शलजम (Turnip, Brassica rapa)

Submitted by Hindi on Fri, 08/26/2011 - 14:18
शलजम (Turnip, Brassica rapa) क्रुसीफेरी (देखें क्रुसीफेरी) कुल का पौधा है। कोई इसे रूस का और कोई इसे उतरी यूरोप का देशज मानते हैं। आज यह पृथ्वी के प्राय: समस्त भागों में उगाया जाता है। इसकी जड़ मोटी होती है, जिसको पकाकर खाते हैं और पत्तियाँ भी शाक के रूप में खाई जाती हैं। पशुओं के लिए यह एक बहुमूल्य चारा है। कुछ स्थानों में मनुष्यों के खाने के लिए, कुछ पशुओं को खिलाने के लिए और कुछ स्थानों में इन दोनों कामों के लिए यह उगाया जाता है। इसमें ठोस पदार्थ 9 से 12 प्रतिशत और कुछ विटामिन, विशेषत: 'बी' और 'सी' रहते हैं। यह शीतकालीन पौधा है। अधिक गरमी यह सहन नहीं कर सकता। पौधे लगभग 18 इंच ऊँचे और फलियाँ एक से डेढ़ इंच लंबी होती हैं। इसके फूल पीले, या पांडु, या हलके नारंगी रंग के होते हैं। शलजम का वर्गीकरण इसकी जड़ के आकार पर, अथवा जड़ के ऊपरी भाग के रंग पर, किया गया है। कुछ जड़ें लंबी, कुछ गोलाकार, कुछ चिपटी और कुछ प्याले के आकार की होती हैं। कुछ किस्म के शलजम के गुद्दे सफेद और कुछ के पीले होते हैं। भारत में उपर्युक्त सब ही प्रकार के शलजम उगाए जाते हैं।

शलजम बोने के लिए खेतों की जुताई गहरी और अच्छी होनी चाहिए। अच्छी सड़ी गोबर की खाद प्रति एकड़ 10-15 टन और नाइट्रोजन, फ़ॉस्फ़ोरस और पोटैश वाला उर्वरक 860 पाउंड डालने से पैदावार अच्छी होती है। इसका बीज छिटकावा, या ड्रिल द्वारा, कतार में बोया जाता है। ए एकड़ के लिए छह से आठ पाउंड तक बीज की आवश्यकता पड़ती है। आधे इंच की गहराई पर बीज बोया जाता है। यदि मिट्टी कड़ी या मटियार हो, तो मेंड़ों पर भी बीज बोया जा सकता है। बीज शीघ्र ही जम जाता है। जम जाने पर पौधों को विरलित करने की आवश्यकता पड़ती है, ताकि वे चार से छह इंच की दूरी पर ही रहें। पौधे शीघ्र ही बढ़ते हैं। लंबे समय तक अच्छी नरम जड़ की प्राप्ति के लिए, एक साथ समस्त खेत को न बोकर 10-15 दिन के अंतर पर बोना अच्छा होता है। आषाढ़ सावन में बीज बोया जाता है। दूसरी बार फरवरी से जून के आरंभ तक बोया जाता है। बरसात में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती, पर अन्य मौसिम में प्रत्येक 8.10 दिनों में सिंचाई आवश्यक होती है। ठंढे देशों में गरमी में भी इसकी बोआई होती है। भारत में पैदावार प्रति एकड़ सामान्यत: 200 मन होती है, पर पूरी खाद और उर्वरकों की सहायता से सरलता से, ड्योढी और दुगुनी की जा सकती है। पौधों में कुछ कवक (तना गलना आदि) और कुछ कीड़े (घुन, पिस्सू, गुबरेले, सूँडी आदि) भी लगते है, जिनसे बचाव का उपाय करना आवश्यक होता है। (यशवंत राव मेहता)

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