाब के वित्त-आयुक्त सर लिविस टूपर (Liwis Tuper) ने भी किया।
किन्तु थार में पानी लाने की समस्या का हल सहज में ही सम्भव नहीं था। जैसे ही भारत सरकार (ब्रिटिश) ने बीकानेर को सतलज नदी से पानी देने का प्रस्ताव मंजूर किया तो भावलपुर रियासत (वर्तमान में पाकिस्तान में है) ने रियासत पंजाब की भाँति ही विरोध किया कि बीकानेर रियासत का सिंधु नदी प्रवाह पर कोई अधिकार नहीं है। और इस विरोध में पंजाब ने भी भावलपुर का समर्थन किया। पंजाब एवं भावलपुर के निरंतर विरोध के बाद भी बीकानेर रियासत को सफलता मिली और 1918 में सतलज नदी से पानी की स्वीकृति मिल गई।
भारत सरकार (ब्रिटिश) का आदेश था कि “जनहित में सिंधु नदी प्रवाह के पानी को अन्य क्षेत्रों में प्रयुक्त किया जाये और केवल इस आधार पर इसे न रोका जाये कि बीकानेर रियासत का नदी प्रवाह पर अधिकार नहीं है इसलिए उसे पानी नहीं मिलना चाहिए। पानी के सदुपयोग में भारत सरकार एवं देशी रियासतों की सीमा बीच में नहीं आनी चहिए।“ इस आदेश ने सदियों से प्यासे थार मरूस्थल में पानी के आगमन हेतु रास्ता खोल दिया और 1927 में सतलज का पानी 130 किलोमीटर लम्बी गंगानहर द्वारा बीकानेर रियासत की 3.5 लाख एकड़ भूमि में सिंचाई प्रदान करने हेतु लाया गया। किन्तु बीकानेर के महाराजा गंगासिंह जी उपर्युक्त पानी-प्राप्ति से ही संतुष्ट नहीं हुए। गंगा नहर के आगमन से उनका हौसला विशेष रूप से बढ़ गया और वे निरन्तर थार मरुस्थल में सिंधु नदी जल प्रवाह से अधिक से अधिक पानी लाने के लिए प्रयत्नशील रहे।
1938 में प्रस्तावित भाखड़ा-नांगल-योजना के पानी में भी वे अपने राज्य का हिस्सा निर्धारण कराने में सफल हुए। उन्होंने पंजाब सरकार से लिखित में यह आश्वासन प्राप्त कर लिया था कि भाखड़ा-नांगल जल परियोजना में उनके राज्य का भी हिस्सा होगा। इस समझौते के माध्यम से बीकानेर रियासत ने “सिंधु नदी जल-प्रवाह” पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया जो भावी जल समझौतों का आधार बन गया।
सिंधु नदी जल विवाद
सन् 1947 की स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत-पाक विभाजन हुआ जिसके कारण सिंधु नदी जल प्रयोग में फिर से समस्या का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व तो इस नदी तंत्र के पानी पर पूर्ण अधिकार भारत सरकार (ब्रिटिश) का था, जिसने विभिन्न रियासतों में उत्पन्न होने वाले जल विवादों को अपने सर्वोच्च अधिकार के माध्यम से हल कर दिया था किन्तु अब भारत समान रूप से दो सम्प्रभु राज्यों में बंट गया था जिसकी मध्यस्थता करने वाला कोई उच्चाधिकारी नहीं रह गया था।
सिंधु-नदी-तंत्र विश्व का सबसे बड़ा जल प्रवाह माना जाता है। जिसमें पांच नदियों झेलम, चिनाब, रावी, व्यास एव सतलज सम्मिलित हैं। इस नदी तंत्र का औसत वार्षिक-जल-प्रवाह 170 मिलियन एकड़ फीट है। विभाजन के समय इस सम्पूर्ण जल में से 83 मिलियन एकड़ फीट भारत की नहरों में तथा 64.4 मिलियन एकड़ फीट पाकिस्तान की नहरों में प्रयुक्त होता था, जिससे भारत में केवल 5 मिलियन एकड़ भूमि पर एवं पाकिस्तान में 21 मिलियन एकड़ भूमि पर सिंचाई की जाती थी। जबकि विरोधाभास यह था कि इन नदियों के सभी नियंत्रण हैडवर्क्स भारत में स्थित थे जिससे पाकिस्तान को हमेशा यह भय था कि भारत कभी भी सिंधु-नदी-प्रवाह से पाकिस्तान को पानी देने से मना कर सकता है। इस संदर्भ में पश्चिमी पंजाब एवं पूर्वी पंजाब में कई बार समस्या आ चुकी थी। एक अप्रैल, 1948 को यह जल विवाद उस समय भयंकर रूप से उठ खड़ा हुआ जब पूर्वी पंजाब ने “बड़ी-अपर-नहर-प्रणाली” (Bold canal system) को पानी देने से मना कर दिया। इस विवाद को हल करने के लिए भारत-पाक के विभिन्न समझौते भी नाकामयाब रहे और पाकिस्तान ने भविष्य में भारत द्वारा पानी रोके जाने के भय से सशंकित होकर सतलज नदी के दाहिनी ओर नई नहर खोदनेका कार्य शुरू कर दिया जिससे कि भारत के फीरोजपुर हैडवर्क्स को नजर अन्दाज करके सतलज नदी से धौलपुर नहर के लिए सीधे ही पानी प्राप्त किया जा सके। किन्तु इन नहर का कार्य शुरू करते ही पूर्वी पंजाब द्वारा विरोध किया जाना स्वाभाविक था क्योंकि इस नहर से फिरोजपुर हैडवर्क्स की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया था। इसके विरोध में भारत ने सतलज नदी को उत्तर की ओर से ही प्रतिबंधित करने की योजना बनाई जिससे कि सतलज नदी का पाकिस्तान से प्रवेश समाप्त हो जाय। यह समस्या कश्मीर के मुद्दे के साथ भयंकर होती जा रही थी अतः युद्ध की संभावनाएं बनती रहीं।
इंदिरा गांधी नहर का जन्म
भारत एवं पाकिस्तान के मध्य सिंधु नदी जल-वितरण को लेकर उपर्युक्त विवाद यथावत बना हुआ था। इसी दौरान महाराजा सार्दूलसिंह जी ने सन् 1946 में पंजाब से एक मेघावी इंजिनियर सर रायबहादुर कंवर सेन को अपने यहां पर प्रति-नियुक्ति पर बुला लिया। उसने लम्बे प्रयासों व सतत अभ्यास से थार के मरुस्थल में इंदिरा गांधी नहर के द्वारा पानी लाने की एक सुनियोजित योजना तैयार की। पंजाब से प्रतिनियुक्ति पर आये बीकानेर राज्य के मुख्य सिंचाई अभियंता श्री कवंरसेन जी ने दीर्घकालीन कठोर परिश्रम के उपरान्त 1948 में एक प्रतिवेदन तैयार किया। तत्कालीन बीकानेर राज्य ने भारत सरकार से आग्रह किया कि इस प्रतिवेदन पर भारत सरकार तत्कालीन पूर्वी पंजाब, बीकानेर व जैसलमेर राज्यों की संयुक्त बैठक में विचार करे। प्रतिवेदन के अनुसार सतलज एवं व्यास संगम के नीचे हरिके बैराज बनाकर वहाँ से 204 किलोमीटर लम्बी फीडर नहर के माध्यम से नौरंगदेसर के पास इंदिरा गांधी नहर को पानी दिये जाने का प्रावधान था जिसके माध्यम से श्री गंगानहर द्वारा बीकानेर एवं जैसलमेर जिलों के भागों में 7 मिलियन एकड़ भूमि पर सिंचाई हो सके।
भारत सरकार ने उपर्युक्त प्रस्ताव पर कोई विचार नहीं किया। उसे टेबिल की दराज में डाल दिया गया, किन्तु जब पाकिस्तान फिरोजपुर के ऊपर नई चैनल खोदने की तैयारी कर रहा था तो भारत सरकार ने चिन्तित होकर सतलज-व्यास के पानी को अपने ही देश के उपभोग करने की योजना बनायी तथा “हरिके बैराज” का कार्य अपने हाथों में लेते हुए राजस्थान सरकार को कहा कि वह थार रेगिस्तान का सर्वेक्षण करा ले ताकि “हरिके बैराज” से उसे पानी उपलब्ध कराया जा सके। केन्द्रीय सरकार द्वारा अत्यधिक जल्दी मे लिए गये इस निर्णय को राजस्थान सरकार समझ नहीं पाई अतः उसने इस कार्य के प्रति अपनी विशेष रुचि नहीं दिखाई। इसमें राज्य के पास आर्थिक अभाव भी एक महत्वपूर्ण कारण था क्योंकि राजस्थान सरकार के पास इतना धन नहीं था कि वह इस प्रदेश का सर्वेक्षण कार्य करा सके। फिर भी केन्द्रीय-जल-बिजली-आयोग ने यह सर्वेक्षण 1951 में किया। इसी दौरान 1952 में 15000 क्यूसिक पानी क्षमता वाला हरिके बैराज बनकर तैयार हो गया था। जिसमें इंदिरा गांधी “हैड रेग्यूलेटर” की व्यवस्था भी की गई थी।
विश्व बैंक का प्रस्ताव
भारत जैसे ही एक तरफ “हरिके बैराज” का निर्माण करा रहा था दूसरी ओर पाकिस्तान का आक्रोश तीव्र गति से चरम सीमा को छूने जा रहा था। लगता था कि भारत-पाक-युद्ध कश्मीर-प्रश्न के साथ कभी भी प्रस्फुटित हो सकता है। इसी दौरान 4 अगस्त, 1951 को टेनैसी-घाटी-प्राधिकरण, अमेरिका के अध्यक्ष (T.V.A. Chairman) का एक लेख “कोलियरस” में प्रकाशित हुआ। इसमें सुझाव दिया गया था कि दोनों देशों में तनाव समाप्त करने हेतु विश्व बैंक की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। विश्व बैंक ने अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए इन दोनों देशों को समझौते तथा वार्ता के लिए आमंत्रित किया। समझौते के लिए वार्ता लम्बे अर्से तक चलती रही और इस समझौते पर करांची में 19 सितम्बर, 1960 को दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हुए जिसमें इंदिरा-गाधी-नहर द्वारा सिंधु नदी जल प्रवाह के अतिरिक्त पानी को थार मरुस्थल के लिए प्रदान किया जाना तय हुआ। क्योंकि विश्व बैंक टीम का यह मानना था कि भारत की अर्थव्यवस्था के पिछड़े होने का एक महत्वपूर्ण कारण थार मरुस्थल है, उसे अतिरिक्त जल दिया जाना चाहिए जबकि पाकिस्तान को अतिरिक्त पानी की आवश्यकता नहीं है।
अन्तर्राज्यीय जल समझौता
एक तरफ विश्व बैंक की मध्यस्थता से भारत पाक के मध्य अन्तरराष्ट्रीय जल समझौता चल रहा था। दूसरी ओर भारत अपनी तीन नदियों (जो विभाजन के समय भारत को मिली थीं) के जल का उपयोग अपने ही देश में करने की योजनायें तैयार कर रहा था। क्योंकि अभी तक भारत अपनी नदियों के पानी का सदुपयोग अपने ही देश में करने में सक्षम नहीं हो पा रहा था और इन नदियों का पानी व्यर्थ में पाकिस्तान की ओर बहता रहता था। इन नदियों में सतलज नदी के जल को सरहिंद-नांगल-परियोजना हेतु सुरक्षित रखा गया। अन्य दो नदियों के पानी का बंटवारा पंजाब, जम्मु कश्मीर, पेप्सू (PEPSU) एवं राजस्थान के मध्य किया गया। भारत-पाक विभाजन के समय सिंधु-नदी-प्रवाह तंत्र से भारत को 15.85 पानी मिलना तय हुआ था जिसक बंटवारा उपर्युक्त तीनों राज्यों में किया जाना था। इस अन्तर्राज्यीय जल बंटवारे में राजस्थान के हिस्से में 8 मिलियन एकड़ फीट पानी आया जो 1921-22 तथा 1945-46 में प्रवाह-क्षमता के अनुसार जल-उपयोग की मात्रा पर निर्भर था किन्तु 1921-70 में नदी-प्रवाह-क्षमता के आधार पर जल-उपयोग की मात्रा भारत के पास 17.77 मिलियन एकड़ फीट हो गई। 31 दिसम्बर, 1981 के समझौते के आधार पर भारत के विभिन्न राज्यों को इसमें से मिलने वाले जल की हिस्सा राशि निम्न प्रकार से हैः-
1. | पंजाब | 4.22 मिलियन एकड़ फीट |
2. | हरियाणा | 3.50 मिलियन एकड़ फीट |
3. | राजस्थान | 8.60 मिलियन एकड़ फीट |
4. | दिल्ली को पेयजल | 0.20 मिलियन एकड़ फीट |
5. | जम्मू-कश्मीर | 0.65 मिलियन एकड़ फीट |
राजस्थान अपनी उपर्युक्त हिस्सा राशि के 8.60 मिलियन एकड़ फीट जल में से 7.59 मिलियन एकड़ फीट पानी इंदिरागांधी नहर के लिए .54 मिलियन एकड़ फीट पानी गंग-भाखड़ा नहर के लिए तथा 0.49 मिलियन एकड़ फीट पानी नवनिर्मित सिद्धमुख-परियोजना के लिए उपयोग में लेगा।
इंदिरा गांधी नहर का उद्घाटन
सन् 1955 में अन्तर्राज्यीय जल समझौते से राजस्थान सरकार के आश्वस्त होने के उपरान्त इंदिरा-नहर-निर्माण के लिए योजना-आयोग को प्रस्ताव भेजा गाय, जिस पर शीघ्र ही स्वीकृति मिल गई और परियोजना के निर्माण कार्य का शुभारम्भ 31 मार्च, 1958 को स्व. भाई श्री गोविन्द बल्लभ पंत के कर कमलों से हुआ। अक्टूबर 1961 में नौरंगदेसर के पास राजस्थान फीडर से सिंचाई चालू हो गई। इस जलोद्घाटन का कार्य माननीय डा. राधाकृष्णन के कर कमलों द्वारा किया गया और इसी वर्ष नहर-निर्माण-कार्य को व्यवस्थित ढंग से सम्पन्न करने हेतु एक स्वतंत्र निकाय “इंदिरा-गांधी-नहर-मंडल” का गठन किया गया जिसके सर्वप्रथम अध्यक्ष श्री रायबहादुर कंवर सेन नियुक्त हुए।
नहर के क्षेत्र में विस्तार
सिंधु नदी जल समझौते के उपरान्त इंदिरा-गांधी-नहर-मंडल शीघ्र ही इस निर्णय पर पहुंचा, कि इंदिरा गाँधी नहर क्षेत्र का विस्तार और किया जा सकता है क्योंकि समझौते के अनुसार सिंध की तीनों पूर्वी नदियों के जल का उपभोग राजस्थान को थार मरुस्थल के विकास हेतु प्रदान किया गया था। साथ ही यह भी तय कर दिया था कि जब तक (10-13 वर्षों) राजस्थान अपने क्षेत्र में पानी पानी उपभोग की सुविधा विकसित न करे तब तक अतिरिक्त पानी का उपभोग पाकिस्तान करता रहेगा और इसी अन्तराल में वह अपने अन्य जल स्रोतों को विकसित कर लेगा। इस समझौते के आधार पर राजस्थान को रबी 1973 में अपने हिस्से का पूर्ण जल मिल जाना चाहिए और तब तक नहर-निर्माण-कार्य किया जाना अत्यावश्यक था। किन्तु राजस्थान के सामने नहर निर्माण के साथ-साथ इस वीरान क्षेत्र में लोगों को बसाने का भी प्रश्न था। अन्यथा पानी आ जाने पर उसका उपभोग करने वाला इस क्षेत्र में कौन होता। यह बसाहट कार्य तब ही संभव था जब कि पहले रावी से प्राप्त होने वाले अतिरिक्त पानी का उपयोग करने के लिए राजस्थान के पास कोई दूसरा बाँध उपलब्ध हो। क्योंकि इंदिरा नहर क्षेत्र में पानी की कोई दूसरी व्यवस्था नहीं है। अगर गर्मियों के लिए पानी सुरक्षित नहीं किया जाता तो इस क्षेत्र में पीने के पानी की भयंकर किल्लत आ सकती थी। इस समस्या के समाधान के बिना यहाँ बसाहट कार्य किया जाना भी असंभव था। उपर्युक्त समस्या के समाधान के लिए राज्य सरकार ने योजना आयोग को प्रस्ताव भेजा जिसकी स्वीकृति शीघ्र ही मिल गयी और 1961 से “पौंग बाँध” के निर्माण का कार्य शुरू हो गया। पौंग बाँध क्षेत्र के विस्थापित लोगों को इन्दिरा गाँधी नहर क्षेत्र में भूमि आवंटित कर बसा दिया गया है।
इन्दिरा गाँधी नहर को प्राप्त होने वाले औसत वार्षिक जल की 7.2 मिलियन एकड़ फीट मात्रा 22 लाख हेक्टेयर भूमि के सिंचाई हेतु पर्याप्त रहेगी। सम्पूर्ण मुख्य नहर एवं शाखा-प्रशाखाओं को पक्का कर दिया जाये तो सिंचाई क्षेत्र बढ़ सकता है इस उद्देश्य से इन्दिरा गाँधी नहर मंडल ने 1963 में केवल इन्दिरा गाँधी नहर फीडर एवं मुख्य नहर को पक्का करने की योजना बनायी, जिससे कि 7.2 मिलियन एकड़ फीट पानी की मात्रा के स्थान पर 7.6 मिलियन एकड़ फीट पानी का सदुपयोग किया जा सके। पूर्व प्रस्तावित योजना के इस फेर-बदल के कारण सन् 1970 में नहर निर्माण में कुल लागत 66.40 करोड़ से बढ़ कर 208 करोड़ रुपये तक पहुंच गयी और 1977 में यह खर्च 396 करोड़ रुपये हो गया। नहर निर्माण में देरी के कारण भी यह खर्च निरन्तर बढ़ता गया।
आदरणीया लक्ष्मी शुक्ला राजस्थान विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग की सह-प्रवक्ता हैं।
प्रस्तुत लेख पर मरुधरा अकादमी का कॉपीराइट है।
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